Feb 18, 2011

मैं गंवार हूं...



अशोक विश्वास

चम्मच से मुझे खाने की आदत नहीं

छूरी की मुझे जरूरत नहीं

मैं खाता हूं ज़मीन काटकर

मैं खाता हूं सबको बांटकर

इसलिए कि मैं गंवार हूं



मेरे बच्चे स्कूल में पढ नहीं पाते

बेरहम दुनिया से लड नहीं पाते

तभी तो वो सफलता की सीढी चढ नहीं पाते

इसलिए कि मैं गंवार हूं



जीवन भर मैं औरों के लिए बनाता हूं महल

हर काम की मुझसे ही होती है पहल

फिर भी मैं रहता हूं झोपडी में

दुख और गरीबी ही है मेरी टोकरी में

इसलिए कि मैं गंवार हूं



गरीबी ही है मेरी हमजोली

बीमारी मेरी दीवाली

और मौत ही मेरी होली

ये सब इसलिए क्योंकि मैं गंवार हूं



(अशोक, सरगुजा में सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनकी यह कविता सीजीनेट स्वर  से साभार ली जा रही है.)   



लीपापोती की महान भारतीय परम्परा


नेता हो या अधिकारी अथवा समाज के किसी और तबके का कोई भी व्यक्ति, सभी की मनोवृति ऐसी बन चुकी देखी कि वह सब कुछ बुरा ठीक-ठाक दर्शाना चाहता है...

निर्मल  रानी   

आजकल  भ्रष्टाचार का मुद्दा चर्चा का मुख्य   विषय बना हुआ है। ऐसा लगता है कि आगामी लोकसभा चुनाव में 'भ्रष्टाचार' ही चुनाव का केंद्र बिंदु होगा। परंतु यदि हम भ्रष्टाचार के इन कारणों की तह में जाने की कोशिश करें तो हम यह पाएंगे कि हमारे देश में लीपापोती करने की  आदत सी बन चुकी है.

नेता हो या अधिकारी अथवा समाज के किसी और तबके का कोई भी व्यक्ति लगभग सभी की मनोवृति ऐसी बन चुकी है   कि वह सब कुछ ठीक-ठाक दर्शाना चाहता है. इसी तथाकथित 'ठीक-ठाक' के थोथे प्रदर्शन के पीछे छुपा होता है छोटे से लेकर बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार, घोटाला, लापरवाही, अकर्मण्यता, हरामखोरी, रिश्वतखोरी तथा ढेर सारी गैजिम्मेदारियां आदि।

आज के तथाकथित वीआईपी गण कहीं न कहीं आते-जाते रहते हैं। इनका भी कोई न कोई मार्ग होता है और कभी कभी शहरों के व्यस्त बाज़ारों या रास्तों से भी इन्हें गुज़रते हुए जलसे-जुलूस में आना जाना पड़ता है।  वीआईपी के गुज़रने वाले रास्ते में गड्ढे हैं तो भले ही वह विगत कई महीनों व कई वर्षों से क्यों न हों तथा जनता उन गड्ढों में कितनी बार गिर कर अपना नुकसान क्यों न कर चुकी हो,परंतु जब विशिष्ट व्यक्ति अर्थात हमारे 'सेवक'को उस रास्ते से गुज़रना है तो उन गड्ढों को  तत्काल भर दिया जाता है। कूड़े करकट के ढेर हटा इन रास्तों के किनारे चूने का छिड़काव भी कर दिया जाता है तथा रंगीन झंडियां आदि लगाकर उनका स्वागत किया जाता है।


दिल्ली  में राष्ट्रमंडल खेलों से ऐन   पहले गिरा था पुल  
पिछले दिनों अम्बाला के बराड़ा कस्बे में एक फ्लाईओवर का उद्घाटन हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा द्वारा किया गया। वैसे भी इस  निर्माण की गति शुरु से ही बहुत धीमी थी। किसी प्रकार यह तैयार हुआ। इस फ्लाईओवर के दोनों ओर स्ट्रीट लाईट का प्रबंध किया गया है,चूना-सफेदी की गई तथा उसपर लगे बिजली के खंभों को सिल्वर पेंट द्वारा चमकाया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जिस स्थान पर उद्घाटन का पत्थर लगा था उसी स्थान तक लगे बिजली के खंभों को पेंट किया गया, वह भी आधा-अधूरा।

