Apr 17, 2011

धोखे की टट्टी खड़ी करती मीडिया


ब्रेकिंग न्यूज के माध्यम से उन्मादी पागलपन भरा एक ऐसा माहौल बनाया जाता है,जिसका यर्थाथ व विवेक से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऊपर से कामर्शियल ब्रेक, ‘दाद में कोढ़’ का काम करती है...

मुकुल

केंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड को दी गयी सात वर्षीय टैक्स छूट की अवधि समाप्त हुई तो स्थानीय मीडिया ने खूब शोर मचाया। कहा कि टैक्स छूट की अवधि नहीं बढ़ी तो कारखानों को नुकसान होगा और वे कारोबार समेटने को मजबूर होंगे। लेकिन पिछले सात वर्षों से मालिकों ने कितना मुनाफा बटोरा है,मज़दूर किस दुर्दशा और बदहाली में जी रहे हैं,इस मुद्दे पर मीडिया ने मूंह पर जाबी लगाये रखना ही मुनासिब समझा।


ढाई-तीन हजार की मामुली पगार पर 12-12 घण्टे मज़दूरों के खटने से लेकर गैरकानूनी ठेकेदारी प्रथा के वर्चस्व पर कभी मीडिया का ध्यान नहीं जाता। बेहद अमानवीय परिस्थितियों में मजदूरों का खटना भी उनकी खबर का हिस्सा नहीं बनतीं। न ही घायल होने,अकाल मौत के मुहं में समा जाने और बगैर मुआवजे नौकरी से निकाल दिये जाने की घटनाएं मीडिया की सुर्खियों बनते देखी जाती हैं।

फटाफट खबरो के शो,ब्रेकिंग न्यूज के धमाल और देर रात की सनसनी के बीच जनपक्षधर खबरें गायब होती जा रही हैं। वहीं दुनिया के अरबपतियों की सूची में शामिल धनाढ्यों और विश्वसुंदरियों के तमाशे और क्रिकेट का जुनून टीवी-अखबार की सुर्खियों में छाये रहते हैं। वैश्विक मंचों पर भारत के कथित विरोध को मीडिया खूब उछालेगा,लेकिन देश की जनता के हितों को तिलांजलि देकर शाषकों के समर्पण पर मौन साध लेगा। संयोग से कहीं कुछ जनपक्षधर खबर छप गयी तो भीतरी सम्मोहक विज्ञापनों के धुंधलके  में खो जायेगी। यही नहीं चैनलों में विज्ञापन की भरमार किसी घटना, प्रसंग, मुद्दे या विषय की सम्पूर्णता का भाव समझने के दर्शकों-पाठकों के न्यूनतम सामर्थ्य को और कम कर देती है।

आज ज्यादातर समाचार के नाम से जो परोसा जा रहा है, उसे सुनना-देखना-पढ़ना बेहद जोखिम भरा है। सच के नाम पर ये सूचनाओं का अम्बार ‘धोखे की टट्टी’खड़ा करते हैं। जाहिर है ये दिलो-दिमाग पर बहुत गहराई से प्रभाव डालते हैं और एक खास किस्म के (बाजारू) विचारों की छाप छोड़ते चले जाते हैं। ‘ब्रेकिंग न्यूज’के माध्यम से उन्मादी पागलपन भरा एक ऐसा माहौल बनाया जाता है, जिसका यर्थाथ व विवेक से कुछ भी लेना-देना नहीं है। ऊपर से ‘कामर्शियल ब्रेक’ ‘दाद में कोढ़’ का काम करती हैं। मीडिया की पूरी प्रस्तुति इतनी शातिराना और तयशुदा होती हैं कि तमाम प्रगतिशील बुद्धिजीवी तक विभ्रम के शिकार बन जाते हैं।

