Sep 5, 2010

‘लखीसराय’ फिल्म की सफलता और टीवी शो के बुद्धिजीवी


पिछले छह दिनों से बंधक बनाये तीन पुलिसकर्मियों को सही-सलामत उनके परिजनों को सौंपने का फैसला कर  माओवादियों ने इतिहास नहीं रचा है बल्कि  पार्टी परंपरा को ही जारी रखा है.

अजय प्रकाश

एक सप्ताह पहले कजरा के जंगलों से रिलीज हुई सस्पेंस,रोमांस और मारधाड़ से भरपूर दिल को छू देने वाली फिल्म ‘लखीसराय’इस हफ्ते टीवी चैनलों के बक्से पर सबसे ज्यादा हिट रही। हिट कराने का सारा श्रेय माओवादियों को जाता है, जिन्होंने खबरहीन हो चुके चैनलों की टीआरपी बरकरार रखने में महती भूमिका अदा की।

पुलिसकर्मी अभय प्रसाद यादव की पत्नी से खगड़िया जिले में राखी बंधवाकर किशन नाम के एक माओवादी ने भाई-बहन के प्रेम को अमर करने का इतिहास रचा है और इस प्रकार यह प्रहसन अंत की ओर है।किशन से  बदले में बहन के पति के महकमे को नौ ग्रामीणों की माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तारी का उपहार भी मिला है। हालांकि प्रवक्ता अविनाश इन गिरफ्तारियों के बारे में बॉक्स ऑफिस पर लगातार फोन कर बता रहे हैं कि वह निर्दोष ग्रामीण हैं,लेकिन थोड़ी देर पहले तक काकचेष्टा लगाये मीडिया उनकी बात सुन संवैधानिक कानूनों की याद दिला रहा है।

माओवादी   पार्टी गठन से पहले जारी पर्चे का एक अंश
इधर बिहार से आ रही खबरों के मुताबिक बंगाल वाले किशन जी और बिहार वाले में बस इतना ही फर्क दिखा कि वह चेहरे पर हरा लपेटते हैं इसने भगवा लपेटा था। वह चेहरा नहीं एके 47 दिखाते हैं, यह झलक दिखा गया। उनके सामने से मीडियाकर्मी जाते हैं,यहां वह खुद गया। यानी अपना बिहार वाला किशन जी बंगाल वाले से साहसी निकला कि चिलमन से बाहर तो झांका।

इन जानकारियों को साझा करने के बाद अब पाठकों से विनम्र आग्रह है कि कृपया यह न पूछें कि चौथे स्तंभ पर जांनिसार माओवादियों को टीवी के बक्से पर इतना ऐतबार क्यों है?अगर इसका जवाब पाठकों को मिल भी गया तो वह फिर भी बाज न आयेंगे और पूछ बैठेंगे कि झारखण्ड निवासी आदिवासी हवलदार लुकास टेटे की हत्या माओवादियों ने की या फिर टीवी चैनलों ने 'इमोशनल अत्याचार' करके करवायी।

फिर भी आप एक बेसब्र पाठक हैं तो कृपया बॉक्स ऑफिस पर संपर्क कर प्रवक्ता का नंबर लें। समय हो तो मेरी तरफ से भी सवाल पूछ लें कि माओवादियों ने चुनकर एक आदिवासी पुलिसकर्मी की हत्या क्यों की? यादव, सिन्हा और खान साहब संयोग से नहीं मारे गये कि बिहारी होने का आरक्षण मिला। या फिर इससे भी दो कदम आगे बढ़कर यह कोई नयी ‘टैकटिक्स’थी कि इससे बिहार में काम करने में दिक्कत आयेगी।

बंधक पुलिस कर्मियों के परिजन: नौकरी ही गुनाह
उन्हें न सूझे तो माओवादी पार्टी के केंद्रीय समिति सदस्यों से पूछना,जो एक आदिवासी की हत्या करने के बाद बाकियों के साथ क्या किया जाये,के विचार-विमर्श के लिए जुटे थे। साथ में यह भी पूछना कि   नामचीन बुद्धिजीवियों की राय अगर नहीं आयी होती तो क्या आप बाकी पुलिसकर्मियों को मार डालते?

