May 17, 2011

खाने और दिखाने के मुद्दों का फर्क करतीं मायावती

सर्वजन की बात करने वाली सरकार ने सर्वजन को घरों में बंधक बनाकर सीएम के दौरों को पूरा करवाया था। ऐसे में मायावती को इस गुरूर से बाहर जाना चाहिए कि उनकी जुबान इतिहास लिखती है...

डॉ0 आशीष वशिष्ट

भट्ठा पारसौल की घटना ने माया सरकार की दोमुंही नीति को सारे देश के सामने उजागर कर दिया है। मार्च महीने में जाट आरक्षण की मांग कर रहे आंदोलनकारियों को खुली छूट देने वाली माया सरकार जब भट्ठा पारसौल के आंदोलनकारी किसानों पर गोली चलवाती है तो यूपी सरकार की दोमुंही और जनविरोधी नीति का कुरूप चेहरा पूरे देश  के सामने बेपर्दा हो जाता है। वैसे भी माया राज में सरकार और नौकरशाह कानून, मानवाधिकार और जनपक्ष से जुड़े मुद्दों को जूते की नोक पर ही रखते हैं।

बहन मायावती का हर कदम  वोट बैंक और राजनीतिक गुणा-भाग से प्रेरित और संचालित होता है। भट्ठा पारसौल के किसान जमीन के बदले मिलने वाले सरकारी मुआवजे को बढ़ाने की मांग के लिए आंदोलनरत थे। किसानों की जायज मांगों और आंदोलन का प्रशासन लंबे समय से अनसुना और अनदेखा कर रहा था। आखिरकर अपनी मांगे पूरी न होती देख किसानों ने प्रशासन तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए रोडवेज के तीन कर्मचारियों को बंधक बना लिया। जिला प्रषासन को जैसे ही रोडवेज के कर्मचारियों के बंधक बनाए जाने की खबर लगी, वैसे ही एक झटके में सारा प्रशासनिक अमला जाग उठा।

प्रशासन ने किसान नेताओं से वार्ता और समझौते की जरूरी और प्राथमिक कार्रवाई से पहले किसानों पर लाठियां और गोलियां चलाकर दादागिरी और निकम्मेपन का जो उदाहरण पेश  किया वो किसी भी लोकतांत्रिक  देश  के लिए शर्मनाक घटना है। प्रशासन के रवैये से क्षुब्ध किसानों ने भी जवाबी कार्रवाई की जिसमें दोनों पक्षों को जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा। असल में देखा जाए तो जो भी हुआ उसकी निंदा होनी चाहिए। क्योंकि कानून को हाथ में लेने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती है। किसानों ने अपनी बात को प्रषासन तक पहुँचाने  के लिए कर्मचारियों को बंधक बनाने का जो रास्ता चुना वो भी सरासर गलत और गैर-कानूनी था और जो नंगा नाच और तांडव पुलिस-प्रषासन ने किया वो भी घोर निंदनीय है।

लेकिन ऐसे हालात किसने बनाए और किसने किसानों को अपहरणकर्ता बनने के लिए मजबूर किया। प्रशासन को समय रहते नागरिकों की समस्या की ओर उचित ध्यान देना चाहिए। भट्ठा पारसौल की घटना  प्रशासनिक अक्षमता, अकर्मण्यता, गैर-जिम्मेदाराना रवैया और निकम्मेपन की ही उपज है। क्योंकि जनता से अधिक प्रषासन को जिम्मेदार, संयमी, अनुषासित, गंभीर और समझदारी दिखाने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन माया सरकार में लगभग सारा सरकारी अमला कानून को रबड़ की गेंद की भांति उछालने में आनंद अुनभव करता है।

भट्ठा पारसौल से पूर्व आगरा, मथुरा, इलाहाबाद और लखनऊ में भी किसानों और प्रषासन के मध्य कई घटनाएं घट चुकी हैं। प्रदेश में जहां-जहां भी विकास के नाम पर जमीन अधिग्रहण हो रहा है वहां किसान और प्रशासन आमने-सामने खड़े हो रहे हैं। असल समस्या भूमि अधिग्रहण कानून से लेकर प्रषासानिक अनुभवहीनता की है। कारपोरेट, ठेकेदार, गुण्डों और माफियाओं के हाथों बिकी सरकार को पैसा कमाने की इतनी जल्दी है कि विकास के नाम पर धड़ाधड़ खेती वाली जमीनों का अधिग्रहण सरकारी एजेंसियां कर रही है।

माया सरकार में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। सरकार को जिस मुद्दे पर व्यक्तिगत तौर पर नफा नजर आता है, वह सरकार की निगाह में विकास हो जाता है। जाट आरक्षण ने पूरे रेल यातायात, यात्रियों और आम आदमी के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया था। यूपी से होकर निकलने वाली दर्जनों ट्रेनों को रद्द करना पड़ा। होली के त्योहार के कारण पूर्वांचल और देष के अन्य हिस्सों में रहने वाले लाखों लोगो की घर जाने की ख्वाहिष इस बार अधूरी रह गई क्योंकि आंदोलनकारी जाट रेलवे के ट्रेकों पर कब्जा जमाए थे।

