अकेले दिल्ली में करीब साढ़े तीन लाख महिलाएं कामों से जुड़ी हैं,जो सरकार के इस तकनीकी बहाने की वजह से उत्पीड़न रोकने संबंधी अधिकारों की हकदार नहीं होंगी। दिल्ली के घरों में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं आदिवासी और दलित वर्ग से हैं।
जनज्वार ब्यूरो. काम की जगहों पर लगातार उजागर हो रहे यौन उत्पीड़न के मद्देनजर सरकार ने संसद में महिला सुरक्षा संबंधी बिल पेश किया है। संसद के मौजूदा सत्र में सरकार द्वारा ‘प्रोटेक्शन ऑफ वुमेन अगेंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट ऐट वर्क प्लेस-2010’नाम से पारित इस बिल से उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में महिला उत्पीड़न के मामलों में कमी आयेगी। मगर यह उम्मीद देश की करीब 90लाख महिलाओं के लिए नहीं होगी जो घरों में सफाई कर,खाना बना और मालिकों के बच्चों को पालकर गुजारा करती हैं।
दिल्ली स्थित ‘घरेलू मजदूर फोरम’की दी गयी जानकारी के मुताबिक महिला उत्पीड़न रोकने के जिम्मेदार ‘महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय’और विभागों का मानना है कि घरेलू काम करने वाली महिलाओं के उत्पीड़न का गवाह मिलना मुश्किल होगा,इसलिए इन्हें बिल का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता। मंत्रालय का यह भी तर्क है कि इस तरह के उत्पीड़न के मामले चूंकि घरों और परिवारों के बीच होते हैं जहां अन्य कोई कामगार या सहकर्मी मौजूद नहीं होता,इसलिए ऐसे मामलों की पुष्टि करना मुश्किल होता है।
फोरम के मुताबिक अकेले दिल्ली में करीब साढ़े तीन लाख महिलाएं घरेलू कामों से जुड़ी हैं,जो सरकार के इस तकनीकी बहाने की वजह से उत्पीड़न रोकने संबंधी अधिकारों की हकदार नहीं होंगी। दिल्ली के घरों में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं आदिवासी और दलित वर्ग से हैं।
घर में मजदूरी : कहाँ से मिले इन्हें अधिकार |
गरीबी और भुखमरी से उबरने की चाहत में बिहार, बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, नेपाल और पूर्वोत्तर के राज्यों से दलालों के माध्यम से ये महिलायें महानगरों में पहुंचायी जाती हैं। नगरों-महानगरों में काम करने वाली इन महिलाओं का निरक्षरता, भाषा की दिक्कत, दलित-आदिवासी और गरीब परिवारों से ताल्लुक रखने के कारण जमकर शारीरिक,मानसिक और यौन उत्पीड़न होता है।ऐसे में समाज की सबसे कमजोर वर्ग की इन महिलाओं और लड़कियों को उत्पीड़न के खिलाफ बनाये जा रहे कानून में शामिल न किया जाना हास्यास्पद है।
घरेलू मजदूर फोरम के संयोजक योगेश कुमार की राय में ‘सबसे छुपा हुआ शोषण घरेलू काम कर जीवन-यापन करने वाली महिलाओं का होता है, पर उन्हें बिल में शामिल नहीं किया गया। इसके मैं तीन कारण मानता हूं, पहला उनका दलित-आदिवासी होना,दूसरा कानून बनते ही उन लोगों के नाम उजागर होने का खौफ जो कानून बनाने में भी शामिल हैं और उत्पीड़न भी करते हैं और तीसरी वजह है मुख्यधारा की राजनीति में दलितों,खासकर आदिवासियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व न होना।
सामाजिक कार्यकर्ता एनई राजा कहती हैं,‘सरकार ने निजी,सरकारी और स्वयंसेवी संगठनों के कार्यस्थलों को इस बिल में शामिल किया है तो घरों में काम करने वाली महिलाओं को क्यों नहीं?जाहिर है सरकार की निगाह में उनका यौन उत्पीड़न होता ही नहीं या उनका इस तरह से उत्पीड़न नहीं होता कि उसके लिए कानून बनाया जाये। सरकार की इस बेतुकी सोच के खिलाफ हम लोग प्रधानमंत्री कार्यालय,राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के पदाधिकारियों से हमारा प्रतिनिधि मंडल मिलेगा।’
अब देखना यह है कि सामाजिक संगठनों की पहल के बाद भी काम वाली बाईयों को यौन उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार मिल पाता है या नहीं।
labor welfare dep ko is issue per special act lana chahiye ye ek tarah ki gulami he jo agriculture bandhua mazduro ki tarah hi he.
