Jan 25, 2010

प्रेस क्लब में नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों की नो एंट्री

अजय प्रकाश 

राजनीतिक व्यवस्था में सर्वाधिक लोकतांत्रिक  मूल्यों की पैरोकार मीडिया में यह पहली घटना है जब रायपुर प्रेस क्लब ने नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों को क्लब में कार्यक्रम न करने देने का सर्वसम्मति से फैसला किया है। क्लब ने यह प्रतिबंध समान रूप से वैसे वकीलों पर भी लागू किया है जो क्लब समिति की निगाह में नक्सली समर्थक हैं।
नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुडूम अभियान शुरू करने वाली छत्तीसगढ़ सरकार के पास ऐसे कई रिकार्ड हैं जो अलोकतांत्रिक कानूनों को लागू करने में उसे पहला स्थान देते हैं। लेकिन यह पहली बार है जब राज्य में प्रेस प्रतिनिधियों की एक संस्था जो कि गैर सरकारी है, वह सरकारी भाषा का वैसा ही इस्तेमाल कर रही है जैसा की सरकार पिछले कई वर्षों  में लगातार करती रही है।
दंतेवाड़ा में वनवासी चेतना आश्रम में पांच जनवरी को हैदराबाद और मुंबई से आये चार लोगों और स्थानीय पत्रकारों के बीच हुई मारपीट के बाद प्रेस क्लब का यह फरमान आया। बाहर से आये चार लोगों में फिल्म निर्माता निशता जैन, लेखक-पत्रकार सत्येन बर्दलोइ, कानून के छात्र सुरेश कुमार और पत्रकार प्रियंका बोरपुजारी शामिल हैं,  के खिलाफ स्थानीय पत्रकारों ने मारपीट और कैमरा छीन लिये जाने का मुकदमा स्थानीय थाने में  दर्ज कराया है।

इस मामले में प्रियंका बोरपुजारी से बात हुई तो उन्होंने कहा कि ‘चूंकि हिमांशु कुमार आश्रम में नहीं थे और स्थितियां बहुत संदेहास्पद थीं, वैसे में आश्रम में आयीं चार आदिवासी महिलाओं को हम लोग अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। लेकिन पुलिस-एसपीओ के तीस जवान जो कई घंटों से आश्रम को घेरे हुए थे, उन्हें ले जाना चाहते थे। इसको लेकर हम लोगों और उनमें कई बार तु-तु, मैं-मैं भी हुई। शाम ढलने से पहले कुछ लोग हम लोगों का फोटो खींचने लगे, वीडियो बनाने लगे। हमने विरोध किया, उनसे उनकी पहचान पूछी। फिर क्या था, वह हम लोगों से भीड़ गये और लाख जूझने के बावजूद आखिरकार मेरे हाथ से वीडियो कैमरा छीन लिया और सत्येन बर्दलोइ और सुरेश कुमार को पीटा। लेकिन हम लोग जब इस मामले में थाने गये तो पुलिस ने मुकदमा दर्ज करने से इनकार कर दिया। जाहिर तौर पर मीडियाकर्मियों ने जो हमारे साथ सुलूक किया और स्थानीय मीडिया को लेकर हमारे जो अनुभव रहे उस आधार पर हमने उन्हें बिकाऊ कहा।’
इसके बाद प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर ने 17 जनवरी को क्लब प्रतिनिधियों की आपात बैठक में कहा कि ‘दंतेवाड़ा में स्थानीय मीडिया को बिकाऊ कहने वाले कथित बुद्धिजीवियों के खिलाफ प्रशासनिक कार्यवाही हो, नहीं तो हमारे विरोध का तरीका बदल जायेगा। साथ ही ऐसे लोगों और एनजीओ को प्रेस क्लब में किसी भी तरह के कार्यक्रम करने की अनुमति न दी जाये। इसी तरह नक्सलवाद को जाने-समझे बिना मीडिया पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले अधिवक्ता के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जायेगी।’ बाद में इस प्रस्ताव का प्रेस क्लब के सदस्यों ने समर्थन दिया। छत्तीसगढ़ वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन के प्रदेश अध्यक्ष नारायण शर्मा, धनवेंद्र जायसवाल, कौशल स्वर्णबेर ने भी इस मामले में ऐसे बुद्धिजीवियों के बयान की निंदा की और छत्तीसगढ़ आगमन पर कड़े विरोध की चेतावनी दी।
चेतावनी से आगे प्रेस क्लब अध्यक्ष ने इस बाबत और क्या कहा, जानने के लिए रायपुर से प्रकाशित हिंदी दैनिक ''हरिभूमि'' की कटिंग को यहां लगाया जा रहा है जिसे आप देख सकते हैं।

