Mar 11, 2011

पूंजीवादी गणतंत्र में वामपंथी विफलता



वामपंथियों को अपना सांगठनिक ढाँचा बदलना पडे़गा और उसे खुला और जनवादी बनाना पड़ेगा।  दूसरा भारत की बड़ी आबादी युवा है,उस युवा वर्ग को वामपंथ क्या ऑफर करता है, उसे देने के लिए क्या है...

 अनिल राजिमवाले

भारतीय सन्दर्भों में वामपंथ को समझना पडे़गा कि चूक कहाँ हुई है?उसने अवसरों का फायदा क्यों नहीं   उठाया? आजादी के बाद भारतीय राजनीति में वामपंथ का उभार एक शक्ति, एक विकल्प के रुप में हुआ जिसमें आगे चलकर ठहराव आ गया और अन्ततोगत्वा अब उसका जनाधार तुलनात्मक रूप से लगातार घट रहा है।

केरल में 1957 में कम्युनिस्ट दुनिया में पहली बार चुनकर सत्ता में आए यह वामपंथी आंदोलन के लिए नया अनुभव और भारतीय वामपंथ का दुनिया के कम्युनिस्ट इतिहास में बड़ा योगदान था।  पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार का चुना जाना और लम्बे समय तक शासन करना भी एक बड़ी उपलब्धि थी परन्तु भारतीय वामपंथ की यह उपलब्धियाँ देश की राजनीति में कोई विकल्प नहीं बन सकीं । हालाँकि  भूमि सुधार, कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने और साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने जैसे अच्छे काम भी किए।

दरअसल देश में वामपंथ को माडल बनाने के जो  मौके मिले जिसका कम्युनिस्ट फायदा नहीं उठा पाए। उन्हें समझना चाहिए था कि पूँजीवादी संविधान के दायरे में रहते हुए वे क्या बेहतर कर सकते थे, जिससे वामपंथ को देश की राजनीति में एक विकल्प के तौर पर उभरने का मौका मिल पाता। इसके अलावा हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वर्तमान भारतीय संविधान की बहुत सारी बातें वाम जनवादी संघर्षों  का ही नतीजा हैं।

मसलन भारतीय संविधान और गणराज्य का धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी स्वरूप जिसे आज दक्षिणपंथी शक्तियाँ और पूँजीवाद लाख कोशिशों के बाद भी बदलवाने में सक्षम नहीं हो सके हैं। इसी संविधान के दायरे में रहते हुए वामपंथ जहाँ वह सत्ता में है,विकास का एक नया एवं वैकल्पिक मॉडल   तैयार कर सकता था। उसके पास शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं  का एक सार्वजनिक तंत्र विकसित करने का अवसर हमेशा था जिसका वामपंथ ने लाभ नहीं उठाया। वे सत्ताधारी राज्यों में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का एक बेहतरीन मॉडल  बनाकर पेश कर सकते थे। सार्वजनिक क्षेत्र की यातायात व्यवस्था का विकास किया जाना चाहिए था.

वामपंथी लैटिन अमरीकी माडल

लैटिन अमरीका के वामपंथ की अपनी कुछ विशेषताएँ हैं। उन्होंने पार्टी, सरकार और जनवाद से जुड़ी हुई कुछ स्थापित परम्पराओं और अवधारणाओं को छोड़ा है। लैटिन अमरीका में एक तरह से वामपंथ का नवीनीकरण हुआ है, विशेषतया चुनावों के संदर्भ में उन्होंने शानदार कामयाबी हासिल की है। कई वामपंथी नेता बार-बार चुनकर आ रहे हैं और उस पर कमाल यह कि लैटिन अमरीकी देशों की सेनाएँ भी उनका साथ दे रही हैं। इस वामपंथ की एक और विशेषता है कि इन बदलावों में युवा और महिलाओं की खास भागीदारी है।

पूरे लैटिन अमरीका के वामपंथी बदलाव में एक समान कारक भी हैं कि ये आंदोलन मूल रुप से साम्राज्यवाद विरोधी हैं। लैटिन अमरीकी घटनाएँ पूंजीवाद की भीतरी संभावनाओं का कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है,उसका नायाब उदाहरण हैं। ये वामपंथी आंदोलन पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने का नारा नहीं दे रहे हैं,केवल साम्राज्यवाद विरोध का नारा दे रहे हैं और यहाँ वामपंथ समाज का स्वाभाविक हिस्सा बनकर उभरा है.

