Jun 30, 2010

यह चमकता शहर किसका है?

हैनसन टीके

लगता है दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों के शुरू होने से पहले तक पूरे तौर पर बदल जायेगी। चौड़ी  होती सड़कें,  खूबसूरत नक्काशी के साथ तैयार हो रहे फुटपाथ और ट्रैफिक को रफ्तार देने के लिए एक के बाद एक बन रहे फ्लाईओवरों को देखकर तो यही लगता है। एक तरफ नये पार्कों का निर्माण शहर की चमक में चार चांद लगा रहे हैं, तो दूसरी ओर हवाई अड्डा, एक्सप्रेस-वे समेत पूरे शहर में मेट्रो रेल का जाल बिछ गया है। सड़कों पर चल रही सामान्य और एसी लो-फ्लोर बसें दिल्ली को बिल्कुल नया रूप दे रही हैं। कुल मिलाकर इस सबका मकसद दिल्ली को दुनिया के बेहतरीन शहरों में शुमार करना है।


तैयारियों के बरक्श देखें तो इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली जल्द ही दुनिया के बेहतरीन शहरों में शामिल हो जायेगी। होना लाजिमी भी है क्योंकि सरकार ने सालाना  बजट का बड़ा हिस्सा खेलों की तैयारियों में झोंक दिया है, मगर  सवाल यह है कि खेलों के खत्म होने के बाद इस वर्ल्ड क्लास सिटी में रहेगा कौन? वह कौन लोग होंगे जिन्हें यहां रहने की इजाजत मिलेगी और कौन होंगे जो इस महंगे होते शहर में गुजारा कर सकेंगे?

दिल्ली पहले से ही एक ऐसा मेट्रो शहर रहा है जहां आजीविका देश के बाकी शहरों के मुकाबले महंगी रही है। अब जरूरत के वस्तुओं की बढ़ती कीमतें, खासकर खाद्य पदार्थों के महंगे होते जाने से मध्यवर्गीय परिवारों तक की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। महंगाई तो पूरे देश में बढ़ रही है, मगर दिल्लीवासियों को दूसरे राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा महंगाई इसलिए भुगतनी पड़ रही है कि यहां सरकार के पास इस समस्या से निपटने के लिए कोई सुचारू कार्यपद्धति नहीं है और न ही कोई ऐसा तरीका है कि वह बाजार में मूल्य  को लेकर प्रभावी हस्तक्षेप कर सके। उदारहण के तौर पर देश के दक्षिणी राज्य केरल को लें, वहां जब अरहर दाल 35 रूपये प्रतिकिलो है तो दिल्ली में उसकी कीमत नब्बे से सौ रूपया किलो तक है। ऐसा तब है जबकि केरल खाद्य आपूर्ति के लिए पूर्णतया दूसरे राज्यों पर निर्भर है।

केरल सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिये दालों और खाद्यानों की कीमतों को नियंत्रित कर रखा है। वहीं दिल्ली सरकार ने कीमतों की बढ़ोत्तरी का कदम उठाते हुए पिछले वर्ष का जो बजट लागू किया उसमें ज्यादातर वस्तुओं का कर बढ़ा। जो वैट पहले 12.5 प्रतिशत था उसे बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया जिससे वस्तुओं की कीमतों में और इजाफा हो गया। जहां रसोई गैस से सब्सिडी हटा ली गयी, वहीं पहले से ही महंगी हो चुकी सीएनजी गैस को वैट के तहत कर देने से उपभोक्ताओं की मुश्किलें और बढ़ गयीं। हाल में बढ़े पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें गवाह हैं कि मूल्य नियंत्रण सरकार के हाथों में नहीं है और यह बढ़ोत्तरी फिर एक बार आम आदमी की जेब पर डाका डालने को तैयार है।


पिछली बार सीएनजी गैस की कीमत बढ़ते ही दिल्ली की सरकारी बस सेवा ‘डीटीसी’ ने किराये में पचास प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी की तो मेट्रो ने भी काफी किराया बढ़ा दिया। सरकार की निगाह में यह सबकुछ जायज रहा, क्योंकि होने वाले राष्ट्रमंडल खेलों के लिए जो ढांचागत विकास करना है उसका बजट लोगों पर अतिरिक्त अधिभार लगाकर ही संभव है। ऐसे में कहा जा सकता है कि राष्ट्रमंडल खेल आम आदमी की कीमत पर हो रहे हैं. 

