अपने में मग्न,उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान?पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?
नीलाभ
एक ही लेखक के अन्दर अन्तर्विरोध भी हो सकते हैं और उस लेखक की चर्चा करते हुए इन अन्तर्विरोधों की चर्चा न करने से ही वह प्रतिमा निर्माण की प्रवृत्ति उभरती है जो अन्तत: रचनाशीलता को नुक़सान पहुंचाती है. एक मिसाल देना चाहूंगा. निराला एक ओर तो "वन बेला" और महगू महगा रहा जैसी कविताएं लिखते हैं, दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू से इतने मुग्ध हैं कि लगातार उनसे संवाद करने की कोशिश करते रहते हैं.एक ओर वे "जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ" जैसी कविता लिखते हैं दूसरी ओर "शिवाजी का पत्र" नामक कविता में देश के "झुकाव" के "जातिगत" होने और "एक ओर हिन्दू एक ओर मुसलमान" के होने की कामना व्यक्त करते हैं. आर.एस, पण्डित की मृत्यु पर तो निराला कविता लिखते हैं पर अपने समय की -- और आज तक की भी -- सबसे प्रखर जनवादी धारा -- भगत सिंह और आज़ाद की क्रान्तिकारी धारा -- पर एक अजीब ख़ामोशी उनके साहित्य में दिखती है.
मैं निराला के महत्व को ज़रा भी कम कर के आंकने का हामी नहीं हूं.सिर्फ़ बुत-परस्ती की उस रवायत का विरोधी हूं जो मौजूदा संकट का एक प्रमुख कारण है और जिसे मौडलों की चर्चा करके आनन्द प्रकाश पुष्ट करते जान पड़ते हैं.अगर शुरू ही से हिन्दी में यह प्रतिमा निर्माण न होता तो शायद हिन्दी के लेखक "बड़े अग्रजों" के कृपाकांक्षी होने के चक्कर में अपने जनों से इतना दूर न चले गये होते.
इससे यह न समझा जाये कि मैं उन लेखकों की ओर से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश कर रहा हूं जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र के मुखापेक्षी हैं और अपनी जनता और वास्तविक समस्याओं से विमुख हो कर विचारशून्यता के उत्सव में जुटे हुए हैं. मैंने खुद अपने हाल के एक लेख में इन्हीं बातों का ज़िक्र करते हुए लिखा था -- "वे कौन-से कारण हैं जिनसे इस तरह का छिछोरा हल्कापन इतने बड़े पैमाने पर हिन्दी के साहित्यिक संसार में व्याप्त हो गया है ?
क्या अब चर्चा के लिए कोई गम्भीर मुद्दा नहीं बचा ?केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें --उनके जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ?चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है,या उनसे वैचारिक विरोध भी,पर छत्तीसगढ़,झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ?या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ ?इज़्ज़त के नाम पर औरतों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की बेहुरमती और हत्याओं पर वे साहित्यकार उस रोष का दसवां हिस्सा भी क्यों नहीं व्यक्त करते जो उन्होंने महज़ "छिनाल"शब्द के प्रयोग पर व्यक्त किया है ?
सत्ता के दाहिने बने रहने की अनिवार्यता ने हिन्दी के उस परम्परागत विवेक पर क्यों पर्दा डाल दिया है जिसके अनुसार हिन्दी की मूल प्रति्ज्ञा ही शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में हिस्सेदारी; यथास्थिति का विरोध; सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी; और वास्तविकता की अक़्क़ासी के आत्म-संघर्ष का सामना करने की थी ?क्या कारण है कि चारों ओर मचे कोहराम और हाहाकार के बीच हिन्दी साहित्य एक जलसे की शक्ल अख़्तियार करता चला जा रहा है --अपने में मग्न,उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान? पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?"
मेरी गुज़ारिश यह है कि इस पेचीदा हालत को महज़ चलताऊ ढंग से शीत-युद्ध,भूमण्डलीकरण, पुरस्कार-प्रेम, परस्पर पीठ-खुजाऊपन, अहो-अहो मार्का चर्चा, एक-ध्रुवीय दुनिया की चपेट, महा-आख्यान, आदि शब्दों का इस्तेमाल करके इन्हीं में संकट के कारणों की पहचान करना-कराना उसी फ़तवेबाज़ी का नतीजा है जिस से आनन्द प्रकाश पिछले बीस-पच्चीस बरस के लेखन और लेखकों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह ख़ारिज करते हैं.