दक्षिण अफ्रीकी वामपंथ

दुनिया में वामपंथ के इन दो रूपों के अलावा वामपंथ का तीसरा प्रयोग दक्षिण अफ्रीका है। इस दक्षिण अफ्रीकी वामपंथ की जडे़ं उसकी आजादी के राष्ट्रीय आंदोलन में हैं। दक्षिण अफ्रीकी वामपंथ के अभिन्न अंग कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि वह कभी भी दक्षिणी अफ्रीकी राष्ट्रीय आंदोलन से अलग नहीं हुई.

राष्ट्रीय आंदोलन में भागीदारी के प्रमुख हिस्से के तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी हमेशा अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का हिस्सा रही है। सरकार संचालन और देश के विकास की नीतियों को प्रभावित करने के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी दक्षिण अफ्रीका के राजनैतिक जीवन का स्वाभाविक अंग बनी रही और उसने कभी ऐसा महसूस नहीं होने दिया कि कुछ भी असामान्य हो रहा है।


गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल की यातायात व्यवस्था का अधिकांश हिस्सा निजी हाथों में है। आज दिल्ली की मेट्रो जो देशभर में चर्चा का विषय है. उसकी जगह उससे कहीं बहुत पहले बनी कलकत्ता की मेट्रो को अधिक विकसित करके देशभर के सामने एक उदाहरण  की तरह पेश किया जा सकता था। आज के बडे़-बड़े माल्स की जगह सुपर मार्केट्स का निर्माण किया जा सकता था जो पहले कईं जगह पर रहे भी हैं। वाम शासित राज्यों  खासतौर पर पश्चिमी बंगाल में बेहतर न्युनतम् वेतन देने और उसे ईमानदारी से लागू करवाने का विकल्प बनाकर देश के सामने एक प्रेरणाप्रद काम किया जा सकता था, जिसमें वामपंथ विफल रहा है।

असल में एक वामपंथी सरकार को एक मॉडल  की तरह होना चाहिए था। परन्तु अपनी कईं विशेषताओं के बावजूद पश्चिमी बंगाल दूसरे राज्यों से ज्यादा पिछड़ा राज्य बनकर रह गया। जिस कारण भ्रष्टाचार संस्थागत रूप धारण कर गया और एक विशेष सुविधा प्राप्त शासकीय वर्ग पैदा हो गया जिसने जनता को अन्ततोगत्वा अपना दुश्मन बना डाला। इससे यह भी सीख मिलती है कि एक सही वामपंथी मोर्चा और गलत वामपंथी मोर्चा चलाने में क्या फर्क होता है। वामपंथी मोर्चा केवल पार्टियों का नहीं आम तबको का, आम आदमी का मोर्चा होना चाहिए।

जब तक वामपंथ इस व्यवस्था की खूबियों और खामियों को नहीं समझेगा तब तक इस व्यवस्था को अपने पक्ष,अपने फायदे में प्रयोग करने में नाकाम रहेगा। इसी संसदीय व्यवस्था के तहत ही दक्षिणपंथी शक्तियों को कमजोर किया जा सकता है क्योंकि दक्षिणपंथ बुनियादी तौर पर लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक संसदीय व्यवस्था के खिलाफ होता है। यही कारण है कि दक्षिणपंथ समय-समय पर लोकतंत्र व संसदीय व्यवस्था की धर्मनिरपेक्ष एवं जनवादी परम्पराओं और अवधारणाओ पर हमले करता है। 

