Feb 24, 2016

जेएनयू छात्रों के बलात्कार का आह्वान करने वाला नहीं है दैनिक जागरण का पत्रकार

समाज में विचाारधाराओं का आपसी पूर्वग्रह इतना बड़ा होता जा रहा है कि हम किसी खबर के सच और झूठ का फैसला तथ्यों के आइने में नहीं बल्कि विचारधाराओं की अंध​भक्ति में कर रहे हैं। इस मामले में संघी या वामपंथी कई बार एक जैसे नजर आते हैं। वे तथ्यों को जांचे बिना अपने वैचारिक मान्यताओं को सच बनाकर पेश करने लगते हैं।

आज सुबह से कई वेबसाइट्स पर दैनिक जागरण से जुड़े किसी डिप्टी न्यूज एडिटर डॉक्टर अनिल दीक्षित का पोस्ट यह कहते हुए शेयर हो रहा है कि उसने जेएनयू से गिरफ्तार उमर खालिद और अनिर्बान भट्टाचार्य के साथ जेल में बलात्कार के लिए कैदियों को उकसाने वाला पोस्ट लिखा है। तमाम ​वामपंथी पक्षधर, मुस्लिम इस खबर को चटर—पटर बनाकर तरह—तरह से पेश कर रहे हैं। शेयर करने वालों में कई साइट्स, पत्रकार और बुद्धिजीवी शामिल हैं।

लेकिन इस मामले में सबसे पहले क्या होना चाहिए था। क्या दैनिक जागरण से एक बार नहीं पूछा जाना चाहिए था कि क्या उनका यह पत्रकार है और उस पर संस्थान ने क्या कार्रवाई किया। या अगर सीधे नहीं पूछ सकते थे तो एक बार किसी पत्रकार से ही जान लेते। पर हममें से किसी ने यह नहीं किया। बस मान्यता के आधार पर समझ बना ली कि जागरण का पत्रकार होगा तो संघी ही होगा और ऐसा ही लिख सकता हैै।

जागरण से मिली जानकारी के मुताबिक इस नाम का कोई डिप्टी न्यूज एडिटर उनके संस्थान में नहीं है। और ​अनिल दीक्षित ने भी प्रोफाइल में 'फॉर्मर डिप्टी न्यूज एडिटर' लिखा है। प्रोफाइल के मुताबिक अनिल दीक्षित पेशे से वकील होने का दावा करते हैं।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही कि यह गलती वामपंथियों के बड़े धड़े से कैसी हुई। क्या वह धीरे—धीरे ​दक्षिणपंथी मुर्खतवाद के शिकार होते जा रहे हैं और उन्हें भी लगता है कि विचारधारा की मजबूती के लिए फर्जी जानकारियों और पूर्वग्रहग्रस्त तथ्यों का सहारा लिया जाना चाहिए।

या फिर वह एक एनडीटीवी को अपना मानकर बाकी मीडिया को अपना दुश्मन समझ बैठे हैं। 

यहां इस जवाब का कोई मतलब नहीं है कि पहले उसकी प्रोफाइल में दैनिक जागरण ही लिखा था। कल को कोर्इ् अपनी प्रोफाइल पर कुछ भी लिख दे तो आप उसके लिए किसी संस्थान को जिम्मेदार कैसे मान लेंगे और बिना जांचे - परखे  गुट बनाके उसको बदनाम करने में जुट  जाएंगे।

Feb 17, 2016

‘व्यभिचारी का बिस्तर’ बनने से बाज़ आये दिल्ली पुलिस

मुरली मनोहर प्रसाद सिंह जनवादी लेखक संघ

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, इन दोनों से जुड़े मामलों में आरएसएस-भाजपा और उसके इशारे पर काम करती दिल्ली पुलिस का रवैया बेहद चिंताजनक है. हिन्दुत्ववादी ताक़तें संविधान को ताक़ पर रखकर राज्य की मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए हर तरह की असहमति को कुचल देने पर आमादा हैं. 

दिल्ली पुलिस के लिए गोया क़ानून की किताब का कोई मतलब नहीं रह गया है और वह सीधे-सीधे अपने राजनीतिक आक़ाओं से दिशा-निर्देश ले रही है. जेएनयू से जिस तरह छात्र-संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ़्तार किया गया, जिस तरह पटियाला हाउस कोर्ट में वकील की वर्दी पहने आरएसएस के गुंडों ने पत्रकारों और विद्यार्थियों के साथ मारपीट करके उन्हें बुरी तरह घायल किया और पुलिस मूक दर्शक बनी देखती रही, जिस तरह पुलिस कमिश्नर ने उस भयावह घटना को ‘मामूली झड़प’ बताकर किनारे करने की कोशिश की, एफ़आइआर दर्ज करने में ना-नुकर की गयी और अंततः सभी चेहरों की पहचान होने के बावजूद ‘अज्ञात व्यक्तियों’ के ख़िलाफ़ एफ़आइआर दर्ज की गयी—ये सब इस बात का शर्मनाक सबूत हैं कि कानून के रक्षक ही उसके भक्षक की भूमिका में उतर आये हैं. 

पटियाला हाउस कोर्ट की घटना को मामूली झड़प साबित करने के लिए केन्द्रीय गृह-राज्यमंत्री किरण रिजिजू का यह कहना कि ‘वहाँ कोई मर्डर तो नहीं हुआ था ना’, बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. उधर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में अफज़ल गुरु की याद में हुए आयोजन में जो नारे लगे, उसके आरोप में आयोजन से जुड़े होने के नाम पर दिल्ली विश्वविद्यालय और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया से सम्बद्ध कई बुद्धिजीवियों-पत्रकारों को पुलिस लगातार परेशान करती रही. 

उन्हें संसद भवन थाने में बुलाकर पूछताछ के नाम पर आधी-आधी रात तक बिठाए रखने का सिलसिला कई दिनों तक चलता रहा और अभी भी जारी है. इनमें प्रो. अली जावेद, प्रो. निर्मलान्शु मुखर्जी और सेवानिवृत्त प्रो. विजय सिंह के अलावा श्री राहुल जलाली और नसीम अहमद क़ाज़मी भी शामिल हैं.

एक ओर बहुत कमज़ोर आधारों पर विद्यार्थियों तथा बुद्धिजीवियों के ख़िलाफ़ दिल्ली पुलिस की सख्त कार्रवाई और दूसरी ओर हिन्दुत्ववादी ताक़तों की साजिशों तथा उनके द्वारा कानून के खुल्लमखुल्ला उल्लंघन-अनादर के प्रति दिल्ली पुलिस का बेहद नरम रवैया—यह दिखाता है कि जिन पर कानून-व्यवस्था बनाए रखने का दारोमदार है, वे ही उसकी धज्जियां उड़ाने का साधन बन रहे हैं. मुक्तिबोध की पंक्तियाँ याद करें तो यह किसी व्यभिचारी का बिस्तर बन जाने जैसा है. 

आरएसएस-भाजपा और उससे जुड़े अनगिनत छोटे-बड़े संगठन हास्यास्पद तरीक़े से, झूठ और फ़रेब का सहारा लेकर देशद्रोह का आरोप मढ़ते हैं और पुलिस उस दिशा में सक्रिय हो जाती है जिधर उनकी उंगली उठी होती है. यह पूरा पैटर्न इतना ख़तरनाक है कि किसी भी और चीज़ को देशद्रोह की श्रेणी में रखने से पहले इसे ही देशद्रोह कहना उचित लगता है. यह देश की जनता के ख़िलाफ़ है, देश के संविधान और कानून के ख़िलाफ़ है, विवेक और अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख़िलाफ़ है, बहुलता और विविधता में एकता के उन मूल्यों के ख़िलाफ़ है जिन पर भारतीय गणतंत्र की नींव रखी गयी है.

केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस और इन दोनों को अपने फौलादी नियंत्रण में चलाती आरएसएस-भाजपा की कारगुजारियों की हम कठोर शब्दों में निंदा करते हैं. जनवादी लेखक संघ यह मांग करता है कि विद्यार्थियों, पत्रकारों पर हमला करनेवाले—जिनमें भाजपा विधायक ओ पी शर्मा भी शामिल हैं—अविलम्ब गिरफ्तार किये जाएँ, कन्हैया कुमार को रिहा किया जाए, जनेवि में पुलिस की अवांछित दखल पर रोक लगे, और प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के आयोजन के नाम पर महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का पुलिसिया उत्पीड़न बंद किया जाए.

