Aug 27, 2010

प्रगतिशील पक्षधरता का सांप्रदायिक वामपंथ


गृहमंत्री पी.चिदंबरम के  'भगवा आतंकवाद'बोलने पर भाजपा ने सख्त ऐतराज़ जताया है और 'भुगतने के लिए तैयार रहो'के अंदाज़ में सरकार को चेताया है.वहीं पिछले दशक भर से बेधड़क हो बोले,सुने और अपनाये जा रहे 'इस्लामी  आतंकवाद' पर कोई मुकम्मिल मुखालफत देखने को नहीं मिलती है. राजनितिक पार्टियों से उम्मीद को बेजा भी करार दिया जाये तो  जिस सभ्य समाज ने ‘छिनाल’शब्द  के लिए  विभूति के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और एक नौकरशाह लेखक को माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया,वही सभ्य समाज  विभूति द्वारा घोषणा की तरह इस्तेमाल किये गए ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर मौन क्यों  रहा ?

 फ़ज़ल इमाम मल्लिक

 लगा फिर किसी ने मेरे गाल में जोर से तमाचा जड़ दिया। तमाचा मारा तो गाल पर था लेकिन चोट कलेजे पर लगी। चोट इस बार कुछ ज्यादा लगी। इस झन्नाटेदार तमांचे की धमक अब तक मैं महसूस कर रहा हूं। दरअसल पिछले कुछ सालों से इस तरह की चोट अक्सर कभी गाल पर तो कभी दिल पर झेलने के लिए भारतीय मुसलमान अभिशप्त हो गया है। आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं ने हमेशा से ही देश के मुसलमानों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े किए हैं।

आतंकवाद की घटना कहीं भी घटे,देश के मुसलमान शक की निगाह से देखे जाते हैं.कुछ क़सूरवार और कुछ बेक़सूर लोगों की धरपकड़ की जाती है.उनके माथे पर आतंकवादी शब्द चस्पां कर दिया जाता है.इस तरह सैकड़ों ऐसे मुसलमानों को भी गिरफ्तार कर लिया गया जिनका आतंकवाद से कोई वास्ता नहीं था।


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ऐसे बहुत से लोगों को आदालतों ने बरी भी कर दिया. ऐसे एक-दो नहीं ढेरों मामले हमारे सामने हैं. इसके बाद भी आतंकवादी घटनाओं ने मुसलमानों के सामने बारहा परेशानी खड़ी की। वह तो भला हो साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों का जिनकी वजह से मुसलमानों की शर्मिंदगी बहुत हद तक कम हुई। इन कट्टर हिंदुओं ने मुसलमानों से बदला लेने के लिए ठीक वही रास्ता अपनाया जो मुसलमानों के नाम पर चंद कट्टर मुसलिम आतंकवादी संगठनों ने अपनाया.यानी ख़ून के बदले ख़ून।


इस खेल में काफ़ी दिन तक तो यह पता ही नहीं चल पाया कि अजमेर शरीफ,हैदराबाद के मक्का मस्जिद या मालेगाँव में धमाके में कुछ हिंदू कट्टरवादी संगठनों का हाथ है। इसका पता तो बहुत बाद में चला। इसके पहले तक संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज ‘इस्लामी आतंकवाद’का ही राग अलाप रहे थे। लेकिन साध्वी की गिरफ्तारी के बाद जब ‘हिंदू आतंकवाद’का राग अलापा जाने लगा और अख़बारों से लेकर चैनलों तक में ‘हिंदू आतंकवाद’मुहावरों की तरह प्रचलन में आया तो लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संघ परिवार के मुखिया तक हिल गए.वे सार्वजनिक तौर पर कहने लगे कि किसी धर्म पर आतंकवाद का ठप्पा लगाना ठीक नहीं है।

आडवाणी और उनकी पार्टी भाजपा के दूसरे नेता भागे-भागे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास पहुंचे और इस मामले की उच्चस्तरीय जांच की मांग कर डाली थी। भाजपा ने तो लगभग फैसला सुनाते हुए कह डाला कि साध्वी बेक़सूर हैं। देश के पूर्व गृहमंत्री रह चुके आडवाणी ने अदालती फैसले का इंतजार किए बिना ही साध्वी और उनकी ब्रिगेड को बरी क़रार दे दिया था।

याद करें तब साध्वी को गिरफ्तार करने वाले महाराष्ट्र के पुलिस अधिकारी हेमंत करकरे की निष्ठा और ईमानदारी पर आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी तक ने चुनावी सभाओं में किसी तरह सवाल उठाए थे। यही आडवाणी किसी मुसलमान की गिरफ्तारी पर इतने अधिक विचलित कभी नहीं दिखे.

