Dec 18, 2008

मुंतदिर अल जैदी को सलाम


तानाशाह और जूते

मदन कश्यप

उसके जूते की चमक इतनी तेज थी
कि सूरज उसमें अपनी झाइयां देख सकता था
वह दो कदम में नाप लेता था दुनिया
और मानता था कि पूरी पृथ्वी उसके जूतों के नीचे है
चलते वक्त वह चलता नहीं था
जूतों से रौंदता था धरती को

उसे अपने जूतों पर बहुत गुमान था
वह सोच भी नहीं सकता था
कि एक बार रौंदे जाने के बाद
कोई फिर से उठा सकता है अपना सिर
कि अचानक ही हुआ यह सब

एक जोड़े साधारण पांव से निकला एक जोड़ा जूता
और उछल पड़ा उसकी ओर
उसने एक को हाथ में थामना चाहा
और दूसरे से बचने के लिए सिर मेज पर झुका लिया
ताकत का खेल खेलने वाले तमाम मदारी
हतप्रभ होकर देखते रहे
और जूते चल पड़े
दुनिया के सबसे चमकदार सिर की तरफ
नौवों दिशाओं में तनी रह गयीं मिसाइलें
अपनी आखिरी गणना में गड़बड़ा गया
मंगलग्रह पर जीवन के आंकड़े ढूंढने वाला कम्प्यूटर
सेनाएं देखती रह गयीं
कमांडों लपक कर रोक भी न पाये
और उछल पड़े जूते

वह खुश हुआ कि आखिरकार उसके सिर पर नहीं पड़े जूते
शर्म होती तब तो पानी पानी होता
मगर यह क्या कि एक जोड़े जूते के उछलते ही
खिसक गयी उसके पांव के नीचे दबी दुनिया
चारो तरफ से फेंके जाने लगे जूते
और देखते देखते
फटे पुराने, गंदे गंधाये जूतों के ढेर के नीचे
दब गया दुनिया का सबसे ताकतवर तानाशाह

Oct 11, 2008

जेल से पत्र

उन्होंने जेलों से पत्र भेजा है

अजय प्रकाश

उत्तर प्रदेष कचहरी बम विस्फोट के दो मुख्य आरोपी मोहम्मद हकीम तारिक कासमी और मोहम्मद खालिद मोजाहिद पर से हाल ही में अदालत ने देषद्रोह का मुकदमा खारिज कर दिया। ये दोनों आरोपी बाराबंकी जेल में बंद हैं। इसी केस में कोलकाता से गिरफ्तार आफताब अंसारी पहले ही बाइज्जत रिहा हो चुके हैं। एसटीएफ ने गिरफ्तारी के वक्त आफताब को इंडियन मुजाहिद्दीन का कमांडर बताया था जबकि तारिक और खालिद को मास्टर माइंड कहा।
गिरफ्तारी के बाद पुलिस और एसटीएफ ने आरोपियों के साथ कैसा व्यवहार किया इस बारे में तारिक और खालिद ने जज और जेल अधीक्षक के नाम जेल से पत्र लिखे। पत्र की मूल प्रतियां उर्दू में हैं। जेलों में गुजारे गये दिनों के बारे में उन पत्रों में विस्तार से चर्चा की गयी है। उसके एक छोटे से हिस्से का अनुवाद हम हिंदी में छाप रहे हैं।


श्रीमान श्रीमान अधीक्षक साहब
सीजेएम साहब जिला कारागार लखनउ
फैजाबाद
मैं मुहम्मद खालिद महतवाना (मुहल्ला) मड़ियाहूं जिला जौनपुर का रहने वाला हूं। 16-12-07 की षाम एसटीएफ वाले मड़ियाहूं बाजार के दुकान से लोगों की मौजूदगी में मुझे उठाये और नामालुम जगह पर ले गये। जहां जबरदस्त तषद्दुद किया। मुख्तलिफ तरीके से मारा पिटा। दाढ़ी के बाल जगह जगह से उखाड़े गये। दोनों पैरों का चीरकर उस पर खड़े होकर अजू-ए-तनासुल (लिंग) को मुंह में डालकर चुसवाया गया। पखाना के रास्ते पेट्रोल डालना, षर्मगाह को धागे से बांधकर दूसरे किनारे पर पत्थर बांधकर खड़ा कर देना और षर्मगाह पर सिगरेट दागना आम बात थी। षराब पिलाना और सुअर का गोष्त खिलाना, पेषाब पिलाना जारी रहा। साथ ही बर्फ लगाना, मूंह और नाक के रास्ते जबरदस्ती पानी पिलाया जाता रहा,जिससे दम घुटने लगता था। इलेक्ट्रिकल षोला मारते हुए आला के जरिये से जिस्म जलाना, करंट चार्ज का देना आम बात थी। यह सिर्फ इसलिए किया जाता रहा कि हम मान लें कि गुनहगार हैं।




