Jan 24, 2016

प्रकाश भाई तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!

​साहित्यिक मसलों को लेकर सक्रिय रहने वाले अनिल जनविजय के वाल पर अभी थोड़ी देर पहले देखा कि उन्होंने युवा कवि प्रकाश की मौत के बारे में सूचना दी है। लिखा है कि प्रकाश ने नींद की गोलियां खा ली थींं, जिससे उनकी मौत हो गयी।  आत्महत्या का कारण अबतक साफ नहीं हो सका है। 

वह अक्षय उपाध्याय स्मृति शिखर सम्मान से सम्मानित थे और उनका एक कविता संग्रह  'होने की सुगन्ध' भी छप चुका था।

प्रकाश से मैं परिचित था और उनसे दिल्ली के मंडी हाउस, कॉफी हाउस और भगत सिंह पार्क पर कई दफा मुलाकात हुई थी। हम उन दिनों नई सांस्कृतिक मुहिम के पक्षधरों के साथ भगत सिंह पार्क में बैठते थे, जिसमें वह भी शरीक होने आते थे। उन्होंने कई मौकों पर अपनी कविताएं भी सुनाई थीं। 

उनके साथी कवि और पत्रकार पंकज चौधरी ने हम सब से पहली बार उनसे भेंट कवि के रूप में ही कराई थी। वह अपनी उम्र से अधिक और गंभीर दिखते थे। उन्हें देखकर लगता था कि वह भदेस बॉडी लैग्वेज के आदमी और दिल्ली उनकी कद्र नहीं कर पाएगी। 

दिल्ली पहले चमक देखती है, फिर काबिलियत तौलती है। संभवत: इसीलिए कुछ समय बाद वह उत्तर प्रदेश के आगरा में हिंदी संस्थान से निकलने वाली पत्रिका से जुड़ गए। इस बीच उनका कई दफा दिल्ली आना हुआ और दो—चार बार सार्वजनिक जगहों पर हाय—हैल्लो भी हुई। बातचीत में उन्होंने बताया था कि शादी हो चुकी है। 

मुझे नहीं मालुम कि वह कहां के थे, किस तरह से संघर्ष करते हुए दिल्ली तक आए थे। पर उनके आगरा चले जाने के बाद भी उनके मित्र पंकज चौधरी और अभिनेता राकेश उनकी जीवटता और संघर्ष के किस्से अक्सर सुनाते थे। उनकी बातों को याद करते हुए अब लग रहा है कि वह आदमी हमारे बीच का चार्ली चै​प्लीन था जो मुस्कुराते हुए चला गया। 

फ्रीलांसिंग, मामूली अखबारी लेखन, कम पैसे का अनुवाद और करीब—करीब मुफ्त की प्रूफ​​रीडिंग के जरिए जीने वाले युवा साहित्यकारों की जिंदगी कितनी मुश्किलों भरी होती है, उसके वह जिंदा मिसाल थे। इतनी कठिनाइयां झेलने वाला आदमी क्या इससे भी बड़ी परेशानी में था और अकेला भी कि वह हमारे बीच से चला गया। सच में प्रकाश भाई, तुम क्या इतनी तकलीफ में थे!

संघर्ष के दिनों में मकान मालिकों की भभकियां, होटल वालों की वार्निंग और दोस्तों की बकाएदारी हम सब के जीवन की दैनंदिन रही है और वह उनके जीवन की भी थी। उनके रूम पार्टनर रहे राकेश अक्सर एक किस्सा उनके बारे में सुनाते थे, जिसके बाद सभी लहालोट हो जाते थे। 

वह काम की तलाश में एक बार दरियागंज स्थित किरण प्रकाशन के दफ्तर गए। प्रकाशक ने उन्हें प्रूफरीडिंग या संपादन का काम देने के लिए बुला रखा था। दफ्तर के दरवाजे पर खड़े हुए तो दिखा कि प्रकाशक देवता को अगरबत्ती दिखा रहा है। उन्हें काम की जरूरत इस कदर थी वह हर कीमत पर काम हथिया लेना चाहते थे।

