विनायक सेन को हुई आजीवन कारावास की सजा के बाद बहुतेरे लोग आश्चर्यों में जी रहे हैं.ओह-आह करते हुए-सदमा तो है मुझे भी,का राग लिए जो लोग इस घटना को अनोखा मान रहे हैं,उनके लिए यह बेहद जरूरी लेख है.हो सकता है लेख छपने के बाद लेखक -प्रकाशक पर अदालत की मानहानि का कोई मामला बने.हो सकता है सदमें वालों में से ही कुछ कहें कि सच बयान यों तो नहीं किया जाता लोकतंत्र में. लेकिन अगर यह लेख नहीं प्रकाशित किया गया तो जनता की मानहानि होगी और कल को वो पूछेगी लल्ला, तुने किसकी रोटी खायी - मोडरेटर
हिमांशु कुमार
हमारे देश में कोई व्यक्ति किसी जज के फैसले या आचरण के खिलाफ यदि अपनी जुबान खोलता है तो है तो उसको न्यायालय की अवमानना के जुर्म में सज़ा हो सकती है.किसी भी समाज में तभी तक शांति रह सकती है, जब तक सब यह महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय नहीं हो रहा है.यदि अन्याय होगा तो न्याय के लिए आवाज़ उठाने पर उसकी सुनवाई होगी, लेकिन जब समाज में ये व्यवस्था टूटने लगती है तो समाज भी टूटने लगता है, क्योंकि उसके बाद न्याय के लिए लोग फिर अपने तरीकों से लड़ने लगते हैं.
आज़ादी के बाद हमारा विश्वास राजनेताओं पर से समाप्त हो गया.नौकरशाही विकास के काम करने में न सिर्फ नकारा साबित हुयी, बल्कि विकास में बाधक भी साबित हो गयी. धर्म का खोखलापन पहले ही उजागर हो गया था. ऐसे में इस देश के सामने आज़ादी के बाद आम आदमी के लिए तय किये गए रोटी,बराबरी और इज्ज़त के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई भी सहारा नहीं बचा.
हमारे देश में अभी तक किसी भी तकलीफ के निवारण के लिए अदालतों पर आखिरी भरोसा बचा है, गाँव के गरीब आदमी से लेकर बड़े सामाजिक कार्यकर्ता तक किसी समस्या के समाधान के लिए नेता या अधिकारी के पास न जाकर अदालत में गुहार लगाते हैं. लेकिन चिंता का विषय यह है कि अब अदालतें भी बाकी लोकतान्त्रिक संस्थाओं की तरह अपनी विश्वसनीयता खो रही हैं. अदालतों की इस हालत से चिंतित होकर जब कोई व्यक्ति या संस्था समाज का ध्यान इस ओर खींचना चाहता है तो उसे इन अदालतों में बैठे हुए समस्त मानवीय कमजोरियों से भरे हुए लोग न्यायालय की अवमानना की सज़ा का खौफ दिखाकर खामोश कर देते हैं.
मेरा कई वर्षों तक अदालतों से नज़दीकी सम्बन्ध रहा है,पाँच वर्ष तक उपभोक्ता फोरम का सदस्य रहा,तीन वर्ष लोक अदालत की सीनियर बेंच का मेम्बर रहा और चार वर्ष विधिक सेवा प्राधिकरण का सदस्य रहा.इस दौरान जजों के मानसिक स्तर, सोच और चारित्रिक स्तर के बारे में अच्छे से जानने का मौक़ा मिला.
सारी बातें तो खोलकर नहीं बताऊंगा, क्योंकि अश्लील लेखन से बचना चाहता हूँ. लेकिन मैं देखता था कि जज लोग छोटी छोटी बातों जैसे घर जाते समय बस में बिना किराया दिए मुफ्त में सफ़र करने के लिए थानेदार को फोन करते थे.थानेदार जज साहब को सपरिवार बस में मुफ्त ले जाने के लिए बस के कंडेक्टर को धमकाने के लिए सिपाही भेजता था. ऐसे में उसी थानेदार के खिलाफ उसी जज की अदालत में कोई कैसे न्याय पाने की उम्मीद कर सकता है.
