Dec 12, 2010

विपक्ष विहीन बिहार




बेशक यह सवाल है कि जिस विपक्ष ने 15साल के शासन के दौरान राजसत्ता का सुख भोगा,जनता का उपहास उड़ाया और प्रदेश को जंगलराज बना छोड़ा,उसे जनता ने वोटतंत्र के जरिए उसकी औकात बताई तो इसमें गलत क्या है?


पंकज कुमार

बिहार विधानसभा के जनादेश पर जनता खुश है और विश्लेषक जनता के इस ऐतिहासिक फैसले पर। हर तरफ लोग नीतीश सरकार की विकास के उचित निर्णयों को शाबासी दे रहे हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मौजूदा  समय में संभवतः एममात्र ऐसे नेता हैं जिनकी सार्वजनिक चर्चाओं के बीच विरोधी कम मिल रहे हैं।

मगर इस जीत साथ ही जो हार जुड़ी है,क्या वह ऐतिहासिक नहीं है,क्या वह जनता पक्ष नहीं है,क्या इसका विश्लेषण नहीं किया जाना चाहिए। विश्लेषण इस बात का कि विकास की आस में अति उत्साहित होकर कहीं जनता जनार्दन ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मार ली, कहीं चूक तो नहीं हो गई!


बिहार के मुख्यमंत्री: जनता है तो क्या गम है
ये सवाल इसलिए कि जिस जनता ने नीतीश सरकार को सिर-माथे पर बैठाकर सत्ता की चाभी दोबारा सौंपी है, उन्हीं लोगों ने जनता की आवाज उठाने वाले विपक्ष को मरणासन्न स्थिति तक पहुंचा दिया है। वह भी ऐसे वक्त में जब देश में विपक्ष की स्थिति बहुत दयनीय और असंगठित है।

बेशक यह सवाल है कि जिस विपक्ष ने 15साल के शासन के दौरान राजसत्ता का सुख भोगा,जनता का उपहास उड़ाया और प्रदेश को जंगलराज बना छोड़ा,उसे जनता ने वोटतंत्र के जरिए उसकी औकात बताई तो इसमें गलत क्या है?लेकिन लोकतंत्र का इतिहास रहा है कि कमजोर विपक्ष सत्तासीन को निरंकुश बनाता है और मजबूत विपक्ष जनता की आवाज को शासन तक पहुंचाता है।


दरअसल,विपक्ष सत्तासीन पार्टी को अपने कर्तव्यों और जिम्मेदारियों  का अहसास कराता है। प्रजातंत्र में विपक्ष का यह दायित्व होता है कि वह सरकार के कामकाज पर नजर रखे,उस पर अंकुश लगाए,गरीबों-ग्रामीणों एवं शोषित वर्गों के लिए संघर्ष करे,जनता का पक्षधर बनकर सरकार की नीतियों और योजनाओं पर सवाल उठाए और उनके साथ मिलकर उनकी मांगों के समर्थन में आंदोलन करे। 


बिहार विधानसभा के पहले सत्र का पहला दिन सदन के अंदर विपक्ष के लगभग खोए हुए अस्तित्व का अहसास करा गया। क्योंकि 243 विधानसभा सदस्यों में 206 सीटों पर सत्ताधारी दल छाया हुआ था, जबकि मात्र 37 सीटों पर समूचा विपक्ष सिमटा नजर आया, जिनका मनोबल गिरा हुआ था।

इसकी एक बड़ी वजह विपक्ष का नेता बनने के लिए पार्टी विशेष के पास कुल सीटों का 10 प्रतिशत यानी 243 सीटों में से कम से कम 25 सीटों का नहीं होना भी रहा। इस बार प्रमुख विपक्षी राजद (राष्ट्रीय जनता दल) को महज 22 सीटें ही मिली। हालांकि विधानसभा अध्यक्ष चाहे तो चुनाव से पहले किये गये गठबंधन की कुल सीटों के आधार पर विपक्ष का नेता तय कर सकता है। अगर ऐसा होता है तो राजद के अब्दुल बारी सिद्दिकी सदन में प्रतिपक्ष के नेता की भूमिका  निभाएंगे।

आंकड़ों के लिहाज से देखा जाये तो बिहार विधानसभा के इतिहास में विपक्षी सदस्यों की इतनी कम संख्या कभी नहीं रही। आजादी के बाद के बिहार विधानसभा के इतिहास को पलटें तो किसी भी विपक्षी पार्टी को मिली अब तक की सबसे कम सीटें हैं।

पंद्रहवें विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी आरजेडी को महज 22सीटें मिली,जो कुल सीटों का 9.05 प्रतिशत है। जबकि समूचा विपक्ष (37 सीट) 15.23 प्रतिशत है। 2010 से पहले ऐसे हालात आजादी के बाद हुए पहले बिहार विधानसभा चुनाव में ही देखने को मिले थे।


