Oct 23, 2016

पार्टी होगी दो फाड़, 3 नवंबर के बाद अखिलेश करेंगे नई पार्टी की घोषणा

अखिलेश ने तो बहुत पहले ही शिवपाल को हाशिए पर ला दिया होता पर पिता के कारण वह गले हड्डी ढो रहे हैं। शिवपाल ने मुख्यमंत्री के इजाजत के बगैर केंद्र सरकार से 2 लाख करोड़ की डील कर आग में घी का काम किया था। पार्टी के विश्वस्त सूत्रों के हवाले से पार्टी दो फाड़ होगी. 3 नवंबर के बाद अखिलेश नई पार्टी की घोषणा करेंगे...

समाजवादी पार्टी उत्तर भारत की इकलौती ऐसी पार्टी है जिसमें नेतृत्व, रणनीति और कार्यशैली को लेकर न सिर्फ रगड़ा और मतभेद है बल्कि पारिवारिक पार्टी होने की वजह से एक दूसरे के प्रति भावनाएं (दुर) भी खुलेआम दिखती हैं। पार्टी में वर्चस्व की लड़ाई का संकट दिनोदिन गहरा रहा है. इसी कड़ी में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने चाचा शिवपाल यादव को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया है। शिवपाल यादव के साथ चार और मंत्रियों को भी मंत्रिमंडल से निकाला गया है. इससे पहले शिवपाल यादव ने प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के बाद अखिलेश समर्थकों को न सिर्फ पार्टी से अलग- थलग करने की कोशिश की थी, बल्कि एक तरह भतीजे को चेताने का काम भी किया था।

शिवपाल बर्खास्तगी घटनाक्रम के बाद उन कयासों को और बल मिल गया है जिनके आधार पर पार्टी के दोफाड़ की आशंका जताई जा रही थी। कहा जा रहा है कि पार्टी में बंटवारा हो सकता है, नई पार्टी बन सकती है।  

शिवपाल को बर्खास्तगी तक पहुँचाने में विधायक उदयवीर सिंह की चिट्ठी ने भी अहम् भूमिका निभाई है। गौरतलब है कि पार्टी में चल रहे घमासान के बारे में कुछ दिन पहले पत्र लिखने वाले विधायक उदयवीर को पार्टी से छह साल के लिए निकाल दिया गया था. उदयवीर अखिलेश के काफ़ी क़रीबी माने जाते हैं।

गौरतलब है कि 15 सितंबर को किए पांच मिनट के प्रेस कांफ्रेंस में एक-एक वाक्य में तीन-तीन बार नेताजी-नेताजी की दुहाई देने वाले उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल सिंह ने एक झटके में मन की कर डाली थी और दो टूक जता दिया कि अब लड़ाई चिलमन से बाहर निकल आमने-सामने की ही होगी। अब बड़े भाई की आड़ गयी अब भाड़ में। शिवपाल ने 19 सितंबर को अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठते ही अखिलेश समर्थक सात पदाधिकारियों को पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पार्टी से निष्कासित कर दिया। 

मुलायम सिंह यादव के ज्येष्ठ पुत्र और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकने में शिवपाल ने किसी किंतु-परंतु का सहारा नहीं लिया और निष्कासित सात पदाधिकारियों में अखिलेश के चहेते तीन विधान परिषद सदस्यों सुनील सिंह यादव, आनंद भदौरिया, संजय लाठर को सबसे पहले निकाला और मीडिया में तत्काल सूचना प्रसारित करवाई। वरिष्ठ पत्रकार अंबरीश कुमार कहते हैं, ‘शिवपाल ने जिन लोगों को निकाला है वे वो लोग थे जिन्होंने पिछले शासन काल में आंदोलन करते हुए पुलिस दमन के शिकार हुए और सिर पर पुलिस की बूट की चोट झेली है।’ ऐसे में सवाल उठने शुरू हो गए थे की क्या प्रदेश के मुखिया मुख्यमंत्री अखिलेश यादव इससे कमजोर प्रतिक्रिया देंगे। क्या वह फिर एक बार चुप रहकर अपने को कमजोर मुख्यमंत्री कहलवाएंगें या पिता के आदेशों को इंतजार करेंगे। खासकर तब जबकि निकाले गए लोगों में सपा सांसद और मुलायम के चचेरे भाई रामगोपाल का भांजे अरविंद यादव भी शामिल हो। सभी जानते हैं कि पारिवारिक खेमेबंदी में रामगोपाल अखिलेश के पक्ष में खड़े होते हैं। 

समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ मंत्री ने एक अनौपचारिक बात में कहा भी था कि, ‘अबकी नहीं मानेेंगे अखिलेश और न ही नेताजी की सुनेेंगे। अखिलेश ने तो बहुत पहले ही शिवपाल को हाशिए पर ला दिया होता पर पिता के कारण वह गले हड्डी ढो रहे हैं। शिवपाल ने मुख्यमंत्री के इजाजत के बगैर केंद्र सरकार से 2 लाख करोड़ की डील कर आग में घी का काम किया था। गडकरी से मिलकर पार्टी विरोधी गतिविधियों का काम किया था जिसका परिणाम उन्हें भुगतना होगा।’  