जब हमारी संस्था की मदद से 'सलवा जुडूम' से उजाड़े गए लिंगागिरी और बासागुडा गाँव को दुबारा बसाया जा रहा था, और आदिवासी आंध्र प्रदेश और जंगलों में अपने छिपे हुए स्थानों से बाहर आकर अपने उजड़े हुए गावों में जला दिए गये घरों को दुबारा बना रहे थे तो उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था.हमारा आदिवासी साथी कोपा और उसकी टीम संस्था की बस में दाल, चावल, तेल, मसाले, आलू, प्याज आदि भरकर उन भूखे ग्रामीणों के लिए दंतेवाडा से बासागुडा जा रहे थे (हालाँकि उन गाँव वालों को राहत पहुंचाना सरकार का काम था जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश मिला हुआ था) तो 'सलवा जुडूम' और उनकी माई-बाप पुलिस ने इस दाल-चावल से भरी गाडी को रोक लिया और कहा कि इस राशन का बिल दिखाओ तब गाडी को आगे जाने देंगे.
कोपा ने कहा कि 'हम ये सामग्री मुफ्त में बांटने के लिए ले जा रहे हैं,हम गाँववालों को इसका बिल थोड़े ही देंगे. बिल हमारी संस्था के आफिस में है, आप ठहरिये मैं बिल भी लाकर दिखा देता हूँ.' लेकिन पुलिस तो गाँव के दुबारा बसने को ही रोकना चाहती थी, इसलिए फटाफट पूरे राशन को गाडी समेत ज़ब्त कर थाने में ले गए.उधर गाँव में बच्चे, औरतें, बूढ़े भूखे थे. मैं बिल लेकर थाने पहुँचा. थानेदार ने कहा अब राशन और गाडी अदालत से छूटेगी.
हम अदालत गए. जज साहब शराब पीकर अपने न्याय के आसन पर विराजमान थे. थानेदार साहब हमारे ही सामने बिना हिचक के डायस पर पहुँच गए और जज के कान में फुसफुसाने लगे तो जज ने चिल्लाकर थानेदार से कहा, 'हाँ, हाँ में इन लोगों को अच्छी तरह जानता हूँ. ये सब नक्सलवादी हैं. तुम चिंता मत करो.'
इसके बाद हम अपना वकील तलाश करने बार रूम में आ गए. हमारे साथ पूना से आयी हुयी एक महिला पत्रकार भी थी. जज साहब हमारे पीछे-पीछे अपने आसन से उठकर बार रूम में आ गए. सारे वकील जज साहब को देखकर खड़े हो गए. जज साहब एक कुर्सी पर बैठ गए और उस महिला पत्रकार को अपने साथ बैठने के लिए कहा. महिला पत्रकार पास में एक कुर्सी पर बैठ गयी.
जज साहब ने अपनी जींस (जी हाँ जींस) में से पव्वा निकाला, दो घूँट मारे और इजहारे मुहब्बत करने लगे कि 'मेरी बीबी एकदम गंवार है. मैं यहाँ अकेला रहता हूँ. तुम मेरे घर चलो.' महिला पत्रकार भी बहुत होशियार थी उसने कहा, 'सर, मैंने आप जैसा इंसान नहीं देखा. ये राशन की गाडी छोड़ दीजिये.' जज साहब ने तुरंत गाडी छोड़ने के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए और वो महिला पत्रकार फिर मिलने का वादा करके राशन लेकर कोपा के साथ तुरंत गाँववालों के पास पहुँच गयी.
कुछ और वाकये छत्तीसगढ़ में आजकल की न्यायिक व्यवस्था की स्थिति पर हैं.हालाँकि हम सब ये जानते हैं कि जजों के माईनिंग कम्पनियों में शेयर के किस्से बहुत आम हैं. माईनिंग कंपनियों के मालिक जजों को अनेक तरीकों से प्रभावित या दुष्प्रभावित कर सकते हैं. दंतेवाड़ा में आदिवासियों का कत्लेआम माईनिंग कंपनियों के लिए ही किया जा रहा है इसलिए जजों का रवैया आदिवासियों के खिलाफ ही रहा है.
