Jun 27, 2017

मोदी की तारीफ में एक शब्द नहीं बोले अमेरिकी राष्ट्रपति



मोदी की अमेरिका यात्रा पर पढ़िये पूर्व आईपीएस वीएन राय का लेख, जिन्होंने भारत के कई प्रधानमंत्रियों के साथ अमेरिका यात्रा की है। संयोग से अब की वह प्रधानमंत्री की यात्रा में तो नहीं पर अमेरिका में मौजूद थे...

मोदी के अमेरिका पहुँचने पर हवाई अड्डे पर उनके स्वागत के लिए बमुश्किल एक मेयर का पहुंचना बताता है कि अमेरिका में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी की क्या कद्र और कितना महत्व है। भारत में मोदी के चाहने वालों के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं है, क्योंकि चाहने वालों को सरकार पोषित मीडिया ने बता रखा है कि मोदी की अमेरिका में धाकड़ छवि है
पर यहां सबकुछ उल्टा देखने को ही मिला। बड़ी बात तो यह है कि अमेरिका के वाशिंगटन स्थित व्हाइट हाउस में भारतीय प्रधानमंत्री मोदी का पारम्परिक रूप से लॉन पर मीडिया के सामने रस्मी स्वागत करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने मोदी की व्यक्तिगत तारीफ में एक शब्द भी नहीं कहा।
इससे जाहिर होता है कि मोदी को ट्रम्प ने कोई भाव नहीं दिया, जबकि मोदी की ट्रम्प से पहली मुलाकात थी। पहली मुलाकात में यह रवैया आश्चर्य में डालने वाला है। यह आश्चर्य इसलिए भी है कि सरकार पोषित मीडिया ने देश को बहुप्रचारित स्तर पर बता रखा है कि मोदी की पूछ अमेरिकी शासकों में दूसरे किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री के मुकाबले बहुत ज्यादा है।
जानकारों को पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह की तारीफ में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपतियों के कसीदे याद हैं। ओबामा ने तो मनमोहन सिंह को विश्व के श्रेष्ठतम अर्थशास्त्रियों में शामिल बताया था। यह वही मनमोहन सिंह हैं जिनकी छवि भारतीय समाज में अब एक मौनी बाबा की बना के रख दी गयी है।
ऐसे 'मौनी बाबा' के मुकाबले मोदी का स्वागत टांय-टांय फिस्स होना, मोदी की वैश्विक छवि पर एक सवालिया निशान खड़ा करता है?
हालांकि कुछ का कहना है कि जिस ट्रम्प को बस अपनी तारीफ़ की ही आदत है, वह मोदी की तारीफ कैसे करता? एक अन्य विचार है कि मोदी में तारीफ लायक है भी क्या? कुछ भी हो, इसी ट्रम्प ने इसी व्हाइट हाउस लॉन पर कुछ ही दिन पहले रूमानिया जैसे अदने से देश के राष्ट्रपति की तारीफ़ के बिंदु भी ढूंढ लिए थे।
मोदी का व्यक्तिगत अपमान इसलिए भी हुए चुभने वाला हो जाता है कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने अमेरिकी युद्ध इंडस्ट्री से रिकार्ड तोड़ युद्ध का सामान खरीद कर अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जम कर सहारा दिया है।
भारत ने 2009 में अमेरिका से 200 मिलियन डॉलर की जंगी खरीद, 2016 में नौ बिलियन डॉलर तक पहुँच गयी है। स्वयं ट्रम्प ने अपने स्वागत भाषण में इसक जिक्र किया, विशेषकर भारत द्वारा 100 जहाज खरीदने के समझौते का।
दूसरे शब्दों में, जो पैसा देश के विकास में लगाना चाहिए था, वह अमेरिकी रोजगारों को पैदा करने में मोदी सरकार लगा रही है। जबकि इसके बदले में अमेरिका कोई ऐसा आश्वासन भी नहीं दे रहा कि भारतीय कंप्यूटर प्रोफेशनल पर आ रहे प्रतिबंध कुछ ढीले किये जाएंगे। नारायण मूर्ति की इनफ़ोसिस पर तो अभी-अभी एक भारी भरकम जुर्माना भी ठोका गया है।
हालाँकि ट्रम्प ने भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र अवश्य कहा, और यह भी कि दोनों देशों के संविधान के पहले तीन शब्द एक समान 'वी द पीपल' हैं। शायद लोकतंत्र की इस कसौटी पर जोर देने के बाद ट्रम्प को लगा हो कि इस सन्दर्भ में मोदी का अपना ट्रैक रिकॉर्ड इस योग्य नहीं कि उनकी तारीफ की जा सके। उन्होंने सरकारी काम-काज में मोदी सरकार के भ्रष्टाचार विरोधी दावों का जिक्र अवश्य किया, शायद इसलिए की अमेरिकी कंपनियों को भारत में घूस देने से छूट मिल जाय।
भारत में बिका हुआ मीडिया मोदी की अमेरिका यात्रा को जैसा भी बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा हो, अमेरिकी मीडिया में बहुत कम और वह भी नेगेटिव बातें ही आ रही हैं। भारतीय दूतावास ने डॉलर शक्ति से एक दोयम श्रेणी के अख़बार में मोदी के हस्ताक्षरों का लेख छपवाया, जिसकी अमेरिकी मीडिया में कोई चर्चा नहीं हुयी अंतरराष्ट्रीय ख्याति के 'इकनॉमिस्ट' ने लिखा है कि मोदी की शोहरत पूंजीपतियों को धड़ाधड़ जमीन दिलाने की तो है पर व्यापक औद्योगिक विज़न की नहीं।
ट्रम्प के हाथों मोदी की उपेक्षा, ट्रम्प की जीत पर दीवाली मनाने वाले मोदी भक्तों को निराश तो करेगी ही।

