Mar 27, 2010

असलहे.....इनके दोस्त हैं



देश के लाखों सिपाही इस तस्वीर की तरह जीते हैं. सिपाही के लिए साँस लेना जितना जरूरी होता है,  यहाँ दिखने वाली हर चीज़ भी उससे कम जरूरी नहीं होती.  रंगरूट  जहाँ भी जाते  हैं इसमें से कुछ भी छोड़ कर नहीं जाते.
धर्मं-अधर्म, न्याय-अन्याय, रोटी-पानी सबकुछ इस  बक्से में  है और  दीवार पर पड़े असलहे इस बात के गवाह हैं कि जिंदगी यहीं से चलती है.

उत्तर प्रदेश पीएसी का रंगरूट :  हमने नहीं , रोटी ने  जिंदगी को चुना है.                                        फोटो- अजय प्रकाश






Mar 23, 2010

मैं चाहता हूँ, बेटा इस्लामिक स्कूल में पढ़े !



पाकिस्तान के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक "डान"  में हर बुधवार को 'स्मोकर्स कार्नर' के नाम से नदीम एफ़ पारचा कॉलम लिखते हैं. इस बार बुधवार को उन्होंने एक बेहद  जरूरी मसले को बड़े नायाब तरीके से पेश किया है. हमें उम्मीद है कि  मसला और उसे बताने का तरीका दोनों ही आप सबको  पसंद आएगा.


नदीम एफ़ पारचा

कुछ दिन पहले की बात है, मैं  ट्रैफिक   सिग्नल पर लाल बत्ती के हरा होने का इंतजार कर रहा था। तभी एक बच्चा मुझे एक पर्चा पकड़ा गया। आम तौर पर ऐसे पर्चों को मैं फेक दिया करता हूं लेकिन उस दिन मैंने यह सोच कर रख लिया कि देखता हूं इसमें छपा क्या है।


पर्चा एक मान्टेसरी स्कूल ‘मॉडल इस्लामिक मॉन्टेसरी’ के दाखिले के विज्ञापन का था। घर पहुंचकर मैंने तय किया कि क्यों न इसके प्रिंसिपल  से बात की जाये और जाना जाये कि यह किस तरह का स्कूल है।

मैंने प्रिंसिपल को फोन लगाया और कहा ‘हेलो, अस्सलामालेकुम’।

सामने से किसी महिला ने जवाब दिया-‘वालेकुमअस्सलाम’।

मैने पूछा, ‘क्या मैं मॉडल इस्लामिक मान्टेसरी की प्रिंसीपल से बात कर रहा हूं।’

‘जी हां, बोल रही हूं, क्या मदद कर सकती हूं।’

‘मेरा एक तीन साल का बेटा है जिसका मैं आपके स्कूल में दाखिला दिलाना चाहता हूं।’ - मैंने कहा

‘जी हां, उसका स्वागत है’- उन्होंने जवाब दिया।

फिर मैंने कहा, ‘लेकिन मेरे कुछ सवाल हैं’।

‘जरूर, आप हमसे कुछ भी पूछ सकते हैं’- प्रिंसिपल  ने कहा।

मैंने सवाल किया, ‘आपका स्कूल गैर-इस्लामिक स्कूलों से अलग कैसे है?’

‘क्या मतलब?’- उन्होंने पूछा।

यही कि आपका स्कूल एक इस्लामिक मॉन्टेसरी है न ?- मैंने पूछा

कुछ हिचकते हुए उन्होंने जवाब दिया, ‘जी हां।’

‘तो हमें आप ये बतायें कि एक इस्लामिक मॉन्टेसरी, गैर इस्लामिक मॉन्टेसरी से अलग कैसे है’ - मैंने जानना चाहा।

‘हां, हमारे यहां इस्लाम की परंपरा और तहजीब जैसे कि रोजा, सलात आदि की शिक्षा दी  जाती है।’


मैंने प्रिंसिपल  की बात काटते हुए पूछा कि ‘आप नमाज की बात कर रही हैं।’

‘जी.....नमाज.....एक ही बात है’- उन्होंने समझाया।

‘अच्छा ठीक है, लेकिन ये बतायें कि आप लोग बच्चों और क्या-क्या पढ़ाते क्या हैं’- मैंने पूछा।

उनका जवाब था, ‘हम बच्चों को अच्छी आदतें सिखाते हैं.....।’

मैं उन्हें बीच में रोककर पूछ पड़ा, ‘इस्लामिक आचरण’।

‘जी........बिल्कुल’- प्रिंसिपल  दुबारा हिचकीचाते हुए बोलीं।

‘बहुत अच्छा। मगर आप ये बतायें कि क्या इस्लामिक आचरण, गैर इस्लामिक आचरण के मुकाबले ज्यादा अच्छा और सभ्य है?’