इस बारे में जन वेबसाइट सीजीनेट के माडरेटर और पत्रकार शुभ्रांशु  चौधरी  से बातचीत हुई तो उनका कहना था, ‘प्रेस क्लब के पास ऐसा कौन सा पैमाना है जिससे किसी के नक्सल समर्थक होने को तौला जाना है। आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ बोलने वाला हर आदमी सरकार की निगाह में माओवादी है और चुप रहने वाला देशभक्त।’ कुछ इसी तरह की बात सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण भी कहते हैं, जिनके खिलाफ प्रेस क्लब ने टिप्पणी की है  कि 'ऐसे वकीलों पर भी कानूनी कार्यवाही की जायेगी।'
पिछले दिनों रायपुर यात्रा के दौरान प्रशांत भूषण ने एक अनौपचारिक बातचीत में कहा था कि ‘प्रदेश के डीजीपी विश्वरंजन राज्य में बढ़ती हिंसा और मानवाधिकारों के हनन के लिए व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार हैं। अगर हालात यूं ही बदतर रहे तो कभी वह आदिवासियों के रिश्तेदारों या माओवादियों द्वारा मार दिये जायेंगे, नहीं तो जेल जायेंगे।’ रायपुर प्रेस क्लब  के यह कहने पर कि वह  प्रशांत भूषण जैसे वकीलों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करेगा और मंच मुहैया नहीं करायेगा, के जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा ‘यह गैर संवैधानिक और मूल अधिकारों का हनन है। प्रेस क्लब से पूछा जाना चाहिए कि क्या सरकार माओवादी समर्थकों को गिनने में सक्षम नहीं है, जो प्रेस क्लब यह काम अपने हाथों में ले रहा है।’ इस बारे में प्रेस क्लब के अध्यक्ष अनिल पुसदकर कहते हैं- ‘प्रेस ने गलतबयानी की है।’ जबकि ''हरिभूमि'' में छपी खबर की तफ्शीश करने पर समाचार पत्र के रायपुर संपादक से पता चला कि ‘यह खबर सभी दैनिकों में छपी है, वह अब मुकर जायें तो बात दीगर है।’
सवाल यह है कि अगर मीडिया को कोई दलाल कहता है तो क्या उसे प्रेस क्लब में आने से रोक देना उचित है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मांग करने वाले मीडिया के जनतांत्रिक संस्थाओं के रहनुमा ही ऐसी ऊटपटांग बातें करेंगे तो सरकार के बाकी धड़ों से हम किस नैतिकता के बल पर पारदर्शी होने की मांग करेंगे? हाल-फिलहाल की बात करें तो बिकते मीडिया को लेकर सर्वाधिक चिंता मीडियाकर्मियों की ही रही है। हमारे बीच नहीं रहे पत्रकार प्रभाष जोशी इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं, जिन्होंने जीवन के अंतिम समय तक मीडिया की दलाली पर तीखी टिप्पणी की। उन्हीं के द्वारा उठायी गयी आवाज का असर है कि एडिटर्स गिल्ड में इस मसले पर गंभीरता से विचार करने का सिलसिला शुरू हुआ है।
प्रेस क्लब के इस निर्णय पर अध्यक्ष अनिल पुसदकर से बातचीत-

एनजीओ, बुद्धिजीवियों और वकीलों के वह कौन से लक्षण हैं जिसके आधार पर आप प्रेस क्लब उनको मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने देंगे?

