Jan 29, 2017

पंजाब हारेंगे तो केजरीवाल जिम्मेदार


पंजाब में चुनाव प्रचार अपने पूरे चरम पर है । किसी समय इकतरफा आम आदमी पार्टी की झोली में जाते दिख रहे पंजाब में कांग्रेस ने तेजी से ना सिर्फ वापसी की है, बल्कि पंजाब के राजनीतिक हलकों और जनता की  बहस में कांग्रेस की सरकार बनने के भी कयास  लगाए जा रहे हैं।

आप कार्यकर्ताओं की मानें तो पंजाब में आम आदमी पार्टी की इस हालत के लिए अरविन्द केजरीवाल खुद जिम्मेवार हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में  जब अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बुरी तरह मुंह की खानी पड़ी थी, यहां तक कि दिल्ली में भी उनकी पार्टी बुरी तरह हारी, ऐसे में पंजाब ने अप्रत्याशित रूप से 4 लोकसभा सांसद देकर मरणासन्न पड़ी पार्टी में न सिर्फ  संजीवनी बूटी देकर बचाने का काम किया, बल्कि कांग्रेस और अकाली में से किसी एक को हर बार चुनने को मजबूर जनता के सामने एक नया विकल्प पेश किया.

जनता ने आप को हाथोंहाथ लिया। हजारों की संख्या में नए कार्यकर्ता बने, जिन्होंने पंजाब में अपने स्थानीय नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनावों के लिए काम करना शुरू किया। इनमें से जस्सी जसराज भगवंत मान ,एच एस फुलका, डॉ. धर्मवीर गांधी लोकप्रिय नेता बनके उभरे।  वहीं से आगामी मुख्यमंत्री पद का दावेदार कौन होगा, इसको लेकर चर्चाएं और गुटबाजी शुरू हो गई । पार्टी के पिछले लोकसभा चुनावों में प्रत्याशी रहे पार्टी के एक सदस्य ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि कुछ एक हिस्सों को छोड़कर  पंजाब में किसी पार्टी की लहर नहीं है और इस समय पार्टी को कांग्रेस से कड़ी टक्कर मिल रही है ।

केजरीवाल को पिछले 2 सालों से एक ही चिंता सताए जा रही है कि कहीं ऐसा न हो कि आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद पंजाब का नेतृत्व उन्हें दरकिनार कर दे। उनका सारा ध्यान इसी में लगा रहा कि पंजाब के उभर रहे नेताओं का कद किस तरह कम किया जाए और कैसे चुनावों के बाद पंजाब सरकार हर काम  दिल्ली हाईकमान के निर्देशानुसार करे। इन्हीं सब कारणों से पार्टी को पंजाब में गंभीर नुकसान पहुँचने के कयास लगाए जा रहे हैं।

केजरीवाल की सबसे बड़ी गलती थी पंजाब के स्थानीय नेतृत्व को बड़े कद का होने से रोकना और पंजाब के हर निर्णय को खुद बिना स्थानीय नेतृत्व से सलाह किए बिना पंजाब पर थोपना। इसी से नाराज होकर पंजाब के एक बड़े नेता एच एस फुल्का जिनका नाम उस समय मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में था पार्टी के सभी पदों  व सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था। पंजाब के इस समय पार्टी के सबसे बड़े नेता भगवंत मान का एक ऑडियो क्लिप आया था, जिसमें वे पटियाला के सांसद धर्मवीर गांधी को पंजाब और स्थानीय नेतृत्व को लेकर केजरीवाल की जमकर आलोचना कर रहे हैं।

पंजाब को पूरी तरह दिल्ली के नियंत्रण में रखने के लिए पंजाब के आब्जर्वर संजय सिंह और दुर्गेश पाठक को ख़ास निर्देशों के तहत ऐसे नए चेहरों की तलाश करने के लिए कहा गया, जो किसी भी तरह से स्थानीय नेताओं के प्रभाव में न हो। यहां तक कि युवाओं का घोषणापत्र जिसमें स्वर्ण मंदिर पर झाड़ू की तस्वीर थी, पंजाब में बिना किसी को दिखाए बिना पंजाब में  किसी से सलाह मशविरा किए दिल्ली से जारी किया गया और नाराजगी दिखाने पर प्रदेश संयोजक सुचा सिंह छोटेपुर को दिल्ली की टीम ने साजिश के तहत बाहर किया गया । 

आप पंजाब के एक बड़े नेता और भटिंडा से लोकसभा के उम्मीदवार जस्सी जसराज ने इन दोनों पर बड़ा आरोप लगाया। पार्टी के पुराने मेहनतकश कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर सिर्फ पैसे और रसूख के दम पर लोगों को पार्टी में ऊँचे पद देने का इल्जाम लगाया. उन्होंने टिकट वितरण में भी इन दोनों नेताओं पर बड़े पैमाने पर भ्र्ष्टाचार करने और पैसे के बदले टिकट देने का आरोप लगाया ।

उन्होंने आरोप लगाया कि बड़ी संख्या में  पुराने कांग्रेस और अकाली नेताओं जिन्होंने  पूरी उम्र भ्र्ष्टाचार करके पैसा कमाया है और जिनका जनसंघर्षों से दूर दूर तक कोई नाता नहीं रहा जो चुनाव से थोड़ा वक़्त पहले ही टिकट के लिए आए हैं और जिन्होंने लोकसभा चुनावों में पार्टी को वोट देना तो दूर आम आदमी पार्टी के खिलाफ जनता में जमकर जहर उगला था वे कैसे ईमानदार हो गए । पार्टी में 50 से ज्यादा ऐसे लोगों को टिकट दिया गया है जो या तो लंबे समय तक  अकाली या कांग्रेस पार्टी और सरकार में मलाईदार पदों पर रहे हैं या बस अपने पैसे और रसूख के दम पर टिकट के आश्वासन पर चुनावों से कुछ समय  पहले पार्टी में आए हैं 

पार्टी के अन्य  नेताओं का कहना है केजरीवाल से इस तरह की बेवकूफियों और गलतियों  की उम्मीद नहीं थी. पंजाब में नियुक्त 52 ओबजरवेर्स में से 50 को पंजाबी न बोलनी आती है ,न वे समझ सकते हैं, न ही उन्हें पंजाब की राजनीति के बारे में कुछ पता है। जिस कारण यहां के कार्यकर्ताओं और दिल्ली से भेजे गए आब्जर्वर के बीच एक बड़ी संवादहीनता रही है और वो कार्यकर्ताओं व आम जनता में काम करने की बजाए चमचों के साथ सैर सपाटा और अय्याशी करते रहे।

 यही नहीं जो भी कार्यकर्ता दिल्ली फ़ोन करके अपनी समस्या बताते रहे या दिल्ली अपनी बात रखने के लिए गए, पार्टी के उदासीन और दिल्ली के सरकारी नौकरशाही जैसे रवैये से वो नाराज होकर घर बैठ गए.  अभी भी पार्टी के कार्यकर्ताओं में संजय सिंह और दुर्गेश पाठक के प्रति जमकर गुस्सा है, जिनके  कार्यकर्ताओं के लिए दर्शन हमेशा दूभर रहे।  अपने पूरे प्रवास के दौरान पांच सितारा सुविधाओं वाली जगह पर ही रुकते थे। दोनों में से शायद ही किसी ने दलित बस्ती या आम गरीब जनता के बीच रात बिताई हो। खबर ये भी है चुनावों के बाद इन दोनों को पंजाब की राजनीति से अलग कर दिया जाएगा।