Feb 16, 2016

'कन्हैया की मां कहती हैं, मेरी आत्मा बेटे के साथ जेल में बंद है'

गोरे अंग्रेजों ने भगत सिंह को देशद्रोही कहा, काले अंग्रेज कन्हैया को कह रहे- कन्हैया के पिता 

कन्हैया के गांव बीहट से लौटकर पुष्पराज की रिपोर्ट

भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह जवाहरलाल नेहरू विश्चविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया को देश के लिए खतरा मान रहे हैं। एक तथाकथित देशद्रोही की पृष्ठभूमि को जानने के लिए मैं बेगूसराय के बीहट गांव में खड़ा हूँ।

बेगूसराय मीडिया डाॅट काॅम के संपादक प्रवीण कुमार इस समय मेरे मार्गदर्शक हैं। प्रवीण हमें बताते हैं कि यह बीहट का मसनदपुर मुहल्ला है। बिहार के पहले मुख्यमंत्री डाॅ. श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रालय में सबसे विश्वस्त मंत्री रहे रामचरित्र सिंह के पुत्र चन्द्रशेखर सिंह ने पिता से बगावत कर कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा उठाया था। कामरेड चन्द्रशेखर को बिहार का लाल सितारा कहा गया। कन्हैया का घर काॅमरेड चन्द्रशेखर के घर के पास ही है। कन्हैया काॅमरेड चन्द्रशेखर के गोतिया यानी पड़ोसी हैं।
कन्हैया के माता-पिता                                                                       फोटो - पुष्पराज      
सप्ताह का सबसे चर्चित युवा
पिछले एक सप्ताह में दुनिया का सबसे चर्चित युवा बन चुके कन्हैया के घर पर स्थानीय मीडिया और समर्थकों का आना-जाना लगा है। बुजुर्ग काॅमरेड राजेन्द्र सिंह ने बताया कि आधे घंटे पहले पूर्व विधायक राजेन्द्र राजन कन्हैया के परिवारजन से मिलकर गये हैं। पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिंह कल आये थे। आज जदयू के जिलाध्यक्ष भूमिपाल राय घर आये थे। उन्होंने जदयू के प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह से कन्हैया के पिता जयशंकर सिंह से फोन से बात करायी है। वशिष्ट नारायण सिंह ने कहा कि ‘आप चिंता ना करें, कन्हैया के साथ पूरा देष है।’

ईंट की दीवार और खपड़ैल की छत वाले चमत्कार विहीन घर को सब गौर से देख रहे हैं। सर गणेशदत्त महाविद्यालय, बेगूसराय में रसायन शास्त्र के अवकाश प्राप्त प्राध्यापक प्रो. परमानंद सिंह जानना चाहते हैं कि पुलिस ने एफआईआर में कौन सी धारायें लगायी हैं। घर के लोगों को कुछ भी नहीं पता कि कन्हैया के विरूद्ध पुलिस और कानून क्या कर रही है? देश की मीडिया जो कुछ बता रही हैं, पड़ोसी देखकर-सुनकर बता रहे हैं।

अभी दुआरे 'दरवाजे' के सामने 25 से ज्यादा लोग बैठे हैं। कुर्सियां कम पड़ रही हैं तो लोग खड़े हैं। गांव और आस-पड़ोस के लोग टीवी पर नजर रख रहे हैं। लोगों जानना चाहते हैं कि कोर्ट क्या फैसला देती है। दिल्ली के पटियाला हाउस में कन्हैया के मामले में सुनवाई होनी है लेकिन भाजपा के विधायक ओपी शर्मा और संघ के स्वयंसेवकों ने पत्रकारों और जेएनयू के शिक्षक-छात्रों पर हमला कर दिया है।

मीडिया को नहीं दी एफआइआर की कॉपी
सब लोग दुखी हैं कि आज कन्हैया को अदालत से जमानत नहीं मिली। पटियाला हाउस में क्या हो गया। कितना सही है कितना झूठ? दिल्ली की मीडिया पर गांव के लोगों को भरोसा नहीं। मैंने एनडीटीवी के कार्यकारी संपादक मनोरंजन भारती से फोन कर पटियाला हाउस में क्या हुआ इसकी जानकारी ली। मनोरंजन भारती ने जब कहा कि पुलिस राष्ट्रद्रोह के आरोप की पड़ताल कर रही है। पर पुलिस ने अबतक किसी एफआईआर की काॅपी मीडिया को नहीं दी है। संभव है कि अभी तक एफआईआर दर्ज ही नहीं हुआ। घर के लोग डरे हैं कि क्या एफआईआर पुलिस की बजाय गृृहमंत्री खुद ही तैयार करेंगे?
क्रांतिकारियों की जननी बीहट    
बीहट नगर परिषद् की आबादी 70 हजार से ज्यादा है। जब बेगूसराय जिला के सभी विधानसभा क्षेत्रों पर कम्युनिस्ट पार्टी का लाल पताका लहराता था तो बेगूसराय को राष्ट्रीय मीडिया ने ‘लेनिनग्राद’ और बीहट को ‘मिनी मास्को’ की संज्ञा दी थी। कांग्रेस पार्टी की केन्द्रीय सत्ता ने बेगूसराय से कम्युनिस्ट पार्टी के सफाये के लिए बेगूसराय के ही एक तस्कर को राजनीतिक संरक्षण देकर कम्युनिस्टों पर हमला शुरू करवाया था।

राज्यपोषित अंतर्राष्ट्रीय तस्कर के हमलों का जवाब देने के लिए कम्युनिस्टों ने हथियार बंद संघर्ष किया था। उस सशस्त्र संघर्ष में सबसे बड़ी शहादत बीहट के लेागों ने दी थी। बीहट के 30 से ज्यादा क्रांतिकारी कम्युनिस्ट संघर्ष में शहीद हुए। अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने कभी बीहट को ‘क्रांतिकारियों की विधवाओं का गांव’ भी कहा था। आज भी शहीदों के स्मारक अतीत की याद दिलाते हैं। तब बीहट को ‘बारदोली’ कहा गया था। लेनिनग्राद के मिनी मास्को-बारदोली का बेटा कन्हैया क्या देशद्रोही हो सकता है?
    
मजदूरी करते  रहे कन्हैया के पिता
कन्हैया के दादा मंगल सिंह काॅमरेड चन्द्रशेखर के बाल-सखा थे। मंगल सिंह बरौनी खाद कारखाना में फोरमेन थे। हम जिस ईंट-खरपैल घर में कन्हैया के परिवारजन से मिल रहे हैं उसे मंगल सिंह ने 6 दशक पहले बनाया था। इसी घर में जयशंकर सिंह दो भाईयों के संयुक्त परिवार के साथ निवास करते हैं। कन्हैया के पिता जयशंकर सिंह जीरोमाइल में गिट्टी-बालू ढोने की मजदूरी करते थे तो कभी जीप की ड्राइवरी भी करते थे। भूमिहीन मजदूर जयशंकर सिंह ने गरीबी की वजह से हायर सेकेण्डरी से आगे की पढ़ाई नहीं की।

जयशंकर सिंह कठोर श्रम करने वाले एक मेहनतकश थे। मजदूर अगर ज्यादा पैसे कमाने के लिए 8 घंटे से ज्यादा श्रम करे तो अतिश्रम से मजदूर अपनी मानवीय शक्ति का दोहन ही करेगा। जयशंकर सिंह को 2009 में लकवा मार गया। लकवे के मरीज को बेहतरीन इलाज और बेहतरीन पोषण चाहिए। गरीबी और जेहालत में ऐसा मुमकिन नहीं था। जयशंकर सिंह अपने पांव से चल नहीं सकते हैं इसलिए अंधेरे भरे कमरे में ही इनसे मिलना अच्छा?