श्रीमान श्रीमान अधीक्षक साहब
सीजेएम साहब जिला कारागार लखनउ
फैजाबाद

तारिक कासमी

निवेदन इस प्रकार है कि मैं मुहम्मद तारिक पुत्र श्री रियाज अहमद साकिन सम्मुपुर रानी की सराय आजमगढ़ का रहने वाला हूं। 12 दिसंबर को मेरी अपनी दवाई की दुकान के आगे के रास्ते से राह चलते हुए एसटीएफ के जरिये उठाया गया और 10 दिन तक गैर इंसानी सुलूक और तषद्दुद करके झुठी कहांनियां गढ़कर विडियो बनवाई गयी। 22 दिसंबर को अपनी गाड़ी से एसटीएफ वाले बाराबंकी ले गये और आरडीएक्स और दिगर सामान के साथ हमारी गिरफ्तारी दिखाई गयी। जबकि हम 10 दिनों से इन्हीं के कब्जे में थे। हमारे पास आरडीएक्स या कोई भी सामान नहीं था। 24 दिसंबर से दो जनवरी तक रिमाण्ड पर एसटीएफ ने आफिस में ही रखा था। दूसरी रिमाण्ड सीओ फैजाबाद के जरिये 9 जनवरी को को षुरू हुई । दिन रात तषद्दुद के जरिये अपनी मकसद की बात करवाते रहे। 17 जनवरी 2008 की रात में सीओ सीटी फैजाबाद श्री राजेष पाण्डेय और एसटीएफ दरोगा ओपी पाण्डेय ने एक छोटी लाल रंग की बैटरी (जिस पर षक्ति लिखा हुआ था और उसपर कोई ऐसी चीज लगी हुई थी जो चिपक रही थी) को पकड़वाया था। इसके बाद डाबर केवड़ा की बोतलें पकड़वायी गयी और फिर आखों पर पट्टी बांधकर दूसरे कमरे में ले गये। मालुम नहीं हाथों में क्या क्या चीजें पकड़वायीं। पट्टी बंधी होने की वजह से मालुम नहीं हो पाया। हां इतना अंदाजा हुआ कि डिब्बा और बैग है। मुझे डर इस बात का है कि इन्होंने हमारे फिंगर प्रिंट मुख्तलिफ तरीकों से लिए और इस चीज की कोषिष की, हम समझने न पायें। अत: आपसे निवेदन है कि ये लोग हमको फंसाना चाहते हैं। सुबूत में ये फिंगर प्रिंट पेष करें तो आप हमारी इन बातों का जरूर ध्यान रखें, आपकी अतिकृपा होगी। मैं एक अमन पसंद, मुहिब्बे वतन षहरी हूं, मैंने कभी कोई अपराध नहीं किया है और ना ही ऐसी तबयत का हूं।

Sep 30, 2008

शाहिद बदर का साक्षात्कार


इस्लामिक स्टूडेंट मूवमेंट ऑफ इंडिया के अध्यक्ष शाहिद बदर से बातचीत

हमने नौजवानों को हौसला दिया है हथियार नहीं

अजय प्रकाश

आजमगढ़ के प'सिध्द नेशनल सिबली कॉलेज से कुछ फर्लांग की दूरी पर शाहिद बदर एक यूनानी दवाखाना चलाते हैं। यह वही बदर हैं जिन्हें दि'ी पुलिस ने सिमी को प'तिबंधित किये जाने के मात्र बारह घंटे बाद मु'य कार्यालय जाकिर नगर से गिरफ्तार किया था। इसके बाद बदर ने तिहाड़, बहराईच, गोरखपुर और आजमगढ़ जेल में तीस महीने गुजारे। जेल से छूटने के बाद जहां एक तरफ सिमी अध्यक्ष प'तिबंध हटाये जाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं गिरफ्तारी के बाद लगभग बिखर चुके परिवार को समेटने का भी प'यास कर रहे हैं। देश उन्हें किस रूप में याद करता है यह बहस का मसला है, कानून क्या व्यवहार करता है यह अदालती जिम्मेदारी है, मगर आजमगढ़ के लोग उन्हें हकीम कहते हैं। शाहिद कहते हैं, 'अपनी मिट्टी ने मुझे जो अपनत्व दिया है उसके बलबूते हम हर दाग को धो डालेंगे।' सिबली कॉलेज के पि'ंसिपल इ्फितखार अहमद हों या फिर टौंस नदी के तट पर बसे गांव दाउदपुर के हरीशचन्द' यादव, इन जैसे तमाम आम लोगों की निगाह में उनके डॉक्टर साहब भले और सामाजिक मनई (आदमी) हैं।
बहरहाल, सिमी कार्यकर्ताओं की मध्यप'देश में हुई ताजातरीन गिरफ्तारियों के मद्देनजर उनसे तमाम सांगठनिक पहलुओं पर विस्तार से बातचीत हुई, पेश हैं मु'य अंश