मनुस्मृति से ज्यादा अन्यायपूर्ण शास्त्र ​खोजना कठिन

कहा जाता है कि मनुस्मृति हिंदुओं का आधार है--उनके सारे कानून,समाज-व्यवस्था का
ओशो, विश्वप्रसिद्ध भारतीय चिंतक और दार्शनिक

अगर एक ब्राह्मण एक शूद्र की लड़की को भगाकर ले जाये तो कुछ भी पाप नहीं है। यह तो सौभाग्य है शूद्र की लड़की का। लेकिन अगर एक शूद्र, ब्राह्मण की लड़की को भगाकर ले जाये तो महापाप है। और हत्या से कम, इस शूद्र की हत्या से कम दंड नहीं। यह न्याय है! और इसको हजारों साल तक लोगों ने माना है।
जरूर मनाने वाले ने बड़ी कुशलता की होगी। कुशलता इतनी गहरी रही होगी, जितनी कि फिर दुनिया में पृथ्वी पर दुबारा कहीं नहीं हुई। ब्राह्मणों ने जैसी व्यवस्था निर्मित की भारत में, ऐसी व्यवस्था पृथ्वी पर कहीं कोई निर्मित नहीं कर पाया, क्योंकि ब्राह्मणों से ज्यादा बुद्धिमान आदमी खोजने कठिन हैं। बुद्धिमानी उनकी परंपरागत वसीयत थी।
इसलिये ब्राह्मण शूद्रों को पढ़ने नहीं देते थे क्योंकि तुमने पढ़ा कि बगावत आई।
स्त्रियों को पढ़ने की मनाही रखी क्योंकि स्त्रियों ने पढ़ा कि बगावत आई।

स्त्रियों को ब्राह्मणों ने समझा रखा था, पति परमात्मा है। लेकिन पत्नी परमात्मा नहीं है! यह किस भांति का प्रेम का ढंग है?कैसा ढांचा है? इसलिये पति मर जाये तो पत्नी को सती होना चाहिये, तो ही वह पतिव्रता थी।
लेकिन कोई शास्त्र नहीं कहता कि पत्नी मर जाये तो पति को उसके साथ मर जाना चाहिये, तो ही वहपत्नीव्रती था। ना, इसका कोई सवाल ही नहीं।
पुरुष के लिये शास्त्र कहता है कि जैसे ही पत्नी मर जाये,जल्दी से दूसरी व्यवस्था विवाह की करें।
उसमें देर न करें। लेकिन स्त्री के लिये विवाह की व्यवस्था नहीं है। इसलिये करोड़ों स्त्रियां या तो जल गईं और या विधवा रहकर उन्होंने जीवन भर कष्ट पाया। और यह बड़े मजे की बात है, एक स्त्री विधवा रहे, पुरुष तो कोई विधुर रहे नहीं; क्योंकि कोई शास्त्र में नियम नहीं है उसके विधुर रहने का।
तो भी विधवा स्त्री सम्मानित नहीं थी, अपमानित थी। होना तो चाहिये सम्मान, क्योंकि अपने पति के मर जाने के बाद उसने अपने जीवन की सारी वासना पति के साथ समाप्त कर दी। और वह संन्यासी की तरह जी रही है। लेकिन वह सम्मानित नहीं थी। घर में अगर कोई उत्सव-पर्व हो तो विधवा को बैठने का हक नहीं था। विवाह हो तो विधवा आगे नहीं आ सकती।
बड़े मजे की बात है; कि जैसे विधवा ने ही पति को मार डाला है! इसका पाप उसके ऊपर है। जब पत्नी मरे तो पाप पति पर नहीं है, लेकिन पति मरे तो पाप पत्नी पर है! अरबों स्त्रियों को यह बात समझा दी गई और उन्होंने मान लिया। लेकिन मानने में एक तरकीब रखनी जरूरी थी कि जिसका भी शोषण करना हो, उसे अनुभव से गुजरने देना खतरनाक है और शिक्षित नहीं होना चाहिये। इसलिये शूद्रों को,स्त्रियों को शिक्षा का कोई अधिकार नहीं।
तुलसी जैसे विचारशील आदमी ने कहा है कि 'शूद्र, पशु, नारी,ये सब ताड़न के अधकारी।' इनको अच्छी तरह दंड देना चाहिये। इनको जितना सताओ, उतना ही ठीक रहते हैं।
'शूद्र, ढोल, पशु,नारी...' ढोल का भी उसी के साथ--जैसे ढोल को जितना पीटो,उतना ही अच्छा बजता है; ऐसे जितना ही उनको पीटो, जितना ही उनको सताओ उतने ही ये ठीक रहते हैं। यही धारा थी। इनको शिक्षित मत करो, इनके मन में बुद्धि न आये, विचार न उठे। अन्यथा विचार आया, बगावत आई। शिक्षा आई, विद्रोह आया।
विद्रोह का अर्थ क्या है? विद्रोह का अर्थ है, कि अब तुम जिसका शोषण करते हो उसके पास भी उतनी ही बुद्धि है, जितनी तुम्हारे पास। इसलिये उसे वंचित रखो।