दरअसल, भारी आबादी आज ‘विचार नियंत्रण’ की एक बेहद असरदार प्रणाली के फंदे में बुरी तरीके से फंसी हुई है। उसके सामने ‘चुनने’की आज़ादी है,चुन ले -सास-बहू के झगड़े या स्वयंबर का तड़का, जासुसी मारधाड़, पुनर्जन्म या काल-कपाल, सानिया-शोएब की शादी, आई.पी.एल/क्रिकेट का धमाल या फिर सांस लेने वाला जूता, अनलिमिटेड टॉक टाइमवाले सिम का लफड़ा, ईर्श्यालू बनाता साबुन, सुपरमैन बनाता कोल्डड्रिंक। ऊपर से तुर्रा यह कि ‘जनता की यही पसंद है।’भ्रम ऐसा कि हेराफेरी की शिकार जनता को यह विश्वास हो जाये कि यही स्वाभाविक और अपरिहार्य है।

लगभग दो दशक पूर्व,जब देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया-विशेषतया निजी चैनलों की पैठ बन ही रही थी, तब दूरदर्शन पर अपवाद स्वरूप प्रदर्शित ‘कबीर’सीरियल बहुत लोकप्रिय होने लगा था। बमुश्किल तेरह कड़ियां पूरी होते-होते इसे बन्द कर दिया गया। तबसे सैकड़ों चैनल खुल गये,परंतु ‘साधो ये मुर्दों का गांव’ जैसा दूसरा सीरियल देखने को नहीं मिला। ‘हमलोग’, ‘बुनियाद’ या ‘तमस’ जैसे मध्यवर्ग को केन्द्र में रखकर बनने वाले सीरियल भी गायब हाते गये। समाचार चैनलों की बाढ़ सी आ गयी लेकिन समाचारों का टोटा बढ़ता ही गया। क्या यह सुनियोजित साजिश नहीं है?

अगर हम गौर करें तो पाएंगे कि पूरी मीडिया लोगों को निष्क्रिय बनाती है। निश्क्रियता के दो आयाम होते हैं -भौतिक व बौद्धिक। ‘मानस प्रबंधन’की तकनीकें और संदेश इन दोनों का कुशलतापूर्वक इस्तेमाल करते हैं। गौर करें,लोग ज्यादा समय टेलीवीजन पर बिताते हैं और कमरे से बाहर निकलने में उनमें जरा भी उत्साह नहीं होता। दूसरी तरफ,मोबाइल आज हर आदमी की पहुंच में है। बहुतेरे लोग इसका इस्तेमाल गेम खेलने, एस.एम.एस. भेजने, विज्ञापन सुनने-पढ़ने, स्कीमें देखने और बेवजह के गपशप में खर्च करते हैं। युवा पीढ़ी अपना समय ‘नेटवर्क’सर्चिंग में जाया करती है। बच्चे कम्प्यूटर के झूठे कल्पना लोक में विचरण करते हैं।


यह पूंजी की सत्ता द्वारा लम्बे समय में विकसित ‘विचारों के प्रबन्धन’की एक ऐसी तकनीक है,जो मानव मन को अपने अनुरूप ढालने का काम करती है। ‘जाहिल जनता’ को ‘अनिवार्य भ्रमों’ के माध्यम से धोखे में रखना और उसकी आत्मा पर कब्जा करना ही जिसका उद्देश्य है। पूरी मीडिया जोड़-तोड़ वाले ऐसे संदेशों-कार्यक्रमों को परोसती है,जो इरादतन यथार्थ का मिथ्याबोध रचता है,जिससे ऐसी चेतना का निर्माण होता है, जो वास्तविक जीवन की सच्चाई को नहीं समझ सकता। वे विचारों से परिपूर्ण आमोद-प्रमोद व मनोरंजन की पूरी झड़ी लगा देते हैं। मन रूपी छन्नी पर लगातार हमला होता रहता है, हर घण्टे दर्जनों घोषणाएं बहायी जाती हैं, जो संवेदनहीन स्वीकार्य को जन्म देती है। लोगों को पता ही नहीं चलता कि वे जोड़-तोड़ के शिकार हो रहे हैं। लोग,विशेष रूप से नौजवान आत्ममुग्धता के -सिर्फ अपने लिए जीने की संस्कृति के शिकार होते हैं और दुर्दशा-असफलता का कारण खुद के भीतर ढ़ूढ़ रहे होते हैं।

