Dec 1, 2010

फ़तवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जी


किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक जो सत्ता और "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ-  समर्थक होती हैं  और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती हैं...


नीलाभ

कुछ दिन पहले वरिष्ठ लेखक और शिक्षक आनन्द प्रकाश ने दो हिस्सों में लिखे गये अपने एक लेख में हिन्दी साहित्य की मौजूदा हालत का एक जायज़ा लेते हुए कुछ सवाल उठाये हैं,कुछ विचार प्रकट किये हैं और कुछ टिप्पणियां की हैं.आनन्द प्रकाश के लेख के इन दोनों हिस्सों पर एक टिप्पणी करते हुए युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने अपनी तरफ़ से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है और इस के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है.

अगर सरसरी नज़र से इन लेखों-टिप्पणियों को देखा जाये तो इनमें कही गयी बहुत-सी बातों से इनकार नहीं किया जा सकता.कहा जाये कि अपने समग्र रूप में दोनों लेख उस विराट गड़्बड़ी की सैर-बीनी तस्वीर पेश करते हैं जिसे हम "आज का सांस्कृतिक संकट"के नाम से परिभाषित कर सकते हैं. यही नहीं, मोटे तौर पर यह तस्वीर काफ़ी हद तक सच्चाई से और गम्भीरता से अंकित करने की भी कोशिश आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द ने की है.

लेकिन अगर ज़रा गहरे में जा कर आनन्द प्रकाश के लेखों की छान-बीन करें तो जो सबसे पहली बात खटकती हैं वह इन लेखों का सर्वथा नकारवादी,फ़तवेबाज़ी से भरा रवैया है जो एक दूसरे क़िस्म की वैचारिक शून्यता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की चुग़ली खाता है.उन्हें शिकायत है कि --"समकालीन हिंदी लेखन, जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है, सीधे-सीधे चिन्तन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"

क्या सचमुच एक पूरे दौर के सारे लेखन पर इस तरह हैंगा फेर देना किसी मुनासिब (और वैज्ञानिक,मार्क्सवादी) नज़रिये की उपज कहा जा सकता है ?वरिष्ठ लेखक और शिक्षक होने के नाते आनन्द प्रकाश ज़रूर इस बात से वाक़िफ़ होंगे कि किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक -- जो सत्ता और, आनन्द प्रकाश ही के शब्दों में कहूं तो, "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ और समर्थक होती है और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती है.

 यह कोई आज के दौर का संकट नहीं है. "सन्तन को कहा सीकरी सौं काम" की उक्ति 70 या उससे पहले के किसी दशक के कवि की नहीं, बल्कि कई सौ साल पहले की है. यह खेद की बात है कि आनन्द प्रकाश ने इन दो प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मौजूदा संकट की छान-बीन करने और सत्ता और अधिकार-तन्त्र के उत्सवी शोर-शराबे के नीचे दबे सच्चे जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली रचनाधर्मिता की शिनाख़्त करने और उसे सामने लाने का वह दायित्व नहीं निभाया जो उनकी चिन्ताओं के सन्दर्भ में उनसे अपेक्षित था.

इस एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ है कि उनका लेख भी किसी हद तक वैसी ही सतही बहसों को बढ़ाता जान पड़ता है जैसी हाल के दिनों में हिन्दी के साहित्यिक जगत में कसरत से नज़र आती रही हैं.कहीं किसी अकादेमी में किसी नियुक्ति को ले कर, किसी पुरस्कार के दिये या न दिये जाने को ले कर, किसी अधिकार-सम्पन्न साहित्यकार की अभद्र टिप्पणियों को ले कर या फिर किसी वरिष्ठ कवि द्वारा ढेर सारे निस्बतन युवा कवियों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुठाराघात करने को ले कर या फिर अब ताज़ा मामले में आनन्द प्रकाश द्वारा नकारवादी (निहिलिस्ट) शैली में लगभग 25-30 वर्षों की समूची रचनात्मकता को पूरी तरह ख्ज़ारिज करके.