उनके एकांगी दृष्टिकोण का पता इस बात से भी चलता है कि एक तो वे बुर्जुआ प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं, "हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन)भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।"
क्या शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा द्वारा ही होता है या फिर इस का प्रतिनिधित्व सत्ता की उठा-पटक में शामिल सभी पार्टियां कमो-बेश करती हैं ?यानी वे सारी पार्टियां जो संसदीय लोकतन्त्र के ढकोसले में शामिल हैं.सम्भव है कि आनन्द प्रकाश सीपीआई और सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को बुर्जुआ पार्टियां न मानते हों,पर आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गंठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां.
हम यह भी न भूलें कि जिस दौर से आनन्द प्रकाश क्षरण की शुरुआत मानते हैं उसी दौर के पहले चरण में सीपीएम ने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाया था.और विश्वनाथ प्रसाद सिंह का समर्थन सीपीआई माले लिबरेशन ने भी किया था.
ज़ाहिर है इस सब का असर भी लामुहाला साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत पर पड़ता ही है. ख़ास तौर पर तीनों कम्यूनिस्ट पार्टियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों पर और उनसे जुड़े लेखकों पर.जो सत्ता और अधिकार तन्त्र के हिमायती लेखक हैं उनसे तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, पर क्या कारण है कि वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साहित्यकार भी बेतरह विचलन का शिकार हो गये हैं ?
उदय प्रकाश अगर महन्त अवैद्यनाथ के धोरे जाते हैं तो आलोक धन्वा विश्वरंजन की किताब के विमोचन में नज़र आते हैं.क्या इस विपथगामिता का स्रोत इन लेखकों के अन्दर है या इसमें उनके संगठनों की भी कोई भूमिका बनती है ?इसमें कोई शक नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक गौरवशाली इतिहास है. उसकी गिरावट के भी कारण हैं. फिर क्या कारण है कि जलेस और जसम इस गिरावट के कारणों से सबक़ लेने में विफल हुए ?
संगठनों की यक़ीनन बड़ी भूमिका होती है.लेखन की प्रक्रिया तो बेहद निजी प्रक्रिया होती है,लेकिन संगठन लेखकों के नकारात्मक पक्ष को कम करके उसके सबल पक्ष को बढ़ाते हैं.साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की तरह समाज भी एक संगठन ही है.चूंकि संगठन मनुष्य निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें ठस,ठोस और मोनोलिथिक मान लेने से भी गड़्बड़ी पैदा होती है.वरना क्या कारण है कि आनन्द प्रकाश आज के जिन लेखकों की पतनशीलता और विचार-शून्यता की शिकायत कर रहे हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी साहित्यकार उन तीन वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य हैं या रहे हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया.
आनन्द प्रकाश ख़ुद इनमें से एक वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं. जब वे ऐसे सामान्यीकृत ढंग से सब कुछ नकार रहे हैं तो उन्हें ख़ुद अपनी भूमिका को भी जांचना चाहिये. उन्होंने मुक्तिबोध का नाम लिया है. ज़रा १९५७-६२ के बीच लिखी कविता "अंधेरे में" का यह अंश देखें जिसमें मुक्तिबोध एक प्रोसेशन का चित्र खींचते हैं--"विचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्विक मार्च... कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड दल -- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आंतों के जालों से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर. बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से,लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के !! बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड दल में !!उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल,चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पांत, टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना..." और फिर इसी क्रम में मुक्तिबोध साफ़-साफ़ चित्रित करते हैं कि कैसे इस जुलूस में "चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते,उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय हाय !!"
आनन्द प्रकाश द्वारा वर्णित परिदृश्य की तरह जान पड़ता यह चित्र आश्चर्यजनक रूप से उस युग का है जो,आनन्द प्रकाश के लेख को हवाला मानें तो,वैचारिकता से सम्पन्न था.तब क्या यह मानें कि मुक्तिबोध के आकलन में दोष था.नहीं मुक्तिबोध का आकलन सही था जैसे आनन्द प्रकाश का आकलन जहां तक तथ्यों का सवाल है आज के बारे में सही है. गड़बड़ी यह है कि मुक्तिबोध जहां अपने युग की पतनशीलता का आकलन करते हुए आगे चल कर यह लिखते हैं कि "मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,"वहीं आनन्द प्रकाश अपने युग की गड़बड़ी का आकलन करते हुए आत्मालोचन से किनाराकशी कर लेते हैं.इसीलिए वे उन लोगों को चिह्नित नहीं कर पाते जो मौजूदा पतनशीलता का मुक़ाबला कर रहे हैं.