हाल के दिनों में सिर्फ मध्यप'देश में ही लगभग दो दर्जन सिमी कार्यकर्ता पकड़े गये हैं, उनकी रिहाई के लिए आपकी तरफ से क्या प'यास हो रहा है?
फिलहाल वे लोग चौदह दिनों की रिमाण्ड पर हैं और अखबारों में लिखा है कि जरूरत पड़ी तो रिमाण्ड अवधि और बढ़ाई जा सकती है। इसलिए हम भी अभी देख ही रहे हैं कि और कितने बम, गोला, बारूद पुलिस रिमाण्ड पर लिए जाने के बाद पुलिस उनके पास से बरामद कराती है। बताते चलें कि नागौरी को छोड़कर और कोई भी नाम ऐसा नहीं है जिसे हम सिमी का कार्यकर्ता कह सकें। रही बात पुलिस की, तो वह किसी भी मुसलमान युवक को सिमी कार्यकर्ता बता सकती है और मीडिया आतंकवादी।

इस पूर्वाग'ह की कोई वजह ?
यह पूर्वाग'ह नहीं, भुगते हुए दिल का दर्द है। पुलिसिया फर्जीवाड़ों की चर्चा क्या की जाये। हमारे खिलाफती बहुत सारी बातें पत्रकारों ने भी ऐसी लिखीं या बोलीं जो हमने कभी कहीं थीं। लेकिन उन्हें हमारी ही जुबानी पेश किया गया और हम कुछ न कर सके। हम देखते रहे उन खबरों को, पलटते रहे अपने खिलाफ छपे पन्नों को, सबकुछ जानते हुए भी हम चुप रहे क्योंकि वो जरिया हमारे पास नहीं है जो एक खबरनवीस के पास है। आपसे गुजारिश है कि जो हम कहें उसी को प'काशित करें।

जो तोहमत आप मीडिया पर लगा रहे हैं उसका कोई आधार?
दो चार वजहें हों तो बतायें। हमारे बारे में हर बार वही कहा गया जो सरकार या खुफिया एजेंसियां मीडिया से कहलवाना चाहती थीं। 2006 में हुए मुंबई सिरियल बम धमाकों को ही लीजिए। धमाकों के ठीक बाद खुफिया ने आरोप लगाया कि
उसमें सिमी का हाथ है। उस समय मैं दि'ी में मौजूद था और दो दिन बाद दि'ी के पटियाला हाउस कोर्ट परिसर में प'ेस कांफ'ेंस कर अपना पक्ष रखा। लोगों ने मना किया, शुभचिंतकों ने कहा, सिमी प'तिबंधित है और मैं गिरफ्तार कर लिया जाऊंगा। लोग इसलिए भी डर रहे थे कि मैं तीस महीने की सजा काटकर हाल ही में लौटा था। फिर भी यह सोचकर मीडिया से रू-ब-रू हुआ कि अब और फर्जी दोषारोपण सहना ठीक नहीं। मगर इस बार भी मीडिया ने खुफिया एजेंसियों की ही तीमारदारी की और हम आहत हुए। खुफिया और सरकार के दबाव के बाद जो इमानदारी बची थी वह खोजी और विशेष खबरों की तेजी में गुम हो गयी। पत्रकार ख़ुद को स्टार साबित करने के लिए और मीडिया घराने मुनाफे के लिए एक पूरे समुदाय के साथ जो नाइंसाफी करते हैं उसे मुनासिब नहीं कहा जा सकता। लगभग दो साल पहले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के एक नुमाइन्दे ने फोन करके कहा कि वह हमसे गुप्तगू करना चाहता है। उन दिनों मैं केस के सिलसिले में दि'ी के जामिया नगर में रहा करता था। उसने मेरा साक्षात्कार जामिया नगर की सड़क पर किया। पर शाम के वक्त उस चैनल के स्टूडियो में मैं मध्यप'देश राज्य की पहाड़ियों के बीच था। टीवी एंकर ऐलान के अंदाज में कहता रहा, ''जिस खूंखार आतंकवादी शाहिद बदर को खुफिया पुलिस ढूंढने में नाकाम रही, उसे हमारे रिपोर्टर ने खोज निकाला है।'' एक हकीकत यह थी कि मैं दि'ी के जामिया नगर में अपने दोस्त के यहां बैठा उस कार्यक'म की देख रहा था, वहीं इसके उलट पूरा देश मुझे बतौर आतंकवादी पहाड़ियों के बीच देख रहा था। मीडिया का यह रवैया बदस्तूर जारी है।