इतना सुनते ही प्रिंसिपल  ने बहुत विनम्र होकर पूछा, -‘सर.......मैं आपसे क्या एक सवाल कर सकती हूं।’

‘जरूर.... मैडम।’

‘आखिर आप इस्लामिक-गैर इस्लामिक बहस में क्यों उलझ रहे हैं’- उन्होंने ऐतराज उठाया।

मैंने जवाब में कहा,- ‘मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा इस्लामिक स्कूल में पढ़े। इसलिए संतुष्ट हो लेना चाहता हूं कि आपका ‘मॉडल इस्लामिक मॉन्टेसरी’ दूसरे इस्लामिक स्कूलों जैसा तो नहीं।’

तब उन्होंने पूछा- ‘आपका बेटा कितने साल का है।’

‘तीन साल का’

‘तो फिर आप खुद स्कूल में ही आकर सबकुछ क्यों नहीं देख लेते’- उन्होंने राय दी।

‘क्या आप उन्हें अल्लाह के लिए गाये जाने वाले गीत (नात) सिखाती हैं- मैंने पूछा

उन्होंने कहा, ‘जी हां, क्यों नहीं?’

‘तो आप बच्चों को अंग्रेजी के वे बालगीत सिखाती हैं जिसमें यहूदीवाद के क्रुर सन्देश दिये होते हैं? - मैंने पूछा

हल्के अंदाज में हंसते हुए प्रधानाध्यापिका बोलीं, ‘सर इस बारे में मैं नहीं जानती, लेकिन शिक्षकों  को हम जरूर इसकी मनाही करते हैं कि ऐसी कविताएं नर्सरी में न पढ़ायी जायें।’

‘इस बारे में आपका ऐसा सोचना अच्छा लगा,....... बतायेंगी कि कव्वाली के बारे में आपका क्या ख्याल है।’ वैसे मुझे तो कव्वालियां बेहद पसंद हैं। इतना कहने के साथ मैं गुनगुनाने लगा-  'भर दो झोली मेरी।’

मुझे रोकते हुए उन्होंने कहा, ‘नहीं सर..........यह सब नहीं.....सिर्फ इस्लामियत की बुनियादी चीजें।’

‘लेकिन क्या बच्चे आमतौर पर एक गैर इस्लामी स्कूल में भी यह सब नहीं सीखते। फिर आपका स्कूल इस्लामिक कैसे हुआ।’- मैंने पूछा

प्रिंसिपल ने जोर देकर आग्रह किया, ‘सर आप खुद ही स्कूल में आकर क्यों नहीं देख लेते। हमें विश्वास है कि हमारे सांस्कृतिक परिवेश  से आप जरूर प्रभावित होंगे। आपको बता दूं कि शहर का यह इकलौता मॉन्टेसरी है जहां छोटी लड़कियां भी हिजाब करती हैं और लड़के परंपरागत इस्लामिक ड्रेस पहनते हैं।’

मैंने खुशी  जाहिर करते हुए कहा, ‘लेकिन ये बताइये लड़कियां तो हिजाब में आती है मगर लड़के।’

‘उन्हें स्कूल में सिर्फ शलवार-कमीज और इस्लामी टोपी पहनकर आने की ही इजाजत है।’- उन्होंने कहा

‘मगर शलवार-कमीज तो हमारे मुल्क का राश्ट्रीय पहनावा है, न कि इस्लामी पोशाक। आप ऐसा करें कि लड़कों को अरबी चोगा पहनायें। मैं आपको भरोसा दिलाता हूं उनमें से एक मेरा बेटा भी होगा।’

तभी उन्होंने बात बदलते हुए पूछा- आपके बेटे का नाम क्या है?’ ‘पॉल नील फर्नांडिस जूनियर’- बेटे का नाम बताते ही फोन की दूसरी तरफ चुप्पी छा गयी।

‘हेलो....हेलो.......प्रिंसिपल साहिबा ....आप हैं.........।’- उधर से सख्त आवाज आयी,.....‘आप मजाक कर रहे हैं क्या.....।’

‘नहीं साहिबा.......मैं गंभीरता से कह रहा हूं’- मैंने जवाब दिया

‘लेकिन आप तो क्रिष्चियन हैं। फिर क्यों चाहते हैं कि आपके बेटे का नाम इस्लामिक स्कूल में दर्ज किया जाये।’- उन्होंने पूछा