बहरहाल,बिहार की राजधानी पटना में कल शाम  हुई सर्वदलीय बैठक के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने माओवादियों से बातचीत की चाहत को मीडिया में सार्वजनिक किया है। मुख्यमंत्री की चाहत का कारण कजरा के जंगलों में 29अगस्त को माओवादियों और पुलिस की मुठभेड़ में चार पुलिसकर्मियों का अगवा कर लिया जाना है,जिसमें से एक की हत्या कर माओवादियों ने तीन को अभी इस लालच में बचा रखा था कि इसके बदले वह पूर्वी बिहार की जेलों में बंद आठ माओवादियों को छुड़वायेंगे। 29अगस्त की मुठभेड़ में सात पुलिसकर्मी मारे गये थे,लेकिन उसकी चर्चा बॉक्स ऑफिस पर नहीं है क्योंकि उसमें सस्पेंस, रोमांस, ट्रेजेडी का पुट नहीं है।

पुलिस ही हत्यारी: कौन करेगा जाँच
बदले में छुड़वाने की योजना संभव न हो सकी है और माओवादियों ने बिना  शर्त  कजरा के जंगलों से पुलिसकर्मी रूपेश कुमार सिन्हा,अभय प्रसाद यादव और एहसान खान को अपने कब्जे से मुक्त करने की जानकारी दी है .‘लखीसराय’फिल्म के माओवादी प्रवक्ता अविनाश ने कब्जे से मुक्त किये जाने के कारण के तौर पर ‘इन्टलेक्चुअल प्रेशर’और मानवीय आधार को जिम्मेदार बताया है। हालाँकि यह प्रेशर वामपंथ की नर्सरी कहे जाने वाले बिहार से नहीं,मेट्रो शहर दिल्ली से अग्रसारित हुआ है।

प्रवक्ता को यह प्रेशर उस समय महसूस हुआ जब लेखिका अरुंधती  राय,सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर ने माओवादियों की इस कार्यवाही की भर्त्सना की। गौरतलब है कि इन तीनों बुद्धिजीवियों में कोई मार्क्सवादी  नहीं है और न ही किसी का वर्ग संघर्ष की राजनीति में कोई भरोसा है। फिर भी माओवादियों ने इनके सुझावों की कद्र की। यह
 माओवादियों का बड़प्पन है या छुटपन यह तो वही जानें,लेकिन दिल्ली में माओवादियों के पक्ष में मीडिया के सामने अक्सर बयान देने वाले जीएन साईंबाबा का भी बयान इन गैर मार्क्सवादियों  की राय के बाद ही प्रकाश में आया कि 'माओवादियों की इस कार्यवाही को उचित नहीं कहा जा सकता।’
तो फिर फोन करने वाले पाठको!प्रवक्ता से यह भी पूछना कि पार्टी से लेकर माओवादी बुद्धिजीवी तक बयान देने के लिए क्या उन्हीं सुधारवादी और मानवतावादियों का मुंह ताकते रहते हैं जो माओवादी राजनीति का लोहा मानते हुए भारतीय समाज में संघर्ष और प्रतिरोध को सबसे मुकम्मिल धारा मान चुके हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यह माओवादियों की असफलता है या चंद लखीसराय टाइप प्रवक्ताओं की,जिनको कि माओवादियों ने जिम्मेदारी सौंप रखी है।

सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि माओवादी पार्टी का सुरक्षाबलों के प्रति क्या नजरिया है,यह इस पूरे घटनाक्रम के बीच क्यों नदारद रहा?ऐसा क्यों हुआ कि सुरक्षाबलों के प्रति तय रणनीति के खिलाफ माओवादियों ने हवलदार लुकास टेटे की हत्या की?यह बात जीएन साईंबाबा जैसे बुद्धिजीवियों को क्यों नहीं समझ में आयी और अरुंधती की जुबान खुलने पर बयान देने की दरकार महसूस हुई कि 'अगवा कर  मारना उतना ही बड़ा अपराध है जितना बड़ा हाल ही मारे गये आजाद और हेमचंद पाण्डेय की हत्या।'

अरुंधती : बुद्धि का साहस
क्या यह सही वक्त नहीं था जब बॉक्स ऑफिस को मुक्ति के रास्ते के तौर पर इस्तेमाल किये जाने पर आमादा बुद्धिजीवी यह पूछते कि अदिलाबाद के जंगलों में मारे गये माओवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आजाद की मां चेरूकुरी करुणा की आंखों में जो आंसू थे वे किस मायने में वे किसी पुलिसकर्मी के परिजनों से कमतर थे। आंसुओं और दुखों को राजसत्ता के नजरिये से देखने वाले मीडिया पर क्यों नहीं बरसा जाना चाहिए कि पत्रकार हेमचंद्र की बीबी बबीता के मन में सरकार के प्रति नफरत का भाव झारखण्ड में माओवादियों के हाथों मारे गये पुलिसकर्मी इंदुवार के नाबालिग बेटे से कमतर कैसे है?

