Apr 26, 2011

चाटुकार नौकरशाहों को चांदी का चम्मच


बड़े अफसरों का अधिकतर समय समाजसेवा और डयूटी निभाने की बजाए चमचागिरी,चरण वन्दना,गणेश परिक्रमा और जूते चमकाने में बीतता है। ऐसे में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने वाले अधिकारी व्यवस्था की आंख में चुभते हैं...

आशीष वशिष्ठ  

कुछ दिन पहले मीडिया में उत्तर प्रदेश  के एक पुलिस आफिसर को मुख्यमंत्री मायावती के जूते साफ करते देखा गया था। ऐसा करने वाले वाले अफसर पद्म सिंह थे। विपक्षी दलों ने सीएम के इस कृत्य को सामंतवाद की संज्ञा दी और खूब हो-हल्ला मचाया, तो वहीं सरकारी नुमांइदों ने सुरक्षा का वास्ता देकर पद्म सिंह के कृत्य को जायज ठहराया। दो-चार दिन की चर्चा और तकरार के बाद मामला रफा-दफा हो गया,लेकिन पद्म सिंह ने जो कुछ भी किया वो अपने पीछे कई अनुत्तरित प्रश्न जरूर छोड़ गया। 

 सोनावणे  : ईमानदारी के हवाले हुई जिंदगी
असल में देखा जाए तो पद्म सिंह ने चाटुकारिता के क्षेत्र में बहादुरी दिखाई और मैडम मायावती का जूता चमकाने में गुरेज नहीं किया, लेकिन देश के दूसरे जितने भी पद्म सिंह हैं उनमें इतनी हिम्मत नहीं है कि वो अपने मालिकों, सरपरस्तों और आकाओं के सरेआम जूते साफ कर पाएं। सही मायनों में देखा जाए तो देश में सारी व्यवस्था का “पद्मीकरण” हो चुका है और ईमानदार, कर्मठ, सच्चे तथा जनता के दुःख-दर्द को समझने वाले नौकरशाहों को धेले बराबर भी महत्व नहीं दिया जाता है।

इनमें पहला नाम एसपी अमिताभ ठाकुर का है। अमिताभ 1992बैच उत्तर प्रदेश काडर के आईपीएस अधिकारी हैं और वर्तमान में मेरठ जनपद में एसपी आर्थिक अपराध शाखा (ईओडब्लू) में तैनात हैं। 19 साल की नौकरी में लगभग 10 जिलों में एसपी के अलावा विजीलेंस, इंटेलिजेंस, सीबी-सीआईडी और पुलिस प्रशिक्षण आदि में अपनी सेवाएं दे चुके अमिताभ की गिनती प्रदेश के कर्मठ, ईमानदार, सच्चे, जनपक्ष को तरजीह देने वाले अधिकारियों में होती हैं। लेकिन राजनीतिक आकाओं की हां में हां, न मिलाने के कारण आज 19 साल की नौकरी के बाद भी अमिताभ एसपी ही हैं।

ईमानदार अधिकारियों की इसी कड़ी में अगला नाम 2002 बैच के भारतीय वन सेवा के हरियाणा कैडर के संजीव चतुर्वेदी का है। आईएफएस संजीव चतुर्वेदी ने जब हरियाणा वन विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार की परतें खोलनी शुरू की तो उन पर विभागीय और राजनीतिक हमला शुरू हो गया। परिणाम के तौर पर उन्हें चार साल की नौकरी में ग्यारह बार ट्रांसफर भुगतना पड़ा। इतने के बाद भी सरकार और भ्रष्ट आला अधिकारियों का मन नहीं भरा तो अनाप-शनाप,आधारहीन और तथ्यहीन आरोप लगाकर संजीव को संस्पेंड करके ही दम लिया। संजीव का अपराध इतना ही था कि जिस भी जिले में उनकी नियुक्ति हुई,वहां भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे वन विभाग की असलियत सामने लाने का उन्होंने हर बार साहस किया।

आखिरकार अपने को सही साबित करने के लिए आइएफएस संजीव चतुर्वेदी को अदालत का सहारा लेना पड़ा, जिसके बाद संजीव को पुनः सेवा में बहाल हो पाए। ये है हमारी व्यवस्था- जहां ईमानदारी, निष्पक्षता, सच्चाई, समाजसेवा और राष्ट्रप्रेम की कसमें तो बहुत खाई और खिलाई जाती हैं, लेकिन जब कोई शख्स इस रास्ते पर चलने का प्रयास करता है तो भ्रष्ट, बईमान, कामचोर, और नियमों का उल्लघंन करने वालों की फौज उसके कदम-कदम पर कांटे बिछाने और परेशान करने में जुट जाती है।

अमिताभ और संजीव की भांति ही सच्चाई,ईमानदारी, कर्तव्यपरायण और जन का पक्ष लेने वाले कई अधिकारी और कर्मचारी साइड लाइन लगा दिये जाते हैं। पिछले वर्ष बरेली,उत्तर प्रदेश में एसपी ट्रेफिक के पद पर तैनात 1990बैच की पीसीएस अधिकारी कल्पना सक्सेना को सूचना मिली की उनके मातहत पुलिसकर्मी ट्रक वालों से अवैध वसूली कर रहे हैं तो उन्हें रंगे हाथों पकड़ने पहुंची। वह भ्रष्ट  पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाई करतीं, उससे पहले ही उनके मातहतों ने जीप के साथ एक-डेढ़ किलोमीटर उन्हें घसीट डाला। बुरी तरह से घायल और चोटिल कल्पना को अस्पताल में भर्ती करवाया गया और कार्रवाई के तौर पर पांच पुलिसवालों को संस्पेंड कर दिया गया।