हमने ऐसा नहीं कहा। बाहर से आकर जो लोग सच्चाई जाने बगैर छत्तीसगढ़ की मीडिया को बिकाऊ और दलाल कह रहे हैं उन्हें प्रेस क्लब का मंच के तौर पर इस्तेमाल नहीं करने दिया जायेगा। कुछ ही दिन पहले संदीप पाण्डेय और मेधा पाटकर क्लब में कार्यक्रम करके गये हैं लेकिन हमने उन्हें नहीं रोका। जबकि प्रेस क्लब के बाहर लोग उनके खिलाफ धरना दे रहे थे।

लेकिन आपने ये कैसे तय किया कि मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय नक्सली बुद्धिजीवी हैं?

आप हमारी बात नहीं समझ रहे। मेरा कहना है कि अगर ऐसे बुद्धिजीवियों को आने से रोकने का हमारा निर्णय होता तो उन्हें हम क्यों आने देते। प्रेस क्लब सबका सम्मान करता है।

किस वकील पर कानूनी कार्यवाही की बात आपने की है?

सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण को ही लीजिए। वे पेशे से वकील हैं लेकिन जिस तरह वह यहां के बारे में बोलकर गये, क्या ठीक था।

प्रशांत भूषण ने प्रेस क्लब के बारे में कुछ कहा क्या?
छत्तीसगढ के डीजीपी विश्वरंजन के बारे में की गयी प्रशांत भूषण की टिप्पणी अपमानजनक थी। हम राज्य के लोग हैं और राज्य या यहां के किसी अधिकारी के बारे में अपमानजनक टिप्पणी कैसे सहन कर सकते हैं।

रायपुर के दैनिकों में जो आपके हवाले से इस बारे में छपा है वो क्या है?
हमने वैसा नहीं कहा, जैसा उन्होंने छापा।

प्रेस ने आपको लेकर जो गलतबयानी की है इस बारे में क्लब ने कोई शिकायत दर्ज की है?
कैसे दर्ज करायें, अभी बीमार हैं।

स्थानीय मीडिया को कोई दलाल या बिकाऊ बोलेगा तो उसे क्लब को मंच नहीं बनाने देंगे, ऐसा क्यों?
जैसे दंतेवाड़ा की घटना है तो वहां के स्थानीय मीडिया को कोई कुछ कहे तो बात समझ में आती है, लेकिन कोई पूरे छत्तीसगढ़ की मीडिया को दलाल बोले तो कोई पत्रकार कैसे सहन कर सकता है? दूसरा कि जो लोग बाहर से आये थे उन्होंने स्थानीय मीडियाकर्मियों से मारपीट की और कैमरा छीन लिया।

लेकिन पता तो यह चला है कि जब मेधा पाटकर और संदीप पाण्डेय आये थे तब उन लोगों का कैमरा पुलिस ने वापस किया?
इस बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है।

आपको अपने बयान पर खेद है?
हमने जब कहा ही नहीं तो खेद किस बात का। यह तो मीडिया की गलतबयानी है, जिसका मैं जवाब दे रहा हूं।


मामले की और बारीकी जानने के लिए यहां क्लिक करें.........

15 comments:

  1. नक्सली बुद्धीजीवियों को पहचानना यों इतना कठिन भी नहीं है जितना आप समझा रहे हैं. आदिवासियों को हक दिलाने के नाम पर जो उनकी नृशंस हत्या की अनुशंसा करता दिखे, जो हथियारबंद आतंकवादियों को मजलूम बताये, जो किसी भी बड़े नक्सली नेता के गिरफ्तार होते ही ऐसा रूदन शुरु करे कि उसका बाप मर गया, जो नक्सलियों के गांव, पुलिस स्टेशन, जेल आदि पर हमलों पर चूं न बोले, और जैसे ही नक्सलियों के खिलाफ कार्यवाही हो वो लेख पर लेख लिख मारे, बयान पर बयान दे मारे, वो किसका प्रतिबद्ध है वह समझ आ जाता है.