पर केजरीवाल के लिए इस समय  सबसे बड़ी चिंता भगवंत मान हैं, जो केजरीवाल की लाख कोशिशों के बाद भी कार्यकर्ताओं में मुख्यमंत्री का सबसे बड़ा और लोकप्रिय चेहरा हैं। चुनाव कुछ दिन दूर हैं, पर अभी भी मुख्यमंत्री कौन होगा, ये आम आदमी पार्टी की राजनीति का सबसे बड़ा सवाल है। पार्टी के सूत्रों का कहना है केजरीवाल या तो खुद मुख्यमंत्री बनेंगे या दिल्ली के अपने किसी ऐसे कृपापात्र को बनाएंगे, जिसके जरिए वो स्थानीय नेतृत्व को हमेशा अपने नियंत्रण में रख सकें, ताकि पार्टी व पंजाब के वही सुप्रीमो बने रहें।


वैसे उनका दिल्ली के विधायक जरनैल सिंह को पंजाब में चुनाव लड़वाना इसी ओर इशारा करता है । आम आदमी पार्टी पंजाब जीते या हारे, दोनों स्थितियों में पंजाब का स्थानीय नेतृत्व केजरीवाल से दो-दो हाथ करने के लिए तैयार है । 

Jan 24, 2017

चुनाव प्रचार के लिए सनी लियोनी भी डिमांड में !

हमारे लिए यह कमाल का सवाल था। पर जिसने हमसे यह बात कही वह सनी लियोनी को लेकर तार्किक था और उसका कहना था कि चुनाव शुद्ध लो​कप्रियता का खेल है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 73 सीटों पर 11 फरवरी को चुनाव है। उसके मद्देनजर हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विधानसभा क्षेत्र गाजियाबाद, मेरठ, शामली और कैराना गए।

इस क्षेत्र में हमारी खास दिलचस्पी इसलिए थी कि पिछले 2014 लोकसभा चुनावों में इस इलाके के भरोसे ही संसद में भाजपा के सांसद भर गए। तो हमारे मन में सवाल यह था कि क्या तीन साल बाद इस क्षेत्र में आज भी वह जुनून बचा है जिसके बूते भाजपा उत्तर प्रदेश विधानसभा के 403 सीटों में से जीत के लिए 205 पास सीटें हासिल कर सके।

या फिर कांठ की हांड़ी दुबारा नहीं चढ़ेगी और भाजपा को उत्तर प्रदेश में भी वोट के लिए वैसे ही संघर्ष करना होगा जैसा उसको बिहार में करना पड़ा।

हम थानाभवन कस्बे निकलकर कैराना की ओर बढ़े। थानाभवन से सुरेश राणा बीजेपी के विधायक हैं। पर उनकी पार्टी में इज्जत मामूली विधायक की नहीं है बल्कि विधायक से अधिक वह पार्टी के लिए वे उन महत्वपूर्ण व्यक्तियों में हैं जिनके भरोसे भाजपा यूपी में माहौल बना सकी और 73  सांसद जिता सकी। सुरेशा राणा मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी हैं और उन पर दंगा, हत्या समेत कई गंभीर मकदमें चल रहे हैं।

पर इन विवादों और हिंदू—मुस्लिम तनाव के बदौलत लोकसभा में भाजपा के पक्ष में एकतरफा वोटिंग हुई। इसी वोटिंग एक नेमत कैराना लोकसभा सीट भी है, जहां के सांसद हुकुम सिंह हैं। हुुकुम सिंह पिछले वर्ष तब चर्चा में आए थे जब उन्होंने मुजफ्फरनगर जिले से मुसलमान माफियाओं के डर से हिंदुओं के पलायन की एक लिस्ट जारी की थी।

हालांकि वह लिस्ट फर्जी पाई गयी। इस फर्जीवाड़े पर हुकुम​ सिंह की काफी छिछालेदर भी हुई। राज्य प्रशासन ने भी उन्हें झूठा करार दिया। पर वही झूठ वोटरों को हुकुम सिंह के और करीब लाई।

मैंने इस हवाले सेे कैराना कस्बे में सवाल की तरह पूछा कि आपका सांसद झूठ बोलता है, लोगों को दंगे के लिए उकसाता है, फिर भी आप हुकुम सिंह को क्यों पसंद करते हैं? क्या आप नहीं चाहते कि इलाके में शांति और सद्भाव कायम रहे।

जवाब मिला, 'देखो जी। सब सोचने का अपना—अपना नजरिया है। जिसको आप उकसाना कहते हैं उसको हम ठाठ कहते हैं और जिसको आप झूठ कहते हैं, उसको हम समाज के हित में किया गया काम कहते हैं।'

हमारी यह बातचीत एक दुकान पर हो रही थी। लोगों का कहना था ​यहां उत्तम क्वालिटी वाला मिल्क केक का मिलता है। लोग आ रहे थे और मिल्क केक और चाय पी रहे थे। एक हाथ में मिल्क केक और दूसरे मेें चाय। यह दृश्य आप हरियाणा, पंजाब के कुछ हिस्सों, राजस्थान और पश्चिमी यूपी में ही देख सकते हैं, जहां मीठे संग ​मीठा लेने चलन है।

हम इससे वाकिफ थे इसलिए बहुत गौर किए बगैर मैंने अपनी बातचीत लोगों से पूरी की। फिर चलने को हुआ तो एक आदमी मेरे आगे आधा किलो के करीब मिल्क केक रखते हुए बोला, 'बैठो पत्रकार साहब। हमसे भी कुछ जान लो।'

मैं मुस्कुराया। वह मिल्क केक का प्लेट मेरे हाथ तक लाते हुए बोला, 'आपके लिए ही है, खाओ जी। दूर—दूर से लोग आते हैं यहां जे मिठाई खाने।'

उसके बाद मेरी उससे कुछ बात हुई। लगा कि यह काफी कुछ जानता है इलाके के राजनीतिक गणित और समाजशास्त्र के बारे में।

पर उसका कुछ और मकसद था। वह मेरे सवालों को बार—बार टाल रहा था। उसने अपना नाम चौधरी रणविजय बताया। कहा कि मेरी यहां सभी पार्टियों के नेताओं से नज​दीकियां हैं। और मैं आपसे एक फेवर चाहता हूं।

मैंने कहा, 'बोलिए।' उसने कहा, एक कॉन्टैक्ट चाहिए। आप पत्रकार लोग हैं आपके पास नहीं होगा तो किसके पास होगा।'

मैंने पूछा, 'किसका चाहिए।' उसने तपाक से कहा, 'सनी लियोनी का।'
मैं हंस पड़ा और बोला, 'आप शाहरूख खान से ले ​लीजिए। इन दिनों पह उन्हीं के साथ हैं। पर उनका नंबर आप क्या करेंगे।'

उसने कहा, 'प्रचार के लिए चाहिए जी। जितना उसको फिल्म रईस से नहीं मिला होगा, उससे ज्यादा दिलवाएंगे।'

मैं, 'क्या बात करते हैं। कौन नेता है जो बुला रहा है प्रचार के लिए। कितना बवाल होगा, लोग बुरा मानेंगे कि आप एक पोने स्टार को प्रचार के लिए बुला रहे हैं। आप तो इस क्षेत्र को जानते हैं।'