आनन्द प्रकाश ने बजाय किसी सार्थक बहस को शुरू करने,मौजूदा दौर में चल रही टकराहट को साफ़ तौर पर पहचान कर सामने लाने और एक नज़ीर पेश करने की जगह आरोपों की झड़ी लगा कर एक शिकायतनामा पेश किया है और असली सवाल से कन्नी काट ली है.

इसमें कोई शक नहीं है कि संकट बढा है पर इसी के बीच सही स्वर भी मौजूद हैं.नब्बे के जिस दशक को आनन्द प्रकाश ने एक सिरे से ख़ारिज कर दिया है उसी के आरम्भ में एक युवा कवि ने "नागरिक व्यथा" जैसी कविता लिख कर संकट की पहचान करायी थी. और संकट की पहचान कराना भी उस संकट के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में शामिल होना है.क्या आनन्द प्रकाश ने यह कविता पढ़ी है ? नहीं पढ़ी तो वे अब एकान्त श्रीवास्तव का पहला संग्रह हासिल करके पढ़ लें.और केवल एकान्त श्रीवास्तव ही का संग्रह क्यों, जिन दशकों को उन्होंने अपने लेख में कटघरे में खड़ा किया है उन की अच्छी तरह छान-बीन करके उनकी रचनाओं का मूल्यांकन वैसी ही कसौटी के आधार पर करें जिसे मुक्तिबोध ने "ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान" की कसौटी कहा है.

फ़िलहाल तो आनन्द प्रकाश ने कुछ बनी-बनायी धारणाओं के आधार पर प्रवृत्तियों और मौडलों की बात की है. इसीलिए वे अपने लेख के दूसरे हिस्से में एक और फ़तवा देते हुए कहते हैं,"रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल में सामाजिक गैर-बराबरी, अशिक्षा, नारी-शोषण, बेकारी, दलितों का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं।"

क्या सचमुच सभी रचनाकारों के सिलसिले में निर्विवाद रूप से ऐसा कहा जा सकता है?  इन्हीं फ़तवेबाज़ियों की वजह से आनन्द प्रकाश वैचारिकता की तमाम तवक़्क़ो रखने के बावजूद मौजूदा संकट को सिर्फ़ रचनाकारों के अन्दर से हल करने की उम्मीद लगाते हैं.मानो वैचारिकता से लैस और पुरस्कारों से विमुख होते और सुविधाओं से किनारा करते ही सारी समस्याएं आप-से-आप हल हो जायेंगी.वरिष्ठ चिन्तक होने के नाते वे ज़रूर यह जानते होंगे कि साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यकारों के आचरण का सम्बन्ध जिस हद तक उनके अन्दर से होता है,उतना ही उनके बाहर की स्थितियों में भी होता है.

प्लेखानोव ने "कला और सामाजिक जीवन" में बड़े विस्तार से सामाजिक परिस्थितियों और कलात्मक उद्यम के आपसी सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित किया है और बड़ी बारीक़बीनी से फ़्रांसीसी क्रान्ति के उत्थान-पतन के सन्दर्भ में बौदलेयर जैसे कथित रूप से "पतनशील" लेखक की जनवादिता को, भले ही उसका आयुष्य कम था, चिह्नित किया है.ज़ाहिर है कि बहुत हद तक लेखक भी समाज ही का हिस्सा होता है और प्लेखानोव के शब्दों में कहें तो अगर वह एक दौर में "कला के लिए कला" की बजाय "कला के उपयोगितावादी नज़रिये" को मानने लगता है या दूसरे दौर में इसकी उलटी दिशा अख़्तियार करता है तो इसके पीछे कुछ ठोस सामाजिक कारण होते हैं.

आनन्द प्रकाश के लेख की एक बड़ी कमज़ोरी यह भी है कि उन्हों ने एक बहुत विस्तृत और उलझे हुए विषय को अनेक प्रकार के सरलीकरणों द्वारा विश्लेषित करने की कोशिश की है, इसीलिए उनके लेख में कुछ अन्तर्विरोध भी चले आये हैं. पहला तो यह कि उन्होंने 70 के दशक तक के 60-70 वर्षों का एक काल-खण्ड बनाया है और बाक़ी 25-30 वर्षों का एक.जबकि बीसवीं सदी के अनेक दौर हैं और उनकी चुनौतियां और संकट भी अलग-अलग हैं.दूसरी बात यह है कि उन्हों ने मौडलों के सिलसिले में भी अजीब जोड़े बनाये हैं.