    अनिल पुसदकर ने देर से मगर सही फैसला किया है. कोई समझाये कि इन हत्यारे नक्सलीयों को तो प्रेस क्लब में बिठाकर कर समोसा खिलाना सही है, लेकिन जो इनके द्वारा मारे गये उन्हें कौन सा मंच दिया जाता है?

    कातिलों को सर पर बिठा कर कितना नचायें?

    No more deals with murderers.

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  2. चलिये सवेरा हो रहा है। पत्रकार अगर इतनी जिम्मेदारी से आगे आयेंगे तो नक्सल समस्या को जमीन मिलनी बंद हो जायेगी। असल में इस समस्या का हल कभी का निकल गया होता अगर उसे प्रसार करने का धरातल प्रेस ही मुहैय्या नहीं कराता। छतीसगढ के पत्रकारों और प्रेसक्लब के इस फैसले के पीछे का दर्द भी समझा जा सकता है आखिर सत्य का बलात्कार बर्दाश्त किये जाने की भी हद होती है। अनिल पुसदकर जी आप साधुवाद के पात्र हैं।

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  3. thanks.
    publish kara diya hai bhadas4media.com pe. bilkul sahi mudda sahi tareeke se uthaaya hai. raipur press club ko condemn kiya jaana chahiy.
    regards
    yashwant

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  4. sangitaa upadhyaay ke naam se jaaari phone se baat karane vale ko ye bhi batana vchaahiye ki dgp ke viskhay me mujhase kab baat hui.hamara virodh sirf bikau logon dvara local midia ko bikaau kahane ka hai,dam hai to ise prakashit karanaa.maiane kaha tha li sandeep panadey aur medhaa ji ko hamane praayojit hamale se bachayaa to kya ham unke samarythak ho gaye.bura lagata hogaa aap logon ko aur shubhraanshu jaise kathit patrakaaro ko jo bhuk se kisaaano ki jhuti khabar chaapate hain aur yanhaa ke logon se us khabar ko chhapane ki chirauri karate hain.aur kisi ko goli maar dene ke sarvajanik ghasshana karana democratic kaise ho sakati hai tab yaad nahi aayi democracy ki.mera dava hai ki aap is baat ko publish nahi karenge.bastar ke logo ko black out karke andhere me rahane par majboor karana deemocratic hai na?bastar ki nirdoshh logo ko goli maarna democratic hai na.jis rail line par kabhi accident nahi hua us par aaye din railon ko derail karna democratic hai na?police valon ke mare jane pa manavadhikaar ka ronaa undemocratic hai na?manavadhikar sirf naxaliyon ke hi hote hain na?aur bhi saval hai jisaka javab main aapase puchhunga.lekin kisi se anaupacharik baatchit ko yun blog par interviev bana kar chhap dena kaun si mardaaangi hai?dam hai to fir kisi din phone laganaa lekin khud ke kisi bhade kje phon se nahi.fir baat karenge khulkar.is comment ko chhap dena to maanaunga.

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  5. anil pudaskr ji bazaroo patrkarita k lie bazroo bhasha par utar aae. rajeev ranjan ji ne kodh me khaj paida kyaa. sachmuch ye bahut dukhad hai. is desh ko grih yudh ki taraf ke jane wale visvranjan, mahendr karma, chidambaram,...k bare me aap log kaise sochte ho? modi, aadvani,...sazzan kumar aadi v unki party k bare me aapk kya vichar hai? chhatishgarh ko m ou v sena gathbandhan se bech khane wale "loktantrik" netao k bare me aap ki rai hai? kahi aap green hunt k shikar to nahi gae ya is shikarbazi me ek morch aapne bhi sambhal lya hai?
    baharhal, aap ki is dalali se patrkarita k mukh par kalikh lagana tya hai. patrkarita me mardangi jhadne v dekh lene ka jumala nahi chalata. lagata hai aapne "loktantr k thekedaro" ki bhasha ko bhi patrkarita me ghusa rahe hai.
    patrkarita sach k saath khadi hoti hai. loktanr me sach yadi TANTRa k paas hai tab to aap sou gne sach hai. lekin aap bhi jante hai ki ye sach nahi fareb hai. is farebi rajneeti aur patrkarita ka arth pudaskar ji khoob jante hoge.
    ajy ko badhai! peet aur dalali ki patrkarita se mukt hue bina jan pachhdhar patrkarita sambhav nahi hai.
    anjani kumar