इन्हीं के लिए निराला ने कहा था --"हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग,मगर चूंकि अभी ढीला-पोली है देश में, अखबार व्यापारियों की ही सम्पत्ति हैं, राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है, वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए; जब वे कुछ उठेंगे और बड़े त्याग के निमित्त कमर बांधेंगे आयेंगे वे जन भी देश के धरातल पर,अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते, ऐसा ही पहरा है."
यही नहीं, अपने युग की सारी आलोचना करते हुए भी नयों के प्रति निराला के दिल में जो प्यार और उम्मीद का भाव था उसे उनकी प्रसिद्ध कविता "हिन्दी के सुमनों के नाम पत्र"में सहज ही देखा जा सकता है.
आनन्द प्रकाश ने यह आरोप लगाया है कि पिछले 25-30 वर्षॊं का लेखन, कहें कि रचनाकार, "न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"उनसे पलट कर नया साहित्यकार पूछ सकता है कि महाशय जो लेखक तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी न हो,जिसने प्रगतिशील लेखक संघ की शानदार तहरीक न देख रखी हो,जिसने ऐसे दौर में लिखना शुरू किया जब हर तरफ़ -- साहित्य ही नहीं समाज और राजनीति में भी -- भयंकर पतनशीलता हो, तब उसे वर्तमान दौर या पिछले वक्त की असलियत कौन समझायेगा? परम्परागत रूप से तो अग्रज साहित्यकार और संगठन यह करते आये हैं --ख़ुद आनन्द प्रकाश ने महावीरप्रसाद द्विवेदी और वाम लेखक संगठनों का ज़िक्र किया है --वे क्यों निष्क्रिय हो गये ?
इसलिए मैं अन्त में आनन्द प्रकाश से अनुरोध करूंगा कि व्याधि के लक्षणों का लेखा-जोखा तो काफ़ी हद तक उन्हों ने कर दिया है, पर उसके कारणों को भी ध्यान से परखें और उपचार को भी. और इसे निर्वैयक्तिक असम्पृक्ति से न करके सहानुभूतिपूर्ण लगाव के साथ करें. महज़ अयातुल्लाह ख़ुमैनी बनने या आरोप लगाने या उपदेश देने या प्रलय का पैग़म्बर बनने में कोई निस्तार नहीं है. मिट्टी तो वही है, पर अगर चाक टेढ़ा हो या कुम्हार के हाथ लरज़ते हों तो बात बनने से रही. अगर हम ने पहचान लिया है कि रोग है तब हमें ही उसका निदान और उपचार करना होगा तभी हम -- मुक्तिबोध ही की एक और कविता "भूल-ग़लती" की याद कराते हुए कहूं तो -- "उस" को पहचान सकेंगे जो "मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा. संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त-प्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट हो कर विकट हो जायेगा."
(अंतिम किस्त)
उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. इससे पहले बहस में शामिल हुए पांच लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए लेखों के ऊपर क्लिक करें या कर्सर नीचे ले जाएँ...
(फतवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जी,) (साहित्य में चेलागिरी -नौकरशाही की दूसरी परम्परा, ) ("वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान",) ('पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता"), ( 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक').
नीलाभ हिंदी कवि और सामाजिक-राजनितिक और साहित्यिक मसलों के टिप्पणीकार हैं,उनसे neelabh1945@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां. यानी अब कम्युनिस्ट होने लिए माओवादी होना जरूरी है नीलाभ जी. फिर भी इसे आप फतवेबाजी नहीं कहेंगे! बधाई हो. मौजूदा साहित्यिक दौर का विश्लेषण अच्छा किया है, साधुवाद.
ReplyDeleteनीलाभ जी आप तो बहुत बड़े विश्लेषक निकले, जनता को तो पता ही नहीं था. आप कवि से अच्छे आलोचक होते और नामवर के बगल में सुशोभित भी. आलोचना की जो निगाह आपने आनंद प्रकाश पर डाली है वह उन्हें नीचा दिखाने के लिए है या सही जगह पर चोट करने के लिए.यह सवाल इसलिए कि हिंदी साहित्य की सारी चिंता पर विहगावलोकन आपने उन्ही के जरिये किया है जैसे तैयार बैठों लिखो तो बताता हूँ . मुझे जहाँ तक समझ में आता है सभी साहित्यकार एक दूसरे का विश्लेषण इतने ही गैर जिम्मेदार तरीके से करते हैं. हो सकता है आपके ऊपर भी दो चार दिन में इसी ब्लॉग पर कुछ आ जाये, कुछ इसी अंदाज में. लेकिन इससे भला किसी का नहीं होना है. इसलिए बहस इसपर करें तो शायद अच्छा होगा कि आप सब की पूरी जमात को जनता लेखक क्यों नहीं मानती. वह तो हिंदी साहित्य कोर्स में सरकार की मेहरबानी कहिये जो कुछ लड़के आपलोगों को याद रखते हैं अन्यथा आपलोगों का वामपंथी प्रयास तो इतना लाजवाब है जो आप खुद को भी लेखक समझें, यह मुश्किल लगता है.