लेकिन एक साध्वी ने उनके नज़रिए को बदल दिया। कांग्रेस सरकार (यहाँ यूपीए भी पढ़ सकते हैं)के मुखिया मनमोहन सिंह ने भी आडवाणी को जांच का भरोसा देकर अपने घर से विदा किया था. जबकि बटला हाउस,इशरत जहाँ या इसी तरह के दूसरे मुठभेड़ों की जांच की बार-बार मांग पर अपनी धर्मनिरपेक्ष सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह और धर्मनिरपेक्षता की अलमबरदार सोनिया गांधी ने एक शब्द नहीं बोला।

दरअसल कांग्रेस यह दोहरा चरित्र है,जहाँ हिंदू कार्ड चले वहां हिंदुओं को खुश कर डालो और जहां मुसलमानों को पुचकारना हो वहां मुसलमानों के लिए कुछ घोषणाएं कर डालो। कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी तौर पर बहुत फ़र्क़ नहीं दिखता है। एक खास तरह की सांप्रदायिकता से तो कांग्रेस भी अछूती नहीं है। कई लिहाज़ से कांग्रेस की यह सांप्रदायिकता ज्यादा ख़तरनाक है। कांग्रेस धीरे-धीरे मारने की कायल है जबकि भारतीय जनटा पार्टी या संघ परिवार जिंदा जला डालते हैं.

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यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है। कुछ तो आप बीती है और कुछ अपने जैसों पर बीतते देखी है। महाराष्ट्र पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने एक बार मुलाक़ात में कहा था कि महाराष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार ने आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को पकड़ने का मौखिक फ़रमान उन्हें जारी किया था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। नतीजा यह निकला कि उनका एक ऐसे विभाग में तबादला हुआ जहाँ उनके करने के लिए कुछ नहीं था।

राजनीतिक दलों ने देश के मुसलमानों को वोट से अधिक कुछ नहीं समझा। चुनाव के समय उन्हें झाड़-पोंछ कर बाहर निकाला,वोट लिया और फिर उसी अंधेरी दुनिया में जीने के लिए छोड़ दिया जहां रोशनी की कोई किरण दाख़िल नहीं हो पाती है।

रही-सही कसर आतंकवाद ने पूरी कर दी। आतंकवाद के नाम पर हुए दमन को देखकर अब तो खुद के मुसलमान होने पर डर लगने लगा है। पता नहीं कब कोई आए और आतंकवादी बताकर उठा ले जाए। लड़ते रहिए मुक़दमा और अपने माथे पर लगे आतंकवादी के बिल्ले को हटाने के लिए लगाते रहिए आदालतों के चक्कर।

चैनलों से लेकर अखबार तक बिना किसी पड़ताल के किसी भी मुसलमान पर आतंकवादी शब्द चस्पां कर देते हैं। ऐसे में ही अगर कोई ‘इस्लामी आतंकवाद’की बात करता है तो लगता है कि किसी ने गाल पर झन्नाटेदार तमाचा जड़ दिया हो। अमरीका में 9/11के हमले के बाद यह शब्द शब्द हमारे यहां पहुंचा है।

अमेरिका की ओएर से गढ़े गए‘इस्लामिक आतंकवाद’के मुहावरे को भाजपा और संघ परिवार ने फ़ौरन लपक लिया। साध्वी और उनके साथी की गिरफ्तारी के बाद उछले ‘हिंदू टेररज्मि’ के मुहावरे ने संघ परिवार के पेट में मरोड़ पैदा कर दिया. उन्होंने ‘हिंदू टेररज्मि’ के इस्तेमाल का विरोध किया. उनका कहना था कि ‘इस्लामिक आतंकवाद’ कहना भी ठीक नहीं है, यानी जब ख़ुद पर पड़ी तो ख़ुदा याद आया।