प्रेमचन्द और महावीरप्रसाद द्विवेदी तो चलो एक खण्ड में रख भी लिये जायें लेकिन निराला और मुक्तिबोध को एक ही तरह का मौडल बताना मेरे खयाल में ठीक नहीं है.शीत युद्ध का प्रभावी असर मुक्तिबोध की स्वीकृति पर ज़रूर पड़ा था मगर निराला उसके ज़ेरे-असर नहीं थे. दरअसल यह मौडलों की चर्चा ही बेमानी है. हर कालखण्ड में दो या उससे अधिक मौडल भी हो सकते हैं,दो तो यक़ीनन होते ही हैं --एक सत्ता और अधिकार-तन्त्र का मौडल और दूसरा जन-पक्षी मौडल.

किसी भी दौर का जायज़ा लेते हुए इन दोनों को आमने-सामने रख कर ही बात हो सकती है.बल्कि मेरी नज़र में मौडलों की जगह प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में बात करना ज़्यादा मुनासिब है क्योंकि कोई भी रचनाकार मोनोलिथिक क़िस्म का नहीं होता.अलग-अलग चरणों में उसकी रचनात्मकता अलग-अलग रूप ले सकती है.

अज्ञेय और नयी कविता के प्रभाव से रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, दोनों ही निकल कर आये थे.लेकिन रघुवीर सहाय ने,जिन्होंने पहले के दौर में लिखा था "दुनिया एक बजबजाई हुई चीज़ हो गयी है,"आगे चल कर "मेरा प्रतिनिधि" और "रामदास" जैसी कविताएं लिखीं,लेकिन वहीं तक महदूद रह जाने के कारण वे बुर्जुआ लोकतन्त्र के प्रतिपक्ष तक ही सीमित रह गये;जबकि सर्वेश्वर ने, जो "साम्यवाद और पूंजीवाद मैं दोनों पर थूकता हूं लिख चुके थे,समय के बदलते ही नक्सलवादी आन्दोलन के नज़दीक चले गये और उन्होंने "कुआनो नदी"और "किश्टा और भूमैय्या" जैसी परिवर्तनकामी कविताएं लिखीं. तो क्या हम इस परिवर्तन पर गौर  किये बिना ही उनका मूल्यांकन करेंगे ?
(लेख का अगला हिस्सा शीघ्र)



उपर्युक्त लेख जनज्वार में हिंदी साहित्य के सरोकारों पर चल रही बहस की अगली कड़ी है. यहाँ चार लेखों का लिंक दिया जा रहा है. देखने के लिए कर्सर  लेखों के ऊपर ले जाकर क्लिक करें  साहित्य में चेलागिरी -नौकरशाही की दूसरी परम्परा"वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान", 'पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता", 'प्रगतिशील बाजार का जनवादी लेखक'.


संघ जमात की नयी सांसत


आतंकी गतिविधियों में हिंदुत्ववादी संगठनों और नेताओं की संलिप्तता उजागर होने के बाद आंतकवाद के मुद्दे पर कांग्रेस की खिंचाई करने वाली भाजपा बचाव की मुद्रा में है। विस्फोटों में शामिल होने के  आरोपी स्वामी असीमानंद के पूर्व संघप्रमुख के.सुदर्शन, संघप्रमुख मोहन भागवत, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया, साध्वी रितंभरा, साध्वी कंकेश्वरी देवी, मोरारी बापू,आसाराम बापू,शंकराचार्य, सत्यमित्रनंद जी आदि प्रमुख लोगों से अच्छे ताल्लुकात हैं...


अजय प्रकाश की रिपोर्ट...


राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के दिल्ली स्थित झंडेवालान मुख्यालय पर उत्तर भारत  के एक प्रमुख पदाधिकारी ने नौ नवंबर की शाम संघ कार्यकर्ताओं से कहा था,‘कांग्रेस के दुष्प्रचार का हमें पूरी उर्जा और जोश से विरोध करना होगा,अन्यथा ये छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी संघ की प्रतिष्ठा को आतंकवाद के बहाने धूल में मिला देंगे।’धूल में मिल जाने की यही चिंता इस वक्त पूरे संघ परिवार में बचैनी का कारण बनी हुई है और उनके नेता घब़राहट में अनाप-शनाप बयान दे रहे हैं।

ताजा उदाहरण 10 नवंबर को संघ द्वारा आयोजित कांग्रेस के खिलाफ राष्ट्रव्यापी विरोध प्रदर्शन में पूर्व सरसंघ चालक के.सुदर्शन का बयान है जिसमें उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए का दलाल कहा है और इंदिरा गांधी की हत्या का जिम्मेदार भी  ठहराया है। बाकियों पर संघ के इस पूर्व सेनापति का यह सुर कितना सूट करेगा वह तो बाद की बात है सबसे पहले संघ ने ही नाता तोड लिया,जबकि देश भर  में कांग्रेस और संघ कार्यकताओं के बीच ठन गयी।

काले तीर निशान से चिन्हित असीमानंद : साथ में आसाराम बापू, मोरारी बापू, के.सुदर्शन और मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी


राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस)से जुड़े या उसके आनुषांगिक संगठनों की बम धमाकों में शामिल होने के आरोपों ने कांग्रेस के खिलाफ अक्सर मुखर रहने वाली भाजपा  के लिए बडी मुश्किल खडी कर दी है और आतंकवाद के मामले में भाजपा की भद्द पिटी है। हालत यह है कि कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए और कांग्रेस  सरकारों के भ्रष्टाचार को उजागर करने के लिए भाजपा जैसे ही दमखम से लगती है,उसके पहले ही कांग्रेस आतंकवाद का जिन्न सामने रखकर हिंदूवादी राजनेताओं की हवा निकाल देती है।

जांच प्रक्रिया की ताजा प्रगति के मुताबिक हैदराबाद,अजमेर और मालेगांव में मुस्लिम धर्मस्थलों पर विस्फोट की साजिश के सिलसिले में स्वामी असीमानंद को उत्तराखंड  राखंड के हरिद्वार से 19नवंबर को सीबीआइ ने गिरफ्तार कर लिया है। उल्लेखनीय है कि असीमानंद को तीन राज्यों आंध्र प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र पुलिस तलाश कर रही थी। राजस्थान पुलिस के आतंकवाद निरोधी दस्ते (एटीएस) ने असीमानंद को हिंदू कट्टरपंथियों के सरगना के तौर पर चिन्हित किया है।
असीमानंद 2006 में उस समय सर्वाधिक चर्चा में आये थे जब उन्होंने गुजरात के डांग जिले में सबरी मंदिर बनवाया और सबरीधाम कुंभ का आयोजन किया। इस आयोजन में असीमानंद ने पूर्व संघप्रमुख के.सुदर्शन,संघप्रमुख मोहन भागवत,गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया, साध्वी रितंभरा, साध्वी कंकेश्वरी देवी, मोरारी बापू, आसाराम बापू, शंकराचार्य, सत्यमित्रनंद जी आदि प्रमुख लोगों का बुलाया था।