पर वह अपनी बात से ​तनिक डिगा नहीं। उसने मेरे लिए चाय मंगवाई और समझाना जारी रखा।

कहा कि आप पार्टियों के प्रचार में नाच—गाने का वाले ​वीडियो पर टीवी में बहस—विवाद होते देखते होंगे न। नाच वाली पार्टियां बुलाई जाती हैं भीड़ जुटाने के लिए। सब नेता बुलाते हैं। नहीं तो नेताओं को कौन सुनने आएगा। फिर मोदी हों या सोनिया या अखिलेश या मायावती, इनके आने से कमसे कम तीन घंटे पहले से भीड़ को रो​क के रखना होता है। उससे पहले भीड़ छुटभैया नेताओं से रूकती नहीं। पहले लोग मुजरा डांस, रागिनी से रूक जाते थे लेकिन अब नहीं रूकते।

उसने मुझे मिल्क केक खाने के लिए जोर दिया और बोलना जारी रखा, 'फिर अब रागिनी या नाच बहुत आम हो चुका है। कुछ नया आइटम चाहिए। तो मुझे यह आइडिया समझ में आया। मैं बड़े दिनों से किसी कान्टैक्ट के कोशिश में था। दिल्ली भी गया था। पर कुछ हो नहीं पाया। अभी समय है। प्लीज आप कुछ करवा दीजिए। आप जो कहेंगे मैं आपके लिए भी कर दुंगा।'

मैंने जानना चाहा, 'सनी लियोनी तो पोर्न स्टार है। नाचने—गाने वाली फिर भी चल जाती हैं लेकिन वह, वह भी चुनाव में। लोग वोट देंगे कि गालियां।'

उसका मिल्क केक और चाय बेकार गया था, क्योंकि मैं उसके किसी काम न आ सका। मगर उसका सनी लियोनी को बुलाने और डांस कराकर भीड़ जुटाने का दुस्साहस मे​रे लिए एक नया अनुभव था।

चलते हुए उसने मुझे लगभग चुनौती देते हुए कहा, 'समय कम है इसलिए मैं शायद न बुला पाउं। पर आप इसे मजाक मत स​मझिए। आप देखिएगा इस चुनाव या अगले में मैं लियोनी को जरूर बुलाउंगा। मैं न बुलाया तो कोई और बुलाएगा, क्योंकि लोकप्रियता और विवाद ही प्रत्याशी की जान होती है। जो चर्चा में है, उसी की बोली लगती है, चाहे अच्छे वजह से हो या बुरी वजह से।'

मैंने पूछा, 'आपके पास कोई उदाहरण।'

उसने कहा, 'हुकुम सिंह, सुरेश राणा और संगीत सोम से बड़ा उदाहरण क्या है। प्रदेश में इनकी जितनी बीजेपी में चर्चा है, वह किसी दूसरे बीजेपी जनप्रतिनिधि की है। नहीं। यही होता है। जो विरोधी हैं उनके लिए ये दंगाई, अपराधी और समाजविभाजक हैं। मगर जो समर्थक हैं उनके लिए हीरो, कौम के रक्षक और सबसे बढ़कर मोदी जी के पहली पंक्ति में हैं। आदर्श हैं आदर्श। इसलिए आप नंबर दिलवाइए, बाकि हम पर छोड़ दीजिए।' 

मुझे आज भी इस चुनावी रणनीतिकार पर संदेह है पर वह ऐसा सोच पा रहा है तो ​जाहिर तौर पर उसका एक स्पेस इस चुनावी राजनीति ने बना दिया हैै।

Jan 23, 2017

तारेक फतेह जी न्यूज पर क्यों, उसके पीछे की कहानी सुनिए!


बीजेपी चुनाव से बहुत पहले ही उत्तर प्रदेश में लव जेहाद, गो हत्या, घर वापसी जैसे सारे बम फोड़ चुकी है। भाजपा कार्यकारिणी इस समय मुश्किल में है। कोई मुद्दा नहीं मिल रहा कि भाजपा प्रदेश स्तर पर बीच बहस में सबसे उपर दिखे या टीवी वाले यह भी बोल सकें कि जी, भाजपा की लहर है। 

कल परचा दाखिला का पहला दिन है। 11 फरवरी को 73 सीटों पर चुनाव है लेकिन मोदी जी ने जैसी हवा का बहाने का टार्गेट संघ और पार्टी को दिया है, उसकी हवा निकल चुकी है। कार्यकर्ताओं को बुस्टअप करने की सारी तरकीबें बेकार जा रही हैं।

ऐसे में मुद्दा बनाने के लिए भाजपा को अपने पार्टनर चैनल 'जी न्यूज' का सहारा लेना पड़ रहा है।

संघ के एक छुटभैया नेता 'भाईजी' के शब्दों में, 'कार्यकारिणी को क्या समझ में आता है? वह तो बस विधायक—सांसद बनने की तेजी में रहते हैं, अपनी गोट सेट करते हैं। आइडिया तो हमलोग देते हैं भाई जी। और हमने दिया भी। अब आप देखिएगा ​कैसे कल से यूपी चुनाव के बहस की दिशा बदलते हैं।'

करीब सप्ताह भर पहले मैं अपने एक नेता मित्र के साथ था, 'मैंने पूछा किया क्या? दंगा कराएंगे क्या?'

संघ के नेता मेरा हाथ थामते हुए, 'भाई जी दंगा नहीं अबकी विमर्श होगा, बहस होगा और जो उचित होगा उसपर फैसला होगा। हां, वे दंगा चाहेंगे तो दंगा भी होगा। पर हम हिंसा विरोधी हैं।'

फिर मैंने अपना सवाल दोहराया, 'किया क्या?'

संघ के नेता, 'तारेक फतेह को खड़ा कर दिया? अब जवाब दें मुसलमान। अब देखें कौन पार्टी है जो हिंदुओं को एकजुट होने से रोक पाती है।'

मैं, 'लेकिन वह तो भारत का ना​गरिक ही नहीं। फिर कैसे आपने खड़ा किया?'

संघ के नेता, 'चुनाव में नहीं भाई जी। टीवी में। उसमें कोई नागरिकता की जरूरत नहीं।'

मैं, 'मतलब गेस्ट बनाया। किस चैनल पर। क्या​ डिबेट है, कब है।'

संघ के नेता, 'देख लीजिएगा, खुद की पता चल जाएगा?'

फिर भी, 'क्या जी न्यूज पर।'

फिर वह और नेता मित्र हंस पड़े। तो मुझे समझ में आ गया ​कि तारेक फतेह जी न्यूज पर मसला बदलने आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने आ रहे हैं।

मैंने खुद से सवाल किया कि क्या कोई चैनल या मीडिया माध्यम ऐसा हो सकता है कि वह एक पार्टी का मुखपत्र ही माना जाने लगे। क्या इस प्रवृत्ति के रहते कल को वह अपने व्यावसायिक रूप बनाए रख पाएगा या उसे लोग मीडिया मानने को तैयार होंगे?

फिर याद आया कि जी न्यूज कर भी और क्या सकता है। आखिर भाजपा सरकार ने जो 7770 करोड़ को जो अहसान लादा है, आखिर उसको उतारने का और कोई क्या तरीका हो सकता है।

आप सबको याद होगा कि जी न्यूज की मालिक कंपनी 'एस्सेल ग्रुप' को हरियाणा और केंद्र सरकार ने मिलकर 7750 हजार करोड़ रुपए का ठेका दिया है। यह ठेका केेंद्रीय परिवहन मंत्रालय और हरियाणा सरकार ने दिया है।

ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश की जनता एक मीडिया ग्रुप के व्यावसायिक लाभ के चक्रव्यूह और पार्टी के शातिराना तैयारी में फंसती है या इनको नोटिस ही नहीं करती!!!

