May 25, 2017

पुलिस अधिकारियों से पत्रकार पहले लेते हैं डिक्टेशन, फिर करते हैं सहारनपुर हिंसा की रिपोर्टिंग

शब्बीरपुर में घटित जातीय हिंसा की रिपोर्टिंग चाहे प्रिंट हो या इलैक्ट्रॉनिक या फिर डिजिटल मीडिया में ऐसे की गई, जैसे यह जातीय संहार नहीं बल्कि व्यक्तिगत रंजिश में की गई हत्याएं हों.....

जनज्वार सहारनपुर। सहारनपुर के शब्बीरपुर गांव में 5 मई, 2017 को दलितों पर हुए हमले की पहली रिपोर्टिंग जब जनज्वार में छपी तो लोगों को लगा कि क्या ऐसा भी हो सकता है? यह सिर्फ इसलिए नहीं लगा कि सबसे पहले जनज्वार में वीडियो, फोटो और सिलसिलेवार घटनाक्रम में यह रिपोर्ट छपी थी, बल्कि इसलिए भी लगा कि जब शब्बीरपुर गांव में दलितों के घर जलाए जा रहे थे और राजपूत जातियों के लपंट तत्व पूरे गांव में हाहाकार मचाए हुए थे, उस वक्त मौके पर जिले के सभी उच्चाधिकारी मौजूद थे। 


उच्चाधिकारियों डीएम, एसपी, एसएसपी की मौजूदगी में दलितों के घर फूंके गए, उन पर हमले हुए, उनकी गाड़ियां, मोटरसाइकिलें, साइकिलें स्वाहा कर दी गयीं और अनाज के ढेर जला दिए गए। कई मीडियाकर्मियोंं ने इन घटनाओं को अपने कैमरे में कैद भी किया और उच्चाधिकारियों के साथ खड़े रहकर घटनाक्रम के साक्षी भी रहे, पर 5 मई की इस घटना का अगले 5 दिनों तक ठीक से तब तक मीडिया कवरेज नहीं आया, जब तक कि जनज्वार जैसी तमाम दूसरी जनपक्षधर वेबसाइटस और सोशल मीडिया ने इसे एक बड़ा और राष्ट्रीय मुद्दा नहीं बना लिया।

इसी तरह बसपा प्रमुख मायावती के शब्बीरपुर जाने से पहले और उनके जाने के बाद शब्बीरपुर समेत दूसरे तमाम गांवों में हिंसक वारदातें हुईंं, दलितों और राजपूतों में टकराहट हुई, दर्जन भर दलित गंंभीर रूप से घायल हुए, जिसमें से तीन की अब तक मौत हो चुकी है, मगर इस बड़ी घटना की भी रिपोर्टिंग चाहे प्रिंट हो या इलैक्ट्रॉनिक या फिर डिजिटल मीडिया में ऐसे की गई, जैसे यह जातीय संहार नहीं बल्कि व्यक्तिगत रंजिश में की गई हत्याएं हों। शब्बीरपुर में अब तक आधा दर्जन लोग इस जातीय नरसंहार की भेंट चढ़ चुके हैं।

इन दोनों घटनाओं और सहारनपुर में लगातार बने हुए तनाव के बीच जिस तरह की रिपोर्टिंग की जा रही है, उसको समझने के लिए पत्रकार, पत्रकार और अधिकारियों के रिश्ते, स्थानीय स्तर पर पत्रकारों और माफियाओ के रिश्ते और पत्रका​रों की जातीय संरचना को समझना बहुत जरूरी है। बगैर इन चारों चीजों को समझे देश को यह नहीं समझ में आ सकता कि मीडिया चाहे वह राष्ट्रीय हो या स्थानीय, इस खबर को प्राथमिकता और घटनाक्रम की बारीकियों के साथ क्यों नहीं पेश कर रहा।

एक बात और कि जिस तरह मुजफ्फरनगर दंगे की घटना को वृहत रूप देने में ठीक से रिपोर्टिंग न होना भी एक बड़ा कारण रहा, अब ऐसा ही कुछ शब्बीरपुर में हो रहा है। एक दूसरा कारण यह भी माना जा रहा है कि मुजफ्फरपुर दंगे में आजम खां जिस तरह से पहुंचे और शब्बीरपुर में मायावती, उसने दंगे को भड़काने और जातीय हिंसा को बढ़ाने का ही काम किया है। 