मैंने पूछा क्या लकवा की कोई दवा इस समय ले रहे हैं? नहीं, भरपेट भोजन और परहेज ही दवा है। हंसते हुए कहा-दवा के लिए नाजायज पैसे कहां से आयेंगे। मैं जीवन में पहली बार ऐसे इंसान से मिल रहा हूँ जो अपने लिए जरूरी दवा को नाजायज मान रहा है। संभव है कि दवा और सही पोषण से जयशंकर सिंह स्वस्थ हो जायें लेकिन दवा के लिए नाजायज पैसा कहां से आये? पत्नी मीणा देवी आंगनबाड़ी सेविका हैं तो 3 हजार रुपये मासिक हर माह घर आते हैं। एक बेटा, कन्हैया का बड़ा भाई मणिकांत असम के बोगाई गांव में एक कारखाने में 6 हजार रुपये मासिक की कमाई करता है।

हम कम्युनिस्ट हैं यही पाप हो गया 
पिता जयशंकर सिंह​ किशोर उम्र से कम्युनिस्ट पार्टी के मेंबर हैं। अभी भी कार्ड होल्डर हैं। माता मीणा देवी भी समर्पित काॅमरेड हैं। कन्हैया के पिता मुझसे पूछते हैं, हम कम्युनिस्ट खानदान से हैं क्या यही पाप हो गया? दूसरे लोग इन्हें मना करते हैं, नहीं ऐसी बात नहीं सोचिए। भगत सिंह को अंग्रेजों ने राष्ट्रद्रोही कहकर ही फांसी पर लटका दिया था। आज आजाद भारत की सरकार मेरे बेटे को राष्ट्रद्रोही कह रही है। हंसते हुए कहते हैं-मेरे बेटे ने जेएनयू पर एबीवीपी को कब्जा नहीं करने दिया तो अब एबीवीपी बदला सधा रही हैं। मैं अपनी कमाई से जीवन में एक ईंट नहीं जोड़ पाया पर आज गर्व है कि मैं भगत सिंह के रास्ते पर खड़े कन्हैया का पिता हूँ।

 कन्हैया के पिता को गर्व है कि हम खानदानी कम्युनिस्ट हैं। मेरा बेटा अगर कम्युनिस्ट नहीं होता तो उसे राष्ट्रद्रोही नहीं कहा जाता। दिल्ली से पुलिस कमिश्नर का फोन आया कि आपके बेटे को राष्ट्रद्रोह में जेल भेजा जा रहा है। मैंने कहा-‘आप गलत कर रहे हैं, मेरा बेटा किसी कीमत पर राष्ट्रद्रोही नहीं हो सकता है।’ मां मीणा देवी कहती हैं, मेरी आत्मा बेटे के साथ जेल में बंद है। हमारी इच्छा होती है कि हम उड़कर बेटे को देखने चले जायें लेकिन मेरी टांग पर ही बीमार पति की जिंदगी है। आजू-बाजू के लोग चर्चा कर रहे हैं कि बिहार में विपक्ष के नेता चन्द्रशेखर को गांधी मैदान की हजारों की सभा में कांग्रेस के मुख्यमंत्री के. बी. सहाय ने गुंडों से पीटवाकर अधमरा कर अस्पताल भेज दिया था। अगर चन्द्रषेखर कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर कांग्रेस में चले गये होते तो वे बिहार के मुख्यमंत्री होते। कम्युनिस्ट राजनीति करोगे तो मार खाओगे, राष्ट्रद्रोही कहलाओगे। कन्हैया के घर पर जुटे कन्हैया को चाहनेवाले कहते हैं-बीहट का यह लाल सितारा लाल किले पर झंडा फहरायेगा।

यह भूमिहीन भूमिहार का परिवार है...
कन्हैया का घर : एक क्रन्तिकारी विरासत                                    फोटो - पुष्पराज
प्रिंस कुमार कन्हैया से 2 वर्ष छोटे हैं। पैसों का जुगाड़ न हो पाने की वजह से पिंस ने पत्राचार पाठ्यक्रम से एम काॅम की पढ़ाई की है। प्रिंस बताते हैं कि कन्हैया हर हाल में पढ़ना चाहता था इसलिए वह हर तरह की तकलीफ झेलता हुआ जेएनयू पहुंच गया। प्रिंस सरकारी नौकरियों की तलाश में प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी में लगे हैं पर ये सोचते हैं कि हमारे पूरे परिवार की पहली प्राथमिकता कन्हैया की पढ़ाई ही हैं। मैंने जानना चाहा कि परिवार में जमीन-जायदाद कुल कितनी है। प्रिंस ने बताया कि हमारे परिवार में कभी इतनी जमीन नहीं रही कि बेच सकें या पैदावार से चूल्हा चल सके।

कुछ बीघे जमीन थी, जो गड़हरा यार्ड और फर्टिलाइजर के लिए 1955-1960 में ही अधिग्रहित हो गयी। काॅमरेड राजेन्द्र सिंह कहते हैं-भूमिहीन-मजदूर भूमिहार को सवर्ण मानकर जिस तरह बर्ताव किया जाता है, उससे बेहतर है कि ऐसे दीनहीन भूमिहारों को दलित कहा जाये। गांव के लोग इसलिए भी एकजुट हैं कि बजरंग दल और विहिप ने धमकी दी है कि कन्हैया के घर के सामने कन्हैया का पुतला जलाया जायेगा। पुलिस की नाकेबंदी की वजह से कल वे बीहट नहीं घुस पाये तो जीरोमाइल पर कन्हैया का पुतला जलाकर लौट गये। लोगबाग दुखी हैं कि बीहट के रत्न का पुतला जलानेवाले कितने सिरफिरे हैं। एक काॅमरेड कहते हैं-मार्क्स ने कहा था-धर्म अफीम है। धर्म के आधार पर मुल्क को बांटने वाली नरेन्द्र मोदी की राज्यसत्ता क्या अफीम खाकर देष के सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष को राष्ट्रद्रोही कह रही है।

हमारी ताकत मुख्यमंत्री
कन्हैया के घर से छूटते हुए पड़ोसी स्त्रियां टीवी देखकर कन्हैया के घर कर्णप्रिय संदेशा लेकर आयी हैं। मुझसे कन्हैया की माता मीणा देवी बताती है कि बिहार के मुख्यमंत्री मेरे साथ हैं तो मुझे ताकत मिली है। मुख्यमंत्री मेरे साथ हैं, यह गरीब के लिए खुषी और गर्व की बात है। मुझे पक्का भरोसा है कि अब मेरा बेटा जेल से बाहर आ जायेगा और राष्ट्रद्रोह के मुकदमे से मुक्त हो जायेगा। मैं उन सबको धन्यवाद देती हूँ, जो मेरे बेटे के साथ खड़े हैं।
मुल्क के गृहमंत्री राजनाथ सिंह जी आप गरीब के आंसू की कीमत नहीं जानते हैं। गरीब के आंसू पानी नहीं तेजाब होते हैं। आप एक भूमिहीन, लकवाग्रस्त, मजदूर-गरीब के बेटे को देशद्रोही कहते हैं। आप झूठ बोलते हैं तो आपकी जीभ नहीं कटती है, हम झूठ लिखेंगे तो हमारे हाथ कट जायेंगे।

Feb 14, 2016

पाकिस्तानी झंडा फहराया संघियों ने और दोष मढ़ा मुसलमानों पर

जिनको लग रहा है कि भाजपा का छात्र संगठन एबीवीपी 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे जेएनयू में क्यों लगाएगा और क्यों वह अपनी ही सरकार को मुश्किलों में डालेगा? यह खबर सिर्फ उनके लिए है! वे ये जानें की संघ की वैचारिकता और रणनीति कायरता के भ्रूण में पलती और बड़ी होती रही है... 

जनज्वार। संघ समर्थित संगठनों की परंपरा रही है कि वे अपने राजनीतिक विरोधियों और मुस्लिम समुदाय के प्रति नफरत और हिंसा फैलाने के लिए हर स्तर का फरेब रचें और उसी फरेब को सच की तरह दिखाने की कोशिश करें। इनमें सबसे चर्चित मामला 2012 का है जब पाकिस्तानी झंडा फहराने के मामले में संघ, भाजपा और श्रीराम सेना का चेहरा कर्नाटक में  बेनकाब हुआ था। 

2012 का वह पहला दिन था। देश नए साल के स्वागत की खुशियों  में व्यस्त था और संघ के लोग मुसलमानों को लहूलुहान करने की तैयारी में। लेकिन जब श्रीराम सेना के लोग इस मामले में पकड़े गए तो उन्होंने वीडियो जारी कर दिखाया कि पाकिस्तानी झंडा फहराने वाले संघ के सदस्य हैं, हिंदू सेना के नहीं। बाद में पुलिस ने भाजपा के एक नेता को गिरफ्तार किया था। 

1 जनवरी 2012 को कर्नाटक के बीजापुर की सिंडगी तहसील के तहसीलदार आॅफिस के सामने पाकिस्तानी झंडा फहराया गया। फहराने का काम सुबह में लोगों के उठने से पहले कर किया गया। सुबह होते ही संघ के लोग शहर भर में फसाद करने लगे कि मुसलमानों ने तसहसीलदार आॅफिस पर कब्जा कर पाकिस्तान का झंडा फहरा दिया है। 

पुलिस ने शुरुआती जांच के बाद पाकिस्तानी झंडा फहराने के मामले में आधा दर्जन से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया, जो श्रीराम सेना के सदस्य थे। इस मामले में पुलिस की बढ़ती कड़ाई के कारण श्रीराम सेना को अपनी असलियत उजागर करनी पड़ी। श्रीराम सेना ने वीडियो जारी कर दिखाया कि तहसीलदार आॅफिस में झंडा फहराने वाले लोग संघ के सक्रिय सदस्य हैं, न कि हमारे। 