Jan 20, 2017

जैसी भाजपा की चाहत वैसी मीडिया की सोच...

1. भाजपा चाहती है कि हर कीमत पर उत्तर प्रदेश में टक्कर में भाजपा—सपा दिखे, मीडिया ऐसा ही पेश कर रही है।

2. भाजपा चाहती है कि प्रदेश में धर्मनिरपेक्षता ही असल सवाल बने, मीडिया उसे ही मुद्दा बना रही है।

3. भाजपा चाहती है​ कि सांप्रदायिक तनाव की एक स्यूडो स्थिति पैदा हो, जिससे दूसरी पार्टियां सांप्रदायिकता पर केंद्रीत हों, मीडिया ऐसा ही कर रही है।

4. भाजपा चाहती है कि लोग नोटबंदी के बाद बढ़ी बेकारी और पलायन को भूल जाएं, उसकी असफलता मुद्दा न बने, मीडिया ऐसा ही कर रही है।

5. भाजपा चाहती है कि उत्तर प्रदेश में बसपा सीन में नहीं दिखे, मीडिया ऐसा ही कर रही है

6. भाजपा चाहती है कि नोटबंदी से तबाह हुए गरीब यूपी में मायावती के पक्ष में एकजुट न हों, उन पर स्टोरी न हो, मीडिया ऐसा ही कर रही है।

7. भाजपा चाहती है कि प्रदेश में बस दो ही मुद्दे हों हिंदू और मुसलमान, परिवार और पहलवान, मीडिया ऐसा ही कर रही है।

फिर भी आप मीडिया से कुछ एक्स्ट्रा की उम्मीद में इस चैनल से उस चैनल को टप—टप दाबे जा रहे हैं तो मेरी एक सुकुमार राय है मानिए...बी फोर म्यूजिक लगाइए और सुनिए...

'साजन मेरा उस पार है, मिलने को दिल बेकरार है...बेकरार...बेकरार है

Jan 18, 2017

प्राकृतिक संसाधनों की असीमित लूट की हवस ने ली दर्जनों मजदूरों की जान

ललमटिया खदान हादसा

डेंजर जोन घोषित किए जाने के बावजूद महालक्ष्मी खनन कंपनी को खनन की अनुमति क्यों दी गयी? दूसरा सवाल यह कि इसीएल के सीएमडी व प्रबंधक ने अपने दो-तीन दिन पहले किये गये निरीक्षण में यहां और अधिक खनन की अनुमति क्यों दी.......

रूपेश कुमार सिंह

झारखंड के गोड्डा जिलान्तर्गत कोल इंडिया की सहायक कंपनी इसीएल की राजमहल परियोजना के ललमटिया में भोड़ाय कोल माइंस साइट में 29 दिसंबर की रात में खदान धंसने से हाहाकार मच गया था। खदान धंसने की खबर जंगल में आग की तरह चारों तरफ फैल गई। अगल-बगल के गांवों के हजारों लोग घटनास्थल पर पहुंचे, लेकिन घटना की भयावहता ने सबको हिलाकर रख दिया। 

घटनास्थल के आसपास खदान में दबे मजदूरों को निकालने की कोई भी सुविधा न होने के कारण लोग उद्वेलित भी हुए, लेकिन उनके पास आक्रोश के अलावा और कुछ भी नहीं था, जिससे वे खदान में दबे मजदूरों को बाहर निकाल सकते थे।

गौरतलबब है कि इसीएल राजमहल परियोजना की ललमटिया के भोड़ाय साइट में पिछले 10 सालों से खुदायी का काम चल रहा था, इसलिए इसे डीप माइनिंग के नाम से भी जाना जाता था। खदान में पहले ही काफी खनन कार्य हो चुका था। चारों ओर से खदान खंडहर हो गया था, इसमें और अधिक खनन साफ तौर पर मौत को दावत थी। फिर भी आश्चर्यजनक यह है कि 27 दिसंबर को इसीएल के सीएमडी आर आर मिश्रा राजमहल परियोजना का निरीक्षण करने आए थे। उन्होंने भोड़ाय साइट का भी निरीक्षण किया। निरीक्षण के बाद भोड़ाय साइट को बंद करने के बजाय यहां से और अधिक खनन का निर्देश दिया व साथ ही साथ भोड़ाय गांव को हटाने का भी निर्देश दे दिया। इन घटनाक्रम से स्पष्ट हो जाता है कि इसीएल प्रबंधन की ज्यादा से ज्यादा खनन की हवस ने ही इस भयानक हादसे को निमंत्रण दिया।

सुपरवाइजरों, ड्राइवरों व मजदूरों की मानें तो वहां छोटे से जगह में फंसे कोयले को निकालने के लिए 29 दिसंबर को शाम 4 बजे ब्लास्ट किया गया। उस वक्त नीचे 80 मशीन व पे लोडर कार्यरत थे। उन लोगों को ब्लास्टिंग के बाद स्लाइडिंग का आभास हुआ, फलस्वरूप कई कर्मी जबरन वहां से मशीन लेकर भाग गए। एक रोचक बात ये भी है, अगर वहां काम कर रहे कर्मियों की मानें तो तीन दिन पहले खदान के निचले हिस्से में दरार आ जाने के कारण काम बंद कर दिया गया था। 

29 दिसंबर यानी हादसे के दिन इसीएल के प्रबंधक प्रमोद कुमार कंपनी के कैंप में आए और वहां काम करने की अनुमति दी, साथ ही साथ उन्होंने कर्मचारियों को धमकी दी कि काम नहीं करने पर पदमुक्त कर दिया जाएगा। मजबूरन काम शुरु करना ही पड़ा। जो लोग भाग गए, वे तो बच गए लेकिन जो रोजी-रोटी के वास्ते काम पर ही डटे रहे, वे मलबे में तब्दील हो गए। वहां काम कर रहे कंपनी के लोगों के अनुसार घटना के वक्त करीब 41 लोग अंदर काम कर रहे थे और साथ में 35 हाइवा, 4 पे लोडर व 1 डोजर भी काम कर रहा था। सब के सब खदान धंसने से 300 फीट गहरी खाई में समा गया।

नए साल की खुशियां मनाने के बदले 41 परिवार मातम में डूब गए। खद्दरधारी नेताओं के घड़ियाली आंसू बहने शुरु हो गए और झूठी सांत्वना का दौर भी। आरोप-प्रत्यारोप का खेल भी जारी हो गया। फटाफट कोल इंडिया ने भी हाई पावर कमेटी का गठन कर दिया और इसका जिम्मा दिया गया सीएमपीडीआइ के सीएमडी शेखर शरण के नेतृत्व में गठित टीम को। कमेटी एक माह में अपनी रिपोर्ट सौंपेगी। कमेटी दुर्घटना के कारण, लोगों की गलती, क्या दुर्घटना रोकी जा सकती थी आदि पहलूओं की जांच करेगी। कोल इंडिया ने तो कमेटी गठित कर व मृतकों को मुआवजे की घोषणा कर पल्ला झाड़ लिया, लेकिन कई सवाल आज भी अनुत्तरित हैं। आखिर इन सवालों के जवाब कौन देंगे?

सवाल उठता है कि इस जोन को वर्षों पहले डेंजर जोन घोषित किया गया था, इसके बावजूद 2012 में यहां महालक्ष्मी खनन कंपनी को खनन की अनुमति क्यों दी गयी? दूसरा सवाल यह कि इसीएल के सीएमडी व प्रबंधक ने अपने दो-तीन दिन पहले किये गये निरीक्षण में यहां और अधिक खनन की अनुमति क्यों दी?