यह सोचते हुए वह एक तरफ दरवाजे से अंदर दाखिल हो रहे थे और दूसरी तरफ प्रकाशक को इंप्रैस करनी की तरकीबें सोच रहे थे। तभी बिजली का तार उनके पैरो से लटपटाकर टूट गया, वह गिरने को हुए और बिजली चली गई। 

कमरा अंधकार से भर गया। अगरबत्ती दिखा रहा प्रकाशक चिढ़ गया। उसने जल्दी से अगरबत्ती धूपदान में खोंसी और गुस्से में पूछा, 'कौन हो बावले।' 

'सर मैं प्रकाश'। 

कमरे में फैले अंधकार के बाद यह हमारे मित्र प्रकाश का जवाब था। इसके बाद हम सभी हंस पड़ते थे। 

मैंने अबतक नौकरी के लिए श्रद्धांजलि लिखी है। मतलब पत्रकारिता के लिए। लेकिन आज एक परिचित का लिख रहा हूं जिसके साथ मैंने कुछ पल बिताएं हैं, कुछ यादें हैं, सार्वजनिक मुलाकातों की सही। 

मन कह रहा है लोग शायद बुरा मानें। बुरा मानने वाले माफ करेंगे पर एक परिचित इंसान की श्रद्धांजलि देवताओं जैसी कैसे लिखी जा सकती है। 

पुरस्कार - डिग्रियां लौटा देना ही त्याग का महाभियान

एक ब्राम्हण कवि ने
बेहद आत्मीय पलों में कहा
मैंने दलितों पर कभी कोई कविता नहीं लिखी
उनका दुख नहीं लिख पाया

संघर्ष कम नहीं हैं उनके
जीत का सिलसिला भी कम नहीं
पर मैं नहीं लिख पाया

नहीं लिख पाने की आत्मस्विकारोक्ति पर
दशकों तक
खूब तालियां पीटी गयीं संस्कृति के सभागारों में
वर्षों तक
भावविह्वल श्रोताओं से कालीनें होती रहीं गिलीं
आज भी
पुर्नजागरण के सिपाही आंसू पोछने के लिए बांटते फिरते हैं रूमाल

बहरहाल
कुछ ने इसे सदी की महाआत्मस्विकारोक्ति कहा
कुछ ने कहा जातिवाद के विघटन का महाआख्यान
बात निकली तो दूर तलक गई और
दलितों पर एक हर्फ न लिखने वाला कवि
महाकवि बना
उस देश में जिस देश में 80 फीसदी रहते हैं शूद्र, म्लेच्छ और नीच

अब वही
कविता का प्रतिमान है
संघर्ष का नया नाम है
विद्रोहियों की शान है
जातिवाद ख़त्म करने की पहली पहचान है...
भक्त कहते हैं
उसके बिना साहित्य बियाबान है

मैं पूछता हूँ,
सदियों बाद स्वीकार कर लेना ही
बराबरी का कीर्तिमान है
और
पुरस्कार - डिग्रियां लौटा देना ही त्याग का महाभियान !

आज का एकलव्य होता तो एक बाल नोचकर न देता द्रोणाचार्य को

संघर्ष में विजित, पराजित और सक्रिय रहने वाले दलितों को एकलव्य क्यों कहना है? 

यह उदाहरण अपने आप में ब्राम्हणवाद को मजबूत नहीं करता। 

मैं यह इसलिए पूछ रहा हूं कि रोहित वुमेला के मौत के बाद फिर एक बार यह शब्द तेजी से ट्रेंड करने लगा है। वह भी उसके पक्षधरों द्वारा। 

एक तरफ आप कहते हैं, दलितों का महाकाव्य अभी लिखा जाना है और दूसरी तरफ शोषकों के महाकाव्य में रचित चरित्र को सिर—आंखों पर बैठाते हैं। आप महिषासुर को पुर्नपरिभाषित कर रहे हैं, लेकिन आज के युग में आदर्श बन रहे दलितों को एकलव्य से आगे नहीं जाने दे रहे। 

रही होगी उस समय एकलव्य की कोई मजबूरी जो उसने द्रोणाचार्य को अपना अंगूठा दे दिया, लेकिन आज का दलित एक बाल नोचकर न दे। उल्टे वह सदियों का हिसाब ले ले। क्या वह इतने के बाद भी एकलव्य की तरह ईमोशनल वारफेयर में फंसेगा ? 