अब सरकार की अगली तैयारी बिजली की कीमतों को बढ़ाने की है। हालांकि बिजली कीमतों में सरकार ने बढ़ोत्तरी  दिल्ली बिजली नियंत्रक आयोग के उस सुझाव के बाद रोक रखी थी जिसमें आयोग ने कहा था कि बिजली के निजीकरण के बाद से राज्य में बिजली वितरक कंपनियों को अतिरिक्त मुनाफा हो रहा है। बावजूद इसके सरकार का रवैया ढुलमुल है और वह हमेशा निजी कंपनियों के लाभ का ख्याल करती है, जबकि सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों की पहली जिम्मेदारी आम लोगों के हित की रक्षा होनी चाहिए, जिन्होंने उन्हें चुनकर कुर्सी पर बैठाया होता है। मगर यह उम्मीद बेमानी है। राज्य की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले ही कह चुकी हैं कि ‘बिजली की बढ़ी कीमतों को दिल्लीवासी देने में सक्षम हैं।’ मुख्यमंत्री के संदेश से स्पष्ट है कि वह दिल्ली को दुनिया का ऐसा बेहतरीन शहर बनाना चाहती हैं जहां ऊँची कीमतों को अदा करने वाला अभिजात्य वर्ग रहे और गरीबों का सफाया हो जाये।

इस परिप्रेक्ष्य में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और पूर्व मेयर के उस सार्वजनिक बयान पर भी गौर किया जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि जनजीवन के बेहतर हालात बनाये रखने में दिल्ली में बढ़ते अप्रवासी सबसे बड़ी मुश्किल हैं। बयान देते हुए ये नेता भूल गये कि गरीबी और पिछड़े इलाकों से पलायन भी इन्हीं नेताओं की देन है। यह उस ऊटपटांग विकास का नतीजा है जिसके तहत कुछ क्षेत्र तो बहुत विकसित हुए और बाकी बड़े हिस्से को हाशिये पर धकेल दिया गया। जाहिरा तौर पर यह सब वर्गों के बीच वैमनस्यता फैलाने वाले संकुचित राजनीतिक स्वार्थों का ही नतीजा है।
मुंबई में राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे), शिवसेना जैसी पार्टियों ने अप्रवासियों के खिलाफ राजनीतिक विषवमन ही तो किया है। साठ के दशक में जहां मूल और अप्रवासी की मार दक्षिण भारतीयों पर पड़ी, वहीं इस समय मुंबई में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को अप्रवासी होने का दंश झेलना पड़ रहा है। मगर कभी ऐसा नहीं हुआ कि राष्ट्रीय पार्टी कही जाने वाली कांग्रेस या भाजपा ने मनसे या शिवसेना के खिलाफ कोई स्पष्ट राय रखी हो। जबकि गरीबों, खासकर अप्रवासी मजदूरों को लूटने के एक-से- एक नायाब तरीके अपनाये जा रहे हैं।


कम आमदनी और अधिक भुगतान से त्रस्त अप्रवासियों की स्थिति यह है कि उनके पास सिर छुपाने के लिए अपनी छत्त तक नहीं है। पिछले दिनों ऑटो भाड़े में हुई बढ़ोत्तरी से भले ही ऑटोचालकों की जिंदगी सुधरती  नज़र आ रही है, मगर सवाल है कि वे बहुतेरे लोग जो कि इस बढ़ी कीमत को दे पाने में अक्षम हैं, क्या ऑटो  की सवारी बंद नहीं कर देंगे?  उनके ऑटो में सवारी बंद करने की स्थिति में ऑटो चालकों के लगभग एक लाख परिवारों की आर्थिकी पर क्या इसका सीधा असर नहीं पड़ेगा? दूसरी तरफ रहने की जगहों के बढ़ते किराये की वजह से लोगों का जीना दूभर होता जा रहा है। दिल्ली की एक बड़ी आबादी जो कि किरायेदार है, उसके लिए ऐसे हालात पैदा किये जा रहे हैं कि उसके लिए यहां गुजारा करना असंभव हो जाये और वे वहीं रवाना हो जायें जहां से आये थे। यानी गरीबों के सफाये के बाद जो ‘बेहतरीन शहर’ बनेगा, उसमें सिर्फ पैसा अदा करने वाले  बेहतरीन लोग (धनवान) ही रहेंगे।

1 comment:

  1. hanson ji aapne bilkul theek likha hai ki delhi ab sirf behtreen yani dhanwanon ka shahar ban jayega. ek tarah se dekha jaye to ye dhannasethon ka shahar ban chuka hai. aam log kaha jee pa rahe hain yahan theek se, wo to sirf jindgi gujar rahe hain. ji to sirf 20 feesdi log rahe hain jinke paas agadh paisa hai. delhi ki C.M. sheela dixit or sarkar bhi yahan se aam logon ko bhagane ke saare intzaam kar hi rahe hain.

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