मामला साफ है कि इन सवालों के जवाब कभी नहीं मिलेंगे, क्योंकि इसके जवाब में कोल प्रबंधन व कोल माफिया दोनों फंसेंगे और सरकार पर भी फंदा कसेगा। हैरतनाक है कि दुर्घटना घटने के 24 घंटे बाद पटना व रांची से रेस्क्यू टीम पहुंची, क्योंकि वहां कोई रेस्क्यू टीम मौजूद ही नहीं था। इसीएल प्रबंधन व महालक्ष्मी खनन कंपनी ने दुर्घटना के बाद डीजीपी व मुख्य सचिव के दुर्घटनास्थल के दौरे की सूचना पाकर घटनास्थल से मलबा हटाने के बजाय रातोंरात वहां सड़क बना दी। 30 दिसंबर को डीजीपी व मुख्य सचिव जिस जगह पर खड़े होकर मुआयना कर रहे थे, वहां नीचे मलबे में 41 कर्मी और मशीनें दबी हुई थी।

रेस्क्यू टीम के द्वारा लगातार मलबा हटाने के बाद भी मात्र 16 लाशें ही मिल पाई और 25 लाशें अब तक भी नहीं मिल पाई है, प्रबंधन लीपापोती में लगी हुई है। 12 जनवरी 2017 को झारखंड हाईकोर्ट ने इसीएल (इस्टर्न कोल फील्ड लिमिटेड) की राजमहल कोल परियोजना के ललमटिया खदान हादसे को लेकर दायर जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पूछा कि— 1. इस हादसे में कितने कर्मियों की मौत हुई है? 2. कितने शव बरामद किये गये हैं? 3. कितने कर्मियों को खदान के अंदर भेजा गया था? 4. कितने कर्मी अब तक लापता हैं? 5. अब तक क्या-क्या दस्तावेज जब्त किए गए हैं और क्या कार्रवाई की गई है? 6. रेस्क्यू आॅपरेशन की क्या स्थिति है? 

कोर्ट ने डायरेक्टर जनरल आॅफ माइंस शेफ्टी (डीजीएमएस) को शपथ पत्र दायर कर विस्तृत जवाब देने का निर्देश दिया है। इससे पूर्व डीजीएमएस की ओर से मौखिक रूप से बताया गया कि ललमटिया खदान का कोई माइनिंग प्लान स्वीकृत नहीं था। इसके लिए कोई अनुमति नहीं दी गई थी। कार्यस्थलों पर सुरक्षा मानकों का उल्लंघन किया जा रहा था।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि प्राकृतिक संसाधनों की असीमित लूट की हवस का परिणाम है ललमटिया खदान हादसा। देश में नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद से कोयला उद्योग में बड़े पैमाने पर आउटसोर्स का दौर शुरु हुआ। कोल इंडिया में वर्तमान में भूमिगत एवं खुली खदानों की कुल संख्या 452 है। फिलहाल 90 फीसदी खदानों में कोयला उत्पादन व ओबी रिमूवल का काम आउटसोर्सिंग कंपनियां कर रही हैं। 

खदानों में सुरक्षा को लेकर समय-समय पर दिखावटी रूप से सुरक्षा समिति की बैठक जरूर होती है, लेकिन किसी भी खदान में सुरक्षा नियमों का पालन नहीं होता है। अत्यधिक कोयला उत्पादन की हवस ने माइंस को मौत का कुआं बना दिया है। ललमटिया खदान हादसा एक चेतावनी है कि प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन मत करो, अन्यथा इसके परिणाम भुगतने होंगे। लेकिन सरकारों से अत्यधिक दोहन न करने की आशा करना मूर्खता ही है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन को जल-जंगल-जमीन को उनके परंपरागत मालिकों को सौंपकर ही रोका जा सकता है और ललमटिया जैसे हादसों से भी छुटकारा पाया जा सकता है।

मित्रों! एनडी तिवारी प्ले व्वाय नहीं, नेता हैं

आप फेसबुक को एक तरफ से खंगाल लीजिए। बारी—बारी से सबकी वॉल देख लीजिए। आपको गिनती के लोग नहीं मिलेंगे जो एनडी तिवारी की भाजपा में जाने पर राजनीतिक आलोचना कर रहे हों और पूछ रहे हों कि राष्ट्रवादी यजमानी खाये बिना कब्र में शांति नहीं मिलेगी क्या पंडीजी? 

सभी उनके 'सेक्स कांड' की चर्चा कर रहे हैं? इस चर्चा में जाति—धर्म—लिंग—संप्रदाय की दीवारों को तोड़कर लोग समवेत स्वर में सेक्स के शॉट्स से लेकर तस्वीरें शेयर कर रहे हैं।

भरे—पुरे चुनावी मौसम में यह सब देख ऐसा लग रहा है मानो एनडी तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि 'राष्ट्रवादी प्ले ब्वॉय' रहे हों और उन्होंने लखनउ और देहरादून में राज्य की मुखिया की नहीं, बल्कि कोठे के मालिक की भूमिका निभाई हो।

उनकी प्ले ब्वाय की छवि और लोगों का बड़े पैमाने पर फेसबुक पर चल रहा 'पोर्नवादी' आनंद बताता है कि चुनावों में मुद्दा और मुद्दे की राजनीति सामाजिक कार्यकर्ताओं की जुगाली, अखबारों के संपादकीय और टीवी के पकाउ डिबेट्स की चीज बनकर रह गयी है।

अन्यथा जो आदमी उत्तर प्रदेश का तीन बार और उत्तराखंड का एक बार मुख्यमंत्री रह चुका हो उसको लेकर सबसे लोकप्रिय और जनप्रिय सवाल उसका सेक्स कांड ही क्यों बनता? ​वह भी वह सेक्स कांड जिसमें कोई शिकायतकर्ता नहीं है, सिवाय कि किसी ने चोरी से वीडियो बना लिया।

Jan 17, 2017

पहले राष्ट्र पत्रकारिता कर लो भक्तो!

मई 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए तब कहा गया कि इस सरकार में विकास दर में तेजी आएगी और अनुमान 8 से 9 प्रतिशत का लगाया गया।

लेकिन अब क्या सीन है? नोटबंदी के बाद विकास दर घट गयी है और अनुमानित 7.6 के विकास दर से 6.6 रह गयी है। आईएमएफ (इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड) ने बीते और अगले वित्तीय वर्ष की भविष्वाणी में भारत के विकास दर को पहले से भी पिछड़ा हुआ अनुमानित किया है और कहा है कि नोटबंदी के कारण न सिर्फ 2016-17 में भारत की विकास दर पीछे रही बल्कि 2017-18 में भी अनुमानित से पीछे ही रहेगी।

सप्ताह भर पहले आल इंडिया मैन्युफैक्चर्स आर्गेनाईजेशन ने जब मार्च 31 तक नोटबंदी के कारण 50 प्रतिशत नौकरियों में कटौती और 60 प्रतिशत राजस्व के घाटे का अनुमान पेश किया तब भक्त पत्रकारों को देशद्रोहियों की साजिश लग रही थी।

अब उम्मीद की जानी चाहिए कि वह आईएमएफ की भविष्यवाणी से उनको कुछ सीख मिलेगी और वह भक्त पत्रकारिता की बजाय 'राष्ट्र पत्रकारिता' की ओर अपना महती कदम उठाएंगे।

Jan 16, 2017

यही हमारा असली लोकतंत्र है साहब!