गन्ना की कीमतें नहीं बढ़ाएंगे योगी, कहा दाम बढ़ाने से मिल मालिकों की टूटती है कमर

जनज्वार, लखनऊ। आपातकाल के 42 साल पूरे होने के मौके कल 25 जून को देश के कई हिस्सों में जब बहुतेरे राजनीतिज्ञ आपातकाल के काले दिनों को याद कर रहे थे, तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ लखनऊ के आम महोत्सव में अपनी गरिमामयी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे।

लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में लगे आम महोत्सव का दर्शन लाभ लेते हुए मुख्यमंत्री योगी ने कहा कि हमारे राज्य में अच्छे आमों की उत्पादकता और बढ़ाई जानी चाहिए। उन्होंने यूपी से आमों के कम निर्यात पर भी चिंता जाहिर की। उन्होंने कई मंत्रियों की गरिमामयी उपस्थिति के बीच महाराष्ट्र के अल्फांसो आम का उदाहरण देते हुए कहा कि हमारे आमों का अभी निर्यात बढ़ाना यानी बहुराष्ट्रीयकरण होना बाकि है।
योगी ने इसी बीच किसानों के प्रति सरोकार जाहिर करते हुए कहा कि गन्ने की कीमत बढ़ाने से मिल मालिकों की कमर टूट जाती है, इसलिए सरकार गन्ने की कीमत बढ़ाने की बजाय किसानों के फसल की उत्पादकता 3 से 4 गुना बढ़ाने पर जोर देगी। योगी के मुताबिक गन्ने की कीमतें बढ़ाना समस्या का समाधान नहीं है।
हालांकि योगी ने अपनी बातों में यह नहीं बताया कि उत्पादकता में 3 से 4 गुना बढ़ोतरी का रहस्य कैसे पूरा होगा? कौन सा बीज, खाद, पानी और नस्लें यह राष्ट्रवादी सरकार किसानों को उपलब्ध कराएगी जिससे किसान एकाएक उत्पादन बढ़ा लेंगे।
गन्ना का कटोरा कहे जाने वाले लखीमपुर खीरी के सपा उपाध्यक्ष क्रांति कुमार सिंह कहते हैं, 'योगी सरकार मिल मालिकों की गोद में बैठकर किसानों को पुचकारने का नाटक कर रही है। सरकार केवल गन्ना के बदले निकलने वाली चीनी की कीमत के आधार पर मिल मालिकों का मुनाफा देखती है पर उससे निकलने वाला सीरा जिससे शराब बनती है, चेपुआ जिससे कागज और बिजनी बनती है, अगर इस मुनाफे को जोड़ दिया जाए तो पता चलेगा कि किसकी कमर टूट रही है और किसका पेट खाली रह जा रहा है।'
अलबत्ता योगी यह बताना नहीं भूले कि प्रदेश सरकार का खजाना खाली होने के बावजूद उनकी सरकार ने किसानों के लिए 36 हजार करोड़ रुपए कि कर्जमाफी की घोषणा की, जिसको मीडिया ने इस रूप में प्रचारित किया था कि किसानों की कर्जमाफी हो गयी है।
जबकि असलियत खुद मुख्यमंत्री जानते हैं कि किसानों की कर्जमाफी की घोषणा के 3 महीने बाद भी बजट का 1 रुपया सरकार ने बैंकों को जारी नहीं किया है और न ही अब तक किसी किसान का एक टका भी माफ हुआ है।
रही बात गन्ना किसानों की चिंता की तो चुनाव में ही भाजपा ने वादा किया था कि किसानों का बकाया 14 दिनों में दे दिया जाएगा, जबकि अभी 30 फीसदी किसानों को सरकार भुगतान नहीं करा सकी है। इसके अलावा सपा सरकार में भाजपा ने कहा था, हमारी सरकार आएगी तब हम गन्ना से कीमत 306 और 315 की बजाए कम से कम 350 कर देंगे।
पर अब सरकार बनने के बाद प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ किसानों को समृद्धि और विकास की नयी परिभाषा समझाने लगे हैं। उन्हें अब किसानों के पेट की नहीं पूंजीपतियों की कमर की चिंता सताने लगी है।
और योगी ने आम महोत्सव में दशहरी का स्वाद लेते हुए दो टूक गन्ना किसानों को बता दिया है कि वह गन्ना की कीमतों को नहीं बढ़ाने वाले  हैं।