‘सीधी सी बात है। ऐसा में इसीलिए चाहता हूं कि मैं एक इस्लामिक गणतंत्र का क्रिश्चियन हूं। साहिबा क्या आप जानती हैं कि एक इस्लामिक गणतंत्र में धार्मिक अल्पसंख्यक होने का एहसास क्या होता है।’

फिर चुप्पी......... मैं अपनी बात जारी रखते हुए कहता हूं, ‘इसलिए मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा सभी इस्लामिक कायदे सीखे जिससे कि वह समाज में बेमेल होने से बच सके।’


‘तो फिर आप धर्म परिवर्तन क्यों नहीं कर लेते’- उधर से यह ठोस सुझाव मुझे सुनायी दिया।

तो मैंने पूछा, ‘मैं ही क्यों?’

‘इसलिए कि आप ऐसा महसूस कर रहे हैं’- उन्होंने कहा।

‘लेकिन आप ही क्यों नहीं बदल जातीं’- मैंने जानना चाहा।

‘हम बदल जायें?’- इसमें जवाब और सवाल दोनों मिलाजुला था।

मैंने कहा, ‘हां जो सलूक हमारे साथ यहां होता है कभी आप भी महसूस किजीए।’

‘देखिये सर, मैं इस झंझट में नहीं पड़ना चाहती। रही बात आपके बच्चे का हमारे यहां प्रवेश  पाने की तो, यह संभव नहीं लगता।’- प्रिंसिपल ने कहा।

मैंने पूछा,- ‘सिर्फ इसलिए कि वह क्रिश्चियन  है।’

‘ऐसा ही लगता है’- उधर से जवाब मिला।

मैने विरोध किया, ‘लेकिन पाकिस्तानी मुसलमानों के तमाम बच्चे क्रिश्चियन  स्कूलों में पढ़ते हैं। तो फिर मेरे बच्चे के साथ भी आप एक पाकिस्तानी की तरह क्यों नहीं व्यवहार कर रही हैं। मैं तो चाहता हूं कि आप इससे भी आगे बढ़कर एक इंसान के तौर पर पेश  आयें।’

मेरे इस सवाल पर प्रधानाध्यापिका ने कहा, ‘सर माफ कीजिए, हम आपकी कोई मदद नहीं कर सकते।’

मैंने उन्हें सुझाया, - ‘अगर मैं आपको स्कूल की फीस दोगुनी दूं तो आप मेरे बेटे को दाखिला देंगी?’

उनका जवाब था-‘सर....यह तो घुसखोरी मानी जायेगी।’

फिर मैंने सुझाव दिया, ‘अरे नहीं, इसे जजिया मानकर रख लिजियेगा।’



अनुवाद- अजय प्रकाश



Mar 20, 2010

बर्फ में नौ सौ किलोमीटर

दुनिया की सबसे ठंढी जगह अंटार्टिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचने वाली भारत की पहली महिला रीना कौशल धर्मसत्तु से अजय प्रकाश  की बातचीत




आप भारत की पहली महिला हैं जो बर्फीले रास्तों पर नौसौ किलोमीटर की यात्रा कर अंटार्कटिका पहुंची , उस अनुभव को आप कैसे साझा करना चाहेंगी?

हजारों मील तक फैली बर्फ की चादरों के बीच जहां किसी और का कोई अस्तित्व नहीं दिखता, उस ठंढ के विस्तार को महसूसने के लिए जब कभी मैं आंख मुंदती हूं तो मेरा दिल मगन हो गाने लगता है। वहां पहुंचने के बाद एकबारगी लगता है कि दुनिया के बाकी रंग न हों, तो भी प्रकृति ने बर्फ को जिस सफेद रंग की नेमत से संवारा है, उसकी स्वच्छता एक खुबसूरत संसार रच सकती है। अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर पहुंचकर कीर्तिमान बनाने के रिकॉर्ड के साथ मैं अपनी जिंदगी में एक नयापन लेकर लौटी हूं और खुश  हूं।

इस नये कीर्तिमान को छूने के लिए भारत से अंटार्कटिका आप कैसे पहुंचीं?