ये तस्वीर आज के दैनिक भास्कर में छपी है जो झारखंड के गढ़वा जिले के एसडीओ दफ्तर के सामने कल ली गयी थी। जमीन पर औंधे मुंह पड़ी 80 वर्षीय यह बुढ़िया पिछले 15 दिनोँ से एक कंबल के लिए एसडीओ दफ्तर आ रही थी। लेकिन एसडीओ 15 दिनों में कंबल नहीं जुटा सके और यह बुढ़िया कल एसडीओ दफ्तर के सामने ही मर गयी।

तो आप अपनी सुविधा के लिए इस मरी पड़ी गरीब बुढ़िया को भारत माता कह सकते हैं।
लेकिन मैं इसे गौ माता भी नहीं कह सकता, क्योंकि अभी हमारे देश में हिन्दू ह्रदय इतना कमजोर नहीं हुआ है कि गौ माता का यह हश्र हो।

यह हमारी महान संस्कृति का सूचक है कि गौ हत्या करने वालों की हम गर्व से हत्या कर देते हैं पर इस बुढ़िया की हत्या करने वाले अधिकारियों को हम साहब ही कहेंगे।
आखिर लोकतान्त्रिक भी यही होता है?

Jan 14, 2017

नोटबंदी के कारण किसान कर्ज नहीं दे पाया, सूदखोर ने टुकड़े—टुकड़े कर दिए

रोहित दास : नोटबंदी ने दी मौत
ओडिशा के ​संभलपुर जिले के किसान रोहित दास ने खेती के लिए विरूपक्ष्या पांडा नाम के एक सूदखोर से पिछले साल 1.25 लाख रुपए कर्ज ​लिया। रोहित दास ने कर्ज से बीज और खेती के उपकरण खरीदे। कर्ज लेते हुए उसने सूदखोर पांडा से वादा किया कि फसल की जो उपज होगी उसे बेचकर वह दिसंबर तक कर्ज लौटा देगा।

फसल हुई। भरपूर हुई। किसान को लगा कि अब कर्ज उतर जाएगा। पर मोदी जी की नोटबंदी की वजह से अनाज नहीं बिक सका। उसने खरीददारों से अनाज खरीदने की हर कोशिश की पर वह असफल रहा। सबने नोटबंदी की वजह से हाथ उठा दिए।

इधर सुदखोर विरूपक्ष्या पांडा ने आते—जाते धमकी देनी शुरू कर दी कि अगर उसने तय समय के भीतर पैसा वापस नहीं दिया तो अच्छा नहीं होगा। धमकी के डर से 45 वर्षीय किसान रोहित दास ने कर्ज देने के लिए कुछ रुपयों का जुगाड़ किया।

उन रुपयों लेकर जब वह 10 जनवरी को सूदखोर के दरवाजे पहुंचा, सूदखोर के लोगों ने उसे घेर लिया और उसके टुकड़े—टुकडे कर दिए।

पति के टुकड़े—टुकड़े कर दिए जाने की शिकायत रोहित दास की पत्नी तपस्वीनी ने नजदीकी थाने में कर दी है।

अब तक की जानकारी के मुताबिक नोटबंदी के कारण उधार देने में अक्षम रहे रोहित दास को टुकड़े में तब्दील करने वाला सूदखोर विरूपाक्ष्या पांडा फरार है और पुलिस उसकी तलाश में गहन छानबीन कर रही है।

अगर आप इस जानकारी को पढ़कर हतप्रभ हैं तो हल्के—हल्के, गहरी सांस लेकर बोलिए
गो हत्या बंद हो, गौ माता की जय

इस व्यवस्था पर चिढ़ हो रही है तो जाप कीजिए
हिंदू हैं हम वतन हैं

फिर भी दिल को चैन न आए तो आंख बंद कर बोलिए
मोदी...मोदी...मोदी

Jan 11, 2017

बीएसएफ जवान अपने नए काम पर

सैनिक हूं कोई नेता और अधिकारी नहीं, जो काम मिलेगा उसे दिल से करूंगा

पलम्बर बनाए जाने के बाद तेजबहादुर यादव की पहली तस्वीर

Jan 6, 2017

मनीष सिसौदिया ने केजरीवाल को क्यों भेजा इस्तीफा !

संजय सिंह और आशुतोष की मध्यस्थता से बची लाज, पर मुख्यमंत्री—उपमुख्यमंत्री के रिश्ते अब नहीं रहे सामान्य 

साप्ताहिक अखबार 'संडे पोस्ट' के संपादक अपूर्व जोशी ने अपने संपादकीय में किया दावा कि तत्कालीन राज्यपाल नजीब जंगी की सलाह से मनीष सिसौदिया को केजरीवाल ने बनाया था मुख्यमंत्री। अखबार का दावा कि कुमार विश्वास ठेले गए हाशिए पर, मनीष सिसौदिया की जगह केजरीवाल सत्येंद्र जैन को दे रहे तरजीह
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया :  कभी आसनाई थी अब जम्हाई है 



पढ़िए इस पटकथा के पीछे की कहानी, संडे पोस्ट के संपादक अपूर्व जोशी के शब्दों में।  संपादक की बयान की गई यह राजनीतिक किस्सागोई अपने तथ्यों के साथ बहुत साफ है और पढ़ते हुए स्पष्ट हो जाता है कि आम आदमी पार्टी में वर्चस्व और नेतृत्व को लेकर टकराहटों का दूसरा फेज शुरू हो गया है।
 
अपूर्व जोशी
संपादक संडे पोस्ट


'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' की त्रिमूर्ति के आपसी संबंध राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ने की खबर है। कवि कुमार विश्वास तो पहले से ही हाशिए पर डाल दिए गए थे। अब मुख्यमंत्री केजरीवाल और उपमुख्यमंत्री सिसोदिया के संबंध भी बिगड़ने लगे हैं। कुछ समय पूर्व सिसोदिया ने अपना त्यागपत्र तक सीएम को भेज दिया था। पार्टी सूत्र कहते हैं कि सिसोदिया की बढ़ती लोकप्रियता से खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे केजरीवाल इन दिनों सत्येंद्र जैन पर ज्यादा भरोसा करने लगे हैं।

भारतीय राजनीति के परिदृश्य में आम आदमी पार्टी का  जन्म एक ऐसे समय में हुआ जब स्थापित राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर से आमजन का भरोसा उठ चुका था। समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में शुरू हुआ आंदोलन तत्कालीन यूपीए सरकार के भ्रष्टाचार पर चुनिंदा युवाओं का ऐसा प्रहार था जिसकी गूंज पूरे देश में सुनी गई। यकीनन्‌ इस आंदोलन का चेहरा महाराष्ट्र के वयोवृद्ध आंदोलनकारी नेता अन्ना का था लेकिन दिमाग इन्हीं चुनिंदा युवाओं का था। 

'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' के नारे से शुरू हुए इस आंदोलन की एक सूत्रीय मांग एक जनलोकपाल कानून की थी] जिसके माध्यम से भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सके। टीम अन्ना के नाम से चर्चा में आए इन युवाओं में मुख्य रूप से आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल] मनीष सिसोदिया और कुमार विश्वास थे। आंदोलन के विस्तार ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को इससे जोड़ा। बाद में मेधा पाटकर, संतोष हेगड़े ,  संजय सिंह,  आशुतोष आदि इनसे जुड़ते गए। आंदोलन की अप्रत्याशित सफलता के दौरान ही टीम अन्ना के मध्य आपसी विवाद की खबरें सामने आने लगी थीं।