कुछ और उदाहरण देना चाहूंगा. दंतेवाड़ा जिले में एक गाँव नेन्द्रा है, इस गाँव को पुलिस और सलवा जुडूम ने तीन बार जलाया था.इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम आदिवासियों की शिकायतें सुनने दंतेवाडा गयी तो नेन्द्रा गाँव के लोग भी अपनी आपबीती सुनाने आये. उन्हें आज तक न्याय तो नहीं मिला, अलबत्ता 10 जून 2008 को ग्रामीणों ने अपना बयान दर्ज कराया और 16 जून 2008 यानी छः दिन बाद ही उनका गाँव पुलिस ने चौथी बार फिर जला दिया.
इसके बाद हमारी संस्था इस गाँव में डट गयी. एक मानव कवच का निर्माण किया गया, जिसमें 22 आदिवासी युवक-युवतियां शामिल थे. डेढ़ साल तक सब लोग वहां रहे. उस इलाके के गाँववालों को बाज़ार नहीं जाने दिया जाता था. लोग भूख से मर रहे थे. औरतों के पास कपडे नहीं बचे थी और वो चीथड़ों से अपना तन ढकने के लिए मजबूर थीं. इसलिए ये मानव कवच के सदस्य गाँववालों को लेकर बाज़ार जाते थे.
तीन साल से ग्रामीण खेती नहीं कर पा रहे थे,क्योंकि पुलिस आकर फसल जला देती थी.संस्था के मानव कवच वालों ने गाँववालों के साथ-साथ खेती फिर से शुरू की. उस गाँव से पिछले आठ महीने से चार लड़कियां गायब थीं, जिसमें से 'सलवा जुडूम'कैंप के नेताओं के घर पर बंधक बनाकर रखी गयी दो लड़कियों को तो हमारे कार्यकर्ता छुपकर मुक्त करा लाये और उनके परिजनों को सौंप दिया (मेरे पास दोनों के फोटो मौजूद हैं.मैं किस्से नहीं सुना रहा हूँ ), लेकिन जिन दो लडकियों को पुलिसवाले ले गए थे उनका कुछ पता नहीं चल रहा था. उनमें से एक लडकी के पिता को भी उसके साथ ले जाकर पुलिस ने पिता की ह्त्या कर दी थी.
गायब लड़कियों के परिजन उनकी तलाश करने की प्रार्थना कर रहे थे.हमने उनके भाइयों की प्रार्थना पत्र एसपी को भेजे, मगर एसपी ने नौ माह तक कोई कार्यवाही नहीं की.अंत में हाईकोर्ट में हेबियस कार्पस दायर की गयी. नियमतः हेबियस कार्पस पर उसी दिन सुनवाई करके पुलिस को नोटिस दिया जाना चाहिए था, लेकिन छह महीने बाद जज ने लडकी के भाई के वकील को फटकारा कि इसने अपनी बहन के गुम होने की शिकायत इतनी देर से क्यों की? वकील ने जज को बताया कि 'इसकी बहन का पुलिस ने ही अपहरण किया है और ये तो अपनी जान बचाकर जंगल में छुपा हुआ था.अपहरणकर्ता लोग तो थाने के मालिक बनकर बैठे हुए है,ये डरा हुआ लड़का थाने कैसे जाता? अगर इस संस्था ने इसकी मदद न की होती तो ये मामला तो कभी भी कोर्ट तक भी नहीं पहुँचता. असली क़ानून तो एसपी ने तोडा है, जिसने शिकायत मिलने के बाद भी नौ महीने तक कोई कार्यवाही नहीं की.'
इतना सब सुनने के बाद जज साहब ने उस एसपी के खिलाफ कोई टिप्पणी तक नहीं की.जज ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई आदमी थाने में जाने से डरे.लडकी के भाई के वकील ने बताया 'साहब दंतेवाड़ा में तो वकीलों को थाने में जाने पर थानेदार पीट देते हैं.उदाहरण के लिए ये देखिये अलबन टोप्पो वकील साहब आपके सामने खड़े हैं.इनको कोपा कुंजाम के साथ थाने जाने के अपने कानूनी अधिकार का इस्तेमाल करने पर एसपी के निर्देश पर रात भर थानेदार ने थाने में बंद करके पीटा है. आप करेंगे कार्यवाही?