आनंद मोहन और लवली आनंद : कृष्णैया के हत्यारे   
कल्पना जैसे इमानदार और साहसी पुलिस वालों की गिनती उंगुलियों पर की जा सकती है। ऐसे ही एक अधिकारी थे आईएएस जी.कृष्णैया। बिहार कैडर के 1985 बैच के आइएएस रहे जी. कृष्णैया की 5 दिसंबर 1994 को आनंद मोहन के गुंडों ने सरेआम हत्या कर दी थी। कृष्णैया ने प्रदर्शन  और जुलूस  निकाल रही भीड़ जिसका नेतृत्व आंनद मोहन सिंह और उनकी पत्नी लवली आनंद सिंह कर रही थी, को रोकने का प्रयास किया था। तत्कालीन बीपीपी के नेता और माफिया आनंद मोहन सिंह को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने ईमानदारी से अपनी डयूटी निभा रहे युवा अधिकारी को मरवा डाला।

महाराष्ट्र के नासिक जिले के एडीएम यशवंत सोनावणे ने तेल माफियाओं पर नकेल डालने की कोशिश की तो भ्रष्ट व्यवस्था और तेल माफियाओं के गठजोड़ ने सोनावणे को जिंदा जलाकर मार डाला। सोनावणे की तरह वर्ष 2005 में इंडियन आयल कारपोरेशन के युवा, कर्मठ और ईमानदार ब्रिकी अधिकारी मंजूनाथ की भी हत्या मिलावटखोर पैट्रोल पंप मालिक और उसके गुर्गों ने कर दी थी। वर्ष 2003 में नेशनल हाइवे अथॉरिटी आफ इण्डिया के इंजीनियर सत्येन्द्र नाथ दुबे की भी हत्या नेताओं और माफियाओं के गठजोड़ ने की थी।

असल में जो भी अधिकारी या कर्मचारी ईमानदारी से अपने कामों को करता है,वह भ्रष्ट व्यवस्था की आंखों की किरकिरी बन जाता है। वर्ष 1994बैच के उत्तर प्रदेश के पीसीएस अधिकारी शैलेन्द्र सिंह ने अपने पद से भ्रष्टाचार के इसी मकड़जाल से आजिज होकर इस्तीफा दे दिया था। वर्ष 2004 में शैलेन्द्र सिंह की नियुक्ति वाराणसी में एसटीएफ यूनिट के हेड के तौर पर हुई थी। सेना से एलएमजी चोरी और उसे पूर्वांचल के अपराधियों को बेचे जाने के कांड का भंडाफोड़ करना ही ईमानदार और कर्मठ शैलेन्द्र सिंह के नौकरी छोड़ने का कारण बना।

प्रदेश सरकार से लेकर मीडिया तक सभी को भलीभांति मालूम था कि इस कांड में मऊ के तत्कालीन विधायक का हाथ है। शैलेन्द्र ने अपनी जांच रिपोर्ट में विधायक पर पोटा लगाने की सिफारिश की थी। तमाम सुबूतों के बावजूद सरकार ने शैलेन्द्र पर दबाव डालना शुरू कर दिया और वाराणसी की एसटीएफ यूनिट को ही बंद कर दिया। लेकिन उसूल के पक्के,ईमानदार और आत्म सम्मान के लिए जीने वाले शैलेन्द्र ने राजनीतिक व्यवस्था और भ्रष्टाचार से क्षुब्ध होकर अपना इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया।

आज बड़े अफसरों का अधिकतर समय समाजसेवा और डयूटी निभाने की बजाए चमचागिरी,चरण वन्दना,गणेश परिक्रमा और जूते चमकाने में ही बीतता है। ऐसे में टीएन शेषन,जीआर खैरनार, किरण बेदी, आरवी कृष्णा, अमिताभ ठाकुर, कल्पना सक्सेना, संजीव चतुर्वेदी, मंजूनाथ, यशवंत सोनावणे, शैलेन्द्र सिंह, सत्येन्द्र दुबे, जी. कृष्णैया और उन जैसे दूसरे अधिकारी शुरू से ही व्यवस्था की आंखों में चुभते रहे हैं।

भ्रष्टाचार में लिप्त रहे अखंड प्रताप सिंह, नीरा यादव, गौतम गोस्वामी, अरविन्द जोशी, टीनू जोशी आदि जैसे दूसरे सैकड़ों अधिकारी व्यवस्था की आंखों के तारे हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठे तथाकथित माननीय यही चाहते हैं कि वो जो कुछ भी करें कार्यपालिका उनके कर्मों में बराबर की भागीदार बने और उनके कुकृत्यों में शामिल रहे। और जो गिने-चुने व्यवस्था या लीक से हटकर चलने की कोशिश करते हैं, उनका बोरिया-बिस्तर हमेशा बंधा ही रहता है या फिर उनका समय संस्पेंशन में बीतता है।



लखनऊ के रहने  वाले आशीष वशिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं और नौकरशाहों से जुड़े मसलों पर लिखते हैं.