अगर नहीं है तो फिर यह कैसे हुआ कि ग्यारह आदिवासियों की हत्या के बाद छत्तीसगढ़ सरकार लगातार कहती रही कि वे माओवादी थे और मुठभेड़ में मारे गये। सबको झुठलाने पर टिकी सरकार के होश ठिकाने तब आये जब सर्वोच्च न्यायालय ने सभी मृतकों के परिजनों को एक-एक लाख मुआवजा देने का आदेश दिया और मुठभेड़ को फर्जी करार दिया। अगर कमतर नहीं है तो अलीगढ़ किसान आंदोलन में मारे गये पांच किसानों की हत्या की आज तक एफआईआर दर्ज क्यों नहीं की गयी है?अगर कमतर नहीं है तो पिछले नवंबर से इस वर्ष अप्रैल के बीच छत्तीसगढ़ के बस्तर में 112आदिवासी फर्जी मुठभेड़ों में मारे गये,लेकिन बस्तर में माओवादियों के नाम पर हुई हत्याओं को लेकर कभी किसी पुलिसकर्मी के खिलाफ मुकदमा क्यों दर्ज नहीं किया गया है?

तो फिर सवाल उठता है कि बुद्धिजीवियों को सबसे ज्यादा पसरने का मौका देने वाला टीवी का बॉक्स ऑफिस कभी इन सरकारी हत्याओं को सवाल क्यों नहीं बना सका?आजाद और हेमचंद पांडे की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आ चुकी है। प्रबुद्धजनों की फैक्ट फाइंडिंग टीम लौटकर रिपोर्ट जारी कर चुकी है कि यह मुठभेड़ नहीं हत्या है। फिर भी केंद्रीय गृह सचिव कहते हैं-‘आजाद मुठभेड़ मामले में कोई अलग से जांच नहीं होगी।’क्या कोई बुद्धिजीवी या बॉक्स ऑफिस का एंकर है जो सरकार पर दबाव बनाकर कहे कि वह माओवादियों से संघर्ष में संयुक्त राष्ट्र संघ के तय मानकों का ख्याल करे।

5 comments:

  1. मुसाफिरSunday, September 05, 2010

    सही समय पर सही बात. एक जरूरी आलेख. लखीसराय एक फिल्म ही थी जिसके निर्माता, निर्देशक और विज्ञापनकर्ता सबकुछ माओवादी ही थे. सरकार ने मजा लिया और बुद्धू बक्से की टीआरपी बढ़ी.

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  2. दिल्ली विश्विद्यालय के शिक्षक जीएन साईबाबा ने फोन कर जनज्वार को बताया कि उन्होंने और कवि वरवर राव ने अरुंधती, मेधा और अग्निवेश से पहले लखीसराय में अपहृत पुलिस वालों को माओवादियों से छोड़ने की अपील कि थी. इस बावत उन्होंने 2 सितम्बर को BBC और Times Now को साक्षात्कार भी दिया था. साईबाबा का यह बयान इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्हें माओवादियों का समर्थक बुद्धिजीवी माना जाता है. हालाँकि उनका लिखित पक्ष कल मिला है. इस बारे में उनका कहना है कि 'लिख कर बयान जारी करने में देर इसलिए हुआ क्योंकि हम लगातार उस माध्यम का उपयोग करना चाह रहे थे जिससे माओवादियों तक हमारी बात पहुँच सके. साईबाबा ने जनज्वार को यह जानकारी ऊपर छपे लेख के मद्देनजर दी है जिसमें कहा गया है कि माओवादी समर्थक बुद्धिजीवियों ने अरुंधती के बाद बयान दिया है.

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  3. Dear Janjwar friends,

    Janjwar's allegation that I regretted the killing of Locas Tete only
    after Arundhati, Agnivesh and Medha Patkar expressed their views
    on the incident is baseless. I spoke to the BBC( Hindi) and some TV channels
    as early as 2 September before Locas Tete was killed appealing
    to the CPI (Maoist) not to kill the four abducted cops taken hostage.

    I had explained my stand why they shouldn't be killed.

    Within 2 hours after the killing of Locas Tete came to my notice I started
    circulating my statement even before I saw anyone's.

    I hate the word, 'supporter' of Maoists which Janjwar tries to paint me as one.
    Arnob Goswamy also is fond of calling me and many others as 'supporters' of
    Maoists. I prefer to be a Maoist myself rather than remaining a supporter, a word that sounds
    like a pimp, middleman or a henchman for me.

    I find no problem in CPI (Maoist) learning from the appeals of the liberal intellectuals who mean
    more sense in our contemporary social existence than those who claim to be great Marxist intellectuals
    but show no sense of responsibility by rising to meet exigencies of our times.

    With best regards,
    G N Saibaba

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  4. bahut acchi pahal ek savsth bahas ho, koi to bola ki main maovadee kahlana pasand karunga.

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  5. माओवादी की ग़लतियों की ओर इशारा करना और उनके ग़लत नीतियों की आलोचना करना भी बेहद ज़रूरी है और जनज्वार यह काम करके अपनी ज़िम्मेदारी निभा रहा है ।
    अनिल जनविजय

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