एक रिपोर्ट में कहा गया है कि सिमी की आर्थिक जरूरतें वर्ल्ड एसेम्बली फॉर मुस्लिम यूथ, रियाध और आईआईएफएसओ से पूरी की जाती हैं?
जिन संगठनों के नाम आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए बताये गये हैं उनके बारे में रिपोर्ट जारी करने वाला ही बता सकता है। हम बता दें कि सिमी आर्थिक जरूरतें व्यक्तिगत सहयोग, रमजान की जकात और बकरीद में मिलने वाली खाल (बकरी की खाल) से जुटाया करता था। इसके अलावा जो लोग हमारे कामों को ठीक मानते हैं उनसे सहयोग जुटाया जाता था और कार्यकर्ता सालाना तौर पर निश्चित राशि देता था। नीति के स्तर पर सिमी ने निर्णय लिया था कि संगठन किसी भी तरह का विदेशी अनुदान नहीं लेगा।

इस संगठन का नाम सिमी किसने रखा?
मीडिया ने। हमने तो हमेशा 'स्टूडेन्ट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया' या आईएसएम कहा है। सत्ताईस सितम्बर 2001 में जब संगठन पर प'तिबंध लगाया गया उस समय मीडिया के बीच 'सिमी' नाम पहली बार जोर-शोर से चर्चा में आया। हमने इस नाम की व्या'या की थी-''ए सैय्यम इज ए मूवमेंट ऑफ द स्टूडेंट, बाई द स्टूडेंट, फॉर द स्टूडेंट ऑफ वेल्फेयर ऑफ द सोसाइटी''- सैय्यम एक तंजीम है, तलबा की, तलबा के जरिये, समाज की बेहदूद (बेहतरी) के लिए।

सिमी के कामकाज का क्या तरीका था?
आजमगढ़ के मनचोभा गांव में जहां की मेरी पैदाइश है, मदरसे से पढ़ाई पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अलीगढ़ चला गया। वर्ष 1991 में बीयूएमएस में दाखिला लिया तथा सिमी को इसी आधार पर ज्वाइन किया कि यह संगठन चारित्रिक निर्माण पर जोर देता था। संगठन की 'वाहिश थी कि सभी आला तालीम ( अच्छी शिक्षा) हासिल करें, मगर जीवन के शुरू से आखिर तक खुदा के बन्दे बनकर रहें। क्योंकि हुकूमत चाहे कितना भी पहरा बिठा दे जब तक इन्सान में खुदा के प'ति जवाबदेही पैदा नहीं होगी वह जुर्म करने से बाज नहीं आयेगा। हम पैगम्बर साहब की शिक्षाओं के प'चार-प'सार के साथ नौजवानों को देश और दुनिया के हालातों से रू-ब-रू कराते थे। गोष्ठियों, सम्मेलनों के माध्यम से इंसाफपसंद नौजवानों को हमने हौसला दिया, कभी हथियार की हिमायत नहीं की। हमने गुप्त कामकाज को कभी अपने कार्यशैली में शामिल नहीं किया। यह बात हम इसलिए नहीं कह रहे हैं कि सिमी पर भूमिगत काम करने के आरोप लग रहे हैं। बल्कि सांगठनिक संविधान में ही इसे शामिल नहीं किया गयाथा। जहां कहीं भी जुल्म होता, संगठन उसका जोरदार विरोध करता। साथ ही हम रैगिंग के खिलाफ थे । हमने राष्ट्र व्यापी स्तर पर 1996 से 'एन्टी वर्ण व्यवस्था' कैंपेन भी चलाये। मामला इससे आगे बढ़ा, तो आरएसएस ने जो गलत तारीख किताबों में पढ़ानी शुरू की थी हमने उसके खिलाफ भी छात्रों-युवाओं में जागरूकता अभियान चलाया। संगठन छात्रसंघ चुनावों में भागीदारी करता था या फिर हम चुनावों का सपोर्ट करते थे। जहां कहीं भी फसाद हुआ राहत शिविरों के माध्यम से संगठन ने लोगों की मदद की।

सिर्फ मुस्लिम जनता के लिए या फिर औरों के लिए भी?
ऐसा नहीं था। हमारा उसूल है कि जालिम का हाथ पकड़ लो यही एक मजलूम की मदद होगी। आज भी हम वही करते हैं।

संगठन का स्वरूप कैसा था?