इन नामों से जाहिर है कि आरोपित आतंकी असीमानंद की भाजपा और उसके नजदीकी के संतों से गहरे ताल्लुकात रहे हैं और थे। यहां गौर करने लायक है कि जब आतंकवादी घटनाओं में किसी मुस्लिम पर संलिप्तता का आरोप खुफिया एजेंसियां लगाती हैं तो उनके संपर्क में रहने वालों को भी उठा लिया जाता है,उनके साथ भी मीडिया तकरीबन वैसा ही ट्रायल चलाती है जैसा आरोपित पर। लेकिन यहां असीमानंद से गलबहियां करने वालों पर मीडिया की चुप्पी जताती ही कि कलमनवीसों के बीच साम्प्रदायिकता  गहरे में पैठी पड़ी है।
पुलिसिया जांच के अनुसार स्वामी ने गुजरात के डांग जिले में मुख्य केंद्र बनाकर मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के दर्जनभर से अधिक जिलों में आतंकी गतिविधियां चलायीं। जानकारी के मुताबिक स्वामी 1995में गुजरात के आहवा में आये और हिंदू संगठनों के साथ मिलकर ‘हिंदू धर्म जागरण और शुद्धिकरण’ का काम शुरू किया। इन खुलासों से विचलित संघ परिवार कांग्रेसी सरकारों की जांच और उनके नेताओं के आक्रामक बयान से बचाव की मुद्रा में खड़ा है क्योंकि उसका हर पलटवार निरर्थक साबित हो रहा है।

अजमेर धमाका: असली सरगना असीमानंद

अजमेर धमाके में पुलिस की चार्जशीट में ‘हिंदू आतंकवादी’का जिक्र जरूर एक बार भाजपा को बोलने का मौका दिया था,लेकिन अब वह मामला भी शांत हो चुका है। जो बचा रह गया है वह यह कि बार-बार आरोपपत्र में आरएसएस का नाम आ रहा है। जैसे राजस्थान एटीएस ने जिन तीन लोगों का जिक्र किया है, उनमें विभाग प्रचारक देवेंद्र कुमार गुप्ता,मध्यप्रदेश देश के शाजापुर जिला के जिला संपर्क प्रमुख चंद्रशेखर और इंदौर से संघ कार्यकर्ता लोकेश शामिल हैं। जबकि फरार अभियुक्तों में आरएसएस सदस्य और पदाधिकारी संदीप डांगे,सुनील जोशी और रामजी कलसंगरा शामिल हैं।
आश्चर्यजनक है कि हिंदू अतिवादी राजनीति के इन समर्थकों की यह आतंकी भूमिका तब उजागर हुई जब राजस्थान में भाजपा की सरकार सत्ता से बेदखल हुई। ग्यारह अक्टूबर 2007को आहता-ए-नूर के दरगाह में हुए धमाकों में तीन लोग मारे गये थे और पंद्रह लोग घायल हुए थे। शुरूआती पुलिसिया जांच में आरएसएस के लोगों के होने की सुगबुगाहट तो पता चली मगर जांच को उस दिशा में बढाने में भाजपा की सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। इस बावत मौजूदा कांग्रेस सरकार में गृहमंत्री शांति धारिवाल कहते हैं कि विस्फोट करने वालों की पूरी जानकारी होने के बावजूद तत्कालीन सरकार ने गिरफ्तार नहीं कर सकी, क्योंकि आतंकी हिंदूवादी संगठनों से थे।
राज्य के गृहमंत्री की राय में इन धमाकों का मकसद देश के विभिन्न कौमों के बीच के आपसी सामंजस्य को नष्ट करना रहा है। संलिप्तता के सवाल पर भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद कहते हैं,‘भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी कांग्रेस सरकार सिर्फ घोटालों को छुपाये रखने के लिए हिंदुओं को आतंकवादी गतिविधियों में सम्मिलित बता रही है। पार्टी हमेशा से यह मानती है दोषियों को सजा मिलनी चाहिए, चाहे वह कोई भी हो।

मगर इस आधार पर कि अमुक व्यक्ति का नंबर अमुक व्यक्ति की डायरी में मिला,इस आधार पर दोषी ठहराना गलत है।’गौरतलब है कि भाजपा प्रवक्ता यह बात गोरखपुर से भाजपा सांसद और प्रखर हिंदूवादी नेता योगी आदित्यनाथ के संदर्भ  में बोल रहे थे, जिनसे एटीएस पूछताछ करने वाली थी कि धमाकों के आरोपियो की डायरी में योगी का फोन नंबर दर्ज है।

