Jan 24, 2009

चीलों का गांव

चीलों का गांव
अजय प्रकाश




यह चौंकाने वाला दृश्य है। हरे-भरे खेतों में चील, बाज, कौए और कुत्ते। इधर से गुजरने वाले लोग चकित रह जाते हैं। लाषों पर मंडराने वाली इन प्रजातियों को फसलों में कुछ टूंगते हुए देखकर। एकबारगी लगता है कि कहीं तेजी से बदल रही पारिस्थितिकी में इन्होंने अपना स्वाद तो नहीं बदल दिया। आलू के खेतों में निराई कर रही मजदूरिन बताती है कि 'ये मांस खा रहे हैं।' बताती है- 'वह जो सामने फैक्ट्रियां दिख रही हैं चील वहीं से मांस ले आती हैं।' तभी तमाम सवालों का एक साथ जवाब लेकर बदबू का एक भभका आता है। गावों की तरफ रूख करने पर पता चलता है कि हड्डी फैक्ट्रियों की वजह से उठ रही बदबू और सड़ांध ने प्रदुशण्ा तो फैलाया ही, पारिवारिक जीवन में भी इस कदर हस्तक्षेप किया कि रामपुर के ग्रामीण समाज का जीवन संकट में है।

हापुड़ की हड्डी मिलें देश में अपनी तरह की अजूबा उद्योग हैं जिनकी वजह से परिवार टूट रहे हैं, बहुएं गांव छोड़कर जा रही हैं। षादी के इंतजार में साल दर साल गुजार रहे बिनब्याहे लड़के-लड़कियां हर लगन के मौसम में सेहरा-मंडप के न्योते की राह तकते हैं। लेकिन कोई रिष्ता लेकर रामपुर गांव की दहलीज पर जल्दी दस्तक नहीं देता। क्योंकि गांव के आसपास उठने वाली मितला देने वाली दुर्गंध को कोई बाहरी व्यक्ति सहन नहीं कर पाता। गांव के मुंहाने से ही रिष्ते के लिए आने वाले यह कहते हुए लौट जाते हैं कि बदबू के इस दमघोटूं माहौल में कोई यहां अपने दुष्मन को ही भेज सकता है, षादी करके अपने जिगर के टुकड़ों को नहीं।
पिछले दो दशक से इस इलाके में चल रही इन फैक्ट्रियों से मांस की पैकिंग, चर्बी निकालने का व्यवसाय और क्राकरी इस्तेमाल के लिए हड़डी जलाने का काम होता रहा है। खुर, चर्बी ,लाद आदि को उबालकर जहां चर्बी बनायी जाती रही है वहीं हड़डी जलाकर सौंदर्यप्रसाधन व क्राकरी के उत्पाद बनाये जाते रहे हैं। मांस उबालने और हड़डी जलाने से, जानवरों की लाशें सड़ने से बदबू पैदा होती है। जिले सिंह अपने बेटे की षादी और उसके बाद जो घटित हुआ उसके बारे में कहते हैं कि 'बेटे की षादी यह कह कर की, कि बहू गांव में नहीं षहर में रहेगी। षादी के बाद अजीब लगा कि सिर्फ यहां से चार किलोमीटर दूर हापुड़ में बेटा-बहू रहें और हम गांव में। पर बहू ने चंद दिनों बाद ही ऐलान कर दिया कि यहां रहना उसे एक दिन भी गंवारा नहीं।'

दूसरे गांव वालों ने इन्हीं वजहों से इस गांव के तमाम उपनाम रख छोड़े हैं। कोई इसे चीलों का गांव कहता है तो कोई हड्डी फैक्ट्री वाला गांव। रामपरु के बाषिंदों के दिल में टीस तो तब उठती है जब उनके हरे भरे गांव को बदबूपुर कहा जाता है। खेती-बाड़ी, जमीन-जायदाद हर मामले में किसी आम गांव के मुकाबले संपन्न रामपुर को एक ऐसी पीड़ा से लगभग दो दषकों से गुजरना पड़ रहा है जिसके लिए वे गुनहगार नहीं है। यहां तक कि रामपुर का एक भी ग्रामीण कभी फैक्ट्रियों कार्यरत नहीं रहा। बताया जाता है कि जब यह फक्ट्रियां खुले आम चला करतीं थी तो स्थानीय गरीब मुसलमान और गरीब जाटव काम पर जाया करते थे। लेकिन बुजुर्ग हीरालाल जाटव को इन कंपनियों से नफरत है। वे कहते है,ं 'हम लोगों को ये हड्डी मिलें बूढ़ा, रोगी और असहाय बना रही हैं।'

पब्लिक एजेंडा से साभार