बाद में पुलिस ने भाजपा के पदाधिकारी को गिरफ्तार किया था, जिसने संघ के साथ मिलकर मुसलमानों को बदनाम करने और देश में हिंसा फैलाने की यह साजिश रची थी। 

Feb 13, 2016

खाप चौधरियों की चौपाल नहीं है जेएनयू


जेएनयू में अफजल गुरु और मकबूल बट्ट पर कार्यक्रम DSU जैसे एक छोटे संगठन ने कराया। DSU हमेशा से अति वामपंथी संगठन रहा है और ऐसा नहीं की ये कल बना है। यह संगठन सालों से है और मैंने दस सालों में उसकी विचारधारा में कोई बदलाव नहीं देखा है। वो हमेशा से माओवाद का समथर्न करते रहे हैं, पर जैसा की बहुतों ने कहा है कि वह जेएनयू की प्रतिनिधि आवाज़ नहीं है| 

जेएनयू में संगठन बनाने पर कोई पाबंदी है। जेएनयम में एक हिन्दू विद्यार्थी सेना भी है। कहने का मतलब ये कोई भी, एक अकेला भी एक संगठन बना सकता है, लेकिन इनमें से कोई भी आवाज़ जेएनयू की एकलौती आवाज़ नहीं है| आप कश्मीरी पंडितों और मुसलमानों दोनों पर पर कार्यक्रम करा सकते हैं, सरकार समथर्क और विरोधी भी, शायद यही जेएनयू की खूबी है कि यहाँ हर विचार के लिए जगह है|

दूसरी बात कि अफज़ल गुरु पर कोई कार्यक्रम होना चाहिए या नहीं? संसद हमलों में जो लोग पकड़े गए उनमें से दो को निर्दोष पाया गया, एक अफज़ल को फांसी हुयी| मैं जो भी मानूं, पर बहुत से न्यायविदों ने कहा की उसके खिलाफ फांसी लायक सबूत नहीं थे| काटजू ने खुलेआम कहा की यहाँ न्याय में गलती हुई है (आप चाहे तो उन्हें पागल कह सकते है)| 

आप सुप्रीम कोर्ट की बात को ब्रम्ह वाक्य मान सकते हैं, लेकिन दूसरों से ये अधिकार नहीं छीन सकते कि वो इस फैसले पर सवाल खड़े न करें, आप उन्हें ये सवाल पूछने से नहीं रोक सकते की क्यों उसकी लाश उसके घर नहीं जाने दी गयी| बहुत सारे मुसलमान लड़के पिछली सरकार में पकड़े गए ये कहकर कि वो आंतकवादी हैं। 

सालों जेल में रहने के बाद वो निर्दोष पाए गए, ये मानने वाले कि अफज़ल को फंसाया गया था बाहर के नहीं हैं, इसी देश के हैं। अगर उनकी आवाज़ बहुमत की नहीं है, अगर वो “राष्ट्र की सामूहिक चेतना” में शामिल नहीं है, जिसके लिए अफज़ल को फांसी दी गयी तो वो क्या देशद्रोही हो गए? 

और ये sedition का मतलब क्या है राजद्रोह या देशद्रोह? व्यवस्था की आलोचना करने वाले लोग जैसे कबीर कला मंच, असीम त्रिवेदी, अरुंधती, प्रोफेसर साईंबाबा आदि क्या इसलिए देशद्रोही हैं कि वो आपकी हमारी समझ में सहज हो चुकी व्यवस्था पर सवाल कर रहे हैं? पूछ रहे हैं कि आदिवासी का मतलब माओवादी, कश्मीरी मुसलमान का मतलब आतंकवादी कैसे हो गया? 

कार्पोरेट घरानों को ज़मीन न देना, अपने जल, जंगल, ज़मीन की बात करना और सरकार का विरोध करना माओवाद कैसे हो गया, कश्मीर में आधी बेवाओं के शौहरों की बात करना, घरों के बाहर भारतीय सेना की मौजूदगी और AFSPA का विरोध करना आतंकवाद कैसे हो गया?


जेएनयू इसी समाज, इसी देश का है। अपने आप में एक छोटा भारत है। भारत की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दोनों यहाँ हैं| आपको लगता है कि जो कश्मीर के वो लोग जिन्होंने सेना की ज्यादतियां देखी हैं, जिनके घर के किसी आदमी को सेना एक दिन पूछताछ के लिए ले गयी और वो कभी नहीं लौटा, उनके लिए भारत शब्द का मतलब क्या है? 

आप सेना के किसी जवान के फोटो लगा कर देशभक्ति के सबूत के तौर पर लाइक्स माँगते रहते हैं, आपको क्या लगता है उस सेना का मतलब छत्तीसगढ़ के आदिवासी के लिए क्या है? आप बिलकुल नहीं देख पाते की मणिपुर की औरते क्यों निर्वस्त्र होकर कहती हैं Indian army rape us! इरोम शर्मिला क्यों भूख हड़ताल पर हैं? 

जिस सोनी सोरी के गुप्तांग में पत्थर भर दिए गए उसके लिए पुलिस का मतलब “शांति सेवा न्याय” है? नार्थ ईस्ट के लड़के ने सालों पहले जब मुझे Indian Friend कहा तो मुझे भी बुरा और अजीब लगा, पर बहुत बाद में समझ आया की वो ऐसा क्यों कह रहा था| जेएनयू इनसे अछूता नहीं है. 

कश्मीर, नार्थ ईस्ट, छतीसगढ़ के ये लड़के—लडकियां जेएनयम में पढ़ते हैं, वो वही कह रहे हैं, जो उन्हें लगता है| सेना, पुलिस, आपके लिए देशभक्ति का stimulation होगी, उनके लिए नहीं. फर्क सिर्फ इतना है कि दूसरे किसी विश्वविद्यालय में शायद वो सब न कह पाते, जो वो जेएनयू में कह पाते हैं| 

बहुत साल नही हुए, जब तमिलनाडु में भारत के झंडे जलाये जा रहे थे. बहुत साल नहीं हुए जब हमने त्रिभाषा फार्मूले के तहत उन पर हिंदी थोप दी थी, बिना पूछे की वो क्या चाहते हैं? किसी भी घर में कोई अफज़ल नहीं होना चाहिए, पर जो लोग कह रहे हैं कि हर घर से अफज़ल निकलेगा. उन्हें चुप कराने की जगह एक बार रुककर देखिये को वो ऐसा क्यों कह रहे हैं? क्या भारत का मतलब हमारी राज्यसत्ता भर है? ये सवाल मुश्किल है इनके लिए धैर्य चाहिए और हम instant देशभक्ति चाहते हैं, इंस्टेंट क्रांति चाहते हैं| 

आपको बुरा इसलिए भी लग रहा है कि जो आवाज़ें बहुत दूर कश्मीर, नार्थ ईस्ट, छतीसगढ़ में थी, अचानक जेएनयू में सुनायी दे रही है. जेएनयू इसलिए है​ कि वो इस आवाजों को चुप नहीं करता, बल्कि इसने संवाद की कोशिश करता है| हाशिये की आवाज़ें हमेशा खामोश कर दी जाती है, चाहे वो बंगाल हो या गोरखपुर विश्वविद्यालय. जेएनयू यही स्पेस है, जहां आप बिना डरे अपनी बात रख सकते हैं. जैसे टैगोर कहा करते थे where mind is without fear. 

पिछले कुछ दशकों में ये स्पेस तेज़ी से ख़तम हो रहे हैं. विश्वविद्यालय की अवधारणा ही यही है, जहां विचारों पर कोई पाबंदी न हो. आप सोच सकें, देख सकें, अपने विचार चुन सकें और आप भले अकेले हों, लेकिन आपके सोचने कहने की आजादी हो! मेरे लिए JNU एक विश्वविद्यालय नहीं, एक विचार है जहां मैं बिना डरे, अपनी बात कह सकूँ, आलोचना सुन सकूँ...

Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free

'जेएनयू में एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने लगाए थे पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे'

सामने आया नया वीडियो, तय करें कौन है देशद्रोही

कुछ घंटे पहले यह ​वीडियो सामने आया है जिसमें दिखाया गया है कि दिल्ली के जेएनयू में भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी से जुड़े छात्र 'पाकिस्तान जिंदाबाद' के नारे लगा रहे हैं। ​वीडियो 9 फरवरी की रात जेएनयू का बताया जा रहा है। यह वही वीडियो है जिसके आधार पर जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की पुलिस ने 12 फरवरी को गिरफ्तारी की है। पुलिस ने गिरफ्तारी केंद्रीय गृहमंत्री, ​शिक्षामंत्री के कड़ी कार्यवाई वाले बयान और भाजपा सांसद मेहश गिरी की शिकायत के बाद की थी। 

गौरतलब है कि यह फूटेज भाजपा के सबसे प्रबल समर्थक माने जाने वाले न्यूज चैनल 'जी न्यूज' का है। 'द कंस्पीरेसी' नाम से यूट्यूब पर जारी किया गया यह फूटेज एक मिनट 33 सेकंड का है। फूटेज देखकर अनुमान लगता है कि भाजपा के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद के छात्र हैं जो जेएनयू में 9 तारीख की रात आयोजित कार्यक्रम में भारत विरोधी नारे लगा रहे हैंं।

वीडियो में एबीवीपी के छात्रों को पहचान करते हुए सर्किल किया गया है कि जो छात्र किसी मौके पर पाकिस्तान विरोधी नारे लगाते हैं वहीं छात्र अफजल गुरु को लेकर जेएनयू में हो रहे कार्यक्रम में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं। नारा लगाने वालों में लड़के और लड़कियों दोनों शामिल हैं। 

वीडियो 'फ्रीडम फॉर आॅल रोहित्स' की ओर से जारी किया गया है।

Feb 9, 2016

निदा फाजली में कबीर की झंकार है!

मंगलेश डबराल
वरिष्ठ कवि

निदा फाजली का जाना हिंदी-उर्दू कविता का बड़ा नुकसान है। वे उर्दू के ऐसे शायर थे जिन्होंने उर्दू कविता को संभ्रातता और शहरीपने से बाहर कर भक्तिकाल के विद्रोही कवियों कबीर, मीरा के साथ एकरूप किया, किसानों और आम आदमी तक ले गए। उन्होंने उर्दू शायरी को सरल बनाया और इतना सरल कि जितनी पहले कभी नहीं थी। जैसे उनका दोहा देखिए,

बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलिशान, अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान।

निदा से मेरी पहली मुलाकात 1971-72 में हुई थी। मैं एक शायर मित्र शाहिद माहुली के साथ दिल्ली में किराए के कमरे में रहता था। वह माउली के दोस्त थे और वहां उनका अक्सर आना जाना था। वहीं से उनसे मेरी दोस्ती हुई। वह बहुत ही फक्कड़ और मजाकिया किस्म के आदमी थे।

एक बार भोपाल आकाशवाणी ने कुछ लोगों को बुलाया। सुबह हम पटरी पर चाय पीने गए। वह मुस्लिम बस्ती थी। चाय वाले लड़के ने कहा, ‘पहले पैसा दोगे तो चाय पिलाउंगा।’ निदा तैयार हो गए। चाय पीकर हम उठे तो निदा का कुर्ता चाय वाले के फट्टे की कांटी में फंसकर फट गया। तभी निदा की निगाह एक वकील के बोर्ड पर पड़ी।

सुबह-सुबह मुवक्किलों को देख खुश होते हुए वकील बोले, ‘कहिए जनाब, मैं आपलोगों की क्या खिदमत कर सकता हूं।’ कुर्ते के कोने को दिखाते हुए निदा पूछे, ‘जनाब, यह फट गया है, क्या कोई मामला बनता है। मैं चाहता हूं चाय की दुकान वाला इसका हर्जाना भरे।’ वकील गंभीर होते हुए बोला,‘मामला बनता तो है। आइए बैठकर बात करते हैं।’ बाद में आने की बात कहकर हमलोग पीछे मुडे़ और उसके बाद जो हंसी का दौर चला वह जीवन भर हर मुलाकात पर जारी रहा।

ख्यात शायर शहरयार और निदा दोनों उस दौर में उभरे जब प्रधानमंत्री नेहरू के दिखाए सुंदर सपनों से देश दूर हो रहा था। पर शहरयार के मुकाबले उनकी नज्मों में उम्मीद, जिंदगी की एक आस हमेशा बनी रही। वह कभी आखिरी तौर पर निराश नहीं हुए। उन्होंने कभी नहीं माना कि हिंदुस्तान से गंगा-जमुनी संस्कृति को खत्म किया जा सकता है। शायद यही आस थी कि ग्वालियर दंगों के बाद जब निदा के मां-बाप पाकिस्तान चले गए तो उन्होंने हिंदुस्तान में ही रहना मुनासिब समझा। उन्होंने अपनी जीवनी का पहला भाग ‘दीवारों के बीच’ सबसे पहले हिंदी में लिखा, जिसमें एक किशोर के रूप में विभाजन और ग्वालियर से जुड़ी मार्मिक यादें हैं। यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिंदी और उर्दू के बीच बढ़ते फासलों को कम करने का निदा ने सजग प्रयास किया, अपनी गजलों में बिल्कुल नया प्रयोग किया। उनका एक मर्मस्पर्शी दोहा है,

‘मैं रोया परदेस में भींगा मां का प्यार, दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्टी बिन तार।’

यह सरलता और पहुंच आप उर्दू शायरी में बहुत कम पाएंगे, इसीलिए कई बार निदा कबीर को प्रतिध्वनित करते हैं। पारसी में एक कहावत है, ‘नज्म वह है जिसका कोई नस्र यानी गद्य नहीं हो सके’। निदा की शायरी इसका उदाहरण है।

निदा फाजली ग्वालियर से जाने के बाद मुंबई में रहे, लेकिन उनपर कभी फिल्मी रंग नहीं चढ़ा। प्रतिरोध के प्रति उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता कभी नहीं छोड़ी। वह देश में बढ़ती असहिष्णुता, हिंसा के सवाल पर मुखर रहे। साहस, उम्मीद और जिंदगी जीने की जिद उनमें कितनी भरपूर थी, उनकी यह नज्म बड़ी साफ कर देती है,

‘उठ के कपड़े बदल, घर से बाहर निकल... जो हुआ सो हुआ
रख के कांधे पर हल खेत की ओर चल... जो हुआ सो हुआ....

(अजय प्रकाश से बातचीत पर आधारित)