वर्ष 1951 के विधानसभा चुनाव में 330 सदस्यों वाले सदन में मुख्य विपक्षी दल झारखंड पार्टी को 32 सीटें मिली, जो कुल सीटों का 9.70 प्रतिशत था। जबकि कुल विपक्षी सदस्यों की संख्या 91 थी, जिनका प्रतिशत 27.58 रहा। ऐसे ही हालात 1957 के चुनाव में भी देखने को मिले। तब कांग्रेस को 318 में से 210 सीटें मिली। दूसरे दलों झारखंड पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को 31-31 सीटें मिली, जिन्होंने कुल सीटों की 9.57 फीसदी सीटें हासिल कीं।

लेकिन तीसरी से 14वीं विधानसभा तक बिहार की जनता ने विपक्ष को मजबूत बनाए रखा और उसकी प्रासंगिकता बनी रही। यही वजह रही कि जनता ने समय-समय पर बिहार में चौंकाने वाले और भारतीय राजनीति को नई दिशा देने वाले फैसले दिये। चाहे बात 70की दशक की हो या मंडल के बाद की राजनीति की या फिर मंडल-कमंडल के मंथन से निकले लालू राज की या फिर जंगलराज बनाम सुशासन की लड़ाई के बीच विकास परख जीत की।



राजद प्रमुख लालू प्रसाद : अबकी जनता ने तफरी  ली

दरअसल बिहार के नीतीशकरण के संदर्भ में यह समझना बेहद जरूरी है कि जेडी (यू)-बीजेपी गठबंधन ने लालू की खींची लकीर के आगे विकास की बड़ी लकीर ही खींची है,जिसने राज्य और राज्य के बाहर सकारात्मक माहौल बनाने का काम किया।

नीतीश के पांच साल का कार्यकाल राजद से बेहतर रहा,क्योंकि उनका सामना मजबूत विपक्ष से होता रहा। नीतीश पर अपना हर फैसला विवादों से दूर जनहित में लेने का दबाव था,क्योंकि उन्हें सत्ता से दूर होने का डर भी था। जेपी के छात्र आंदोलन की तपिश में जन्मे नीतीश कुमार के सामने लालू से बेहतर छवि और जनआकांक्षाओं पर खरा उतरने का दबाव संख्या बल में मजबूत विपक्ष के कारण ही रहा। यह एनडीए के सामने सड़क,बिजली,पानी,रोजगार,सुरक्षा जैसे मुद्दों पर विपक्ष के नकारात्मक प्रचार को गलत साबित करने और काम के जरिए जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने का दबाव काम करता रहा।

सिर्फ नीतीश कुमार को सड़क,बिजली और बेहतर कानून-व्यवस्था से ही विकास पुरुष कहना उचित नहीं होगा, बल्कि असल चुनौती अभी बाकी है। इनमें कृषि की खस्ता हालत चिंता का विषय है। बिहार की 80फीसदी अर्थव्यवस्था कृषि आधारित है, लेकिन एनडीए शासनकाल में कृषि विकास दर नकारात्मक रही है।

राज्य सरकार भले ही एक लाख शिक्षकों की भर्ती कर शिक्षा में सुधार का दावा करें, लेकिन हकीकत ये है कि जिन शिक्षामित्रों की बहाली की गई उनका खुद का शैक्षणिक स्तर सवालों के घेरे में है। इसके अलावा भूमिहीन दलितों को जमीन आवंटन,सिंचाई के लिए पर्याप्त बिजली,चीनी मिलों का जीर्णोद्धार,बेहतर माहौल के बावजूद रोजगार अवसरों का सृजन, प्रशासन में घूसखोरी-लालफीताशाही रोकने, शराब के ठेकों पर अकुंश लगाने जैसे तमाम मुद्दे हैं, जिन पर विकास पुरुष नीतीश कुमार असफल ही रहे हैं।


ऐसे में जनता का प्रतिनिधित्व और उसकी आवाज विधानसभा में उठाने का काम सरकार को जनता से किए वादे को निभाने के लिए विपक्ष ही आवाज बुलंद करेगा। ताकि विशाल बहुमत वाले सरकार की मजबूत दीवारों को झकझोरा जा सके।

विकास की आस में ऐतिहासिक जनादेश देकर भारतीय राजनीति की नई कहानी गढ़ने वाले एनडीए गठबंधन की जीत बिहार की जनता को सुखद अहसास करा रही होगी,लेकिन भारतीय राजनीति इस ओर भी इंगित करती है कि इस तरह का जनादेश खतरे की घंटी भी साबित हो सकता है, क्योंकि लोकतंत्र में कमजोर विपक्ष, कमजोर लोकतंत्र की निशानी भी होता है।



लेखक 'शिल्पकार टाइम्स' हिंदी पाक्षिक अख़बार में सहायक संपादक है उनसे kumar2pankaj@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.