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  6. चुनावों में विज्ञापन लेकर ख़बर छापने वाले बिकाऊ नहीं तो और क्या हैं?

    और हां आंदोलन क्लबों के सर्टिफ़िकेट से नहीं जनता के समर्थन से चलते हैं भाई…बंदूक की रुमानियत से बाहर निकलकर अगर यह आंदोलन जनता के बीच अपनी व्यापक पैठ बनाने का प्रयास कर एक बेहतर समाज का स्वप्न दिखा पायेगा तभी सफल होगा वर्ना आंध्र का उदाहरण सामने है। यह समझना होगा कि जनता को आज से अधिक लोकतंत्र, समानता,समृद्धि और शांति चाहिये। जिस दिन आप उसे यह दे पाने का विश्वास दिला देंगे वह आपके साथ होगी। तब शायद यह परिवर्तन ज़्यादा आसान और ज़्यादा शांतिपूर्ण ही होगा।

    पत्रकार जब राज्य के अधिकारी का अपमान' न बर्दाश्त कर पा रहे हों तो इस नाभिनालबद्धता की मज़बूरी समझी जा सकती है भाई!!!

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  7. इस संदर्भ में दो-तीन बातें हैं जो कही जानी जरूरी लगती हैं। पहली यह, कि अनिल पुसदकर जी या भारत के किसी प्रेस क्‍लब का कोई भी पदाधिकारी इस गफलत में न रहे कि किसी भी व्‍यक्ति को अपनी बात कहने के लिए प्रेस क्‍लब के मंच के अलावा और कोई रास्‍ता नहीं। यह सही है कि प्रेस क्‍लब एक ऐसी जगह होती है जहां बिना ज्‍यादा प्रयास के पत्रकारों से मुलाकात हो जाती है, लेकिन प्रेस क्‍लब में एंट्री प्रतिबंधित कर कोई अभिव्‍यक्ति को बाधित नहीं कर सकता।
    दूसरे, याद रखना चाहिए कि प्रेस क्‍लब स्‍टेट की एक संस्‍था है और जितना मैं समझता हूं, शायद ही कोई ऐसा प्रेस क्‍लब सदस्‍य हो जो अपनी सदस्‍यता गंवाना चाहता हो। जाहिर है, प्रेस क्‍लबों की सदस्‍यता और पदाधिकार के अपने प्रच्‍छन्‍न हित होते हैं, जैसा कि हम दिल्‍ली में भी देख सकते हैं। ऊपर से सस्‍ते मुर्गा-दारू का लोभ किसी भी कमजोर दिल वाले को दलाल बनाने के लिए काफी है। दरअसल, जनरलाइज न भी करें तो मोटे तौर पर सभी प्रेस क्‍लबों की यही हालत है और उनके सदस्‍यों की भी। इसलिए स्‍टेट की एक संस्‍था द्वारा किसी को भी पतिबंधित किए जाने की भर्त्‍सना करते हुए यह भूलना नहीं चाहिए कि आखिर को वह स्‍टेट का ही हिस्‍सा है, और ऐसी संस्‍थाओं में ऐसे ही लोग पैदा होते हैं जिनके प्रच्‍छन्‍न हित स्‍टेट की चाटुकारिता से पूरे होते हों।
    तीसरी बात, अनिल पुसदकर जी की भाषा बहुत खराब है। पत्रकारों के बीच धमकी की भाषा ठीक नहीं। इससे यही आभास होता है, बल्कि सिद्ध होता है कि प्रेस क्‍लबों के पदों पर मूलत: गैर-पत्रकार काबिज हैं जिन्‍हें न भाषा की तमीज़ है, न लोकतंत्र के अर्थ का कोई अहसास। रायपुर में भी लगभग वही हालात होंगे, जैसा कि दिल्‍ली में है, कि यहां 70 फीसदी रीयल एस्‍टेट डीलर और ठेकेदार ही प्रेस क्‍लब में नज़र आते हैं। मुझे लगता है कि ऐसे लोगों की भर्त्‍सना और निंदा ही की जा सकती है, आलोचना नहीं क्‍योंकि फिर ऐसा करना दीवार पर सिर मारने जैसा होगा। इन्‍हें तो कुछ समझ में आने नहीं वाला, अनावश्‍यक हम अपने जीवन में तनाव पाल बैठेंगे।