ReplyDeleteसरकार का मानसिक दिवालियापन भी इस बात से झलकता है और साथ मैं मंशा भी जाहिर होती है.....की इस देश की सरकार दलित आदिवासियों के लिए कितनी फिक्रमंद है.....इतनी बड़ी तादात मैं घेरलू नौकरानियां काम करती है..और यह कोई सबूत देने की बात ही नहीं है की उनका शोषण नहीं होता होगा........वो भले ही मध्यमवर्गीय परिवारों मैं हो या संभ्रांत घरों मैं.......हर जगह उनके यौन शोषण के साथ ही सामाजिक व आर्थिक शोषण की भी संभावनाएं मौजूद हैं..न ही उन्हें उचित पैसा मिलता है और ना ही सम्मान...कामकाजी महिलाओं के लिए कोई क़ानून बनेगा और उन्हें उस श्रेणी से बाहर रखा जाएगा.. ये केसा नियम है.और वह भी केवल इस आधार पर की उनके खिलाफ कोई गवाही देने वाला नहीं होगा.. क्या उसकी खुद की गवाही के कोई मायने नहीं......
ReplyDeleteदलित और आदिवासी महिलाओं के साथ यह अन्याय जाहिर करता है, सामाजिक लड़ाई अभी अधूरी है. दलित और आदिवासी संगठनों इस मामले पर संज्ञान लेना चाहिए.
ReplyDeletesarasar galat hai,aisi mahilaon ka sabse jyada sharirik shoshan hota hai.
ReplyDeleteअगर कानून बन गया तो तमाम बड़े लोग कानून बनाने में शामिल हैं पकडे जायेंगे. एक नौकरानी से किसे बदनाम होना मंजूर होगा. अभी वह केन्या के राजदूत वाला मामला ही लीजिये. अब जो पोल खुलनी शुरू हुई है, सामाजिक संगठनों की वजह से उस पर रोक नहीं लगेगी वैसे में सभी सरकारें कानून बनाने से डरेंगी. अच्छी रिपोर्ट है, बढ़िया लिखा है किसी का इस मामले पर ध्यान भी नहीं जाता.
ReplyDeleteबिल पास कराने की ढफली बजा रहे हैं तो पहले एक बाई रख कर देखिये तब आप सब जैसे समाजसुधारकों को पता चलेगा ये किस नेचर की होती हैं. पूरी लालची होती हैं. अपने लालच को पूरा करने के लिए कोई भी आरोप घर मालिक पर लगा देती हैं. मुझे ऐसी चार बाइयों का रखने का अनुभव है. पहली वाली रखी तो मुझे झगडालू कहकर भाग गयी, दूसरी रखी तो मेरे पति पर छेड़ने का आरोप लगा गयी जिसका हमारे बीच अबतक झगडा होता है. इसलिए मेरी आप सबसे विनती हैं बाइयों के कानून बनवाने से पहले अपने घरों में भाई रख कर देखिये और फैसला करिए.
ReplyDeleteOn behalf of domestic workers and domestic workers rights movement, I would like to say thanks to Mr. Ajay to raise this issue in public domain.
ReplyDeleteWe believe it is not just a matter discrimination with domestic workers, it is a matter of violation of fundamental rights, article 14 “equality before law” given by the constitution of India to the every citizen of India