न्ना हजारे इस आंदोलन को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहिम के रूप में जारी रखना चाहते थे जबकि उनकी कोर टीम की राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागने लगी थी। नतीजा उन्नीस सितंबर २०१२ के दिन अन्ना और उनके चेलों के बीच चल रहा शीतयुद्ध अलगाव का कारण बन गया। दोनों ने स्वीकारा कि राजनीतिक दल बनाने के मुद्दे पर उनके मतभेद हैं। अरविंद केजरीवाल ने दो अक्टूबर २०१२ को राजनीतिक दल बनाने की शुरुआत  की। संतोष हेगड़े और किरण बेदी ने उनके निर्णय का विरोध किया जबकि सिसोदिया और विश्वास अरविंद के साथ रहे। 

नीष सिसोदिया केजरीवाल संग २००५ के अंत से ही जुड़ गए थे। 'कबीर' नाम के एनजीओ के संस्थापक मनीष पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। २००६ में सूचना के अधिकार कानून का मसौदा तैयार करने वालों में वे शामिल रहे। २००६ में केजरीवाल और सिसोदिया ने पब्लिक कॉज रिसर्च फाउंडेशन बनाया। सिसोदिया के पुराने मित्र रहे कुमार विश्वास को अन्ना आंदोलन से जोड़ने में मुख्य भूमिका सिसोदिया की ही रही। कुमार विश्वास पेशे से अध्यापक और हिंदी कविता का जाना-पहचाना नाम हैं।

न्ना आंदोलन के दौरान इन तीनों की जुगलबंदी देखते बनती थी। जब कभी अन्ना हजारे संग अरविंद का विवाद होता तो विश्वास मध्यस्थ की भूमिका में नजर आया करते थे। योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण संग केजरीवाल के संबंध खराब होने के दौरान कुमार विश्वास ही आपसी सुलह का प्रयास करते देखे गए थे। इस त्रिमूर्ति में आपसी टकराहट के संकेत बहुत अर्से से सामने आने लगे थे। केजरीवाल और विश्वास के बीच खटपट दिल्ली में आम आदमी पार्टी की पहली सरकार के दौरान ही देखने को मिली थी। केजरीवाल के कई पुराने साथियों ने पार्टी में बढ़ते अधिनायकवाद और केजरीवाल के इर्द-गिर्द एक चौकड़ी के विरोध में अपना इस्तीफा दे दिया। इस पूरे दौर में विश्वास के भी हाशिए में चले जाने और पार्टी छोड़ने की अफवाहें फिजा में तैरती रही हैं। लेकिन मनीष सिसोदिया केजरीवाल के विश्वस्त सहयोगी बने रहे।

जानकारों की मानें तो उपराज्यपाल नजीब जंग की सलाह पर अरविंद केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया को उपमुख्यमंत्री बनाने का निर्णय लिया था। मनीष सिसोदिया के पास वित्त] नियोजन] राजस्व शिक्षा समेत कई महत्वपूर्ण विभाग भी होना उनके और मुख्यमंत्री के बीच विश्वास को दर्शाता है। लेकिन अब खबर है कि दोनों के मध्य भी खटपट होने लगी है। 'दि संडे पोस्ट' को विश्वस्त सूत्रों के हवाले से जानकारी मिली है कि दोनों के रिश्ते कुछ समय पूर्व इतने तनावपूर्ण हो चले थे कि केजरीवाल को मध्यस्थों का सहारा लेना पड़ रहा है। जानकारी के अनुसार दिल्ली में अतिथि शिक्षकों के वेतन मुद्दों से उठा सवाल पिछले दिनों एक बड़े संकट का कारण बन गया। सरकारी फाइल पर मुख्यमंत्री की कठोर टिप्पणी से आहत हो सिसोदिया ने अपना त्यागपत्र मुख्यमंत्री के पास भेज दिया। 

ताया जाता है कि दिल्ली के उपमुख्यमंत्री इतने नाराज थे कि उन्होंने अपना त्यागपत्र भेजने के साथ ही अपने कार्यालय को छोड़ दिया। वे अपनी निजी कार में बैठ घर चले गए। सिसोदिया का त्यागपत्र केजरीवाल के लिए एक बड़ा झटका था। दोनों के बीच संबंधों में आई खटास का दूसरा संकेत तब मिला जब स्वयं बात न करके केजरीवाल ने पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय सिंह और आशुतोष को मनीष के घर सुलह-सफाई के लिए भेजा। हालांकि मामला आपसी समझ से हल हो गया लेकिन जैसा रहीम दास कह गए 'रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय। टूटे से फिर न जुड़े, जुड़े गांठ परि जाए।' 

दोनों के बीच अब रिश्ते पहले से मजबूत नहीं रह गए, बताए जा रहे हैं। पार्टी सूत्रों की मानें तो इसके पीछे एक बड़ी वजह केजरीवाल के भीतर जमी असुरक्षा की वह भावना है जो अपने समक्ष किसी भी बड़े नेता को नहीं सह पाती। दिल्ली सरकार का कामकाज पूरी तरह देख रहे सिसोदिया ने जनता के समक्ष एक काम करने वाले नेता की छवि बनाने में सफलता पाई है। शिक्षा के क्षेत्र मे दिल्ली सरकार ने बेहतरीन काम किया है। इतना ही नहीं दिल्ली के राज्यपाल नजीब जंग से भी सिसोदिया के संबंध ठीक रहे। जैसे-जैसे केजरीवाल की महत्वाकांक्षा उन्हें दिल्ली से दूर लेती गई मनीष सिसोदिया का प्रशासन पर प्रभाव बड़ा। 

दिल्ली की जनता को भी यह लगने लगा है कि केजरीवाल अब दिल्ली के शासन पर ध्यान न के बराबर देते हैं। मनीष की इसी बढ़ती लोकप्रियता से केजरीवाल असुरक्षित हो चले हैं। जानकारों की मानें तो इसकी काट के तौर पर उन्होंने सत्येंद्र जैन को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया है। जब गोपाल राय से परिवहन मंत्रालय हटाया गया तो जैन को उसका प्रभार सौंपा जाना इसी तरफ इशारा करता है। 

सी प्रकार यकायक ही जुलाई २०१६ में सिसोदिया से शहरी विकास मंत्रालय हटाकर सत्येंद्र जैन को सौंप दिया गया। पहले से ही जैन के पास स्वास्थ्य] गृह] परिवहन एवं उद्योग जैसे भारी-भरकम मंत्रालय हैं। जाहिर है केजरीवाल मनीष सिसोदिया को अपने विकल्प के तौर पर उभरता देख कहीं न कहीं बेचैन हैं। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं यदि पंजाब में पार्टी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो केजरीवाल का ध्यान फिर से दिल्ली में केंद्रित हो जाएगा। ऐसे में पार्टी के इन दो शीर्ष नेताओं के बीच टकराव होना निश्चित होगा। 

दूसरी तरफ पार्टी के एमएलए अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली से खासे नाखुश बताए जा रहे हैं। ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि पार्टी के असंतुष्ट एमएलए केजरीवाल की बजाय सिसोदिया संग काम करने में ज्यादा सहज रहते हैं। जाहिर है इन सबके चलते केजरीवाल और सिसोदिया के बीच सत्ता के लिए संद्घर्ष हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो अन्ना आंदोलन के विश्वास की संपदा सहारे खड़ी हुई पार्टी की यह अधोगति निश्चित ही कष्टकारी होगी।