ReplyDeleteमैं इस लेख को इतना हल्का नहीं मानता कि पिछले दो टिप्पणीकरों की तरह ख़ारिज़ करूं। नीलाभ ने कुछ ज़रूरी सवाल उठाये हैं और उन्हें ऐसे नज़रअंदाज करने के पीछे की 'अंद्ध प्रतिबद्धता' समझी जा सकती है। अगर किसी एक लेख को केन्द्र में रखकर सवाल उठाये गये हैं तो इसमें आपत्तिजनक क्या है? क्या प्रणयकृष्ण ने ठीक यही शमशेर/अज्ञेय वाले मुद्दे पर अजय सिंह के लेख के साथ नहीं किया था? कौन किसको क्या मानता है जैसे सवालों से क्या साबित होता है? इन राजीव रंजन को कौन क्या मानता है
ReplyDeleteजनज्वार में साहित्य के सरोकार पर लेख पढ़ चुका हूँ लेकिन समझ में नहीं आ रहा कैसे नए लेखक अपना सरोकार निर्धारित करें. जो संगठन हैं सभी की आलोचनाओं से सहमत है . तब फिर लेखक जाएँ कहाँ जो प्रगतिशील धारा को बनाये और बचाए रखना चाहते हैं. दूसरा सवाल मेरा है 'क्या लेखक संगठनों के भ्रष्ट हो जाने से समूचा प्रगतिशील (वामपंथी, जो बचे वह कांग्रेसी गतिशीलता के हमसफ़र हैं ) लेखक हवा हो गए या कारण कुछ और थे. कहीं ऐसा तो नहीं कि जिस तरह वामपंथी पार्टियाँ एक के बाद इसलिए उभरी की सही विकल्प बनें, मगर वह सपना कल्पित ही रह गया वही हाल लेखक संगठनों का भी हुआ. कुछ और भी सवाल हैं, फिलहाल जवाब इसका मिले तो अच्छा.
ReplyDeleteचूंकि हिन्दी में प्रतिमा निर्माण और प्रतिमा पूजन की सुदीर्घ परम्परा है इसलिए मेरा तजरुबा यह रहा है कि अगर आप किसी लेख की प्रतिक्रिया में या ज़्यादा सही होगा यह कहना कि किसी बहस को आगे बढ़ाने की ग़रज़ से कुछ लिखते हैं और असहमत होते हैं तो आप को इस आरोप के लिए तैयार रहना चाहिए कि आप ने वह सब किसी को नीचा दिखाने के लिए लिखा है. मैं ने आनन्द प्रकाश के निष्कर्षों से नहीं उनके रवैये के प्रति ऐतराज़ प्रकट किया था. मैं फिर दोहराता हूं क्या पिछले 25-30 बरस की पूरी रचनात्मकता को विचारशून्य क़रार देना किसी सन्तुलित और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचायक है ? दूसरी बात, यह ठीक है कि मैं ने सीपीआई, सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को कम्यूनिस्ट पार्टियां मानने से इनकार किया है, लेकिन मैंने यह कहीं नहीं कहा कि सब माओवादी हो जायें. यह ठीक है कि माओवादियों की बहुत सी बातों से मेरी सहमति है, साथ ही असहमति के कुछ बिन्दु भी हैं. लेकिन एक्ज लेखक होने के नाते मैं ज़ुल्म का विरोध करना अपना धर्म समझता हूं. मेरे शब्दों पर ग़ौर कीजिए -- केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें -- उनके स्वैराचार और जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ? चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है, या उनसे वैचारिक विरोध भी, पर छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ? या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के ख़िलाफ़ ? अच्छा हो अगर व्यर्थ की शिकायतें करने की बजाय हम कुछ सार्थक करें. जिन बातों की कमी आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द को आज के माहौल में लगती है उसे पूरा करने के लिए वे ही क्यों आगे नहीं बढ़ते ? तीसरी बात -- जब कोई कम्यूनिस्ट पार्टी न हो या पुरानी कम्यूनिस्ट पार्टियां बेअसर हो गयी हों तो नयी शुरुआत भी की जा सकती है. ऐसे क़दमों की मिसाल क्यूबा और विएतनाम. हैं.
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