आपको लगता है कि अगर किसी दलित ने महाभारत लिखी होती तो अपना धर्म न निभाने वाले द्रोणाचार्य के प्रति वह वैसा ही रवैया बरतता जैसा व्यास ने बरता है। नहीं न। न ही धनुष विद्या में निपुण एकलव्य बकलोल होता, जो अपनी बेइज्जती इस कदर भूल जाता कि वह अपना अस्त्र 'अंगूठा' ही दान कर दे। 


पूरा महाभारत 'कर्म करो फल की चिंता मत करो' के सूत्र वाक्य का समाहार है तो क्या एकलव्य का यही कर्म था। 


एक काबिल दलित का अंगूठा देना ब्राम्हणवाद की उस परंपरावादी समझ को पुष्ट नहीं करता है कि तुम चाहे जितने काबिल हो जाओ, बुद्धि में तुम हमसे पार न पा पाओगे, हम तुम्हें कमतर करके ही छोड़ेंगे। मतलब वे अनंतकाल तक एकलव्य पैदा करते रहेंगे। 


पर आज का दलित इस श्रेष्ठता बोध को क्यों जारी रहने दे और खुद हीनताबोध में क्यों जिए ।

तुम किसके पक्ष में हो प्यारे

अजय प्रकाश 
तुम दलितों के पक्ष में नहीं हो कि वह आरक्षण चाहते हैं,
तुम मुसलमानों का पक्ष नहीं लेते कि वह देश हड़पना चाहते हैं,
तुम पिछड़ों को नहीं चाहते कि वह क्रीमी लेयर का मजा ले रहे हैं,
तुम आदिवासियों को नहीं चाहते कि वह असभ्य हैं,
तुम औरतों को नहीं चाहते कि वह तुम्हारे लिए इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती हैं,
तुम बच्चों को भी नहीं चाहते कि वह आबादी बढ़ा रहे हैं
अलबत्ता तुम मनुष्यता को भी नहीं चाहते कि उसे तुमने अवसरवादी घोषित कर रखा है !
तुम चाहते क्या हो प्यारे,
तुम किसके पक्ष में हो,
कौन है तुम्हारी घोषित चाहत !
आज तुम खुद ही बताओ
पूरा खुलकर
हो सके तो मुनादी कराओ
पर बताओ जरूर
हम भी देखें !
तुम्हारी कैसी कायनात है
जिसमेें मनुष्य नहीं
सिर्फ सवर्ण रहते हैं...

आवाज सुनाने के लिए छात्र ने की आत्महत्या

हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र और उसके साथी जबतक आंदोलन में थे, देश में उनकी कोई चर्चा नहीं थी। उनके समर्थन में आंदोलनों का कोई सिलसिला होता नहीं दिख रहा था और न ही सोशल मीडिया पर खबर ट्रेंड कर रही थी। आज भी उनमें से जो चार बचे हुए हैं, उनकी कोई चर्चा नहीं है, सिवाय की उन्हें विश्विद्यालय ने बर्खास्तगी निरस्त कर वापस ले लिया है.

क्या अब छात्रों को भी अपनी समस्याओं पर सरकार, समाज और मीडिया का ध्यान दिलाने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनना होगा। 


किसान पहले से ही इस रास्ते पर हैं। मैं आंध्र, विदर्भ और बुंदेलखंड के किसानों के बीच जितनी दफा भी रिपोर्टिंग करने गया हर बार पाया कि आत्महत्या करने वाले किसानों का बहुतायत इसे उपाय के तौर पर लेता है। उन्हें यह रास्ता 'हारे का हरिनाम' जैसा लगता है। 

निराश किसान कभी कर्जमाफी, कभी बैंक की धमकी—बेइज्जती से बचने तो कभी इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि परिवार को कुछ अनुकंपा राशि मिल जाएगी और दुख थोड़ा कम होे जाएगा। 

आखिर हम देश को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। हमें पूरी ताकत लगाकर इसे रोकना होगा। एक सभ्य समाज के लिए यह सांस लेने जितनी जरूरी शर्त होनी चाहिए। हम कैसे देश हैं, जहां सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए जान देनी पड़ रही है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां देश मजबूत और जनता कमजोर हो रही है।