5 मई को जब शब्बीरपुर गांव जब रहा था, दलितों पर हमले हो रहे थे तो इस घटनाक्रम की रिपोर्टिंग करने से पहले डीएम, एसएसपी, एसपी ने गांव में पत्रकारों को डिक्टेशन दी। मौके पर आज तक, न्यूज नेशन, जीटीवी, ईटीवी, न्यूज 24, टीवी 100 समेत तमाम न्यूज चैनलों और सभी दैनिकों के पत्रकार डिक्टेशन लेने वालों में मौजूद थे। 


एसएसपी सुभाष चंद्र दुबे, डीएम एनपी सिंह और एसपी देहात ने पत्रकारों को निर्देशित किया कि फलां फलां फुटेज दिखाइये और फलां फलां फुटेज मत दिखाइये। पत्रकार भी उच्चाधिकारियों की बात से सहमत थे इसलिए फुटेज और फैक्ट होने के बावजूद खबर सामने नहीं आई। कुछेक ईमानदार पत्रकारों ने आॅनलाइन मीडिया का सहारा लिया, जिसकी वजह से इस घटनाकम का सच सबके सामने आ पाया। इन्ही पत्रकारों में कुछेक ने जब आपस में कहा कि यह तो गलत है हमें खबर दिखानी चाहिए, कुछेक ने दिल्ली में अपने हैडआॅफिस वीडियो फुटेज भेजी भी, मगर खबर वहां से भी प्रसारित नहीं हो पायी।

गौरतलब है कि सहारनपुर जिले में छोटे—बड़े मीडिया घरानों के तकरीबन 210 पत्रकार काम करते हैं। इन पत्रकारों का बहुतायत बाह्मण, राजपूत और जाट है। 10 प्रतिशत के करीब पत्रकार मुस्लिम भी हैं। ऐसे में घटना मुजफ्फरपुर की हो या शब्बीरपुर की, पत्रकार आमतौर पर अपनी जातिवादी और साम्प्रदायिक समझदारी को ही पत्रकारिता का मूल्य बना लेते हैं। और ये तब और भी आसान हो जाता है जब ​तमाम उच्चाधिकारी भी साम्प्रदायिक और जातिवादी हों। ऐसे में अधिकारियों और पत्रकारों दोनों का गठजोड़ यह मान लेता है कि मुसलमानों और दलितों पर जो जातिवादी और साम्प्रदायिक अत्याचार हुआ है, वह वाजिब है और इसको लेकर खामखां का हल्ला मचाने की कोई जरूरत नहीं है। 

शब्बीरपुर मामले में भी हू—ब—हू यही हुआ। ज्यादातर स्थानीय पत्रकार किसान हैं और उन्होंने शब्बीरपुर और आसपास के दूसरे गांवों में दलितों पर हुए हमलों और अत्याचार को इसलिए वाजिब ठहरा दिया कि दलितों की महिलाएं उनके खेतों में जाने वाले पाइपों पर दरारी/​हसुआ मार देती हैं।

सहारनपुर से दूर बैठे और यहां की सामाजिकी, आर्थिकी से अनभिज्ञ व्यक्ति को पत्रकारों और पत्रकारिता के संदर्भ में यह बात मजाकिया लग सकती है, मगर सच यही है। दलित महिलाओं का खेत में जा रही पाइपों पर दराती मार देना, दलितों का राजपूतों के आगे पहले की तरह दंंडवत न होना, कुछेक दलितों की आर्थिक स्थिति मजबूत होना और उनका पढ़ा—लिखा होना भी उन पत्रकारों को गड़ता है या उन्हें सही रिपोर्टिंग नहीं करने देता, जो सहारनपुर की स्थानीय पत्रकारिता के टायकून हैं। 

अधिकारियों की डिक्टेशन और पत्रकारों की जातीय और सामाजिक हैसियत से इतर एक सच और भी है, जहां माफियाओं के आगे पत्रकार जाति—धर्म से परे हटकर सरेंडर किए हुए हैं। सहारनपुर के खनन माफिया मोहम्मद इकबाल जोकि बसपा के पूर्व एमएलसी भी रह चुके हैं और बसपा से ही तत्कालीन एमएलसी और उनके छोटे भाई महमूद अली सहारनपुर की पत्रकारिता को पालते—पोसते हैं। यहां के लोगों में यह सामान्य जानकारी है कि अवैध खनन पर रिपोर्टिंग न करने के बदले कुछेक पत्रकारों को छोड़ दें तो बहुतायत को एमएलसी परिवार से मासिक भत्ता जाता है। हालांकि अब सरकार ने औपचारिक तौर पर खनन बंद करवा दिया है, फिर भी यह जारी है।

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