जाट आंदोलकारियों को माया सरकार का खुला संदेष था कि जो मन में आए वो करो क्योंकि जाट आरक्षण की आंच कांग्रेस और रालोद का राजनीतिक समीकरण बिगाड़ सकती थी, बसपा और माया सरकार से उसे कोई नुकसान नहीं होना था। हाई कोर्ट के सख्त रवैये के बाद जाट आंदोलनकारियों को रेल ट्रेक से हटाने की सुस्त और मरियल कार्रवाई माया सरकार ने की तो थी लेकिन तब तक लाखों-करोड़ों के राजस्व का नुकसान और लाखों लोगांे का होली का त्योहार खराब हो चुका था।

कदम-कदम पर माया सरकार की दोमुंही नीतियां स्पष्ट दिखाई देती हैं। मेरठ में यांत्रिक कारखानों के खिलाफ आमरण अनषन पर बैठे जैन मुनि श्री मैत्रि सागर को जिस तरह सरकारी मषीनरी ने अनषन से जर्बदस्ती उठाया और बारह घंटे नजरबंद बनाए रखा वो सरकार की कथनी और करनी में अंतर को स्पष्ट उजागर करती है। जैन मुनि की मांग सिर्फ इतनी थी कि सरकार यांत्रिक बूचड़खानों पर रोक लगाए, लेकिन लोकहित और जन समस्या से जुड़े मुद्दे का स्थायी या ठोस हल निकालने की बजाए प्रषासन अनषन तुडवाने के कुत्सित प्रयासों में लगा रहा। अगर कोई संत या देष का आम आदमी चिल्ला-चिल्लाकर अपनी समस्या या मांग प्रषासन के सामने रखता है तो सरकारी अमला उसकी बात को गंभीरता से सुनने की बजाए फौरी कार्रवाई करने में अधिक दिलचस्पी दिखाता है।

मेरठ में बूचड़खानों की काली और अवैध कमाई के पीछे सत्ता पक्ष से जुड़े नेताओं का खुला हाथ और संरक्षण है। इसलिए सरकारी अमला जायज मांग को भी सिरे से खारिज करने में परहेज नहीं करता है। देखा जाए तो जनससमयाओं और मांगों के पीछे कहीं न कहीं राजनीतिक दखलअंदाजी से लेकर प्रषासन की अदूरदर्षिता, निकम्मापन और लेट लतीफी स्पष्ट झलकती है। मायावती सरकार में तार्किक क्षमता का अभाव है। माया अपने विरोधियों को तार्किक या ठोस जवाब देेने की जगह कानूनी डंडे और ताकत का सहारा लेने में अधिक यकीन रखती है। तभी तो सरकारी मषीनरी विरोधी दलों के नेताआंे को जूते से मसलने और अहिंसक प्रदर्षनकारियों पर डंडे और गोलियां चलाने से भी परहेज नहीं करती है।

जब बात माया सरकार के हितों और वोट बैंक की आती है वहां सरकार त्वरित कार्रवाई करने से चूकती नहीं है। लखनऊ के सीएमओ हत्याकांड से लेकर षीलू बलात्कार कांड तक माया सरकार की त्वरित कार्रवाई किसी से छिपी नहीं है। सीएमओ हत्याकांड में तो मांयावती ने अपने दो-दो चहेते मंत्रियों की बलि लेने में कोई संकोच नहीं किया। क्योंकि माया हर चीज और हालात से समझौता कर सकती हैं लेकिन उन्हें ये कतई बर्दाषत नहीं है कि कोई उनके वोट बैंक में सेंध लगाए या उनकी कुर्सी खिसकाने का प्रयास करे।

भट्ठा पारसौल और जाट आरक्षण के मुद्दों पर माया सरकार द्वारा की गई कार्रवाई सरकार की नीति और नीयत का खुला बयान करती है कि सरकार की हर कवायद वोट बैंक को बचाए रखने या फिर अपने विरोधियों को धूल चटाने से प्रेरित होती है। 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद से ही माया ने प्रदेष के आम आदमी से दूरी बना रखी है। माया के ष्षासन में जनता से मिलने का कोई कार्यक्रम या एजेंडा नहीं है। पूर्व सरकारों में जनता दर्षन के माध्यम से मुख्यमंत्री प्रदेष की जनता से रूबरू होते थे और उनकी समस्याआंे को सुनते और सुलझाते थे।

पिछले चार साल के कार्यकाल में मायावती ने दो-चार रैलियों के अलावा जनता से मिलने की कोई कवायद नहीं की। मार्च माह में प्रदेष के जनपदों के दौरों पर निकली माया को जगह-जगह जनता के विरोध का सामना करना पड़ा। सर्वजन की बात करने वाली सरकार ने सर्वजन को घरों में बंधक बनाकर सीएम के दौरों को पूरा करवाया था। ऐसे में मायावती को इस गुरूर से बाहर आ जाना चाहिए कि उनकी जुबान इतिहास लिखती है। जब जनता पष्चिम बंगाल में वामपंथियों का 34 साल पुराना किला ढह सकती है तो जनता बसपा का किला भी ढहाने उतनी ही सक्षम है। 


 स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक-