Mar 13, 2011

जनता की फिक्र करे मीडिया

 
मीडिया पर बाजार भारी है और इससे लड़ने की मीडिया के पास ताकत नहीं है.ऐसी स्थिति में जरुरत है कि मीडिया को बाजार के दबाव से मुक्त कराया जाए...


शनिवार की ढलती गुनगुनी दोपहर के बाद दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम का माहौल तल्ख था. देश के दिग्गज पत्रकारों ने मीडिया की वर्तमान भूमिका को जायज भी ठहराया तो उसकी खामियों को इंगित करते हुए आत्ममंथन की जरूरत भी बतायी.मौका था प्लानमैन मीडिया समूह की समाचार पत्रिका द संडे इंडियन और टाइम्स फाउंडेशन द्वारा आयोजित “जनवाणी से जनता की वाणी” विषयक सेमिनार का.

दरअसल ठीक 25साल पहले सरकार नियंत्रित भारतीय दूरदर्शन पर शुरु हुआ था एक कार्यक्रम जनवाणी,जिसके माध्यम से पहली बार भारत में दर्शकों के राजनीतिज्ञों से सीधे सवाल पूछने का मौका मिला. उसके बाद सरकार की ओपन स्काई पॉलिसी आयी और शुरु हुआ निजी समाचार चैनलों का आगमन. और आज 25 साल बाद भारतीय आकाश में 600 से ज्यादा चैनल हैं, जो हर रोज सवाल पूछ रहें हैं. तो क्या 25 सालों में जनवाणी से शुरु हुए इस सफर में आज के चैनल जनता की वाणी बन गये हैं. या कहीं वे उच्छृंखल तो नहीं हो गये. ऐसे ही मौजूं सवालों पर आयोजित था यह विशेष राष्ट्रीय सेमिनार. जिसका उद्घाटन वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला ने किया.


बाएं से द संडे इंडियन के संपादक अरिंदम  चौधरी, वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला और
दीप प्रज्वलित करते  आज समाज के समूह संपादक राहुल देव

खचाखच भरे कमानी सभागार में आयोजित इस ऐतिहासिक सेमिनार का विषय प्रवर्तन  करते हुए द संडे इंडियन के प्रधान संपादक व मैनेजमेंट गुरु प्रो. अरिंदम चौधरी ने सवाल उठाया कि क्या वास्तव में आज की मीडिया जनता की आवाज है?उन्होंने कहा कि 25साल पहले देश में निजी समाचार चैनल नहीं थे, उस समय पहली बार दूरदर्शन पर “जनवाणी” कार्यक्रम शुरू हुआ जिसमें केंद्रीय मंत्री जनता के सवालों से रूबरू होते थे.

आज सैकड़ों की तादाद में समाचार चैनल और अखबार हैं,क्या वास्तव में हम जनता की आवाज उठाते हैं. श्री चौधरी ने कहा कि यह आत्ममंथन की घड़ी है, और जब हम अपने भीतर झांकते हैं तो पाते हैं कि वास्तव में हम अपनी दिशा भूल गये हैं. “जनवाणी” भले ही सरकार द्वारा आयोजित अपने प्रचार का माध्यम रहा, लेकिन उसने भारतीय मीडिया को एक नयी अवधारणा दी. उन्होंने कहा कि अब हमें अपनी दिशा तय करनी होगी और देश के आम लोगों की फिक्र करनी होगी,मीडिया में जनसरोकार वाले मुददों को प्रमुखता देनी होगी वरना हम यूं ही हाय-तौबा मचाते रहेंगे और अपने दायित्वों से मुंह छुपाते रहेंगे.

द न्यू इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय निदेशक प्रभु चावला ने कहा कि आज हम जनता की आवाज नहीं उठाते, ये सही है. हम अपनी दिशा भूल गये हैं, यह भी सही है लेकिन मीडिया ही है, जिसने देश को,देश के लोकतंत्र को बचा कर रखा है.हमें अपनी खामियों को दुरुस्त करना होगा.बाजार के ताकतवर होने से हमारी नैतिकता कमजोर हुई है.

हमें अपनी साख को बरकरार रखते हुए जनोन्मुख होना होगा. “जनवाणी” की नियत अच्छी नहीं थी, लेकिन प्रयास बेहतर था. लेकिन हमें अच्छी नीयत के साथ अच्छे प्रयास करने होंगे.उन्होंने कहा कि यह सेमिनार इस मामले में सभी सेमिनारों से इतर है कि यहां प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया के सभी दिग्गज मौजूद हैं,ऐसी उपस्थिति तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा आयोजित संपादकों की बैठक में भी नहीं थी.

