कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त स्वतंत्र चित्रकार 76वर्षीय वेद नैयर और 64वर्षीय गोगी सरोजपाल ये जानना चाहते हैं कि आखिर उनका अपराध क्या है?प्रख्यात साहित्यकार स्व.यशपाल की भतिजी गोगी और वेद नायर ने दिल्ली के राज्यपाल को पत्र भी लिखा,थाने में कई बार तहरीरें दीं और मीडिया से भी मदद की गुहार की. रहने के लिए गया नया फ्लैट और पड़ोसी के रूप में मिला एक वकील,इन कलाकारों की जिंदगी में कितनी मुश्किलें लेकर आया है बता रही हैं लेखिका विपिन चौधरी
विपिन चौधरी
प्रसिद्ध अमेरिकन नर्तकी तव्याला थर्प सही कहती हैं कि 'कला ही वह माध्यम है जिसके ज़रिये हम अपने घर को छोडे बिना कहीं दूर जा सकते हैं।'सच है कोई भी कला का किनारा पूरी तरह से डूब कर ही मिलता है। एक कलाकार ताउम्र दुनिया के तमाम प्रपंचो से दूर रह कर चुपचाप अपने काम मे लीन रहता है। लेकिन,हमारे समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनसे किसी की शांति देखी नहीं जाती।
किसी तरह का दया धर्म,इन्सानिंयत और बडे-बुज़ुर्ग का लिहाज़ इनके नज़दीक कोई मायने नहीं रखता। ऐसे ही लोग आजकल अपना सिक्का चला रहे हैं और भले लोग बेवजह इनका निशाना बन जाते है और बुजुर्ग और अकेले होने की कारण आसानी से 'सोफ्ट टार्गेट'बन जाते हैं। देश के दो नामचीन चित्रकार गोगी सरोज़पाल और वेद नैयर आजकल ऐसे ही लोगों के निशानें पर हैं और अपनी भलमनसाहत की सजा भुगत रहे है।
गोगी सरोजपाल और वेद नायर: कौन देगा साथ |
किसी तरह का दया धर्म,इन्सानिंयत और बडे-बुज़ुर्ग का लिहाज़ इनके नज़दीक कोई मायने नहीं रखता। ऐसे ही लोग आजकल अपना सिक्का चला रहे हैं और भले लोग बेवजह इनका निशाना बन जाते है और बुजुर्ग और अकेले होने की कारण आसानी से 'सोफ्ट टार्गेट'बन जाते हैं। देश के दो नामचीन चित्रकार गोगी सरोज़पाल और वेद नैयर आजकल ऐसे ही लोगों के निशानें पर हैं और अपनी भलमनसाहत की सजा भुगत रहे है।
वेद नैयर और गोगीसरोजपाल ये जानना चाहते हैं कि आखिर उनका अपराध क्या है,उन्हें किस गुनाह की सज़ा मिल रही है,क्या दोनों की सज़ा केवल इतनी है कि वे इस लोकतंत्र में खुली साँस लेने की गुस्ताखी कर रहें हैं। शायद वे नहीं जानते की शांति पाने के लिये मुआवजा देना होता है और उन्होनें दिया भी,पिछले एक साल से उन्होनें अपनी बरसों से जमा की हुई शांति को खो दिया है। बरसों से वे अपने स्टुडियों में शांति और पुरसकून के साथ काम करते रहे हैं पर पिछले एक साल से इनके मकान के ऊपर रह रहे एक भले आदमी ने अपने जैसे ही कुछ खुराफाती लोगों के साथ आपसी मिलीभगत से उनकी शांति भंग कर दी है।
मोहित चौधरी नामक इस आदमी ने,गोगी जी से उनके मकान वाला हिस्सा बेचनें की जिद की और उनके मना करने पर शुरू हुआ उसके द्वारा तंग करने का अंतहीन सिलसिला,इसी क्रम में मोहित चौधरी नामक इस शख्स ने बदतमीज़ी की सारी हदें पार कर दी। इन दोनों कलाकारों पर भारी इन घटनाओं को कोई भी जानकार आपसी झगडें की बात कह कर आसानी से किनारा कर सकता हैं। पर ऐसा करने वालों को यह सोचना होगा कि कल वे भी इन्हीं परिस्तिथियों का शिकार बन सकते हैं।
कला एक व्यक्तिपरक माध्यम है। कोई भी व्यक्ति अपने भीतर मौजूद स्याही में ढूबो-ढूबो कर खूबसूरत अभिव्यक्ती को आकार देने का काम करता है जबकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की हालत यह है कि कब किस कलाकार का काम देश की सरकारों के आँख की किरकरी बन जाये कहा नहीं जा सकता। सलमान रशदी और तसलीमा नसरीन को चैन से बैठने नहीं दिया जा रहा और यही हाल एमएफ़ हुसैन जैसे नामचीन कलाकारों का भी है और गोगी जैसी कलाकार को जीवन के इस पडाव पर इस कदर परेशान होना पड रहा है ये सब घटनायें हमारी सामाजिक व्यवस्था की करूण गाथा की एक बार फिर पोल खोलती हैं.