आजादी से पहले या बाद के हिन्दुस्तान की तारीख में सिमी राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिम युवाओं का पहला संगठन था। सदस्यता की उम' 18 से लेकर तीस वर्ष के बीच रखी गयी थी। चार सौ अंसार ( मु'य कार्यकर्ता) के अलावा 20 हजार कार्यकर्ताओं वाले संगठन में अध्यक्ष, महासचिव, खजांची के अलावा कार्यकारिणी के सदस्य हुआ करते थे। चुनाव हर दो साल पर होता। देशभर में जो अंसार थे, उन्हीं में से पदाधिकारी चुने जाते। सिमी का किसी पार्टी या दल से ता'ुकात नहीं था। बावजूद इसके हमलोग देशभर के विश्वविद्यालयों, कॉलजों में तेजी के साथ पढे-लिखे मुस्लिम युवाओं से जुड़ रहे थे। आज भी सरकार से लेकर खुफिया एजेंसियां तक यह बखूबी जानती हैं कि हमारे कार्यकर्ताओं की एक बड़ी सं'या डॉक्टर, इंजीनियर या फिर उच्च शिक्षा प'ाप्त छात्रों की रही है।

संगठन इस्लाम की शिक्षाओं के साथ भारतीय संविधान में भी विश्वास रखता है ?

बेशक। हमारी संविधान प'दत्त व्यवस्था में आस्था है। अगर कहीं से उपलब्ध हो सके तो आप सिमी का संविधान जरूर देखें और लिखें, जिससे की जनता में यह साफ हो सके। आज हम संगठन के प'तिबंध के खिलाफ कानूनी लड़ाई को अंतिम विकल्प के तौर पर देखते हैं। लेकिन यह सवाल उन लोगों से क्यों नहीं पूछा जाता जो लोकतंत्र की चिंदी-चिंदी उड़ाकर हमें अपने ही मुल्क में कैद होने के लिए मजबूर करते हैं। वे उस अहसास को जब्त कर लेना चाहते हैं जो एक आजाद मुल्क का नागरिक चाहता है।

यह आरोप क्यों लगाया जाता है कि सिमी इस्लाम आधारित व्यवस्था चाहता है?

अगर इस देश में कम्युनिस्टों को साम्यवाद लाने का हक है, कुछ लोग हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात करते हैं, यह जुर्म नहीं है तो हम जो इस्लामी इंकलाब लाना चाहते हैं वह जुर्म कैसे है।

संगठन पर प'तिबंध क्यों लगाया गया?

जाहिर है, सिमी की कार्यवाइयां हिन्दुस्तान की उस जमात को बर्दाश्त नहीं थीं जो हमें यहां का नागरिक मानने से इनकार करती है। उसका नारा है ''मुसलमानों के दो स्थान, पाकिस्तान या कबि'स्तान''। गर सिमी के इतिहास को देखा जाये तो 25 अप'ैल 1977 में अलीगढ़ में इसकी स्थापना हुई। तबसे लेकर 1998 तक हमारे खिलाफ एक भी मामला दर्ज नहीं था। वर्ष 1998 में भाजपा के नेतृत्व में केन्द' सरकार बनी और मात्र दो सालों के भीतर दर्जनों झूठे मुकदमे सिमी से जुड़े युवाओं पर मढ़ दिये गये। हमारे खिलाफ भाजपा, बजरंग दल, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद आदि ने बकायदा एक माहौल तैयार किया। उसी की अन्तिम परिणति थी 27 सितम्बर 2001 की शाम चार बजे जब इस छात्र संगठन को प'तिबंधित कर दिया गया। हां, यह जरूर रहा कि हमारे साथी इस्लाम की शिक्षाओं का मानने वाले रहे और आज हम उसी जुर्म की सजा भुगत रहे हैं।

सिमी का दुनियाभर के कई आतंकवादी संगठनों से रिश्ता बताया जाता है। अब तो अलकायदा और हूजी से भी सांठ-गांठ उजागर होने की बात कही जा रही है?

पहले प'तिबंध लगा दिया और अब सांठ-गांठ का आरोप। हमारे यहां भी लोकतंत्र का चलन अजीब है कि मुंह में जाबी (प्रतिबंध) लगा दो और जो चाहे सो कहते रहो। ओसामा बिन लादेन और अलकायदा के बारे में हमने भी मीडिया के माध्यम से ही जाना-सुना है। दुनिया जानती है कि तालिबानियों को रूस के खिलाफ अमेरिका ने सह दी और आज भी वह अपनी जरूरतों के मुताबिक आतंक की परिभाषाएं ईजाद करता रहता है। किसी ने कभी ओसामा को देखा नहीं, जबकि अमेरिका ने उसके सफाये का बहाना बनाकर कई मुल्कों की सभ्यताओं को तबाह कर दिया। ऐसा नहीं है कि भारत का जागरूक नागरिक सरकार की इन चालबाजियों को नहीं समझता, पर उसे कोई विकल्प नहीं दिख रहा कि वह क्या करे। रही बात आरोपों की, तो यह हमारी सरकार के हाथ में है कि कैसा आरोप उसे सुविधाजनक लगता है। यह कैसा लोकतंत्र है कि जिस खुले संगठन सिमी के खिलाफ लगातार खुफिया एजेंसियां दुष्प'चार कर रही हैं उस फरेब को लेकर हम बोल भी नहीं सकते। यह हमारे खिलाफ एक गहरी साजिश का हिस्सा है कि कानूनी लड़ाई को कभी हाइलाईट नहीं किया जाता। अब तक तीन बार प'तिबंध की अवधि आगे बढ़ाई गयी है। तीनों केस सुप'ीमकोर्ट में चल रहे हैं, पर यह सारे मसले कभी खबरों का हिस्सा नहीं बनते।

शाहिद बदर को कोई सिमी का अध्यक्ष क्यों माने?
यह तो जाहिर है कि प'तिबंध के खिलाफ हम संघर्ष कर रहे हैं। जब तक प'तिबंध नहीं हटाया जाता और चुनाव नहीं होता, तब तक तो यही सच है।

इन्दौर में गिरफ्तार किये गये सफदर नागौरी को सिमी का चीफ कैसे बताया जा रहा है? चर्चा यह भी है कि सिमी को तोड़कर सिम नाम का कोई नया संगठन बनाया गया है?

इसके जवाब में मैं ये कहूंगा कि यह जानकारी मीडिया के जरिये ंहम तक पहुंची है। इसलिए यह कहना मुमकिन नहीं कि यह घोषणा किसकी है।



द पब्लिक एजेंडा से साभार

Jan 10, 2008

राजशाही की गोद में खेलेगा भूटानी लोकतंत्र

नेपाली भाषी भूटानी नागरिक पिछले १६ सालों से नेपाल के सात कैम्पों में शरणार्थियों का जीवन बीता रहे हैं| इन नागरिकों को भूटानी राजशाही ने देश निकाला कि सजा दी क्योंकि इन्होने लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागु किये जाने के लिये संघर्ष किया| संयुक्त राष्ट्र संघ आदि दानदाता एजेंसियों के सहारे गुजर-बसर कर रहे शणार्थियों की आबादी लगभग १ लाख पचास हजार हो चुकी है| देशनिकाला का दंश झेल रहे इस आबादी का यह अनुपात भूटान की कुल जनसंख्या का पांचवां हिस्सा है|पराये देश में इनकी तीसरी पीढी नौजवान हो चुकी है| अपने मुल्क की ओर जाने का जब भी प्रयास किया तो भारतीय फौजों ने दखलंदाजी की| कारण कि नेपाल से भूटान जाने का रास्ता भारत होकर ही जाता है| हालिया राजनीतिक परिवर्तनों के मद्देनजर भूटान में चुनाव होने जा रहे हैं बावजूद कि वहां कि एक बडी आबादी देश से बाहर है|
टेकनाथ रिजाल नेपाल में रहने वाले भूटानी शरणार्थियों के लोकप्रिय नेता हैं| भूटानी राजशाही ने १९८९ में लोकतांत्रिक आंदोलन खडा करने के आरोप में रिज़ाल को १० साल के कैद की सज़ा दे डाली| १८ दिसम्बर १९९९ को जेल से मुक्त होने के बाद से वह नेपाल में निर्वासित जीवन बिता रहे हैं|राजशाही की देखरेख में लोकतन्त्र की स्थापना की कवायद से शणार्थियों को क्या उम्मीदें हैं, भारत से वे क्या चाहते हैं जैसे मसलों पर टेकनाथ रिज़ाल से अजय प्रकाश ने जून २००७ में विस्तृत बातचीत की| आज जब वहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया लागू किये जाने की नौटंकी हो रही है वैसे में इस साक्षारत्कार से आपका साबका हो,यह जरूरी लगता है|