 वामपंथ की जिम्मेदारी है कि वह संसदीय व्यवस्था की खूबियों का इस्तेमाल करे और दक्षिणपंथ को कमजोर करते हुए जनता के पक्ष में काम करने के लिए इस व्यवस्था का उपयोग करे और उसकी कमियों को दूर करने के लिए संघर्ष भी करे। वामपंथी जब संसदीय व्यवस्था में शामिल होते हैं तो उनके लिए सारे संदर्भ बदल जाते हैं और इन्हीं नए संदर्भों में वामपक्ष को समझना पड़ेगा  कि उन्हें इस व्यवस्था में काम कैसे करना पडे़गा। 1957 में संसदीय राजनीति में आने के साथ ही सत्ता में आया वामपंथ अभी भी संसदीय जनतंत्र को समझने में पिछड़ रहा है।

गणतंत्र जनता का हथियार है और उसे जनता के अनुसार उसकी बेहतरी के लिए ही मास्टर करना पडे़गा क्योंकि जनता कोई काल्पनिक चीज नहीं है। इसके लिए वामपंथियों को अपना सांगठनिक ढाँचा भी बदलना पडे़गा और उसे खुला और जनवादी बनाना पडे़गा। कुछ भी छिपाकर आज के दौर में काम नहीं चलेगा. अब तो पूँजीवादी दल तक छिपा पाने में असमर्थ हैं। कुछ नेताओं और गुटों तक सांगठनिक सत्ता को नियन्त्रित एवं केंद्रित वाली कार्यप्रणाली को बदलना ही होगा। इसके अलावा भारत की बड़ी आबादी युवा है.अब सवाल यह है कि उस युवा वर्ग को वामपंथ क्या ऑफर करता है, उसे देने के लिए उसके पास क्या है। इन सवालों को हल किए बगैर वामपंथ आगे नहीं बढ़ सकता है।

इसके अलावा भ्रष्टाचार भी आज एक बड़ा सवाल है कि क्या भ्रष्टाचार से मुक्त सरकार चलाई जा सकती है। सी0अच्युतामेनन की सरकार ने 1969में यह करके दिखा दिया जिससे सीख ली जा सकती है। इसके अलावा जनहित में भी कईं काम अच्युतामेनन सरकार ने किए जिनसे सीख ली जा सकती है,जैसे पूर्ण भूमि सुधार,सबको शिक्षा की उपलब्धि और दलितों के लिए एक लाख आवास आदि।

(महेश राठी से बातचीत पर आधारित)  

 
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के शिक्षा विभाग से संबद्ध और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी. समय-समय पर मार्क्सवादी दर्शन को नए वैज्ञानिक विकास से जोड़कर विकसित करने की कोशिश.




बंद हो शादी के लिए पढाई


शिक्षा में आ रही बाधाओं के निराकरण के लिए जिला स्तर पर समिति का गठन हो और गांव में शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के साथ ही तकनीकी शिक्षा से लड़कियों को जोड़ा जाये...

संजीव कुमार

पहले महिलाओं के लिए शिक्षा का उद्देश्य अच्छा वर पाने की संभावना और सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए पढ़ाई करना ही था, जिसका रास्ता शादी के बाद रूक जाता था। लेकिन दशक भर से शिक्षा के प्रसार से गांव-देहात और शहरों के पिछडे -गरीब  परिवारों में स्कूल भेजने का चलन धीरे-धीरे बढ़ा है. दूसरा लोगों को भी लगने लगा है कि  महिलाओं के लिए शिक्षा का सशक्तिकरण ही समाज में बराबरी का असल तरीका है.