इस पर जज साहब चुप रहे.एक सप्ताह बाद पुलिस लडकी के भाई को उठाकर लाई.जान से मारने की धमकी के बाद उसे उसी जज के सामने पेश किया. गायब लड़की के भाई के वकील ने जज को बताया कि इसे पुलिस उठाकर लाई है.आप इसे कम से कम 48घंटे के लिए पुलिस से अलग कर दें .और फिर बयान दर्ज करें.लेकिन जज ने तुरंत बयान दर्ज करने का आदेश दिया.लड़की के भाई ने पुलिस के दबाव में बयान दिया कि 'मेरी बहन का अपहरण हुआ ये सच है. मेरे बाप की ह्त्या हुई ये भी सच है, लेकिन वो पुलिस ने नहीं की. किसने की मैं नहीं जानता. ' और जज ने तुरंत मामला खारिज कर दिया.
उसके भाई का फोन मेरे पास आया तो मैंने उससे पूछा कि ऐसा बयान क्यों दिया? उसने बताया, 'एक बहन बची है, बूढ़ी मां है. मुझे भी मार देते तो उन्हें कौन पालता? इसलिए उन्होंने जो सिखाया मैंने बोल दिया.'
दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उनसे vcadantewada@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
पत्रकार हुए बगैर आपने ये लेख लिखकर बहुत अच्छा किया. पत्रकार बंकर पता नहीं यह कर पाते या नहीं. बहुत ही अच्छा और दिल को छू देने वाला लेख. आपके हौसले को छुने को दिल चाहता है.
ReplyDeleteयह आँख खोलने वाली नहीं बल्कि आँखों को शर्म से झुका देने वाली कहानी है, शर्म आती है उस व्यवस्था पर जिसमें हम रहते हैं.क्या यही है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र? अब समझ में नहीं आता कि लोग उम्मीद किससे करें...ऐेसे में जब सरकारें नीरा राडिया बनवाती हैं, संपादकीय नारी राडिया लिखवाती हैं, अदालतों में फैसले वेदांता और पास्को जैसी कंपनियां करवाती हैं, सीबीआई और पुलिस की जांच को दिशा देने का काम कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियाँ करती हैं.और अधिकारी नेताओं के आगे जी हां..जी हां करना ही अपना कर्तव्य मानते हैं.ऐसे में बिनायक सेन आप खैर मनाइए कि आपको इस सरकार ने गोली नहीं मारी..नहीं तो अब तक तो आपका...हो गया होता. क्योंकि आपका अपराध तो बहुत बड़ा है. आपने ग़रीबों की सेवा करने का काम किया है.
ReplyDeleteयह बहुरुपिया है जो बस्तर में नक्सली एंजेट के रूप में काम कर रहा था । इस पर विश्वास करेंगे तो मर जायेंगे..
ReplyDeleteअबे बहुरुपिया तू बहुत बड़ा लग रहा hai. हिमांशु तो जैसे भी हैं अपनी बात दावे से कह रहे हैं मगर तू तो भैये अपना नाम भी नहीं लिखता फिर तेरा क्या भरोसा. रही बात बहुरूपिये की तो उसकी फिकर तू न ही कर मेरे भाई, जाकर कल्लूरी की जयकार कर.
ReplyDeleteपावर या ओहदा की शक्ति एक ऐसी चीज़ है जिसको पाने के बाद इंसान की इंसानियत की असकी परख होने लगती है.
ReplyDeleteविडम्बना ये है, की जो लोग लड़कपन में जिस सामाजिक अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ बातें किया करते थे, वही युवा जब किसी ओहदे पर विराजता है, तो अक्सर स्वयं भ्रष्ट बन जाता है.
कभी पैसों के लिए, कभी सेक्स और दारु के लिए.
आप सच्चे मन से, भगवान को साक्षी रख कर विचार करिए, यदि हम आप अपने देश के गरीबों, किसानो और आदिवासियों की मदद नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा?
भारत के गाँव और जंगलों में रह रहे करोड़ों लोग वहाँ पर ७०००० साल से भी अधिक समय से रह रहे हैं.
केवल राजनितिक लोगों और पूंजीवादियों को थोड़ा सा तो सोचना चाहिए की जिस धरती को वो लूट रहे हैं उसपर हजारों वर्ष से रह रहे लोगों का भी कोई अधिकार है.