Feb 6, 2016

कितने ही सवाल उठा गयी नवकरण की आत्महत्या

बलजिंदर कोटभारा/अमनदीप हांस


मेरा अपमान कर दो
मैं कौनसा मान करता हुं
कि मैंने अंत तक सफ़र किया है
बल्कि मैं तो उन पैरों का मुज़रिम हुं
कि जिनका भरोसा’ मेने
किसी बेकदरी जगह पर गवां दिया
उपलब्धियों का मौसम
आने से पहले ही
मेरे रंग को बदरंग कर दो
-पाश
पाश की इस कविता के अक्षर-अक्षर को समझने वाले ही समझ सकते हैं पूर्णकालिक क्रन्तिकारी कार्यकर्त्ता नवकरनण की मानसिक दशा को...
पूर्णकालिक क्रन्तिकारी नौजवान कार्यकर्त्ता नवकरन की ओर से आत्महत्या समूचे क्रन्तिकारी अन्दोलन को कितने ही सवालों के समक्ष खड़ा करती है। चाहे इस समय, किसानों, मज़दूरों में आत्महत्या का दौर है पर एक क्रन्तिकारी, वह भी कोई मामुली क्रन्तिकारी नहीं बल्कि बहु-अयामी और पूर्णकालिक की आत्महत्या कितने ही सवाल छोड़ जाती है। नवकरन की आत्महत्या के कारणों की तफतीश करने से पहले उसके सुसाइड नोट को पढ़ना जरूरी है जो उसकी डायरी में से मिला, उस ने लिखा,
शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . .
और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा। लेकिन अपने भीतर दो चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ। जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। दोस्तो मुझे माफ कर देना
-अलविदा,
मैं यह फैसला अपनी खुद की कमज़ोरी की वजह से ले रहा हूँ। मेरे लिए अब करने के लिए इससे बेहतर काम नहीं है। हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो ज़रा रियायत से
नवकरन के सुसाइड नोट को ध्यान से पढ़ने से थोड़ी बहुत समझ रखने वाले को भी सपष्ट नज़र आता है, कि नवकरन के भीतर एक अनावश्यक अपराधबोध घर कर गया था और धीरे-धीरे उसके ज़ेहन में इस हद्द तक फैल गया था कि वह आत्महत्या कर गया। नवकरन के सुसाइड नोट में यह भी सपष्ट है कि उस में यह ‘अपराधबोध’ कोई एकदम पैदा नहीं हुआ, यह बहुत पहले से हो चुका था, सुसाइड नोट के शुरू में वह लिखता हैं, शायद मैं ऐसा फैसला बहुत पहले ले चुका होता लेकिन जो चीज़ मुझे यह करने से रोक रही थी वह मेरी कायरता थी . . .और वह पल आ गया जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा
सधारण सा सवाल खड़ा हो गया है कि एक क्रन्तिकारी कार्यकर्ता जो मेहनतकशों के जीने लायक ज़िन्दगी देने वाले बेहतर समाज के सृजन के लिए अपना सब कुछ कुर्बान करके जूझ रहा है, वह अपने जीवन को जीना इतनी कायरता और बोझल क्यों समझने लगा? उसको कब से यह पक्का और दृड़ भरोसा था कि आत्महत्या वाला आ गया? वह साफ़ लिखता है जिस पल की अटलता के बारे में मुझे शुरू से ही भरोसा था पक्का और दृढ़ भरोसा
नवकरन की जुझारू मानसिकता पर जीवन से आत्महत्या वाले पल की ज्यादा अट्टलता क्यों हावी थी? और ज़िन्दगी की बजाय आत्महत्या पर पक्का और दृड़ भरोसा क्यों था? वह अपने ज़ेहन पर ‘अपराध वाला यह बोझ’ यह बोझ कब से सहन कर रहा था, जिसको सहन करते करते वह थक चुका था, जब वह लिखता है लेकिन अपने भीतर दो चीजों को सम्भालते हुए अब मैं थक चुका हूँ…. नवकरन के सुसाइड नोट की सातवीं लाइन है, जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया। उसके लिखे यह शब्द, मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं’। इस से अच्छा और क्या था कि वह एक इमानदार, सच्चा-सुच्चा पूर्णकालिक क्रन्तिकारी कार्यकर्त्ता था, पटियाला के नामवर थापर कालेज से अच्छी डिग्री की, उसको अपना निज़ी जीवन बेहतर बनाने के लिए एक बेहतर नौकरी भी मिलने वाली थी। वह दो बहनों का अकेला भाई था और उस के आगे अपने परिवार का सहारा बनने की जिम्मेवारी भी थी। नवकरन को ‘श्रद्धाजली’ देते हुए ‘साथियों’ ने स्वय लिखा है कि वह एक बहु-अयामी व्यक्तित्व था, जिस में गीत गाने, संगठन को प्रफुलित करने, जनता में हर पक्ष से काम करने, अंग्रेजी से पंजाबी में बेहतर अनुवाद करने, बढ़िया टिप्पणीकार, मैगज़ीन का खुशदिल प्रबन्धक आदि बहु-अयामी गुण थे, पर सवाल पैदा होता है कि ऐसा कुछ होते हुए भी उसको अपनी जिन्दगी अपने हाथों से क्यों खत्म करनी पड़ी
नवकरन ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है, जिन लोगों के साथ मैं चला था मुझमें उन जैसी अच्छाई नहीं शायद इसीलिए मैं उनका साथ नहीं निभा पाया
सवाल पैदा होता है कि उसके ‘साथियों’ में ऐसी कौन-सी अच्छाई थी जो उस में नहीं आ सकी और जिस के कारण वह उनका साथ नहीं दे सका।
कब से उस के मन के भीतर पनप रहा यह ‘अपराध बोध’ अंत तक इस हद्द तक हावी हो जाता है वह खुद को भगौड़ा करार देता है, वह सुसाइड वाले पहले पन्ने के अंत में लिखता है, ... मैं भगोड़ा हुं पर गद्दार नहीं.....
इस से यह शंका पैदा होना स्वभाविक है कि हो सकता है कि नवकरन को कभी ऐसा कठोर मेहना (harsh abusive)  सुनना पड़ा हो जिसके बोझ का उस को अंत में मौत को गले लगाते समय सपष्टीकरण देना पड़ रहा है और या फिर यह भी हो सकता है कि उसने कभी अपने साथियों से गद्दार शब्द की गलत व्याख्या सुन ली हो। हमारी यह आम सी समझ के मुताबिक गद्दार का मतलब होता है चल रहे युद्ध के बीच भाग कर दुश्मनों के पाले में चले जाना, ऐसा पंजाब की धरती पर नहीं हो रहा है।

इससे आगे जो और तफ़तीश करने वाली बात है जब वह लिखता है, हो सके तो मेरे बारे में सोचना तो जरा रियायत से इससे लगता है कि जैसे अपनी क्रन्तिकारी कार्यकर्ता वाली जिन्दगी जीनें में रियायत तलाश रहा था जो उसकी दी ना गई हो।
नवकरन ने अपने सुसाइड नोट में अचेत नहीं बल्कि सचेत मन से कितने ही सवाल क्रन्तिकारी हल्कों के समक्ष खड़े किये हैं जो पूरी इमानदारी से निरीक्षण की मांग करते हैं।
यह भी जिकर करना बनता है कि जितनी हमारी जानकारी या समझ है इससे पहले चाहे शहीद भगत सिंह और उनके साथियों का क्रन्तिकारी अन्दोलन था, भले ही गदरियों का, किसी भी क्रन्तिकारी कार्यकर्ता की आत्महत्या की कोई ऐतिहासिक जानकारी नहीं, बेतहाशा प्रताड़ना करके झुठे पुलिस केस मुकाबलों में क्रन्तिकारियों को खत्म किया जा रहा था उस समय भी किसी ने आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाया।
नवकरन के मामले में उसकी आत्महत्या से बड़ा दुःख यह है जब ‘साथी’ उसकी आत्महत्या वाले गंभीर मसले को सामने लाने और उस पर विचार करने की बजाए लिखते हैं,
ठन्डे समय की यह भी एक त्रासदी होती है कि क्रांतिकारी लहर और संगठन के दुश्मन हर मौके का इस्तेमाल पूरी लहर और संगठन को बदनाम करने, संगठन में काम करते लोगों का मनोबल तोड़ने और क्रांतिकारी लहर के हमदर्दों को उलझाने के लिए करते हैं | ऐसे लोगों की तुलना लाशों में से सोने के दांत टटोलते हुए नाज़ियों से की जा सकती है | पहले भी अनेकों क्रांतिकारियों की मौत को ऐसी गिद्धों ने अपने निजी स्वार्थों, मानवद्रोही और क्रांति विरोधी इरादों के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की है| साथी नवकरन की मौत के बाद भी ऐसा होना कोई आकस्मिक बात नहीं होगी | नवकरन की मौत पर भी ऐसे कुछ पतित किस्म के त्रात्स्कीपंथी और भगोड़े, साथी नवकरन की स्मृति को अपमानित करने और पूरे आंदोलन पर कीचड़ उछालने की घटिया हरकतों में लगे हुए हैं | साथी नवकरन के जीते हुए जिनका उससे या उसके कामों से कोई वास्ता नहीं रहा, वही लोग आज 'जस्टिस फॉर नवकरन' के नाम पर 'व्हाट्स एप्प' और फेसबुक पर तरह-तरह का घटिया, झूठ प्रचार करने में लगे हुए हैं | लेकिन ऐसी तमाम घटिया कोशिशों के बावजूद भी क्रांति का लाल परचम हमेशा लहराता रहा है और लहराता रहेगा |

साथियों की यह घोषणा नवकरन की आत्महत्या से उठने वाले जायज़ सवालों को जर्मन नाज़ियों के तुल्य करार देकर उनका मुंह बंद करने वाली है। इसके पीछे मंशा यह काम करती है कि या तो हमारी तरह सोचो और ब्यान को सत्त बचन कह कर कबूल करो नहीं तो वर्ग शत्रु होने का हमारा फतवा सुनने को तैयार रहो। अगर कोई टिप्पणी करने की जुरअत करे तो क्या वह हिटलरवादी और क्रन्तिकारी अन्दोलन का गद्दार होगा?
इस में गलतियों से सीखने और आत्मनिरिक्षण की भावना कहां है? क्या इस तरह के फतवों से या सवालों से कन्नी काट कर यह कारण दूर हो जायेंगे जिन्होंने नवकरन को आत्महत्या के रास्ते पर धकेला? साथियों को यह जवाब देने होंगे कि वह नवकरन की मनो-अवस्था को समझने के लिए और आत्महत्या की रूची को बूझने में क्यों असफल रहे।
क्या नवकरन की आत्महत्या के कारणों को पहचानने की बजाये हम भगौड़े नहीं हो रहे हैं? साथी इस आत्महत्या के बारे में संजिदा सवाल उठाने वालों को और आत्महत्या को बहाना बना कर अपने मनपसंद ‘वाद’ को जायज़ ठहराने वालों में निखेड़ने के लिए क्यों तैयार नहीं? हम तो क्रांतिकारी हैं, बेहतर समाज के सृजन के लिए जूझ रहे हैं, ऐसा समाज जहां ज़िन्दगी को हर कोई प्यार करे, ज़िन्दगी से भगौड़ा न हो... कोई और जुझारू पूर्णकालिक कार्यकर्ता नवकरन के रास्ते पर न चले, हम सब को अपने अन्दर झांकने की जरूरत है,,,
नवकरन को आत्महत्या की तरफ़ धकेलने वाले हालात पर इसके लिए जिम्मेवार कारणों की तफ़तीश इमानदारी से करने की जरूरत है।   
सबंधित लिंक http://www.panjabilok.net/page.php?pg=newsview&n_id=12339&c_id=43