काठमांडू में टेकनाथ रिज़ाल


भूटानी नागरिक भारतीयों के साथ कैसा रिश्ता महसूस करते हैं

भारत के आजादी से पहले का कहें या बाद का दक्षिणी भूटान के नेपाली भाषी लोंगों से भारतीयों का गहरा आत्मीय रिश्ता है| भारतीय फौजों में हमारे इतने लोग थे कि जब राजा ने देश निकाला किया तो उसमें सैकडों वीर चक्रों को हमसे छीन लिया |ये वीर चक्र हमारे लोगों को भारतीय सेना में काम करते हुये दिये गये थे|इतना ही नहीं भारत की आजादी की लडाई में शामिल हुये तीन-चार भूटानी नागरिक तो बहुत बाद तक पटना के जेल में बंद रहें| जिस देश के साथ हम लोगों का इस तरह का रिश्ता रहा था वही देश आज हमें अपने देश जाने के लिए रास्ता नहीं दे रहा है|

भूटान-भारत के साथ मौजूदा और पूर्ववर्त्ती संबंधों के बीच आप लोग क्या फर्क देखते हैं|

१९६० के बाद भूटान में जिस स्तर पर नागरिक सुविधायें लागू कि गयीं उसमें भारत का अहम योगदान हैं| भूटान को इससे पहले एट्टियों यानी जंगली लोगों का देश कहा जाता था| किन योजनाओं में कितना खर्च होगा के हिसाब से लेकर मलेरिया तक के ईलाज का भार भारत ही उठाता था| मौजू़दा दौर में भारत सरकार का झुकाव और पक्षधरता भूटानी नागरिकों के प्रति होने के बजाय राजा के प्रति है|
दक्षिण एशिया का सबसे ताकतवर और जनतांत्रिक देश होने के नाते न सिर्फ भूटान बल्कि इस क्षेत्र के हर देश की जनता बहुत उम्मीद से भारत की तरफ देखती हैं| भारत सरकार की मदद के बगैर न तो नेपाल में शांति प्रक्रिया को स्थिरता मिल सकती है और न भूटानी शरणार्थी सम्मानपूर्वक स्वदेश वापसी कर सकते हैं|

नेपाल में मज़दूरी कर जीवनयापन करते भूटानी युवा


खुफिया एजेंसियों के मुताबिक शिविरों में रहने वाले युवा आतंवादी गतिविधियों में संलिप्त है?

यह तथ्यजनक नहीं है| राजा प्रायोजित प्रचार है, जिसे हिन्दुस्तानी मीडिया हवा देता रहता है| जाहिर है कि राजा तथा उसकी मददगार शक्तियां नेपाल के कैम्पों में रह रहे डेढ लाख शरणार्थियों पर किसी बहाने तोहमत लगाती रहेंगी जिससे स्वदेश वापसी संभव न हो|

दक्षिणी भूटान के नेपाली भाषियों को भूटानी राजा ने देशनिकाला क्यों किया?

उसके दो मुख्य कारण थे| एक तो यह कि भारत के साथ दक्षिणी भूटान के नागरिकों की नजदीकी बढती जा रही थी| दूसरा यह कि भारत में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को देखकर भूटानियों ने भी जनतांत्रिक हकों के लिए पहल करना शुरू किया| लेकिन राजा को यह मंजूर नहीं था| प्रतिक्रिया में उसने नेपाली भाषी लोगों की संस्कृति, भाषा तथा जीवन जीने के तरीके तक पर हमले शुरू कर दिये| राजशाही के जुल्म इस कदर बढे कि राज्य की तथाकथित संसद में बैठे सांसदों, अदालत के जजों तक को राज्य निकाला कर दिया गया|
फरवरी १९८५ में जब राजा ने हमारी नागरिकता को रद्द कर दिया तो हमें भरोसा था कि पडोसी देश भारत राजशाही की तानाशाही के खिलाफ ऐतराज करेगा| मगर यहां उल्टा हुआ| आज हम न भारत में हैं न भूटान में| हमें तीसरे देश की शरण लेनी पडी|
भारत, राजा के साथ अपने हित साध रहा है|कौन नहीं जानता कि भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मरीं तो राजा ने देश में जश्न मनाये|भारत की अखण्डता के लिये खतरा बन चुके उल्फा और बोडो उग्रवादियों की प्रमुख शरणस्थली तथा ट्रेनिंग कैम्प आज भी भूटान में है| हमारे ऊपर आतंकवादी गतिविधियों के संचालित करने का आरोप लगाने वाली भारतीय मिडिया को ये तथ्य क्यों नहीं दिखते| साथ ही भारतीय सरकार भूटान में भारत के लिए काम करने वाली स्थानीय खुफिया एजेंसियों की भूमिका की जांच क्यों नहीं करती कि तैनात अधिकारी भारत के प्रति कितने ईमानदार हैं|

क्या यह सच है कि शिविर के युवाओं में भारत के खिलाफ नफरत बढ रही ?