आखिर आपातकाल की संभावनाओं से इनकार क्यों नहीं कर पाए आडवाणी

देश में बढ़ती हिंसा और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग की बढ़ती खबरों के बीच फिर से एक बार यह बहस चल पड़ी है कि देश क्या अघोषित आपातकाल की नाकाबंदी के दौर में ढकेला जा रहा है...
वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन का विश्लेषण
कल की रात 25 जून, 1975 आजाद भारत के इतिहास की वह तारीख है जब तत्कालीन हुकूमत ने देश में आपातकाल लागू कर लोकतंत्र और नागरिक आजादी को बंधक बना लिया था। पूरे बयालीस साल हो गए हैं उस दौर को, लेकिन उसकी काली यादें अब भी लोगों के जेहन में अक्सर ताजा हो उठती हैं। उन यादों को जिंदा रखने का काफी कुछ श्रेय उन लोगों को जाता है जो आज देश की हुकूमत चला रहे हैं। उनका अंदाज-ए-हुकूमत लोगों में आशंका पैदा करता रहता है कि देश एक बार फिर आपातकाल की ओर बढ रहा है।

दो साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था।
आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। बकौल आडवाणी, 'भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है।
आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।' 

आपातकाल कैसा था और उसके मायने क्या हैं? दरअसल यह उस पीढी को नहीं मालूम जो सत्तर के दशक में या उसके बाद पैदा हुई है और आज या तो जवान है या प्रौढ हो चुकी है। लेकिन उस पीढी को यह जानना जरूरी है और उसे जानना ही चाहिए कि आपातकाल क्या था?
साठ और सत्तर के दशक में विपक्षी दलों के कार्यकर्ताओं खासकर समाजवादियों के बीच सरकार विरोधी दो नारे खूब प्रचलित थे। एक था- 'लाठी-गोली-सेंट्रल जेल, जालिमों का अंतिम खेल' और दूसरा था- 'दम है कितना दमन में तेरे, देखा है और देखेंगे-कितनी ऊंची जेल तुम्हारी, देखी है और देखेंगे।' दोनों ही नारे आपातकाल के दौर में खूब चरितार्थ हुए। विपक्षी दलों के तमाम नेता-कार्यकर्ता, सरकार से असहमति रखने वाले बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, पत्रकार आदि जेलों में ठूंस दिए गए थे। यही नहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की रीति-नीति का विरोध करने वाले सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी कुछ दिग्गज नेता जेल के सींखचों के पीछे भेज दिए गए थे।
दरअसल, बिहार और गुजरात के छात्र आंदोलनों ने इंदिरा गांधी की हुकूमत की चूलें हिला दी थीं और उसी दौरान समाजवादी नेता राजनारायण की चुनाव याचिका पर आए इलाहबाद हाईकोर्ट के फैसले ने आग में घी काम किया था। इसी सबसे घबराकर इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने के लिए देश पर आपातकाल थोपा था। इंदिरा गांधी इतनी सशंकित और भयाक्रांत हो चुकी थी कि आपातकाल लागू करने से कुछ घंटे पहले ही उन्होंने अपने विश्वस्त और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के दौरान आशंका जताई थी कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की 'हेट लिस्ट' में हैं और कहीं ऐसा तो नहीं कि निक्सन उनकी सरकार का भी उसी तरह तख्ता पलट करवा दे, जैसा कि उन्होंने चिली के राष्ट्रपति सल्वादोर अलेंदे का किया है।
उन्हें इस बात की भी शंका थी कि उनके मंत्रिमंडल में शामिल कुछ लोग सीआईए के एजेंट हो सकते हैं। उनके शक और डर का आलम यह था कि उन्होंने उस समय के उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा के बंगले पर भी जासूसी के लिए आईबी का डीएसपी रैंक का अधिकारी तैनात कर दिया था।
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए। अभिव्यक्ति का ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देश भर में विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरणसिंह, मधु लिमए, अटलबिहारी वाजपेयी, बीजू पटनायक, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते आदि तमाम विपक्षी नेता मीसा यानी आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिए। जो लोग पुलिस से बचकर भूमिगत हो गए, पुलिस ने उनके परिजनों को परेशान करना शुरू कर दिया। किसी के पिता को, तो किसी की पत्नी या भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी का आधार तैयार करने के लिए तरह-तरह के मनगढ़ंत और अविश्सनीय हास्यास्पद आरोप लगाए गए।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. रघुवंश को रेल की पटरियां उखाड़ने का आरोप लगाकर गिरफ्तार किया गया। जबकि हकीकत यह थी कि उनके दोनों हाथ भी ठीक से काम नहीं करते थे। इसी तरह मध्य प्रदेश के एक बुजुर्ग समाजवादी कार्यकर्ता पर आरोप लगाया गया कि वे टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर तार काट रहे थे। प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा को उनकी लिखी बहुत पुरानी एक कविता का मनमाना अर्थ लगाकर गिरफ्तार करने की तैयारी इलाहबाद के जिला प्रशासन ने कर ली थी। लेकिन जब श्रीमती गांधी को उनके करीबी एक पत्रकार ने यह जानकारी देने के साथ ही याद दिलाया कि महादेवी जी पंडित नेहरू को अपने भाई समान मानती थीं, तब कहीं जाकर श्रीमती गांधी के हस्तक्षेप से उनकी गिरफ्तारी रुकी। 