घरेलू नौकरानियों का यौन उत्पीड़न नहीं होता?


अकेले दिल्ली में करीब साढ़े तीन लाख महिलाएं कामों से जुड़ी हैं,जो सरकार के इस तकनीकी बहाने की वजह से उत्पीड़न रोकने संबंधी अधिकारों की हकदार नहीं होंगी। दिल्ली के घरों में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं आदिवासी और दलित वर्ग से हैं।

जनज्वार ब्यूरो. काम की जगहों पर लगातार उजागर हो रहे यौन उत्पीड़न के मद्देनजर सरकार ने संसद में महिला सुरक्षा संबंधी बिल पेश किया है। संसद के मौजूदा सत्र में सरकार द्वारा ‘प्रोटेक्शन ऑफ  वुमेन अगेंस्ट सेक्सुअल हरासमेंट ऐट वर्क प्लेस-2010’नाम से पारित इस बिल से उम्मीद की जा रही है कि आने वाले समय में महिला उत्पीड़न के मामलों में कमी आयेगी। मगर यह उम्मीद देश की करीब 90लाख महिलाओं के लिए नहीं होगी जो घरों में सफाई कर,खाना बना और मालिकों के बच्चों को पालकर गुजारा करती हैं।

दिल्ली स्थित ‘घरेलू मजदूर फोरम’की दी गयी जानकारी के मुताबिक महिला उत्पीड़न रोकने के जिम्मेदार ‘महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय’और विभागों का मानना है कि घरेलू काम करने वाली महिलाओं के उत्पीड़न का गवाह मिलना मुश्किल होगा,इसलिए इन्हें बिल का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता। मंत्रालय का यह भी तर्क है कि इस तरह के उत्पीड़न के मामले चूंकि घरों और परिवारों के बीच होते हैं जहां अन्य कोई कामगार या सहकर्मी मौजूद नहीं होता,इसलिए ऐसे मामलों की पुष्टि करना मुश्किल होता है।

फोरम के मुताबिक अकेले दिल्ली में करीब साढ़े तीन लाख महिलाएं घरेलू कामों से जुड़ी हैं,जो सरकार के इस तकनीकी बहाने की वजह से उत्पीड़न रोकने संबंधी अधिकारों की हकदार नहीं होंगी। दिल्ली के घरों में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं आदिवासी और दलित वर्ग से हैं।
घर में मजदूरी : कहाँ से मिले इन्हें अधिकार

गरीबी और भुखमरी से उबरने की चाहत में बिहार, बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, नेपाल और पूर्वोत्तर के राज्यों से दलालों के माध्यम से ये महिलायें महानगरों में पहुंचायी जाती हैं। नगरों-महानगरों में काम करने वाली इन महिलाओं का निरक्षरता, भाषा की दिक्कत, दलित-आदिवासी और गरीब परिवारों से ताल्लुक रखने के कारण जमकर शारीरिक,मानसिक और यौन उत्पीड़न होता है।ऐसे में समाज की सबसे कमजोर वर्ग की इन महिलाओं और लड़कियों को उत्पीड़न के खिलाफ बनाये जा रहे कानून में शामिल न किया जाना हास्यास्पद है।

घरेलू मजदूर फोरम के संयोजक योगेश कुमार की राय में ‘सबसे छुपा हुआ शोषण घरेलू काम कर जीवन-यापन करने वाली महिलाओं का होता है, पर उन्हें बिल में शामिल नहीं किया गया। इसके मैं तीन कारण मानता हूं, पहला उनका दलित-आदिवासी होना,दूसरा कानून बनते ही उन लोगों के नाम उजागर होने का खौफ जो कानून बनाने में भी शामिल हैं और उत्पीड़न भी करते हैं और तीसरी वजह है मुख्यधारा की राजनीति में दलितों,खासकर आदिवासियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व न होना।

सामाजिक कार्यकर्ता एनई राजा कहती हैं,‘सरकार ने निजी,सरकारी और स्वयंसेवी संगठनों के कार्यस्थलों को इस बिल में शामिल किया है तो घरों में काम करने वाली महिलाओं को क्यों नहीं?जाहिर है सरकार की निगाह में उनका यौन उत्पीड़न होता ही नहीं या उनका इस तरह से उत्पीड़न नहीं होता कि उसके लिए कानून बनाया जाये। सरकार की इस बेतुकी सोच के खिलाफ हम लोग प्रधानमंत्री कार्यालय,राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और महिला एवं बाल कल्याण मंत्रालय के पदाधिकारियों से हमारा प्रतिनिधि मंडल मिलेगा।’

अब देखना यह है कि सामाजिक संगठनों की पहल के बाद भी काम वाली बाईयों को यौन उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार मिल पाता है या नहीं।