सेमिनार की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने की.सेमिनार में दूरदर्शन के महानिदेशक लीलाधर मंडलोई,आज समाज के समूह संपादक राहुल देव,अमर उजाला के सलाहकार संपादक अजय उपाध्याय,आईबीएन 7के प्रबंध संपादक आशुतोष,दूरदर्शन के पूर्व डीडीजी एमपी लेले,टाइम्स फाउंडेशन के निदेशक पूरन चंद्र पांडे,जी न्यूज के प्रसिद्ध एंकर व वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी,साधना न्यूज चैनल के प्रमुख व ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसियेशन के महासचिव एन के सिंह,इंडिया न्यूज के प्रबंध संपादक कुर्बान अली,एनडीटीवी के कार्यकारी संपादक संजय अहिरवाल,न्यूज एक्सप्रेस चैनल के प्रमुख मुकेश कुमार,वरिष्ठ लेखक व चैनल पी 7के प्रोग्रामिंग हेड शरद दत्त,दूरदर्शन के पूर्व चीफ प्रोड्यूसर कुबेर दत्त और लेखिका व मीडिया समीक्षक वर्तिका नंदा भी मौजूद थीं.


पत्रकार और कवि लीलाधर मंडलोई : जनवाणी के पचीस वर्ष पुरे 

अतिथियों का स्वागत करते हुए प्लानमैन मीडिया के प्रबंध संपादक सुतनु गुरु ने कहा कि मीडिया जनता के लिए होती है और वह जनता प्रति जवाबदेह है और वह अपनी जवाबदेही से नहीं मुकर  सकती. वरिष्ठ   पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि भारत में मीडिया अपने सबसे निचले पायदान पर पहुंच गई है. अब इसके साख को बचाने का समय है. किसी लोकतंत्र में मीडिया इतनी मजबूर नहीं होनी चाहिए कि वह बाजार के सामने घुटने टेक दे.इस प्रवृति से बाहर आने की दिशा में कदम उठाने का समय है.

आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष ने कहा कि हिंदुस्तान बदल रहा है, इस बदलाव के दौर में मीडिया भी बदल रही है लेकिन यह बदलाव सकारात्मक है.इस पर आंसू बहाने की जरुरत नहीं है. ये बात सच है कि 2004-05 और 2009 में मीडिया के कृत्यों से इसके साख पर बट्टा जरूर लगा. लेकिन इसने फिर खुद को संभाल लिया.दुनिया के जिस कोने में मीडिया स्वतंत्र है वहां मिस्र जैसे हालात पैदा नहीं हो सकते.  मीडिया ही है जिसने भारतीय समाज के मनोबल को ऊंचा रखा है.

आज समाज के समूह संपादक राहुल देव ने कहा कि मीडिया पर बाजार भारी है और इससे लड़ने की मीडिया के पास ताकत नहीं है.ऐसी स्थिति में इससे ज्यादा उम्मीद की कल्पना कैसे की जा सकती है. सबसे पहली जरुरत है कि मीडिया को बाजार के दबाव से मुक्त कराया जाए, हालांकि यह दुरुह कार्य है. लेकिन उम्मीदें बाकी हैं.

अमर उजाला के सलाहकार संपादक अजय उपाध्याय ने कहा कि भारतीय मीडिया अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करती, संतुलित है, लेकिन यह लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है या नहीं, इस पर नये सिरे से मंथन करना होगा. मीडिया की जनपक्षधरता पर हमेशा से सवाल उठाये जाते रहे हैं. यह कोई नई बात नहीं है लेकिन यह भी सही है कि इन सारी चुनौतियों के बीच मीडिया जनता की आवाज को एक मंच जरुर देती है.

वरिष्ठ टीवी पत्रकार पुण्य प्रसून वाजपेयी ने कहा कि आज मीडिया नफा-नुकसान के गणित को ध्यान में रख कर अपनी दिशा तय कर रही है.इसके लिए मीडिया को अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता,पूरी व्यवस्था ही जिम्मेदार है. नैतिकता कहने की चीज हो गई है अपनाने की नहीं. वास्तव में वैकल्पिक बहस ही बंद हो गई है.

ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के महासचिव और साधना न्यूज के चैनल हेड एन के सिंह ने कहा कि जहां ज्यादा पैसा है वहीं टैम मीटर लगे हैं और वही समाचार चैनलों की दिशा तय करते हैं. जब तक टीआरपी के झमेले से चैनल मुक्त नहीं होंगे.जनपक्षधरता हाशिये पर रहेगी. उन्होंने कहा कि जहां तक कंटेंट का सवाल है, तो दो वर्षों में भारतीय मीडिया के कंटेंट का स्तर काफी बेहतर होगा, इसका विश्वास दिलाता हूं.

इंडिया न्यूज के प्रबंध संपादक कुर्बान अली ने कहा कि देश मीडिया पर बहुत ज्यादा निर्भर नहीं है. देश की जनता जागरूक है.एनडीए की फील गुड और शाइनिंग इंडिया को नकार कर अयोध्या मामले के फैसले के दिन देश में अमन रख कर जनता ने अपने जागरुक होने का सबूत दे दिया है.इस उपलब्धि में मीडिया का कोई रोल नहीं था.अब समय आ गया है कि मीडिया अपने साख और दायित्व तय करे.