बात गिरफ्तारी तक ही सीमित नहीं थी, जेलों में बंद कार्यकर्ताओं को तरह-तरह से शारीरिक और मानसिक यातनाएं देने का सिलसिला भी शुरू हो गया। कहीं-कहीं तो निर्वस्त्र कर पिटाई करने, पेशाब पिलाने, उन्हें खूंखार अपराधी और मानसिक रुप से विक्षिप्त कैदियों के साथ रखने और उनकी बैरकों सांप-बिच्छू और पागल कुत्ते छोड़ने जैसे हथकंडे भी अपनाए गए। ऐसी ही यातनाओं के परिणामस्वरुप कई लोगों की जेलों में ही मौत हो गई, तो कई लोग गंभीर बीमारियों के शिकार हो गए।
सोशलिस्ट पार्टी की कार्यकर्ता रहीं कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी का नाम ऐसे ही लोगों में शुमार है, जिनकी मौत जेल में हो गई थी। समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस आपातकाल की घोषणा होते ही भूमिगत हो गए थे और उन्होंने अपने कुछ अन्य भूमिगत सहयोगियों की मदद से तानाशाही का मुकाबला करने का कार्यक्रम बनाया था। सरकार उनके इस अभियान को लेकर बुरी तरह आतंकित थी, लिहाजा जार्ज की गिरफ्तारी के लिए दबाव बनाने के मकसद से उनके भाई लॉरेंस और माइकल फर्नांडिस को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। उनसे जार्ज का सुराग लगाने के लिए उन्हें जेल में बुरी तरह से यातनाएं दी गईं।
कई मीसा बंदियों ने अपने-अपने राज्यों के हाईकोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की थी, लेकिन सभी स्थानों पर सरकार ने एक जैसा जवाब दिया कि आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निलंबित है और इसलिए किसी भी बंदी को ऐसी याचिका दायर करने का अधिकार नहीं है। जिन हाईकोर्टों ने सरकारी आपत्ति को रद्द करते हुए याचिकाकर्ताओं के पक्ष में निर्णय दिए, सरकार ने उनके विरुद्ध न केवल सुप्रीम कोर्ट में अपील की बल्कि उसने इन याचिकाओं के पक्ष में फैसला देने वाले न्यायाधीशों को दंडित भी किया।
असुरक्षा बोध से बुरी तरह ग्रस्त श्रीमती गांधी को उस दौर में अगर सर्वाधिक विश्वास किसी पर था तो वह थे उनके छोटे बेटे संजय गांधी। संविधानेत्तर सत्ता केंद्र के तौर उभरे संजय गांधी आपातकाल के पूरे दौर में सरकारी आतंक के पर्याय बन गए थे। सबसे पहले उन्होंने दिल्ली को सुंदर बनाने का बीड़ा उठाया। इस सिलसिले में उनके बदमिजाज आवारा दोस्तों की सलाह पर दिल्ली को सुंदर बनाने के नाम पर लालकिला और जामा मस्जिद के नजदीक तुर्कमान गेट के आसपास की बस्तियों को बुलडोजरों की मदद से उजाड़ दिया गया, जिससे बड़ी तादाद में लोग बेघर हो गए। कुछ लोगों ने प्रतिरोध करने की कोशिश की तो उन्हें गोलियों से भून दिया गया।