इस्लामिक आतंकवाद के इस्तेमाल का विरोध करते हुए मेरा तर्क था कि कोई भी धर्म आतंकवाद का सबक़ नहीं सिखाता.एक मुसलमान आतंकवादी हो सकता है लेकिन इस्लाम कैसे आतंकवादी हो सकता है। ठीक उसी तरह साध्वी प्रज्ञा के आतंकवादी होने से हिंदू धर्म को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता।

हैरानी,हैरत और अफ़सोस तब हुआ जब ‘इस्लामिक आतंकवाद’का इस्तेमाल एक साहित्यकार और ख़ुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार कहने वाला कोई व्यक्ति करता है। यह अफ़सोस तब और होता है जब वह व्यक्ति किसी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति भी होता है। वह व्यक्ति जब इस्लामिक आतंकवाद को राज्य की हिंसा से ज्यादा ख़तरनाक बताता है तो उसकी समझ, इल्म और धर्मनिरपेक्षता एक लम्हे में ही सवालों के घेरे में आ जाती है।

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वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को लेकर मेरी धारणा भी अब इसी तरह की है। इसी दिल्ली में उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के बीच अपने भाषण में ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ज़िक्र करते हुए राज्य की हिंसा का समर्थन किया था। हैरत इस बात पर हुई कि सभागार में मौजूद लोगों में से किसी ने भी उन्हें नहीं टोका कि ‘इस्लामी आतंकवाद’जैसे मुहावरे का इस्तेमाल एक पूरी क़ौम की नीयत,उसकी देशभक्ति और उसके वजूद पर सवाल खड़ा करता है।

इसका विरोध न तो समारोह के संचालक आनंद प्रधान ने किया और न ‘हंस’के संपादक राजेंद्र यादव ने,जिनका यह कार्यक्रम था। सभागार में मौजूद दूसरे लोगों ने भी इस ‘इस्लामी आतंकवाद’पर विभूति नारायण राय को घेरने की कोशिश नहीं की। मैं उस सभागार में मौजूद नहीं था। लेकिन अगर होता तो इसकी पुरज़ोर मुख़ालफ़त ज़रूर करता।

विभूति नारायण राय ने जो कुछ कहा था उसका लब्बोलुआब कुछ यूँ था,‘मैं साफ तौर पर कह सकता हूं कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच मुकाबला है और मैं हमेशा राज्य की हिंसा का समर्थन करुंगा।’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी जोड़ दिया था कि हम राज्य की हिंसा से तो मुक्त हो सकते हैं लेकिन इस्लामिक आतंकवाद से नहीं। मेरी कड़ी आपत्ति इन पंक्तियों पर हैं क्योंकि ऐसा कह कर विभूति नारायण राय ने एक पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा कर दिया है।

अगर भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस का कोई आदमी अगर इस तरह की बात करता तो समझ में आता भी है क्योंकि उनकी पूरी राजनीति इसी पर टिकी है लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले विभूति ने इस तरह की तो सवाल उठना लाज़िमी है। इस समारोह में उन्होंने कई आपत्तिजनक बातें कहीं। उन पर भी बहस होनी चाहिए थी और उनसे सवाल भी पूछे जाने चाहिए थे। ख़ास कर कि राज्य हिंसा की वकालत करने और इस एक इस्लामी आतंकवाद के फ़िकरे उछालने पर।

किसी विश्वविद्यालय के कुलपति और एक साहित्यकार से इस तरह की उम्मीद नहीं थी,हां एक पुलिस अधिकारी ज़रूर इस तरह की बात कर सकता है। चूंकि विभूति पुलिस अधिकारी पहले हैं और लेखक बाद में इसलिए उनके पूरे भाषण में उनका पुलिस अधिकारी ही बोलता रहा। इस बातचीत में बहुत ही ‘सभ्य तरीक़े’से उन्होंने अपने विरोधियों को धमकाया भी। हो सकता है कि ‘हंस’ के इस कार्यक्रम के बाद उनके भाषण पर बहस होती। उनके ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के फ़तवे पर विरोध होता लेकिन इससे पहले ही उनकी ‘छिनाल’सामने आ गई और इस ने उन्हें इस क़दर परेशान किया कि ‘इस्लामिक आतंकवाद’ और ‘राज्य हिंसा की वकालत’ जैसी बातें गौण हो गईं।