शिक्षित महिला : सशक्त समाज
 उन्हें घर में चौकाबर्तन और सिलाई, कढ़ाई, के कार्यों तक ही सीमित कर दिया जाता था। सन् 1946 में अविभाजित भारत के विश्वविद्यालयों में या उनके विभिन्न शाखाओं में 45000 स्त्रियां ही थी।उस समय की स्थिति के अनुसार विद्यार्थियों के प्रतिशत के हिसाब से 100पुरुष विद्यार्थियों के पीछे करीब 11 महिला विद्यार्थी ही शिक्षा ग्रहण कर रही थी। आठवें  दशक के अंत में शिक्षा ग्रहण करने वाली लड़कियों की संख्या आठ लाख तक पहुंच गयी।

देश की आजादी के बाद और पाकिस्तान के निर्माण के साथ ही यह अनुपात 11 से बढ़कर 29 तक पहुंचा। आज यहां देश में लड़कियां पारिवारिक व सामाजिक परम्पराओं को निभाती हुई कला, साहित्य, तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ रही है। वहीं महिलाएं पुरुषों के मुकाबले बौद्धिक क्षेत्र. में कहीं भी पीछे नहीं है।

प्रशासनिक सेवा राजनीतिक क्षेत्र में तमाम ऐसे महिलाओं के व्यक्तित्व है जो महिला सशक्तिकरण के लिए मिसाल बने हुए हैं,लेकिन इन सब बढ़ोत्तरी के बाद भी संसार के सभी निरीक्षरों में भारत प्रमुख  है। इसमें महिलाएं सबसे अधिक है। महिला को साक्षर और शिक्षा के अभियान में अब तक जितना आगे आ जाने चाहिए था वह इतना आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।

एसोसिएशन आफ इंडियन यूनिवर्सिटीज के आंकड़ों के अनुसार देश में 35 प्रतिशत महिलाएं जो कि 15 वर्ष से अधिक की है शिक्षा प्राप्त कर सकी है, जबकि दुनिया के अन्य देशों में यह आंकड़ा 85 और 90 प्रतिशत तक है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश में महिला निरीक्षरता आज भी अत्यधिक है। जबकि इनके मुकाबले केरल, हिमाचल, कर्नाटक, तमिलनाडू, गोवा में महिलाएं शिक्षा के सहारे आत्मनिर्भर बनी हुई है।

हाल ही में जनगणना अभियान 2011 द्वितीय चरण पूरा हुआ है। इस बार इस जनगणना के द्वारा देश भर के शैक्षिक सामाजिक और आर्थिक महिलओं से जुड़े हुए आंकड़े सामने आयेंगे। जनगणना 2001 के अनुसार महिला साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 53.7 था। राष्ट्रीय स्तर पर जुटाये गये आंकड़ों के अनुसार नगरीय क्षेत्र में महिला साक्षरता दर जहां 72.9थी,वहीं ग्रामीण अंचलों में यह 46.1 प्रतिशत थी। यही स्थिति महिला कार्य सहभागिता दर के साथ ही लिंगानुपात में भी है।

महिला सशक्तिकरण के लिए सबसे पहले समाज में लिंग अनुपात में आ रहे असंतुलन को ठीक करना होगा। इसके लिए कन्या भ्रूण हत्या के विरूद्ध समाज की मानसिकता बदलनी होगी। क्योंकि बेटियां भी अपनी आंखों में लड़कों जैसे सपने रखती है और आत्मनिर्भर बनना चाहती है।

सरकारी स्तर पर महिलाओं के कल्याण के लिए संवैधानिक और नैतिक तरीकों से महिला सशक्तिकरण व उनके शिक्षा के सशक्तिकरण के लिए काम करने की अधिक आवश्यकता है। महिलाओं को शिक्षित करने के लिए उन्हें स्नातक स्तर तक अनिवार्य मुफ्त शिक्षा दी जाये। सामाजिक और पारिवारिक कारणों से शिक्षा में आ रही बाधाओं के निराकरण के लिए जिला स्तर पर समिति का गठन हो और गांव में शिक्षा व्यवस्था को दुरूस्त करने के साथ ही तकनीकी शिक्षा से लड़कियों को जोड़ा जाये।

लिंग समानता के साथ ही बालिकाओं के पोषण पर ध्यान दिया जाये। तभी समाज में महिला और बालिकाओं की शिक्षा में प्रगति होगी और महिला सशक्तिकरण का एक नया रूप देखने को मिलेगा।


(लेखक पत्रकार हैं, उनसे    goldygeeta@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है.)