 गौरतलब है भाजपा नेता और केंद्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से उत्तर प्रदेश के तत्कालीन पीडब्ल्यूडी मंत्री शिवपाल सिंह की मुलाकात सितंबर के दूसरे सप्ताह में हुई थी। मुलाकात अमर सिंह ने राज्यसभा सांसद और एस्सेल ग्रुप के निदेशक सुभाष चंद्रा की मदद से कराई थी। मामला उत्तर प्रदेश में नेशनल हाइवे बनाने को लेकर 2 लाख करोड़ का था। सूत्रों के मुताबिक गडकरी चाहते थे कि 50 फीसदी सड़क का ठेका हमारे लोगों को मिल जाए और 50 फीसदी आपके लोगों को। जानकारी के मुताबिक गडकरी ने ठेका जी न्यूज के मालिक सुभाष चंद्रा के एस्सेल ग्रुप को दिया और अमर सिंह ने अपने लोगों। डील में सचिव दीपक सिंघल ने महत्वपूर्ण भूमिका। हैरत की बात यह कि जिस मुख्यमंत्री के आदेशों पर यह सब होना है उसको खबर तब पता चलती है जब हस्ताक्षर के लिए प्रोजेक्ट पेपर सामने रखा जाता है।

पेशे शिक्षक और समाजवादी पार्टी की राजनीति में खासे सक्रिय रफीक अहमद बताते हैं, ‘शिवपाल कभी अखिलेश को मुख्यमंत्री स्वीकार ही नहीं कर पाए और जबसे यह पता चला है कि अगले चुनावों में असली टक्कर भाजपा और सपा के बीच है तबसे उन्होंने अभी से खुद को अगला मुख्यमंत्री मान लिया।’ 

अक्सर शिवपाल की एक मजबूती की बात मीडिया करता रहता है कि उनकी संगठन में बहुत व्यापक और लोकप्रिय पकड़ है इसलिए मुलायम शिवपाल को अहमियत देते हैं। मगर उनके परिवार के एक बेहद करीबी और शिवपाल और मुलायम सिंह की कई मुलाकातों के साक्षी रहे सेवानिवृत्त अधिकारी की राय में 'संगठन में मजबूती’ वाली बात मीडिया द्वारा शिवपाल ले खुद स्थापित कराई है जिससे मुख्यमंत्री न बन पाने की निराशा को एडजस्ट कर सकें। कौन नहीं जानता कि जो सत्ता में उसी की पकड़ हर जगह होती है। क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पार्टी में किसी की अधिक पकड़ है। फिर सपा में ऐसा क्यों है? तो यह मुलायम सिंह यादव का अपराध बोध है। 

बात खत्म हो उससे पहले पंचतंत्र की वह कथा जरूर याद करनी चाहिए कि दो बंदरों की लड़ाई में बिल्ली कौन है? कौन इन दोनों के मुंह का निवाला छिनने की फिराक में है? पहला जवाब भाजपा है। पर क्या शिवपाल उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से लेकर हाल ही में बसपा छोड़े स्वामी प्रसाद मौर्य कि दुर्गति से परिचित नहीं हैं। हां, इसमें कोई शक नहीं कि अगर पार्टी टूटती है तो इसकी बड़ी लाभार्थी भाजपा बनेगी और शिवपाल बली का बकरा। बाकि अखिलेश का क्या होगा यह तो समय बताएगा। वैसे भी पारी के हिसाब से अबकी बारी में अखिलेश की पार्टी को उत्तर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष में ही बैठना है। 

 इस मसले पर वरिष्ठ राजनीतिक चिन्तक सुधीर पंवार कहते हैं कि, 'हर पार्टी संक्रमण काल से गुजरती है। संक्रमण पार्टी को एक नया रूप और नई संभावनाएं देता है पर यह यों ही नहीं होता। इस बीच बहुत कुछ टूटता और खत्म भी होता है। मोरारजी देसाई के समय में कांग्रेस में और मोदी के समय भाजपा में भी ऐसा ही हुआ। दरअसल यह लड़ाई पुरानी पीढ़ी बनाम नई पीढ़ी की है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 लोकसभा चुनावों से सालभर पहले पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, जसवंत सिंह या यशवंत सिन्हा को हाशिए पर ढकेला तो कितना शोर मचा था पर अब देखिए। इसलिए यह हायतौबा की बात नहीं है कि पार्टी संक्रमण के दौर से गुजर रही है लेकिन इसकी चिंता जरूर की जानी चाहिए कि उसके बाद बचेगा क्या और बलिदान कितना करना होगा।'

राजनीतिक विश्लेषक कह रहे हैं कि पार्टी के दोनों धड़ों का झगड़ा अब खुलकर सामने आ चुका है और अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव को किनारा करने की ठान ली है.