यह कोई मेरा बहुत बड़ा सपना तो नहीं था लेकिन मैं स्की करने के रोमांच को जीना चाहती थी। मैं पर्वतारोहण की प्रशिक्षक हूं मगर स्की करने का मेरा यह पहला मौका था। संयोग से अगस्त 2008 के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर मेरी निगाह पड़ी और मैंने इंटरनेट के जरिये आवेदन कर दिया। देश  भर से 130 लड़कियों द्वारा किये गये आवेदन में से दिल्ली स्थित ब्रिटीष काउंसिल में 10 को बुलाया गया जिसमें से मुझे और पश्चिम  बंगाल की अपर्णा को चुना गया। राश्टमंडल के आठ देश  न्यूजीलैंड, सिंगापुर, भारत, ब्रिटेन, साइप्रस, बु्रनै, घाना और जमैका से दो-दो लोगों को चुनकर नार्वे प्रशिक्षण के लिए ले जाया गया। वहां हमें दो हफ्ते का प्रषिक्षण मिला और आखिरकार सभी देषों से एक-एक प्रतियोगियों को अंटार्कटिका यात्रा के लिए चुना गया। उसके बाद हम सभी अपने देष लौट आये और नार्वे कैंप मिले प्रषिक्षण हिदायतों के हिसाब से तैयारियों में जुट गये।

भारत में आपने किस तरह की तैयारी की और सरकार से आपको क्या मदद मिली?

सारी तैयारी शारीरिक  चुस्ती-फुर्ती से जुड़ी थी जिसको हमने पूरे लगन से किया। लेकिन हमारे सपने को पूरा होने में सबसे बड़ा रोड़ा प्रायोजक का मिलना था। खेल मंत्रालय के मुताबिक ‘रोमांच का खेल-स्की’ किसी तय कटगरी में नहीं आता इसलिए उसने आर्थिक मदद देने से इंकार कर दिया। उसके बाद मैंने बहुत से कॉरपोरेट घरानों से संपर्क किया मगर वह भी नहीं तैयार हुए। सिर्फ भारतीय पर्वतारोहण संस्थान ‘आइएमएफ’ और बजाज ग्रुप ने मदद की। लेकिन यात्रा को प्रायोजित करने की पूरी जिम्मेदारी रूस की एक एंटीवायरस कंपनी ‘कैस्पर्सकी’ ने ‘कैस्पर्सकी कॉमनवेल्थ अंटार्कटिका एक्सपेडिषन’ योजना के तहत उठायी। अब जबकि मैं अंटार्कटिका के दक्षिणी पोल पर झंडा फहरा कर आ चुकी हूं मगर फिर भी किसी सरकार ने न तो हमसे संपर्क किया और न ही आर्थिक मदद मिली। एक उम्मीद जरूर है कि सरकार बढ़ते रूझान को देख तवज्जो देना शुरू  करेगी।

पर्वतारोहण जैसे रोमांचकारी खेल में आपकी दिलचस्पी कैसे बनी, उस बारे में कुछ बताइये?

हमारे पापा द्वारका नाथ कौषल फौज में थे और उनका तबादला होता रहता था। रिटायर होने के बाद वह दार्जीलिंग में बस गये। मेरा जन्म तो उत्तर प्रदेष के बरेली में हुआ लेकिन दार्जीलिंग के पहाड़ों के बीच पली-बढ़ी। दार्जीलिंग से मेरा एक भावनात्मक लगाव भी था। मुझे बचपन से ही पहाड़, उनकी उचाइयां  और दूर तक का उनका फैलाव अपनी ओर आकर्षित  करता था। सामने खड़ी कंचनजंघा की बर्फ से ढकी चोटियों को देख उस पर चढ़ने का मन करता था।
दार्जीलिंग के लॉरेटो कान्वेंट स्कूल से बारहवीं पास कर मैंने वहीं के सेंट  जोसेफ कॉलेज से बीकाम किया। फिर मेरे जीवन की असली तैयारी षुरू हई और मैंने पवर्तारोहण में ‘हिमालयन पर्वतारोहण संस्थान’ से प्रषिक्षक तक षिक्षा हासिल की। षादी के बाद मेरे पति लवराज सिंह धर्मसक्तु से काफी मदद मिली। लवराज मुझसे बड़े पर्वतारोही हैं और आप कह सकते हैं कि हमदोनों का साथ पेषे और जीवन साथी दोनों के तौर पर एक सफल जोड़ी का है। उसके बाद हर साल मैं एक न एक पर्वत चढ़ती ही रही।

अंटार्कटिका में स्की यानी बर्फीली यात्रा आपलोगों ने कैसे पूरी की?