हाशिए में कुमार विश्वास

अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का अग्रणी चेहरा बन उभरे लोकप्रिय कवि डॉ कुमार विश्वास इन दिनों आम आदमी पार्टी में हाशिए का दंश झेलने को विवश हैं। कभी अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के संग इंडिया अगेंस्ट करप्शन की महत्वपूर्ण तिकड़ी का हिस्सा रहे विश्वास की पार्टी प्रमुख केजरीवाल संग खास बनती नहीं। यही कारण है इन दिनों वे पार्टी मंच पर बहुत सक्रिय नजर नहीं आते। हालांकि पार्टी की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्य समिति के वे सदस्य हैं लेकिन उन्हें न तो पंजाब में स्टार प्रचारक के तौर पर बुलाया गया है] न ही गोवा में उनकी छवि को उपयोग में लाया जा रहा है। जानकारों की मानें तो केजरीवाल विश्वास को विश्वसनीय नहीं मानते। दूसरी तरफ विश्वास समर्थकों का मानना है चूंकि विश्वास केजरीवाल के यसमैन नहीं हो सकते इसलिए उन्हें जानबूझकर किनारे लगाने का काम चल रहा है। २०१८ में दिल्ली से राज्यसभा की तीन सीटें खाली होने जा रही हैं। विधानसभा में प्रचंड बहुमत के कारण तीनों पर भी आप नेताओं का चुना जाना तय है। पहले इन तीनों सीटों के लिए प्रशांत भूषण] योगेंद्र यादव और कुमार विश्वास का नाम लिया जाता था। अब प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के पार्टी से निष्कासित होने के चलते संजय सिंह और आशुतोष का नाम सामने आने लगा है। तीसरा नाम कुमार विश्वास के बजाय किसी अन्य का हो सकता है। ऐसे में देखना होगा कि कुमार विश्वास क्या कदम उठाते हैं।

 मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का किसी के साथ लंबा रिश्ता नहीं चला 

   पहला टकराव 'परिवर्तन' संस्था के अपने सहयोगी अरुणा राय से हुआ। अन्ना हजारे से जुड़ते ही अरुणा से इनका अलगाव हो गया। 
    राजनीतिक दल बनाने के बाद अन्ना के साथ-साथ किरण बेदी से भी टकराव और अलगाव। 
    दिल्ली में सरकार गठन के साथ ही अरविंद ने प्रशांत भूषण] आनंद कुमार और योगेंद्र यादव को भी छोड़ दिया जो उनकी पार्टी के संस्थापक सदस्य थे।

Jan 4, 2017

अलविदा पापा!

पापा की दोनों आँखें सफेद गोली जैसी लग रही थीं. महिला डाक्टर ने पापा के शरीर से आंखें निकाल कर अपने साथ लाये डिब्बे में रख दीं. डाक्टर बोली कल तक आपके पापा की आँखें दो लोगों को लगा दी जायेंगी
पिता प्रकाश भाई की मौत पर उन्हें कुछ यूं याद किया सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार ने 

पापा का पूरा शरीर मेडिकल कालेज को दान दे दिया गया. कोई पंडित नहीं. कोई आडंबर नहीं. मां और बहनें पापा के देहदान के फैसले से सहमत थीं. मंझली बहन का परिवार उत्तर प्रदेश का कर्मकांडी परिवार है. उन्होंने हल्के फुल्के ढंग से बोला कि आत्मा की शान्ति नहीं होगी. मैंने उन्हें समझाया कि आत्मा-रूह वगैरह वहम हैं.

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में जब गांधी जी ने 'करो या मरो' का नारा दिया, पापा ने मुजफ्फरनगर रेलवे स्टेशन को आग लगा दी. पुलिस ने घर पर छापा मारा.पापा फरार होकर आगरा. इलाहाबाद और बनारस में भूमिगत रहे. गांधी जी को पत्र लिखा. गांधी जी ने पापा को सेवाग्राम आश्रम में अपने पास बुला लिया. गांधी जी ने पापा को नई तालीम के काम में लगाया. गांधी कहते थे जैसे आज़ाद भारत में अंग्रेजों का झन्डा नहीं चल सकता, वैसे ही आज़ाद भारत में अंग्रेजी शिक्षा भी नहीं चल सकती.

गांधी जी की हत्या के बाद पिताजी रचनात्मक कामों में लग गये. पापा ने नाम के आगे से जाति नाम उड़ा दिया. विनोबा भावे के भूदान और सर्वोदय आन्दोलन में पहली पंक्ति के कार्यकर्ता बने. प्रभावी लेखक, ओजस्वी वक्ता, विचारक, प्रखर कार्यकर्ता. सारे देश में कोई इलाका होगा जहाँ पिताजी लोगों को ना जानते हों. वे चलता फिरता ज्ञानकोष थे.


कोई भी प्रश्न हो उत्तर हाज़िर. सुघड़ इतने कि आंख बन्द कर के भी अपना सामान उठा सकते थे. घर की सारी महिलायें रफू का काम पापा से करवाती थीं. उस ज़माने में वो जोरू का गुलाम कहलाते थे क्योंकि मेरी मां के कपड़े धो देते थे. और थक जाने पर पत्नी के पांव भी दबा देते थे.

उत्तर प्रदेश में मंत्री पद मिला. ज़मीन बांटने का महकमा मिला. खुद भूमिहीन ही बने रहे. जीवन में अपना मकान नहीं बनाया. ना बैंक में कोई पैसा. एक चर्खा. कुछ अपना काता सूत. कुछ किताबें छोड़ कर आज पापा जिन्हें सब प्रकाश भाई के नाम से जानते थे, चले गये. मरने से पहले पापा बोल गये थे मरने के बाद मेडिकल कालेज में शरीर दे देना.


अलविदा पापा!

Jan 2, 2017

अखिलेश यादव के समर्थन में 'ध्वनि' बैंड ने जारी किया गाना

उत्तर प्रदेश के जारी राजनीतिक घटनाक्रम के बीच दिल्ली के एक बैंड 'ध्वनि' ने अखिलेश यादव के समर्थन में 'बुलंदियां' नाम से एक गीत जारी किया है। गीत के बोल अखिलेश के वर्तमान हालात और संघर्ष पर एकदम सटीक बैठते हैं। गीत के लेखक तैश पोठवारी और गायक आशीष नारायण पाठक ने कहा कि 'हम इस गीत को युवाओं में आत्मविश्वास और प्रेरणा जागृत करने के लिए बना रहे थे। हमें एक ऐसे चेहरे की तलाश थी जो लीक से हटकर अपने आत्मविश्वास और हिम्मत के बल पर कुछ कर गुजरना चाहता हो। पिछले दिनों अखिलेश यादव ने जिस तरह राजनीति को  अपराध और भ्रष्टाचार से दूर रखने की पहलकदमी की है उससे प्रभावित होकर हमने इसे अखिलेश यादव के समर्थन में जारी करने का निर्णय लिया है। 



अखिलेश ने पिता मुलायम को धमकाया, कहा स्टेज से नीचे उतरो

तख्तापलट की गोटी बहुत पहले ही अखिलेश यादव फिट कर चुके थे बस सही मौका हाथ नहीं आ रहा था। देखिए इसकी शुरुआत का एक साक्ष्य।

समाजवादी कुनबे की तकरार का एक वीडियो वायरल हो गया है। जिसमें मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह पर तीखे तेवरों के साथ भड़क रहे हैं। उन्हें स्टेज से नीचे उतरने के लिए बोल रहे हैं।


यह वीडियो 24 अक्तूबर को हुई बैठक का है। जिसमें अखिलेश यादव, मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव ने अपना-अपना पक्ष कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों के सामने रखा था। देखिए वीडियो