सलवा जुडूम जैसी हिंसक टोलियाँ बना कर, आदिवासियों को आपस में लड़ा कर अपना उल्लू सीधा नहीं किया जा सकता.
ज़ख्मो पर मरहम लगाने का समय है, अपनों को गले लगाने का समय है. इतिहास साक्षी है, आजतक कभी भी हिंसा से अत्याचार से कोई भी मसला हल नहीं हुआ है.
कृप्या मन से द्वेष की भावना निकालिए और एक साथ मिलकर समस्या का सक्षम उपाय सोचिये.
पुलिस, सैनिक, आदिवासी, किसान और देश के हर नागरिक को ख़ुशी से जीने का सामान अधिकार है. सब का परिवार है, किसी पर अत्याचार होता है तो सब को दुःख होता है. किसी जान जाती है तो कोई माँ, कोई बहेन, कोई बीवी, कोई बाप, कोई भाई, कोई सगा सम्बन्धी, ज़रूर रोता है. आखिर कब तक अंग्रेजों द्वारा बनाये गए divide and rule नीति में हम सब बलि देते रहेंगे?
हिमांशु जी मैं अपने और मेरे तरह सोचने वाले सभी इंसानों की तरफ से आपको शत शत नमन करता हूँ.
आप जैसे लोग ही भारत को जीने लायक प्रजातान्त्रिक देश बना सकते हैं.
पावर या ओहदा की शक्ति एक ऐसी चीज़ है जिसको पाने के बाद इंसान की इंसानियत की असकी परख होने लगती है.
ReplyDeleteविडम्बना ये है, की जो लोग लड़कपन में जिस सामाजिक अन्याय और भ्रष्टाचार के खिलाफ बातें किया करते थे, वही युवा जब किसी ओहदे पर विराजता है, तो अक्सर स्वयं भ्रष्ट बन जाता है.
आप सच्चे मन से, विचार करिए, यदि हम आप अपने देश के गरीबों, किसानो और आदिवासियों की मदद नहीं करेंगे, तो और कौन करेगा?
भारत के गाँव और जंगलों में रह रहे करोड़ों लोग वहाँ पर ७०००० साल से भी अधिक समय से रह रहे हैं.
केवल राजनितिक लोगों और पूंजीवादियों को थोड़ा सा तो सोचना चाहिए की जिस धरती को वो लूट रहे हैं उसपर रह रहे लोगों का भी कोई अधिकार है.
सलवा जुडूम जैसी हिंसक टोलियाँ बना कर, आदिवासियों को आपस में लड़ा कर अपना उल्लू सीधा नहीं किया जा सकता.
ज़ख्मो पर मरहम लगाने का समय है, अपनों को गले लगाने का समय है. इतिहास साक्षी है, आजतक कभी भी हिंसा से अत्याचार से कोई भी मसला हल नहीं हुआ है.
कृप्या मन से द्वेष की भावना निकालिए और एक साथ मिलकर समस्या का सक्षम उपाय सोचिये.
पुलिस, सैनिक, आदिवासी, किसान और देश के हर नागरिक को ख़ुशी से जीने का सामान अधिकार है. सब का परिवार है, किसी पर अत्याचार होता है तो सब को दुःख होता है. किसी जान जाती है तो कोई माँ, कोई बहेन, कोई बीवी, कोई बाप, कोई भाई, कोई सगा सम्बन्धी, ज़रूर रोता है. आखिर कब तक अंग्रेजों द्वारा बनाये गए divide and rule नीति में हम सब बलि देते रहेंगे?
हिमांशु जी मैं अपने और मेरे तरह सोचने वाले सभी इंसानों की तरफ से आपको शत शत नमन करता हूँ.
आप जैसे लोग ही भारत को जीने लायक प्रजातान्त्रिक देश बना सकते हैं.
दिल तो टूटा है बारहा लेकिन
ReplyDeleteएक भरोसा था, वो भी टूट गया
किससे शिकवा करें, शिकायत हम
जबकि मुंसिफ ही हमको लूट गया
सच से साक्षात्कार कराने के लिए हिमांशु जी का शुक्रिया...मुकुल सरल
jajon kee gandagi ka ek chota khulasa hai, silsila jari rakhen bahut gandagi dekhigi.
ReplyDeleteyours friend
jemini from uk