नवंबर 21 को रोनी आइस सेल्फ नामक स्थान से हम आठ लोगों को दक्षिणी पोल के लिए रवाना कर दिया गया। हवाई जहाज से मेसनर्स स्टार्ट तक पहुंचने तक हममें से एक साथी को स्वास्थ कारणों से वापस होना पड़ा। अब हम सात ही थे जिन्होंने मेसनर्स स्टार्ट जो कि विख्यात पवर्तारोही रोनाल्ड मसनर्स के नाम पर बनाया गया बेस है, जहां से स्की करने के लिए चल पड़े। और इस तरह मेसनर्स स्टार्ट से साउथपोल की नौसौ किलोमीटर की बर्फीली यात्रा को हमने 40 दिनों में पूरा किया। पूरे सफर के दौरान इंसानों की कौन कहे कोई जानवर भी रास्ते में नहीं मिला।
इन चालीस दिनों के बीच हमने बर्फीले तुफान, थोड़ा भय और शुन्य  से तीस डिग्री नीचे तक का ठंढा मौसम झेला। मगर साहस और सहनषक्ति भी प्रकृति के उन महान दृष्यों से ही मिला जिसे आज भी हम याद कर आह भरते हैं।

खाने,पहनने और बचाव के लिए आपलोग क्या ले गये थे?

हममें से हरेक के पास साठ किलो का सामान का था जिसमें टेंट, पेटोल, स्टोव, खाना, दवा, रेडियो टांसमीटर और ट्वायलेट किट्स थे। सामान हमलोग पीठ पर नहीं बल्कि अपने से पीछे की ओर बांधकर खिंचते रहते थे। हमलोगों में जबर्दस्त टीम भावना थी इसलिए कभी कोई दिक्कत ही नहीं हुई। रोज कमसे कम दस घंटे बर्फीले रास्तों पर स्की कर आगे बढ़ते जाना था। एक बार में डेढ़ घंटा चलकर सात मिनट का आराम करते।
किसी के पैर छाले पड़ गये या किसी को पैरों या कहीं तनाव रहा तो हमलोग आराम के दौरान एक दूसरे की मालिश  कर आगे बढ़ लेते। प्रतिदिन हमलोंगो को साढ़े चार हजार कैलारी खाना होता था जो कि आम आदमी के भोजन की कैलोरी से तीन गुना था। इसी तरह पानी भी कम से कम एक सदस्य को तीन लीटर पीना होता था।

लेकिन वहां बर्फ के सिवा कुछ था ही नहीं तो, पानी?

बर्फ को स्टोव पर गर्म कर पानी बनाते थे। पानी का इस्तेमाल पीने और सूखे खाने को उबालने में करते थे। चूंकि पूरे यात्रा के दौरान हम लोग एक ही कपड़ा पहने रहे और नहाने का मौका तो 54 दिन बाद मिल पाया था, इसलिए पानी की और जरूरत नहीं पड़ी।

यात्रा के दौरान जो कूड़ा निकला, उसका आप लोगों ने क्या किया?

यह जानना दिलचस्प होगा कि हम लोगों ने इस लंबी यात्रा में एक तिनका भी वहां नहीं छोड़ा। एक विषेश तरह का बैग अपने साथ ले गये थे, जिसमें अपना सारा कचरा साथ ढोकर ले आये। स्की पर जाने से पहले हमें ग्लोबल वार्मिंग और उसमें अंटार्कटिका की भूमिका के बारे में विशेष  तौर पर बताया गया था।

इस यात्रा का मकसद सिर्फ दुनिया को रोमांच के बारे में बताना था या कुछ और?

रोमांच तो उस यात्रा का हिस्सा है लेकिन मकसद ग्लोबल वार्मिंग और प्रकृति से की जा रही छेड़छाड़ को लेकर समाज में जागरूकता पैदा करना था। अपने साथ साठ किलो का भार लेकर उन कठिन बर्फीले रास्तों पर आगे बढ़ना मुष्किल होता था। बावजूद इसके हम लोग वहां से ट्वायलेट तक उठा लाये। दूसरा मकसद कॉमनवेल्थ की साठवीं सालगिरह पर साउथ पोल की चढ़ाई के पीछे महिला सषक्तीकरण के संदेष को भी दुनिया भर में प्रचारित करना था।

इन चालीस दिनों में किसी दिन बर्फीले तुफान से सामना नहीं हुआ?