अपनी प्रगतिशील छवि बनाने के लिए संजय गांधी ने उस दौर में इंदिरा गांधी के बीस सूत्रीय कार्यक्रम से इतर पांच सूत्रीय कार्यक्रम पेश किया था, जिसके प्रचार-प्रसार में पूरी सरकारी मशीनरी झोंक दी गई थी। उस बहुचर्चित पांच सूत्रीय कार्यक्रम में सबसे ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। इस कार्यक्रम पर अमल के लिए पुरुषों और महिलाओं की नसबंदी के लिए पूरा सरकारी अमला झोंक दिया गया था अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए जिला कलेक्टरों और अन्य प्रशासनिक अधिकारियों पर ज्यादा से ज्यादा लोगों की नसबंदी करने का ऐसा जुनून सवार हुआ कि वे पुलिस की मदद से रात में गांव के गांव घिरवाकर लोगों की बलात नसबंदी कराने लगे। आंकड़े बढ़ाने की होड़ के चलते इस सिलसिले में बूढ़ों-बच्चों, अविवाहित युवक-युवतियों तक की जबरन नसबंदी करा दी गई। सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गई थी, लेकिन कहीं से भी प्रतिरोध की कोई आवाज नहीं उठ रही थी।
उस कालखंड की ऐसी हजारों दारुण कथाएं हैं। कुल मिलाकर उस दौर में हर तरफ आतंक, अत्याचार और दमन का बोलबाला था। सर्वाधिक परेशानी का सामना उन परिवारों की महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को करना पड़ा, जिनके घर के कमाने वाले सदस्य बगैर किसी अपराध के जेलों मे ठूंस दिए गए थे। आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली। लेकिन उन 21 महीनों में जो जख्म देश के लोकतंत्र को मिले उनमें से कई जख्म आज भी हरे हैं।
यह सच है कि आपातकाल के बाद से अब तक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चली आ रही है। हालांकि सरकारों की जनविरोधी विरोधी नीतियों के प्रतिरोध का दमन करने की प्रवृत्ति अभी भी कायम है, लेकिन किसी भी सरकार ने नागरिक अधिकारों के हनन का वैसा दुस्साहस नहीं किया है, जैसा आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने किया था।

'फखरूद्दीन' जैसा राष्ट्रपति चाहते हैं मोदी, जिसमें न कैबिनेट का हो झामा न अधिका​रियों का हस्तक्षेप

25 जून 1975 को देश पर आपातकाल थोपने वाली कांग्रेसी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दूसरे रूप माने जाने वाले मोदी कई मामलों में उनकी राह पर आगे बढ़ रहे हैं....