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  8. press club sarkari chande par chalne wali sansthaye ban chuki hai. aisi me sarkari suvidhaon k aadi ho chuke logon ke liye vishavranjan jaise adhikariyon ki har galat baat ka samarthan aur bachav karna majboori hai. media nahi balki vishavranjan jaise adhikari ka bachav karne wale mediakarmi bikau hain. patarkarita ko press club ki char diwari me quad karna sahi nahi hai.
    dharmveer

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  9. अनिल पुसदकर केवल ट्रांसपोटर है. वह किसी भी अखबार से, चैनल से नहीं जुड़े हैं औऱ ना ही स्वतंत्र रुप से कहीं लिखते हैं. उन्होंने लिखा भी है कि उन्होंने पत्रकारिता से तौबा कर ली है हां, उनकी भाषा जरुर लंपटों वाली है. एक पूर्व पत्रकार को लंपटों की भाषा में नहीं लिखना चाहिए.

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  10. main anil pusdkar ji se puchana chahti hoon ki unhone real main kabhi patkarika ki bhi hai ya nahi ya phir yun hi dhamki aur naukarshahon ki chatukarita se we raipur press club par kabij ho gaye. anil ji aap yaha aap apni baat rakh rahe hain ya phir sidhe sidhe dhamki de rahe hain jaise ki tum ye post chhap doge to maan jaunga. loktantra ke chauthe stambh ka partinidhi kahlane ka haq kam se kam aise insaan ko nahi hona chahiye. prshant bhushan aur aam janta ke bare main sochane wale logon tak anil ji katghare main khara karte hain to isse kahi n kahin unke jan sarokaron ka pata bhi chalta hai

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  11. sabse pahle mai ajay ji ke himmat ki daad dena chahungi jo aaj ki baajaru aur sarkaar ki dalal patrakarita ke virodh me khade hue!!!
    dusara kahna chahungi ki press club kisi ki bapauti nhi hai jahan koi apna shashan chalaye. vicharon me bhed ho sakata hai lekin har kisi ko apni baat rakhne ka adhikaar v manch milana chahiye, chahe vo naxal samarthak ho ya virodhi.anil pusadkar ki bayanbaaji se itna to saaf ho gya hai ki vo sarkaar ke saath hai jo aadivasiyon par lagataar julm dhaa rhi hai.sarkar se unhe is dalali ki acchi kimat mil rhi hogi.naxal koi samsya nhi hai.garibo, aadivasiyon,daliton,mahilaon ke haq ki aawaj hai.....aur yah aawaj badhti rahegi..jaahir hai is awaaj ko kam karne me anil jaise kai dalal aayenge....