दूसरे दिन स्की करने के बाद जब हम लोग टेंट में सो रहे थे तो हमारे साथियों का टेंट झोंके से उड़ गया। बहुत डरावना था सब कुछ। उतनी ठंढ में अगर किसी को चोट लग जाये या जैकेट षरीर से हट जाये तो बचना मुष्किल होता है। लेकिन सुविधा यह थी कि वहां कभी रात नहीं होती थी इसलिए हमारे लिए देख पाना संभव था। बहरहाल, पूरी रात सातों लोग एक ही टेंट के पायों को मजबूती से थामकर बैठे रहे लेकिन वह भी सूबह होते-होत फट गया।

सुबह तो वहां होती नहीं थी। घड़ी ने जब चीले देष के हिसाब से सुबह होना बताया, तब तक तुफान थम चुका था। दूसरा खतरा खाइयों से गिरने या बर्फीली तेज हवाओं से उठती-गिरती बर्फ की लहरों से भी होता है। संयोग कहिए हमारी टीम इससे बचकर साउथ पोल पर झंडा फहरायी, जहां अमेरिका का अनुसंधान केंद्र है। हम बहुत खुष हुए थे जब चालीस दिनों बाद हमने सात के अलावा आठवां इंसान देखा था।

यात्रा में सबसे यादगार लम्हा?

बर्फीली लहरें और रात का न होना। हम सोच भी नहीं सकते कि वहां रात नहीं होती होगी और बर्फ की भी लहरें हवाओं के साथ उठती-गिरती होंगी। दूसरी यादगार है क्रिसमस पर अपने घरवालों से बातचीत क्योंकि इस बीच सिर्फ एक बार क्रिसमस के रोज अपने घर फोन करने का मौका मिला.

courtesy - The Public Agenda

Mar 18, 2010

यहाँ भूखों को भक्त कहा जाता है


 मनगढ के कृपालुजी महाराज के आश्रम में मची भगदड़ के बाद  63 जाने गयीं. मरने वालों में ज्यादातर दलित और पिछड़ी जाति के लोग हैं और गरीब घरों से ताल्लुक रखते हैं.वैसे में न्याय कितना हो पायेगा यह लोग अनुभवों से जानते हैं.रही सही कसर प्रसाशन ने कृपालुजी महाराज को इस पुरे मामले में दोषियों की सूची से बाहर  कर पूरी कर दी है. हालांकि पहले से कुछ आपराधिक मामलों में बाबा नामज़द रहे हैं,लेकिन इससे उनकी शान में कभी कोई कमी नहीं आयी, जो इस बार भी नहीं आनी है.

हम यहाँ कुछ तस्वीरों को चिपका रहे हैं. उम्मीद है कि ये तस्वीरें हम सबको एहसास कराती रहेंगी कि भक्ति में भीख और भूख का प्रतिशत कितना जबरदस्त है.

सभी फोटो - अजय प्रकाश


 कुंडा क्षेत्र  का काजीपुर गाँव: दो तौलिया के बदले तीन जान


पिसती है नमक मिर्च  तो चलती है नाड़ी :  सावित्री के दो बच्चे और सास इससे बेहतर कि तलाश में भगदड़ में मारे  गए



देखें तो चप्पल, समझें तो लाश: इसका भी कोई म्यूजियम  बनेगा. भक्तिधाम आश्रम के कार्यकर्ताओं द्वारा पानी का बौछार करने से ४ मार्च को भगदड़ मची थी जिसमें ६३ लोगों कि मौत हो हुई.



रामकृपाल तिवारी उर्फ़ कृपालुजी महाराज की पत्नी पद्मा देवी : सांसारिक राग से कितनी दूर.
इन्ही की याद में भंडारा हुआ था जिसमें भगदड़ मची.




मियां का पुरवा गाँव : इसके पास अब मां  नहीं है.
 सुबह काम पर जाते वक्त मैंने मां से कहा था  मनगढ आश्रम मत जाना, लेकिन नहीं मानी. शाम को आया तो वह रोज की तरह दरवाजे पर इंतज़ार नहीं कर रही थी, कफ़न से ढंकी थी.





मौज में बाबा : कल भी और आज भी
आखिर पीड़ित कहाँ जाएँ, किससे कहें कि गुनहगार मौज में है और हमारा जीवन दोजख में.





गुनहगार भी और सुरक्षा के हकदार भी: लोकतंत्र में यह रिवाज़ बड़ी आम है .
भगदड़ की अगली सुबह के  पहले से ही PAC पुलिस बल के चार ट्रक बाबा के आश्रम की सुरक्षा में तैनात हैं.