इससे साफ उजागर होता है कि हमारे आस पास गुण्डा तत्व इस कदर हावी है और समाज में उसे पूरी छुट है कि वह किसी बुजुर्ग मकान मालिक को उसके ही घर से बहार निकालने की कोशिश करे और समाज के बाकि लोग भी उन्हीं बदमाश लोगो का समर्थन करें .यह कोई एक बार की घटना नहीं है बल्कि हररोज़ परेशान करने के नये-नये तरीके इजाद किये जाते हैं। कहने को हमारे भारतीय समाज को सहिष्णु,दयालु और महापरोपकारी कहा जाता है पर हम देखते हैं कि किस तरह दुसरे को मुसीबत में देख कर हम कैसे कन्नी काट कर निकल जाते हैं क्योकि जोखिम उठाना हमारे बूते से बाहर की बात है।
जब तस्लीमा जैसी लेखिका की पुस्तकें प्रतिबंधित की जाती है,हुसैन की पेंटिग जलायी जाती है और गोगी और वेद के जीवन की शांति भंग की जाती है तो हमारी अंतरात्मा में कोई हलचल नहीं होती। जब लोकतंत्र में कदम-कदम पर सेंसर लगा हो तो इस आज़ादी के मायने क्या हैं। गोगी को नज़दीक से जानने वाले जानते हैं कि वे कितनी जिंदादिल,बिंदास और बङे दिल की मल्लिका हैं पर आजकल ज़ोर से ठहाके लगाने के बाद भी उनके चेहरे से उदासी छंटती हुई नहीं दिखाई पङती। उस दिन देर शाम जब मैं गोगी जी से उनके घर,ईस्ट ऑफ़ कैलाश से वापिस आ रही थी तब दिवाकर बनर्जी की फिल्म 'खोसला का घोसला' और अश्विनी-चौधरी की 'धूप' मेरे मानस पटल पर गोते लगा रही थी।
चित्रकार वेद |
दोनों फिल्मों में एक सीधा-साधा आदमी अपनी ही ज़मीन पाने के लिये कार्यालयों और थानों में चक्कर काटता रहता है। आज की तारीख में वे दोनों कलाकार भी पुलिस के चक्कर काट रहे हैं पर किसी ठोस कार्यवाही का आश्वासन तक उन्हें नहीं मिल पाया है। सीनियर सिटीज़न फोरम और अनेकों दूसरी जगह जा रहें हैं पर मामला हर बार उन्हीं लोकल पुलिस थाने के पास जा कर अटक जाता है, जहाँ कुछ माहिर खिलाडी बैठे हैं जो अपनी मनमानी करने के अभ्यस्त हैं।
हमारे देश में मानवाधिकारों का ज़ोरो-शोरों से डंका पिटा जाता है,पर हकीकत यह है कि वहाँ सिर्फ शिकायतों का अम्बार इक्कठा होता रहता है,वहाँ किसी प्रकार की मदद की उम्मीद करना बेमानी है। कई मामलों में मानवाधिकार संस्था यह कह कर अपने हाथ खडे कर देती है कि उसके पास अपनी कोई सेना नहीं है और शिकायतें बहुत हैं । तब ये संस्थाऐं महज़ शिकायतें दर्ज करने का दफ्तर बन कर रह जाती हैं उन सरकारी कार्यालयों की तरह जहाँ फाईलों का अम्बार लगा होता है और यहाँ बैठे कई घाघ अधिकारी आर टी आई जैसे सशक्त कानून से भी पीछा छुडाने के तरीके ढूंढ लेते हैं।
वे जानते हैं,उनकी लगाम कसने वाला कोई नहीं,तो इस तरह के मसलों की सुनवाई आखिर कैसे हो। कहीं कोई ठोस सज़ा का प्रावधान नही है। ऐसा अक्सर होता है कि लडकी शिकायत करती है तब भी ससुराल वाले जमानत पर छूट जाते हैं और फिर जुल्म ढाहते हैं। सरकार केवल कानून बना कर अपने कर्तव्यों से मुक्ति पा लेती है।सरकारी कर्मचारी ही जनता को परेशान करने लगे तो फिर न्याय की आस किससे की जाये। क्या कोई स्थायी हल नहीं है?पुराने जमाने में राजा के दरबार में एक बङा सा घंटा लगा होता था,जिसको न्याय की चाह होती उसकेउ घंटा बजाने पर उसे राजा के सामने पेश किया जाता पर आज के जमाने में जनता के सेवक कहलाने वालों तक जनता की गुहार नहीं पहुँच पाती।
न जाने किस तहखाने में वे अपने को समेटे रहते हैं,उनसे मिलने से पहले उनके चाटुकारों से जुझना पडता है और मिलने के बाद मंत्रीगण फाईल उन्हीं चाटुकारों को थमा देते हैं। तब एक सभ्य समाज का नागरिक,सभी तरह के कानून होते हु्ए भी आफिस, थाने- कचहरियों के चक्कर काट कर थक हार कर अपने घर लौटता है और यह कहते हुए अपने जूते के तसमे खोलते हुए कहता है कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता और जब कोई नागरिक समाजिक व्यवस्था से लड-भिड कर निराशावादी में पहुँच कर ये वाक्य बोलनें को मज़बूर हो उठता है तब-तब इस लोकतंत्र देश की अंतरात्मा को ठेस पहुँचती है
(कवि विपिन चौधरी साहित्यिक और सामाजिक मसलों पर लिखती हैं,इनसे vipin.choudhary7@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)
both of these artists are really in trouble....this is a shameful act in a democratic country.if all efforts to survive peacefully ....fail... where to go for justice?...go elsewhere to live happily ....some NGO's should come to help them ....in this time of trouble!
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