संविधान के नियमों को ताक पर रख इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा ने एक ऐसे रबर स्टांप राष्ट्रपति फखरूद्दीन अहमद का इस्तेमाल किया था, जो देश पर बेवजह आपातकाल थोपते वक्त राष्ट्रपति कम, प्रधानमंत्री के भक्त अधिक नजर आए थे। मोदी के समक्ष सार्वजनिक तस्वीरों में झुके नजर आ रहे आगामी राष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार रामनाथ कोविंद को देख विश्लेषकों और राजनीतिक टिप्पणीकारों की आम समझदारी बन रही है कि आने वाले समय में मोदी के लिए कोविंद, 'फखरूद्दीन' साबित होंगे।
आपातकाल की पूर्व संध्या पर पढ़िए, समकालीन तीसरी दुनिया के जून 2011 अंक से राष्ट्रपति के नाम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का अत्यंत गोपनीय पत्र जो राष्ट्रपति कार्यालय की फाइल में मिला था। यह गोपनीय पत्र और शाह आयोग की रिपोर्ट आपको समझने में मदद देगी कि कहीं मोदी के नेतृत्व में चल रही राजनीति और देश को आतापकाल के काले रास्तों की ओर तो नहीं ले जाया जा रहा है?
आदरणीय राष्ट्रपति जी,
जैसा कि कुछ देर पहले आपको बताया गया है कि हमारे पास जो सूचना आयी है उससे संकेत मिलता है कि आंतरिक गड़बड़ी की वजह से भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया है। यह मामला बेहद जरूरी है। 
मैं निश्चय ही इस मसले को कैबिनेट के समक्ष ले जाती लेकिन दुर्भाग्यवश यह आज रात में संभव नहीं है। इसलिए मैं आप से इस बात की अनुमति चाहती हूं कि भारत सरकार (कार्य संपादन) अधिनियम 1961 संशोधित नियम 12 के अंतर्गत कैबिनेट तक मामले को ले जाने की व्यवस्था से छूट मिल जाय। सुबह होते ही कल मैं इस मामले को सबसे पहले कैबिनेट में ले जाऊंगी। 
इन परिस्थितियों में और अगर आप इससे संतुष्ट हों तो धारा 352-1 के अंतर्गत एक घोषणा किया जाना बहुत जरूरी हो गया है। मैं उस घोषणा का मसौदा आपके पास भेज रही हूं। जैसा कि आपको पता है धरा-353 (3) के अंतर्गत इस तरह के खतरे के संभावित रूप लेने की स्थिति में, जिसका मैंने उल्लेख किया है, धारा-352 (1) के अंतर्गत आवश्यक घोषणा जारी की जा सकती है। 
मैं इस बात की संस्तुति करती हूं कि यह घोषणा आज रात में ही की जानी चाहिए भले ही कितनी भी देर क्यों न हो गयी हो और इस बात की सारी व्यवस्था की जाएगी कि इसे जितनी जल्दी संभव हो सार्वजनिक किया जाएगा। 
आदर सहित
भवदीय
(इंदिरा गांधी)
प्रधानमंत्री, भारत सरकार 
नयी दिल्ली, 25 जून 1975
राष्ट्रपति अहमद द्वारा आपातकाल की घोषणा
संविधान के अनुच्छेद 352 के खंड 1 के अंतर्गत प्राप्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए मैं, फखरूद्दीन अली अहमद, भारत का राष्ट्रपति इस घोषणा के जरिए ऐलान करता हूँ कि गंभीर संकट की स्थिति पैदा हो गयी है जिसमें आंतरिक गड़बड़ी की वजह से भारत की सुरक्षा के सामने खतरा पैदा हो गया है। 
नयी दिल्ली, राष्ट्रपति / 25 जून 1975
कैबिनेट से कोई सलाह नहीं, खुफिया विभाग का खुला दुरुपयोग किया था इंदिरा ने 
कैबिनेट सचिव बी.डी. पांडेय को 25-26 जून की रात में लगभग साढ़े चार बजे प्रधानमंत्री निवास से फोन आया जिसमें कहा गया कि सवेरे छह बजे मंत्रिमंडल की एक बैठक होनी है। उन्हें इस बात की हैरानी थी कि 25 और 26 की रात में इतने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी का आदेश किसने और कैसे जारी किया। सामान्य तौर पर इस तरह के सभी निर्देश गृहमंत्रालय के जरिए जारी होते थे और उनके संचार के अपने चैनल थे। 
बी.डी.पांडेय के अनुसार 26 जनवरी 1975 से पहले कैबिनेट की किसी भी बैठक में इसका जिक्र नहीं हुआ था कि देश के हालात इस कदर खराब हो गए हैं कि इमरजेंसी लगाने की जरूरत पड़ रही है। 
इंटेलिजेंस ब्यूरो के डायरेक्टर आत्मा जयराम ने अपने बयान में बताया कि देश में इमरजेंसी लगा दी गयी है। इसकी जानकारी उन्हें 26 जून को अपने दफ्तर जाने के बाद ही हुई। 
भारत सरकार के गृह सचिव एस.एल.खुराना को इसकी जानकारी 26 जून को सवेरे छह बजे उस समय हुई जब उन्हें कैबिनेट मीटिंग की सूचना मिली। वह लगभग साढ़े छह बजे पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कैबिनेट की बैठक चल रही थी। 