'आलोचना के नाम पर गालियां दी जाती हैं आरसीएलआई में'

वामपंथ के नाम पर ठगी, शोषण और मुनाफे का धंधा चलाने वाले शशिप्रकाश और उनकी पत्नी कात्यायिनी के परिवार के मालिकाने वाले कम्यूनिस्ट संगठन आरसीएलआई की धंधेबाजी के खिलाफ उठी  आवाज पर मौन साधने वालों में तीन तरह के लोग अव्वल हैं। पहले हैं कात्यायिनी के स्वजातीय बुद्धिजीवी,  दूसरे हैं उनके यहां क्रांति के भ्रम में फंसे युवा और तीसरे हैं शशिप्रकाश के परिवार से जुड़े समाजवादी खेमे के दो कम्यूनिस्ट संगठन। हां, चुप रहने वालों में उन वामपंथियों की भी एक संख्या है जो खुद के संगठनों की सड़ाध को ढांपे रखना चाहते हैं। पर इसके मुकाबले सच को उजागर करने वालों की तादाद इतनी बड़ी, व्यापक और साहसी है कि इनकी हर जनविरोधी कार्रवाई को हर कीमत पर समाज में सरेआम करती है। इनकी गालियों, तोहमतों और धमकियों के मुकाबले तनकर खड़ी होती है और डंके की चोट पर इनके ठगी और शोषण को तथ्यजनक रूप से सबके सामने लाती है।

इसी कड़ी में पंजाब  से मनप्रीत मीत का पत्र

साथियो, मैं इस पत्र को अपने आखिरी स्‍टेटमेंट के तौर पर रख रही हूं, इसके बाद मैं इस पर और कुछ नहीं कहूंगी। ध्‍यान रहे, आपकी चुप्‍पी भविष्‍य में अन्‍याय के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को निकलने से पहले ही रोक देगी, क्‍योंकि जब जन-पक्षधर लोग ही चुप लगाकर ऐसी बातें होते हुए देखेंगे, तो भला अन्‍याय का प्रतिकार करने वाले लोग कहां जाएंगे?

सभी इंसाफपसंद नागरिकों, बुद्धिजीवियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के नाम खुला पत्र

मेरा सरोकार इतना ही है कि नव करण के साथ और ऐसे तमाम युवाओं के साथ इंसाफ हो, जो RCLI की पतित व घृणित राजनीति के दुष्‍चक्र में फंसे हुए हैं।

साथियो, कामरेड नव करण की आत्‍महत्‍या के बाद, पिछले तीन-चार दिन में जो हालात हुए हैं उनकी वजह से मैं यह खुला पत्र लिखने को मजबूर हो रही हूं।

सबसे पहले, मैं यह स्‍पष्‍ट कर दूं कि Revolutionary Communist League of India (RCLI) को छोड़ने के बाद मेरा किसी भी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है। मैंने उस समय के बाद से कभी RCLI पर कोई टिप्‍पणी नहीं की है। निजी जीवन की परेशानियों व खराब तबियत के कारण मैं आंदोलन में सक्रिय भागीदारी नहीं कर सकी, लेकिन जितना भी हो सका, आंदोलन के जनपक्षधर मामलों का समर्थन करने का प्रयास करती हूं।

मैं किसी मार्क्‍सवादी,स्‍तालिनवादी या त्रात्‍सकीवादी संगठन से नहीं जुड़ी हूं। ऐसे किसी भी संगठन द्वारा किसी भी मार्क्‍सवादी शिक्षक पर की गई छींटाकशी का मैं हिस्‍सा नहीं हूं। मेरा सरोकार इतना ही है कि नव करण के साथ और ऐसे तमाम युवाओं के साथ इंसाफ हो, जो RCLI की पतित व घृणित राजनीति के दुष्‍चक्र में फंसे हुए हैं। साथी नव करण ही आत्‍महत्‍या ने ही यह बेचैनी भी पैदा की कि युवा इस संगठन की सच्‍चाई को जानने का प्रयास करें, आंख बंद करके ज्ञानपूर्ण प्रवचनों के भ्रमजाल में न फंसे और अपनी क्रांतिकारी ऊर्जा को सही दिशा में लगाएं। कोई इंसान सक्रिय क्रांतिकर्म में नहीं लगा है, तो इसका यह मतलब नहीं कि वह अपने आस-पास हो रहे अन्‍याय के बारे में बोलना भी बंद कर दे।

मैं 2010 में RCLI से जुड़ी और पंजाब के नेताओं के बेहद खराब व्‍यवहार के बावजूद लंबे वक्‍त तक यह सोचकर आंदोलन में सक्रिय रही कि क्रांति के बड़े लक्ष्‍यों के सामने मुझे अपने कष्‍टों की अनदेखी करनी चाहिए। मैं अपना घर-परिवार छोड़कर आंदोलन में शामिल हुई थी और सक्रिय रहने के दौरान ही डॉक्‍टर अमृत पाल से मेरी शादी हुई थी। RCLI में अपने सक्रिय दिनों के दौरान, मुझ पर लगातार ताने कसे जाते थे, बीमार हालत में अकेले छोड़ दिया जाता था और अमृत पाल को मेरे खिलाफ भड़काया जाता था।

आलोचना के नाम पर गालियां दी जाती थी। मैं इस सबको अपनी कमजोरी मानकर, चुपचाप किताब बेचने, ट्रेन व बस अभियान में पैसे जमा करने, कार्यालयों की साफ-सफाई करने जैसे काम में लग जाती थी। खैर, इस बारे में अपने कटु अनुभवों का ब्‍योरा फिर कभी। जब मामला हद से गुजर गया, तो अंतत: मैंने RCLI छोड़ दी। संगठन के उकसावे और अपने ढुलमुनपन के कारण अमृत पाल ने तलाक की पेशकश रखी और मैंने इंकार नहीं किया। लेकिन तलाक होने के बाद भी लंबे वक्‍त तक अमृत पाल चंडीगढ़ में मेरे पास आकर रुका करता था।

मैंने उसे कई बार संजीदगी से अपने व्‍यवहार पर सोचने को कहा। मेरे पास आकर वह भी संगठन के नकारात्‍मक पक्षों पर मौन सहमति तो जताता था, पर कुछ ठोस करने से मुकर जाता था। आखिर, मैंने उसे अंतिम विदा कह ही दिया। इसके बावजूद वह लगातार फोन करता था, पर धीरे-धीरे उसे समझ आ गया कि अब मुझे बहलाना संभव नहीं है। संक्षेप में यह बातें इसलिए, ताकि सनद रहे कि मेरे चरित्र पर कीचड़ उछालने की हाल की हरकतें निराधार हैं और बदले की कार्रवाई हैं।

साथी नव करण की आत्‍महत्‍या की खबर मुझे 26 जनवरी को हुई, लेकिन पूरी जानकारी के इंतजार में मैंने इस बारे में कोई टिप्‍पणी नहीं की। इस बारे में मैंने पहली बार 30 जनवरी को लिखा और वह भी नव करण की आत्‍महत्‍या के कारणों और RCLI के नेताओं की षडयंत्रकारी चुप्‍पी से मामले को रफा-दफा कर दिए जाने की कोशिश के बाद। याद रहे कि इस बारे में संगठन का बयान भी इसी के बाद आया और तब तक संगठन चुप्‍पी साधे रहा था। यह भी ध्‍यान रहे कि इस पर सामान्‍य तर्कसंगत सवाल उठाने पर साथी अभिषेक श्रीवास्‍तव पर भी कुत्‍सा-प्रचार करने का आरोप लगा दिया गया।

मैंने और दूसरे लोगों ने सिर्फ इतना पूछा था कि आखिर नव करण ने आत्‍महत्‍या क्‍यों की? वह पूरावक्‍ती कार्यकर्ता था और जैसा कि RCLI ने नव करण की श्रद्धांजलि में भी कहा, वह बेहद संवेदनशील और प्रतिभावन कार्यकर्ता था। आखिर ऐसे कार्यकर्ता को अपने सुसाइड नोट में यह क्‍यों लिखना पड़ा कि वह भगोड़ा है, पर गद्दार नहीं और मुझमें उन जैसी अच्‍छाई नहीं और मेरे बारे में रियायत के साथ सोचना? आखिर क्‍यों आत्‍महत्‍या के एक सप्‍ताह बाद तक कोई बयान नहीं आया आखिर क्‍यों 30 जनवरी को साथी नव करण की आत्‍महत्‍या के बाद पूछे सवालों पर तब तक चुप्‍पी रही जब तक कि 31 जनवरी को नौजवान भारत सभा ने देर रात गये एक संवेदनहीन और खोखला स्‍पष्‍टीकरण नहीं दे दिया गया?