अपने तर्कों और कुतर्कों के सहारे विभूति ‘छिनाल’को जस्टीफाई करते रहे लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए और अंतत:उन्हें इसके लिए माफ़ी मांगनीपड़ी। लेकिन सवाल यहां यह भी है कि जिस सभ्य समाज ने ‘छिनाल’के लिए विभूति के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और उन्हें माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया उसी सभ्य समाज या लेखक वर्ग ने विभूति के ‘इस्लामी आतंकवाद’का उसी तरह विरोध क्यों नहीं किया जिस तरह ‘छिनाल’को लेकर हंगामा खड़ा किया।

मुझे लगता है कि यहां भी पैमाने अलग-अलग हैं। चूंकि मामला मुसलमानों से जुड़ा था इसलिए लेखकों को इस शब्द में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। यह भी हो सकता है कि बेचारा मुसलमान लेखकों के किसी ख़ेमे-खूंटे से नहीं जुड़ा है इसलिए उसके पक्ष में लामबंद होने की ज़रूरत किसी लेखक समूह-संगठन-मंच ने नहीं की।

विभूति नारायण राय ने ‘नया ज्ञानोदय’में छपे अपने इंटरव्यू में ‘छिनाल’शब्द पर यहाँ तक सफ़ाई दे दी उन्होंने इंटरव्यू में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था,इंटरव्यू करने वाले ने अपनी तरफ़ से इसे डाल दिया। लेकिन ‘इस्लामिक आतंकवाद’ का इस्तेमाल तो उन्होंने अपने प्रवचन में किया था सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में। यहां तो वे यह दलील भी नहीं दे सकते कि उन्होंने कहा कुछ था और छपा कुछ। यहां तो उनके ‘श्रीमुख’से ही उनके विचार फूटे थे। लेकिन ‘छिनाल’पर हायतौबा मचाने वालों के लिए ‘इस्लामिक आतंकवाद’का इस्तेमाल आपत्तिजनक नहीं लगा।

उनके लिए भी नहीं जो वामपंथ की ढोल ज़ोर-शोर से पीट कर धर्मनिरपेक्षता और सेक्युलर होने की दुहाई देते नहीं थकते हैं। उस सभागार में बड़ी तादाद में अपने ‘वामपंथी कामरेड’भी थे लेकिन वे भी अपने ख़ास एजंडे को लेकर ही मौजूद थे,जिसकी तरफ़ विभूति नारायण राय ने भी इशारा किया था। कामरेडों की यह फ़ौज भी विभूति नारायण राय के एक पूरी क़ौम को आतंकवादी क़रार देने के फ़तवे को चुपचाप सुनती रही। यह हमारे लेखक समाज का दोगलापन नहीं तो और क्या है। इसी दोगलेपन ने लेखकों और बुद्धिजीवियों की औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं रखी है.यही वजह है कि विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया महिलाओं को ‘छिनाल’कह कर भी साफ़ बच कर निकल जाते हैं और हम सिर्फ लकीर पीटते रह जाते हैं।

विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’पर तो माफ़ी मांग ली है। कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के मंत्री कपिल सिब्बल ने उनके माफ़ीनाम को मान भी लिया है। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’का इस्तेमाल कर इस्लाम धर्म को मानने वाली एक पूरी क़ौम के माथे पर उन्होंने जो सवालिया निशान लगाया है,क्या इसके लिए भी वे माफ़ी मांगेंगे या यह भी कि उन्हें अपने कहे पर माफी मांगनी नहीं चाहिए। या कि कपिल सिब्बल उनपर ठीक उसी तरह माफ़ी मांगने के लिए दबाव बनाएंगे जिस तरह से उन्होंने ‘छिनाल’ के लिए बनाया था।

क्या हमारा लेखक समाज विभूति नारायण राय के ख़िलाफ़ उसी तरह लामबंद होगा जिस तरह से ‘छिनाल’ के लिए हुआ था?