Mar 11, 2010

आजमगढ़ का नायक

अजय प्रकाश 

खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तकदीर से पहले/खुदा बंदे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है।' अल्लामा इकबाल के इस शेर का इस्तेमाल अमूमन खास लोगों की हौसला-आफजाई के लिए होता है। यही शेर लाहीडिहां बाजार भटवां की मस्जिद में भी एक पान की दुकान पर सुनने को मिला। तभी सुनने वालों में से ही किसी ने पूछ लिया- इसका कद्रदां कौन है? सुनाने वाले ने भी देरी नहीं की और एक सामान्य कद-काठी के दाढ़ी वाले बंदे को पकड़ लाया और बोला-ये हैं शेर के असली कद्रदां-तोआं गांव के शकील भाई।

तोआं आजमगढ़ जिले के सरायमीर थाने का एक गांव है। सरायमीर का जिक्र पिछले कुछ वर्षों  में राष्ट्रीय  स्तर पर इस रूप में होता रहा है कि यहां बम धमाकों के सबसे ज्यादा आरोपी पकड़े गये हैं। भटवां की मस्जिद पर मिले लोग कहते भी हैं कि 'आजमगढ़ में आतंक की तो चर्चा सब जगह है, लेकिन इसी जिले में शकील भाई ने अकेले दम पर एक पुल का निर्माण, दूसरे  के आधे से अधिक का काम पूरा कर और तीसरे की बनाने की योजना तैयार कर जो साहस दिखाया है उसकी चर्चा न तो मीडिया कर रही है और न ही सरकार प्रोत्साहित करने में दिलचस्पी दिखा रही है।'

बगैर किसी सरकारी सहायता के सिर्फ चंदा मांगकर पिछले दस वर्षों के अकथ प्रयास से शकील भाई ने जो कर दिखाया है, उसे सुनकर एक दफा आश्चर्य  लगता है। चंदा मांग कर धार्मिक स्थल और स्कूल बनाने की परंपरा तो रही है लेकिन पुल भी चंदा मांग कर बन सकता है, ऐसा सोचना मुश्किल  लगता है। इसमें दो राय नहीं कि प्रदेश  के सांप्रदायिक सौहार्द वाले जिलों में हमेशा  अव्वल रहे आजमगढ़ में फिर एक बार गंगा-जमुनी संस्कृति को हंगामा मचाये बिना ही शकील भाई ने समृध्द किया है।

जिला मुख्यालय से मात्र 40 किलोमीटर की दूरी पर मगही नदी पर बने इस पुल को शकील सामाजिक सहयोग की देन मानते हैं। लगभग 50 गांवों को आपस में जोड़ने वाले इस पुल ने दर्जन भर गांवों की जिला मुख्यालय और थाने से दूरियों को कम किया है। पुल ही बनाने की योजना शकील ने क्यों हाथ में ली ? इसके पीछे एक दिल को छू देने वाली घटना है। लेकिन इससे पहले शकील मीडिया को लेकर शिकायत  करते हैं कि 'जिला-जवार के दलालों की खबरों को तो पत्रकार बंधु तवज्जो देते हैं मगर अच्छे कामों पर एक बूंद स्याही खर्च करने में कोताही क्यों बरतते हैं। खुफिया और सरकारी बयानों को सच की तरह पेश  करने वाली मीडिया ने बाहर वालों के लिए कुछ ऐसी बना दी है कि लोग मानने लगें कि यहां के मुसलमानों में ही कुछ नुक्स है।'

जिस तरह पुल अपने ऊपर  से गुजरने वालों की जाति-धर्म से मतलब नहीं रखता, वैसे ही शकील भाई भी सिर्फ इंसानी पहचान के ही पैरोकार हैं। टौंस नदी पर बन रहे पुल का काम कराने में व्यस्त शकील भाई से हुई मुलाकात में पूछने पर कि आपने पुल बनाने की शुरूआत कैसे की? वे कहते हैं, 'वैसे तो यह किस्सा हर कोई बता सकता है लेकिन मेरे साथ बस इतना हुआ कि मैं उस किस्से का होकर रह गया. मैंने उससे मोहब्बत कर ली।'

बरसात का मौसम था और मगही नदी उफान पर थी। सरायमीर जाने का एकमात्र आसान रास्ता नदी पार करना ही था। साल के बाकी नौ महीनों में तो बच्चे चाह (बांस का पुल) पार कर स्कूल जाया करते थे लेकिन बरसात में पार करने का जरिया नांव ही हुआ करती थी। उस दिन भी बच्चे इस्लहा पर पढ़ने जा रहे थे। नांव में बारह बच्चे सवार थे और नांव नदी के बीचो-बीच उलट गयी। सुबह का समय होने की वजह से उसपार जाने वालों की तादाद थी इसलिए बारह में से ग्यारह बच्चे बचा लिए गये, लेकिन शकील के गांव के सैफुल्लाह को नहीं बचाया जा सका। उस समय षकील सउदी अरब में नौकरी कर रहे थे। शकील उन दिनों को याद कर बताते हैं, 'जब मैंने यह खबर सुनी तो मुझे बेचैनी छा गयी। मुझे लगता था कि कोई मुझसे हर रोज कहता है कि गांव जाते क्यों नहीं।'