ऐसी ही एक घटना अंबाला छावनी के मुख्य  बस स्टैंड के उद्घाटन के समय की याद आती है. स्वर्गीय बंसी लाल हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी सत्ता के अंतिम दिन गुज़ार रहे थे। जाते-जाते वह अपने नाम की अधिक से अधिक उद्घाटन शिलाएं तमाम सरकारी इमारतों में लगाकर जाना चाह रहे थे। उन्हीं इमारतों में से एक भवन अंबाला छावनी बस अड्डे का भी था। उस नवनिर्मित हुए बस अड्डे का काम अभी भी पूरी नहीं हुआ था कि मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा बस अड्डे के भवन के उद्घाटन करने की तिथि घोषित हो गई।

दिन-रात तेज़ी से काम कर सरकार को यह बता दिया गया कि बस अड्डा पूरी तरह से ठीक-ठाक है तथा उद्घाटन के लिए तैयार है। वह तिथि व निर्धारित समय आ गया। मुख्यमंत्री आए उद्घाटन समारोह बस स्टैंड के मुख्य  विशाल शेड में संपन्न हुआ। अभी मुख्यमंत्री महोदय का भाषण चल ही रहा था कि काफी तेज़ बारिश शुरु हो गई। इस भारी बारिश के चलते पूरे सभा स्थल की छत टपकने लगी। चारों ओर पानी ही पानी हो गया। गोया जिस प्रकार की लीपापोती प्रशासन ने करनी चाही उसकी पोल प्रकृति ने खोलकर रख दी।

लीपापोती तथा सब ठीकठाक दिखाई देने जैसी कमज़ोर व खोखली परंपरा कोई गांव,शहर या राज्यस्तर तक ही सीमित नहीं है। बल्कि दुर्भाग्यवश शायद यह प्रवृति हमारी परंपराओं में ही शामिल हो चुकी है और राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर के आयोजनों में भी हम अपनी इसी प्रवृति या परंपरा के शिकार होते देखे जाते हैं।

पिछले  वर्ष भारत में पहली बार राष्ट्रमंडल खेल आयोजित हुए। यह तो भला हो हमारे देश के खिलाडिय़ों का जिन्होंने अप्रत्याशित रूप से सौ से अधिक पदक जीतकर देश की इज़्ज़त बचा ली। क्योंकि शासन व प्रशासन के लोगों की तरह खेल जैसी प्रतिस्पर्धाओं में लीपापोती या जबरन सब ठीक-ठाक है कहने से पदक कतई हासिल नहीं हो सकता। अन्यथा इस आयोजक मंडल के सदस्यों ने तो देश की नाक कटवाने में अपनी ओर से तो कोई कसर ही बाकी नहीं रखी थी।

 ज़रा कल्पना कीजिए कि उन विदेशी मेहमानों को या विदेशी खिलाडिय़ों को आज जब यह पता लग रहा होगा कि भारत में हुए राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति की अमुक-अमुक हस्तियां जो कल तक अहंकार तथा सत्ता का प्रतीक बनी हुई दिखाई दे रहीं थीं,वही हस्तियां आज जांच एजेंसियों द्वारा की जाने वाली पूछताछ,संदेह व फज़ीहत की शिकार हैं तो उनके दिलो-दिमाग पर हमारे देश की क्या छवि बन रही होगी?

यह ऐसे निठल्ले,हरामखोर तथा घोटालेबाज़ शासनिक व प्रशासनिक अधिकारियों व जिम्मेदार लोगों की ही देन थी कि राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के दौरान कभी कोई पुल गिर गया तो तमाम जगहों पर गड्ढे नहीं भरे जा सके। कई भवनों को आधा-अधूरा रखकर ही उन पर लीपापोती कर दी गई और आख़िरकार  ऐसे तमाम गड्ढों को व गंदगी,कूड़ा-करकट आदि को छुपाने के लिए उन बेशकीमती होर्डिंग्स  का सहारा लिया गया जिन्हें किन्हीं अन्य स्थानों पर लगाने के लिए बनवाया गया था। कहीं गमले रखकर अपनी इज़्ज़त बचाने की कोशिश की गई तो कहीं रातोंरात घास व पौधे लगाकर लीपापोती की गई।

इन्हीं सब लापरवाहियों के परिणामस्वरूप ही निकल कर आया है देश का सबसे बड़ा राष्ट्रमंडल खेल घोटाला। लीपापोती करने व सब कुछ ठीक-ठाक है जैसा थोथा प्रदर्शन करने से हमें बाज़ आना चाहिए तथा जहां भी इस प्रकार की कोशिशें की जा रही हों,उसका न सिर्फ पर्दाफाश करना चाहिए बल्कि सामाजिक स्तर पर इनका विरोध भी किया जाना चाहिए। ऐसी परंपराओं का प्रबल विरोध निश्चित रूप से देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सहायक साबित होगा।




लेखिका सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखती हैं, उनसे mailto:nirmalrani@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.