पिछले कुछ सालों में भारत के प्रति नफरत बढी है| १६-१७ वर्षों में हमने स्वदेश वापसी का सात-आठ बार शांतिपूर्वक प्रयास किया|मगर जाने में असफल रहे हैं|इन प्रयासों के खिलाफ भारतीय फौजें बार-बार रोडा बनकर खडी हुयी हैं|

भूटान से भारत की नजदीकी की वजहें?

भूटान की कुल साढे छह लाख की आबादी में भारतीयों की संख्या ६० हजार है| भूटानी बाजार और व्यापार पर भारतीयों का ही कब्जा है| इसके अलावा भारत सरकार को यह भी डर है कि लोकतंत्र कायम होते ही वह भूटान में अपने कठपुतली राजा का उपयोग नहीं कर सकेगा| मतलब यह कि एक तरफ जहां भारत सीधे आर्थिक लाभ के कारण स्थानीय राजनीति पर अपना दबदबा बनाये रखना चाहता है वहीं विस्तारवादी नीति के मद्देनजर कमजोर देशों में सामंती राजसत्ताओं को बनाये भी रखना चाहता है|

अमेरिका ने प्रस्ताव दिया है वह शरणार्थियों को कनाडा और दूसरे देशों में पुनर्वासित करेगा ?

मीडिया में आयी खबरों के आधार पर हमने नेपाली सरकार से बातचीत की तो पता चला कि अमेरिका की तरफ से इस बारे में कोई आधिकारिक सूचना नहीं हैं|हालांकि सांस्कृतिक, भौगोलिक विविधता की वजह से ऐसा होना संभव नही है| हुआ भी तो इसे स्थायी हल नही कहा जा सकता| अगर भूटानी शरणार्थियों का अमेरिका शुभचिंतक है तो भारत पर दबाव डाले कि वह शरणार्थियों को स्वदेश वापसी का रास्ता दे| क्योंकि भारत के रास्ते ही हम अपने देश भूटान जा सकते हैं|दूसरा यह कि भारत के लिये भी यह बेहतर नहीं कि हम अमेरिका में जाकर बसें|कैम्पों में भारत के खिलाफ बढ रही नफरत का कभी भी कोई साम्राज्यवादी देश इस्तेमाल कर सकता है|


अमेरिकी प्रस्ताव पर शरणार्थियों का क्या विचार है?

मिला-जुला असर है|शगूफा उठा कि अमेरिका जाने वाले फार्म पर दस्तख्त करने से १७,००० लाख नेपाली रुपये मिलेंगे| इस लालच में तमाम शरणार्थियों ने फार्म भरे| लेकिन एपिछले दिनों जब स्वदेश वापसी की पहल हुयी तो सभी भारत की सीमाओं की तरफ जुटने लगे| किसी ने नहीं कहा कि वह अमेरिका जायेगा| इसलिये कहा जा सकता है कि शरणार्थी अब इस कदर त्रस्त हो चुके हैं कि वह कहीं भी सम्मान और बराबरी की जिन्दगी चाहते हैं चाहे वह कनाडा हो या भूटान|

भारत के जिस राज्य की सीमा से शरणीर्थियों को भूटान जाना है वह पश्चिम बंगाल है| इस मसले पर वहां की वामपंथी सरकार का रूख कैसा रहा है|

लंबे समय बाद पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्ध्देव भट्टाचार्य ने २००७ के जून माह में आश्वासन दिया कि भूटानियों की समस्या का हल किया जायेगा| हालांकि इस वादे से हफ्ते भर पहले बंगाल पुलिस, असम पुलिस और सीआरपीएफ ने हमारे लोगों को गोलियों से भून डाला था| आखिरकार हम करें तो क्या करें| यह तो बडे देश के सामने छोटे देश की पीडा है|ऐसे में सच का एक बडा हिस्सा है कि समाधान भी उत्पीडक ही करेगा|

नेपाल का रुख?

सरकार चाहे किसी की रही हो नेपाल ने हमेशा आश्रय दिया है| हां यह कहना अतिरेक नहीं होगा कि माओवादी प्रमुख प्रचण्ड इस मामले को गंम्भीरता से लेते हैं| कुछ महीने पहले नेपाल दौरे पर आये अमेरिकी राष्ट्रपति जीमी कार्टर से भी प्रचण्ड ने समस्या के समाधान पर बातचीत किया था|