इसके बाद, संगठन के नेताओं (कविता, सत्‍यम, कात्‍यायनी आदि) ने जो पोस्‍टें डालीं उनमें तीन तरह की बातें थी : पहली, खोखली श्रद्धांजलि (उसमें भी धैर्य नहीं बरत पाये और सवाल उठाने वालों को कुत्‍सा प्रचार करने वाला कहा गया)। दूसरी, कुछ उद्धरण जिनके जरिए सवाल उठाने वालों को मुर्दाखोर गिद्ध समेत ढेरों उपाधियों से नवाजा गया। तीसरी, विपयर्य का दौर और क्रांतिकारी आंदोलन में होने वाली इस तरह घटनाओं पर झूठी हमदर्दी बटोरने वाली बातें।

इस दौरान, कार्यकर्ताओं को खुला छोड़ दिया गया कि वे सवाल उठाने वालों की सामाजिक हैसियत देखकर, उन्‍हें खुले आम गाली दें (अशोक पांडे को मुत्‍तन पांडे और भगोड़ा-गद्दार कहना, राजेश त्‍यागी व राजिन्‍दर को पतित त्रात्‍सकीपंथी कहना, अभिषेक श्रीवास्‍तव को तनिक नजाकत के साथ कुत्‍सा-प्रचार करने वाला कहना, और प्रदीप और मुझे खुले आम गाली देना, चरित्रहीन कहना)। इसमें मार-पीट की धमकी देना शामिल है।

साथियो, मैं इस पत्र को अपने आखिरी स्‍टेटमेंट के तौर पर रख रही हूं, इसके बाद मैं इस पर और कुछ नहीं कहूंगी। ध्‍यान रहे, आपकी चुप्‍पी भविष्‍य में अन्‍याय के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को निकलने से पहले ही रोक देगी, क्‍योंकि जब जन-पक्षधर लोग ही चुप लगाकर ऐसी बातें होते हुए देखेंगे, तो भला अन्‍याय का प्रतिकार करने वाले लोग कहां जाएंगे?

इस अंधेरे दौर में, लोग अंधेरे के खिलाफ कैसे उठ खड़े होंगे जबकि अंधेरे के खिलाफ बोलने वाले लोग ही इंसाफ की लड़ाई में चुप्‍पी लगाकर बैठे रहेंगे? क्‍या मार्क्‍सवाद हमें सवाल उठाने या शंका करने से रोकता है? क्‍या मार्क्‍सवादी सवाल उठाने वाले व्‍यक्ति को दक्षिणपंथियों की तरह गालियां देंगे (वे लोगों को पाकिस्‍तान भेजने और मार डालने की धमकी देते हैं, और ये यहीं मारपीट करने, गालियां देने और चरित्रहनन करने जैसी बातें करते हैं)?

साथियो, जब कोई ''वामपंथी'' भगत बन जाता है, तो वह समूचे आंदोलन को कीचड़ में धकेल देता है और लोगों का क्रांतिकारी आंदोलन से ही भरोसा उठ जाता है। दुनिया भर के क्रांतिकारी आंदोलन में लोग नेताओं पर, संगठनों के गलत फैसलों पर, कठमुल्‍लावाद पर, लाइन पर सवाल उठाते रहे हैं, और दुनिया भर में ''सवाल उठाने वालों को किनारे लगा दिए जाने'' की ऐसी कोई मिसाल नहीं मिलती। यह शर्मनाक है। मैं इस आखिरी बात के साथ अपनी बात खत्‍म करती हूं कि आप अगर इस समय अपना पक्ष और राय नहीं देते, तो याद रहे कि भविष्‍य में किसी भी अन्‍याय के खिलाफ आवाज उठाने वाला कोई नहीं बचेगा। (फेसबुक वाल से साभार)

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ
मनप्रीत मीत

इससे जुडी अन्य खबरें - एक और दलित छात्र ने की आत्महत्या, पिता ने लगाया आत्महत्या के लिए मजबूर करने का आरोप

Feb 1, 2016

एक और दलित छात्र ने की आत्महत्या, पिता ने लगाया आत्महत्या के लिए मजबूर करने का आरोप

कहा, सबूत नहीं पर मेरा दिल कहता है बेटे की हुई है हत्या। 

जनज्वार से हुई बातचीत में पंजाब के संगरूर में रह रहे नवकरण के ​पिता मक्खन सिंह ने कहा कि नवकरण सिर पर कफन बांध कर देश बदलने निकला था, वह आत्महत्या नहीं कर सकता, उसकी हत्या हुई है! वह पंजाब के संगरूर जिले के थॉपर इंस्टीट्यूट से सीविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। मात्र 17 वर्ष की उम्र में वह वामपंथी संगठन नौजवान भारत सभा से जुड़ गया था. 20 वर्ष में ही इस संगठन ने मेरे बेटे की आहूती ले ली।

नौजवान भारत सभा में सक्रिय एक छात्र ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि नवकरण ने आत्महत्या 21 तारीख को की थी और इसकी जानकारी संगठन के शीर्ष लोगों कात्यायिनी, शशिप्रकाश और सत्यम वर्मा को चंद मिनट में ही हो गयी। छात्र ने बताया कि नवकरण की आत्महत्या से दो दिन पहले संगठन की बैठक हुई थी, जिसमें उसको कायर, भगोड़ा और पतित कहा गया था। वह इससे काफी आहत था। 

गौरतलब है कि पंजाब के लुधियाना और संगरूर में सक्रिय इस संगठन के असली मुखिया शशिप्रकाश, उनकी पत्नी कात्यायिनी, बेटा अभिनव और साढू सत्यम वर्मा हैं। इनकी जड़ें लखनउ और​ दिल्ली से जुड़ी हुई हैं। पर इनकी ठगी और फरेब का सच जब उत्तर भारत के इलाकों में उजागर हो गया तो इन्होंने पंजाब के छात्रों—नौजवानों को निशाना बनाना शुरू किया है।

शशिप्रकाश और उनकी पत्नी ने अपने रिश्तेदारों के सहयोग से दिशा, जनचेतना, राहुल फाउं​डेशन के नाम के कई संगठन खोल रखे हैं, जो इस परिवार की कमाई और संपन्न्ता का जरिया बन चुके हैं। इंटर पास कर कॉलेजों—विश्वविद्यालयों में पहुंचने वाले युवाओं को यह भगत​ सिंह के नाम पर सपना दिखाते हैं और उसको होलटाइमर बनाकर उसका मुफ्त का श्रम लूटते हैं। 

यही वजह है कि कोई भी नौजवान इनके संगठन में बहुत फंस गया हो या मजबूर न हो तो नहीं टिकता, सिवाय इनके परिवार वालों के, जिनका की संगठन के लाभ और नेतृत्व के पदों पर कब्ज़ा है. अकेले पंजाब से पिछले तीन वर्षों में करीब दर्जन भर संगठनकर्ता, होलटाइमर और कार्यकर्ता संगठन छोड़ चुके हैं। उनमें राजिंदर, प्रदीप, कमल, मनप्रीत, अमन, अजय पॉल और परमिंदर प्रमुख हैं। 

खुद को तार्किक और वामपंथी विचारों का वाहक कहने वाले इस संगठन के ​खिलाफ पिछले वर्षों में जब सवाल उठे थे तब इस संगठन ने मानहानी का मुकदमा किया था। मुकदमा करने वालों में शशिप्रकाश की पत्नी कात्यायिनी प्रमुख हैं। जनज्वार हमेशा ही इस संगठन की सचाइयों से समाज के सजग और सरोकारी लोगों का अवगत कराता रहा है। इस संगठन पर चली बहस को अभी भी जनज्वार पर दायीं और ​दिए लिंक में पढ़ा जा सकता है। 

आप, नवकरण के पिता का साक्षात्कार सुनें उससे पहले यह जान लेना जरूरी है कि नौजवान भारत सभा, पंजाब के प्रभारी और मालिक भी शशिप्रकाश के ही साढ़ू सुखविंदर और उनकी पत्नी नमिता हैं। नमिता कात्यायिनी की बहन हैं। इसी युनिट में काम करते हुए नवकरण ने 21 की रात को आत्महत्या की थी। 

आॅडियो सुनें और जानें कि एक दलित छात्र के पिता क्या कहते हैं बेटे की आत्महत्या पर
https://soundcloud.com/janjwar/navkaran-father-on-suicide