दरअसल,आज संचार माध्यम दैत्याकार उद्योग का रूप ले चुके हैं। और इस काम में लगे हुए हैं लोकप्रिय संस्कृति के सभी नए-पुराने रूप-टीवी, और रेडियो शो, एनिमेटेड कार्टून, फिल्में, कॉमिक पुस्तकें, बड़े पैमाने पर होने वाले खेल, समाचार पत्र और पत्रिकाएं, मोबाइल, नेटवर्क सर्चिंग आदि। जहां सुनियोजित तरीके से सामाजिक यथार्थ और अतंरविरोध गायब रहते हैं। कम्प्यूटर-मोबाइल-इंटरनेट के इस युग में - जहां बेब सर्चिंग से लेकर ईमेल, फेसबुक, ट्यूटर तक उपलब्ध हैं - हक़ीक़त यह है कि जनता असलियत से लगातार कटती जा रही है। यह यूँ  ही नहीं है कि सूचना-समाचार पर दुनिया की पॉच बड़ी एजेंसियों का कब्जा है। वैश्विक लूट की शक्तियों ने एक ऐसा तंत्र बना रखा है, जो जनता के दिमाग को एक मिनट भी सोचने नहीं देतीं। इन शक्तियों का फण्डा है कि दिमाग में घुसकर बैठ जाओ,हाथ व दिल उनके अनुरूप काम करने लगेंगे।

‘जनता के मन-मस्तिष्क को नियंत्रण में रखने’ की लम्बे समय से विकसित यह तकनीक आज एक विशालकाय जनसम्पर्क उद्योग ;पब्लिक रिलेशन इण्डस्ट्रीद्ध का रूप ले चुकी है। उद्योग जगत के शहंशाहों ने एक लम्बी प्रक्रिया में इसे विकसित किया और व्यवहार में उतारा। समाज को नियंत्रित करने के लिए पूंजीवाद के पास जितने भी औजार हैं,उनमें संचार माध्यमों की उपयोगिता और अपरिहार्यता सर्वाधिक तेज गति से बढ़ी है। उन्होंने प्रचार माध्यमों का जबर्दश्त इस्तेमाल करते हुए इसको एक पूरी प्रणाली के रूप में विकसित किया है।

सर्वाधिक महत्वपूर्ण विकास 1990के दशक का ग्लोबल बिजनेस मीडिया सिस्टम का उदय है। पर्सनल कम्प्यूटर, मोबाइल फोन और इन्टरनेट के विकास ने इसमें अहम भूमिका निभाई। यही वह समय है जब पूरी दुनिया अमेरिका के नेतृत्व में एक ध्रुवीय एक नये बाजार तंत्र में बंध गयी। यह दैत्याकार बहुराष्ट्रीय निगमों की बढ़ती जकड़बन्दी के साथ मुट्ठीभर हाथों में दुनिया की सम्पदा केन्द्रित होते जाने और भारी आबादी की तबाही व कंगालीकरण के बढ़ते जाने का दौर था। यह यू ही नहीं है। दरअसल,आज वैश्विक लूट का सबसे कारगर हथियार है,सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करना। और समाज को नियंत्रित करने के जितने भी औजार बाजार की शक्तियों ने विकसित किये हैं, उनमें सबसे कारगर संचार माध्यम ही हैं।



 मजदूर आन्दोलन में सक्रिय. पिछले तीन दशक से सामाजिक-राजनितिक आंदोलनों में सक्रिय. उनसे   mukul40@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.