बकौल शकील, 'उसके छह महीने बाद जब मैं घर आया तो मानो किसी ने कहा हो कि क्यों नहीं एक पुल ही बनवा देते, लेकिन मेरी मासिक आमदनी कुछ हजार रूपये थी और पुल बनाने के लाखों रूपये वाले काम को हाथ में लेना संभव नहीं लगा। लोगों से बात करने, सुझाव लेने और आत्मविश्वास  हासिल करने में दो साल और लग गये। फिर मैंने हिम्मत जुटाकर अकेले ही चंदा मांगना शुरू किया। बहुतों ने कहा कि कमाने-खाने का धंधा है। चीटर तक कहा, लेकिन मैंने न किसी का जवाब दिया और न ही आरोपों से आहत हुआ। मुझे अपनी नियत पर भरोसा था। अल्लाह को गवाह मानकर पुल बनाने की योजना पर आगे बढ़ गया। यहां आसपास के गांवों से सहयोग लेने के बाद मुंबई, दिल्ली, गुजरात ही नहीं दुबई जाकर भी मैंने चंदा जुटाया।'

चंदा के अनुभवों को साझा करते हुए शकील से पता चला कि कुछ ने दिया तो कुछ ने दुत्कार दिया। मददगारों में सबसे अधिक मदद गुजरात के वापी शहर के रहने वाले 85 वर्षीय  हाजी इसरानुलहक ने की और कर रहे हैं। शकील के शब्दों में कहें तो 'हाजी साहब को तहेदिल से शुक्रिया करता हूं जिन्होंने भावनात्मक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर भरपूर मदद की। साथ ही मैं इंजीनियर संजय श्रीवास्तव की चर्चा करूंगा जो कि मेरे दोस्त भी हैं, जिन्होंने एक पाई लिये बगैर हमेशा सहयोग दिया।'
शकील यह बताना नहीं भूलते कि हाजी साबह ने कभी इसको रत्तीभर भी भुनाने की कोशिश  नहीं की। आग्रह करके हम गांव वालों ने उन्हीं से बन चुके पुल का शिलान्यास  भी कराया और अब इरादा है कि उस पुल का नाम सैफुल्ला के नाम पर रखें, जिसकी नदी में डूबने से मौत हो गयी थी। राजापुर गांव के मतीउद्दीन बताते हैं कि 'सैफुल्ला रिश्ते  में सलीम का कुछ नहीं लगता था फिर भी उसने जो संकल्प लेकर किया उससे हजारों सैफुल्लाओं के परिजन हमेशा शकील को सलाम करेंगे, दुआएं देंगे।'

सामाजिक दायरे के अलावा क्या किसी और ने मदद की? इस पर शकील हंसते हुए कहते है,'सरकारी विभागों से हमने कई दफा मदद की दरख्वास्त की। सांसदों-विधायकों के यहां गुहार लगाने गये। प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रामनरेश यादव के यहां भी गांववाले लेकर गये, पर बात नहीं बनी। इतना ही नहीं, मेरी आर्थिक और पारिवारिक औकात जानने के बाद तो मौके पर जगहंसाई भी करते थे। समाज के संभ्रात लोगों का यह रवैया देखकर मन भारी और थका हुआ महसूस करता था। कई दफा लगा कि पीछे हट जायें। लेकिन हताशा  का विचार आते ही बचपन से जवानी तक सुने साहस के किस्से-कहानियों से मुझे बल मिलता था। अपने बुजुर्गों से सुने उन साहसिक कहानियों की यादों के साथ, वह पल भी याद कर मन ख़ुशी  से भर उठता था जब कहानियों के नायक या नायिका लाख मुश्किलों के बावजूद संघर्ष  के मुकाम तक पहुंचते थे।'

शकील के इस उम्दा प्रयास में गौर करने लायक बात यह है कि जिस समाज ने एक समय में इन्हें दुत्कारा, उसी समाज के कुछ लोगों ने शकील भाई की मदद भी की और आगे चलकर हाथों-हाथ लिया। इसलिए शकील कहते भी हैं कि 'पुल निर्माण सामाजिक सहयोग के बदौलत ही संभव हो पाया।' लगभग 60 लाख से ऊपर धनराशी खर्च हो चुकी है। यह पूंजी एक ऐसे आदमी ने जुटायी,  जिसका न कोई सामाजिक रूतबा था और न ही कोई पारिवारिक रसूख। उसके पास ढंग का रोजगार तक नहीं था।

द पब्लिक एजेंडा से साभार

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