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  12. वाह रे मेरे शेर अनिल!...... छा गए तुम तो!. शानदार!... बस यार ये कमीनापन अब भी तुम्हारे चेहरे से टपक ही जाता है. प्लीज यार कुछ करो इसका, अब तो मेकप वगेरह भी आने लगा है. ट्राई करो यार कुछ प्लीज!
    खैर मुद्दे की बात यह है... जहाँ तक मेरा ख़याल है कि तुम भी इस बात को अच्छी तरह जानते हो (इसके बावजूद की तुम कभी पत्रकार नहीं रहे) की दांतेवाडा , छतीस गढ़ ही नहीं पूरे भारत का मीडिया सिस्टम ही करप्ट है. गौर करना मै मीडिया सिस्टम की बात कर रहा हूँ पत्रकारों की नहीं. और तमाम प्रेस क्लब @#$@#@ लोगों के अड्डे बने हुए हैं. पर यार उन लोगों ने भी बाहर समाज में एक गरिमा बना रखी है, सूत्र यह है लम्पटई करो पर जाहिर मत होने दो लम्पटई को. पर यार तुम तो सीधे सीधे ही अफसरों के प्रवक्ता बन जा रहे हो. अबे यार! करते सब हैं पर बाहर ये सब नहीं कहा जाता. कितनी बार कहा था तुमसे डीलिंग ओउर सेटिंग के अलावां कुछ लिख पढ़ भी लिया करो लपेटने में आसानी हो जाती है. पर तुम भी न... खैर दारू कम करो यार! मुफ्त की मिलती है तो इसका क्या मतलब है ढारने ही लगोगे. देखो आँखों के नीचे पोपटे बन गए हैं. चिंता है तुम्हारी इसलिए कह रहा हूँ. और ये अजय वजय जैसे लोगों की ज्यादा परवाह मत किया करो...और हाँ मेकप की बात मत भूलना.

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  13. yaar, kaha se pasie liye hai?ya kya ek dam aap logo ko fayada milne waala hai ya aap kisi tarah k pahchaan k sankat se gujar rahe ho.hame kuch bhi samjh me nahi aa raha hai ki aap is tarah k farmaan kyo zaari kar rahe ho.(ya kisi matlab parast vyaktivadi snghathan ki koi chaal par ye bhale log koi thos prahar kar rahe hain.kuch bhi samjh me nahi aa raha hai.ab ye bhi zahir baat hai ki aapki samjhdaani kuch jyada hi badi hogi.yaa ye bhi ho sakta hai jaisa ki aap baar baar bol rahe ho ki bahar k log aaye the,bahar k log aaye the abe tum jaisa aadmi hi ye nalayaki bhari baat kar sakta hai isme koi do rai nahi hai.aur raha sawaal ye ki medha ya sandeep jaise logo ko aap press club me meeting karne ki ijaazat dekar saadhuvaad lene ki koshish kar rahe ho to badi galatfahami me ho,medha,sandeep hi nahi,is kism k aur bhi saathi jo theek thaak soch lete hai vo raipur me hi kahi aur kisi jagah par meeting kar sakte hai.aur mujhe pakka bharosa hai ki raipur me jo patrkaar hai unhe aap thode time k liye jaroor bargala sakte hai,ye kabhi mat bhooliye ki unki bhi samjh hai.jiska vo sahi sahi istemal karna chahenge.kheir jo bhi ho is kism ki neechta se aapko bahar aana chahaiye mere khyal se aapki umra 55 k aas paas hogi aur jis kism ki aapki life style hai uske mutabik 10-12 saalo me aap sewa nivratt ho jaaynge, to thoda sahi aur theekane ka likh padh lijiye taaki aapke gaon k log hi aapko jaane aur 26 janvari,15 agust ya kisi sthaniya cricket match me aapko yaad kar liya jaaye.meri salah hi aapki shub kaamnaye hai jay hind jay bharat.

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  14. Anil pusadkar tumhaari bhasha to sadak chhap gundon ke ekdam kareeb baith ti hai...waaah...yaar tumhe to kisi C-grade ki filmon mein dialouge vagairah ka lekhak hona chaiye tha....
    aur jahan tak logon ki baat karne vaaalon ke bahiskaar ka sawaal hai, vo tumhaare ya tumhaare aakaaon ke bas ki baat nahi hai..janta pehchanti hai sabke chehre. Kair tumhe janata se kya lena dena hai..tum to muft ki sharab aur dalaali ki kamayi karo...
    Ajay bhai aap muftkhoron aur satta ke dalalon se mat ghabraaiyega...