पूर्व कानून और न्यायमंत्री एच.आर.गोखले को इमरजेंसी लगने की जानकारी पहली बार तब हुई जब 26 जून 1975 को सबेरे वह मंत्रिमंडल की बैठक में भाग लेने पहुंचे। आपातकाल की घोषणा के बारे में न तो उनसे और न उनके मंत्रालय से किसी तरह का सलाह मशविरा किया गया। 
शाह कमीशन की रिपोर्ट ने पाया कि भारत में उस समय कहीं भी ऐसी कोई असाधारण स्थिति नहीं पैदा हुई थी जिसकी वजह से सामाजिक, आर्थिक अथवा कानून की ऐसी समस्या पैदा हुई हो जो आंतरिक इमरजेंसी की घोषणा के लिए बाध्य करे। सरकारी दस्तावेजों से आयोग ने निम्नांकित तथ्यों को जुटाया, 
1. आर्थिक मोर्चे पर किसी भी तरह का खतरा नहीं था। 
2. कानून और व्यवस्था के बारे में हर पखवाड़े आने वाली रपटों से पता चलता है कि सारे देश में स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में थी। 
3. इमरजेंसी की घोषणा से एकदम पहले की अवधि पर ध्यान दें तो राज्य सरकारों की ओर से गृहमंत्रालय को कोई भी ऐसी रिपोर्ट प्राप्त नहीं हुई थी जिसमें कानून और व्यवस्था के बिगड़ने का संकेत मिलता हो। 
4. आंतरिक इमरजेंसी लगाने के सिलसिले में 25 जून 1975 से पूर्व गृहमंत्रालय ने किसी भी तरह की योजना नहीं तैयार की थी। 
5. इंटेलिजेंस ब्यूरो ने 12 जून 1975 से लेकर 25 जून 1975 के बीच की अवधि की कोई भी ऐसी रिपोर्ट गृहमंत्रालय को नहीं दी थी जिससे यह आभास हो कि देश की आंतरिक स्थिति इमरजेंसी लगाने की मांग करती है। 
6. गृहमंत्रालय ने प्रधानमंत्री के पास ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं दी जिसमें उसने देश की आंतरिक स्थिति पर चिंता प्रकट की हो। 
7. गृह सचिव, कैबिनेट सचिव और प्रधानमंत्री के सचिव जैसे वरिष्ठ अधिकारियों को इमरजेंसी की घोषणा के मुद्दे पर विश्वास में नहीं लिया गया लेकिन प्रधानमंत्री के तत्कालीन अतिरिक्त निजी सचिव आर.के.धवन शुरू से ही इमरजेंसी की घोषणा की तैयारियों में लगे रहे। 
8. गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी की बजाय गृह राज्यमंत्री ओम मेहता को काफी पहले से इस मुद्दे पर विश्वास में लिया गया। केवल कुछ मुख्यमंत्रियों और दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर को इमरजेंसी लगाने के बारे में विश्वास में लिया गया। 
9. दिल्ली के लेफ्टिनेंट गर्वनर और हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री द्वारा आंतरिक आपातकाल के अंतर्गत संभावित कार्रवाई की अग्रिम जानकारी दी गयी लेकिन इस तरह की कोई अग्रिम जानकारी उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, तमिलनाडु, जम्मू कश्मीर, त्रिपुरा, उड़ीसा, केरल, मेघालय और केन्द्र शासित प्रदेशों की सरकारों को नहीं दी गयी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा ने बताया कि आपातकाल की घोषणा के बारे में उनको 26 जून की सुबह उस समय जानकारी मिली जब वह केंद्रीय मंत्रियों उमाशंकर दीक्षित और केशव देव मालवीय के साथ नाश्ते की मेज पर थे और इस खबर से उन लोगों को भी उतनी ही हैरानी हुई। 
इमरजेंसी का आदेश गृहमंत्रालय से और मंत्रिमंडल सचिवालय के जरिए आना चाहिए 
जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है प्रधानमंत्री ने राष्ट्रपति को भेजे गए अपने ‘अत्यंत गोपनीय’ पत्र में बताया था कि भारत सरकार (कार्य निष्पादन) अधिनियम 1961 के नियम 12 के अंतर्गत अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने इस निर्णय की सूचना कैबिनेट को नहीं दी है और वह इसका उल्लेख सुबह होते ही सबसे पहले कैबिनेट में करेंगी।
शाह आयोग की सिफारिशें 
खुफिया विभाग का दुरुपयोग
आयोग ने सिफारिश की कि इस बात की पूरी सावधानी बरती जाय और हर तरह के उपाय किए जाएं ताकि खुफिया विभाग को सरकार अथवा सरकार में शामिल किसी व्यक्ति द्वारा अपने निजी हित के लिए राजनीतिक जासूसी के उपकरण के रूप में इस्तेमाल न किया जा सके। इस मुद्दे पर अगर जरूरी हो तो सार्वजनिक बहस चलायी जाए।