अंशु मालवीय
उन्हें पता नहीं
कि वो तुलबा हैं हम
जो मक़तब में आये हैं
सबक सीखकर,
फ़र्क़ बस ये है
कि अलिफ़ के बजाय बे से शुरू किया था हमने
और सबसे पहले लिखा था बग़ावत।
जब हथियार उठाते हैं हम
उन्हें हमसे डर लगता है
जब हथियार नहीं उठाते हम
उन्हें और डर लगता है हमसे
ख़ालिस आदमी उन्हें नंगे खड़े साल के दरख़्त की तरह डराता है
वे फौरन काटना चाहता है उसे।
हमने मान लिया है कि
असीरे इन्सां बहरसूरत
ज़मी पर बहने के लिये है
उन्हें ख़ौफ़ इससे है..... कि हम
जंगलों में बिखरी सूखी पत्तियों पर पड़े
तितलियों के खून का हिसाब मांगने आये हैं।
अंशु मालवीय ने यह कविता विनायक सेन की अन्यायपूर्ण सजा के खिलाफ 27दिसंबर 2010को इलाहाबाद के सिविल लाइन्स,सुभाष चौराहे पर तमाम सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित ‘असहमति दिवस’ पर सुनाई।
बेहद खूबसूरत रचना.
ReplyDeleteफ़र्क़ बस ये है
ReplyDeleteकि अलिफ़ के बजाय बे से शुरू किया था हमने
और सबसे पहले लिखा था बग़ावत।- झकझोरती पंक्तियाँ, bahut badhiya anshu bhai
विनायक सेन को लेकर छपी कविताओं में सबसे जबरदस्त,शाबास मेरे दोस्त.कविता बालकनी से निकल कर चौराहे पर आयी इसके लिए भी आपको बधाई.
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