    Kabeer

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  15. अक्तूबर 2002 से नवंबर 2003 तक देशबुंधु रायपुर में काम करते हुए कई बार प्रेस क्लब रायपुर जाना हुआ था, कभी किसी प्रेस कांफ्रेंस को कबर करने तो कभी यूँ ही कैरम खेलने या किसी मिलने के लिए.इस दौरान कभी ऐसा नहीं लगा कि वहाँ किसी के आने-जाने या संवाददाता सम्मेलन करने पर पाबंदी है. जैसा कि आज अनिल पुदसकर जी कह रहे हैं. हाँ, पिछले छह-सात सालों में यह बात ज़रूर हुई है कि छत्तीसगढ़ में माओवादी आंदोलन और माओवाद से निपटने के नाम पर पुलसिया उत्पीड़न ज़रूर बढ़ा है. अनिल पुदसकर जी आप जिस पुलिस या सरकार का बचाव करते नज़र आ रहे हैं, यह वहीं सरकार और पुलिस है जिसने 'सलवा जुडूम' नामक अभियान चलाया और उसके अंदर इतना नैतिक साहस भी नहीं था कि वह यह कह सके कि हाँ 'सलवा जुडूम' सरकार द्वारा प्रायोजित है. आप जिस सरकार और पुलिस का बचाव करते नज़र आ रहे हैं, उसके ख़िलाफ़ की गई सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी भी क़ाबिले ग़ौर है. कभी फ़ुरसत मिले तो देखिएगा ज़ररू अनिल पुदसकर जी. अब वह सलवा जुडूम प्याज की तरह नंगा हो गया है. उसमें टाटा और वेदांता सूमह का हित साफ़ नज़र आने लगा है. इसके बाद भी आप पुलिस प्रेम नहीं छोड़ पा रहे हैं. इससे तो दाल में कुछ काला नज़र आ रहा है.
    अनिल पुदसकर जी, एक पत्रकार राष्ट्रीयता, सरहद, पक्ष-विपक्ष और विवादों से अलग हटकर जनता को सच बताने के कर्तव्य का पालन करता है. इसलिए हमें हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम अपनी भारतीयता और क्षेत्रियता को पत्रकारिता के धर्म से अलग रखें.एक आप हैं कि डीजीपी विश्वरंजन को पकड़ कर बैठे हुए हैं और अपने पत्रकारिता धर्म का निर्वाह कर रहे हैं. अनिल पुदसकर जी लगता है आपने डीजीपी विश्वरंजन की करतूतों के बारे पढ़ा या सुना नहीं है.

    अनिल जी आप अपनी टिप्पणी में जिस तरह की धमकी भरी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं, उससे तो यह पता ही नहीं चलता कि यह बोल कौन रहा है, रायपुर प्रेस क्लब का अध्यक्ष या एक पत्रकार या गुंडा-मवाली.
    हाँ एक बात और लगता है कि प्रेस क्लब को लेकर आप किसी भ्रम में हैं. देशभर के प्रेस क्लबों का एक ही हाल है. मयखाना बनकर रह गए हैं प्रेस क्लब, जहाँ सस्ती दारू मिलती है या प्रेस कांफ्रेंस के दौरान कुछ छोटे-मोटे उपहार. अब तो प्रेस क्लबों के घोटाले भी सामने आने लगे हैं. इसलिए अगर आपको लगता है कि प्रेस क्लब कोई पाक-साफ़ जगह है तो मुझे लगता है कि आप मुग़ालते में जी रहे हैं. सरकारी ख़जाने से चलने वाले प्रेस क्लबों से अब इससे अधिक की उम्मीद नहीं रह गई है किसी को.पत्रकारों को भी नहीं.

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