उधर पुलिस का दावा है कि मालेगांव धमाकों में गिरफ्तार श्रीकांत पुरोहित और सुधाकर के अभिनव भारत संगठन और साध्वी प्रज्ञा सिंह और सुनील जोशी के ‘वंदे मातरम्’संगठन के बीच असीमानंद संगठनकर्ता की भूमिका में था। मालेगांव और अन्य धमाकों में गिरफ्तार लोगों के हवाले से पुलिस ने कहा है कि स्वामी अभिनव भारत  संगठन और वंदे मातरम् संगठन को एक करने के पक्ष में था ताकि उन्हें और बल मिले।

मूल रूप से पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के रहने वाले और उच्च शिक्षा प्राप्त असीमानंद को पुलिस ने इन सभी  विस्फोटों के मुख्य आरोपी के तौर पर चिहिनत किया है,जिनकी गिरफ्तारी के बाद यह विस्फोटक खुलासे होंगे कि कितने संगीन रूप से हिंदू धार्मिक समूह चरमपंथी और आतंकी गतिविधियों में संलिप्त हैं।

हैदराबाद, अजमेर और मालेगांव बम धमाकों में हिंदू कट्टपंथियों के शामिल होने का तथ्य उजागर होने के बाद से अपने को सबसे शुद्ध राष्ट्रीयतावादी बताने वाला संघ और उसके जुड़े पदाधिकारी राष्ट्रद्रोहियों की पंक्ति में खड़े नजर आ रहे हैं। इसकी वजह से भाजपा चाह कर भी अपने वैचारिक आधार की जननी आरएसएस के बचाव में पुरजोर तौर पर नहीं उतर पा रही है।

हालांकि संघ के प्रचारक इंद्रेश कुमार ने धमाकों में नाम उजागर होने के बाद राजस्थान पुलिस को नोटिस भिजवाया  है। इंद्रेश कुमार पर आरोप है कि 2005में जयपुर में हुई एक गोपनीय बैठक में उनके साथ जो लोग भी शामिल थे,वे दरगाह विस्फोट में गिरफ्तार किये गये। इंद्रेश कुमार संघ में मुस्लिमों की भर्ती  जैसे महात्वाकांक्षी अभियान  से जुड़े थे। पुलिस को यह जानकारी दरगाह विस्फोट में संलिप्त रहे संघ कार्यकर्ता सुनील जोशी की हत्या के बाद बरामद डायरी से मिली।

अभी तक उजागर हुए तथ्यों से जाहिर हो गया है कि संघ से जुड़े चरमपंथियों के तार गुजरात, मध्य प्रदेश , आंध्र प्रदेश झारखंड और राजस्थान से जुड़े हैं। संघियों का यह आतंकी तार ऐतिहासिक संकट लेकर आया है। शायद इसी को भांपकर  कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने मध्यप्रदेश में छह अक्तूबर को एक रैली को संबोधित करते हुए आरएसएस को हिंदू कट्टरपंथी राजनीति का वाहक कहा और बताया कि प्रतिबंधित मुस्लिम छात्र संगठन सिमी और इसमें कोई फर्क नहीं है। इस बयान से उत्तेजित भाजपा युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने आरएसएस पर छपी छह किताबें राहुल को भेजी कि बचकाने बयान देने से पहले वे पढ़ा करें।

कांग्रेस और आरएसएस के बीच वाक्युद्ध कोई नयी बात नहीं है। सन् 2004के लोकसभा  चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान आरएसएस की भूमिका पर टिप्पणी की थी जिसके विरुद्ध संघ ने राष्ट्रव्यपापी अभियान चलाया था। संघ के प्रवक्ता राम माधव ने उस समय प्रेस को संबोधित करते हुए दिल्ली  में कहा था कि कांग्रेस दुर्भावनाग्रस्त  अभियान  चला रही है। क्योंकि यह नकली कांग्रेस है और सोनिया गांधी इसकी नकली नेता हैं।

अब नकली कौन है और असली कौन,यह तो जनता तय करेगी। मगर गुनहगार कौन है उसे पुलिस बता रही है और जनता देख रही है इसलिए अब असल-नकल का सवाल बयानों की बजाय तथ्यों पर निर्भर  करेगा जिसे चाहकर भी भाजपा या संघ दबा नहीं सकते।

(द पब्लिक एजेंडा से साभार व संपादित)