एनडीटीवी इंडिया के कार्यकारी संपादक संजय अहिरवाल ने कहा कि अब खबरिया चैनलों को अपने कंटेंट पर ध्यान देना होगा,नहीं तो देश की जनता उन्हें नकार देगी और इसके साथ ही वे अपनी साख बरकरार नहीं रख पाएंगे.बाजार के दबाव और अपनी नैतिकता के बीच का कोई रास्ता निकालना होगा.

वरिष्ठ पत्रकार जफर आगा ने कहा कि वर्तमान दौर में टीआरपी ने समाचार चैनलों की दिशा तय कर दी है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या पत्रकारिता अब बेमतलब की चीज हो गई है.

मंच संचालन द संडे इंडियन हिंदी व भोजपुरी संस्करण के कार्यकारी संपादक तथा ब्रॉडकास्टर्स क्लब ऑफ इंडिया के कार्यकारी अध्यक्ष ओंकारेश्वर पांडेय ने किया.सेमिनार के समापन से पहले प्रो. अरिंदम चौधरी ने पूरी चर्चा का सार संक्षेप रखा और इस ऐतिहासिक आयोजन में सहभागी बनने के लिए टाइम्स फाउंडेशन के निदेशक पूरन पांडेय तथा सेमिनार में आये मीडिया के दिग्गजों का आभार व्यक्त किया. आखिर में प्रो. अरिंदम चौधरी और श्री पूरन पांडेय ने सभी अतिथियों को स्मृति चिन्ह भेंट कर उन्हें सम्मानित किया.





पिकनिक पार्टी नहीं है महिला दिवस


महिला दिवस पर सौंदर्य प्रसाधन और तरह-तरह के वस्त्राभूषण बनाने वाली कंपनियाँ फैशन शो आयोजित करती हैं।  लेकिन ये समझना जरूरी है कि महिला दिवस सिर्फ औरतों के पहनने-ओढ़ने या सिर्फ पिकनिक-पार्टी का ही दिन नहीं है...


महिला दिवस के कार्यक्रमों की श्रृंखला में भारतीय महिला फेडरेशन और घरेलू कामकाजी महिला संगठन की इंदौर इकाई ने 11 मार्च 2011 को ‘कामकाजी महिलाओं के संघर्ष और उनकी ताकत’ विषय पर व्याख्यान,  नाटक और महिलाओं की रैली का आयोजन किया गया। अर्थशास्त्री डॉ. जया मेहता ने कहा कि एक तरफ सरकार खाद्य सुरक्षा कानून को लगातार टालती जा रही है तो   दूसरी तरफ अनाज को विशाल कंपनियों के चंगुल में फँसाना चाहती है, जिनका मुख्य मकसद गरीब जनता का पेट भरना नहीं बल्कि मुनाफा कमाना है।

जया मेहता ने जोर देते हुए कहा कि देश के लोगों की आधी आबादी को भरपेट अनाज  नसीब नहीं होता। देश की 45प्रतिशत महिलाएँ रक्ताल्पता यानी एनीमिया से पीड़ित हैं। कमजोर माएं  कमजोर बच्चों को जन्म देती हैं। नतीजा ये है कि हमारे देश में कुपोषित बच्चों की तादाद दुनिया में सबसे ज्यादा है। इन कमजोर बच्चों का मस्तिष्क भी पूरी तरह विकसित नहीं हो पाता। जिन्हे भरपेट खाना तक नहीं मिल पाता, वे भला अमीर और मध्यम वर्ग के बच्चों के साथ किस तरह तरक्की की दौड़शामिल हो सकते हैं।

शहीद भवन पर आयोजित इस सभा को संबोधित करते हुए घरेलू कामकाजी महिला संगठन की ओर से सिस्टर रोसेली ने कहा कि महिलाओं को भी ये समझना चाहिए कि उनकी समस्याओं का हल धार्मिक जुलूसों में शामिल होने से नहीं निकलेगा। उन्हें संगठित होकर अपनी लड़ाई लड़नी होगी। हमें उन्हें जोड़ने के और मजबूत उपाय करने चाहिए।

आँगनवाड़ी यूनियन की अनीता  ने कहा कि 21 बरस से लड़ते-लड़ते उन्होंने रु. 275 मासिक से 1500 और अब 3000 का वेतन हासिल हुआ है। ये लड़ाई जारी रखनी होगी नहीं  तो सरकार कुछ नहीं देने वाली। सभा को निर्मला देवरे और मनीषा वोह ने भी संबोधित करते हुए कहा कि हम मजदूर औरतों को एक-दूसरे की मदद के लिए साथ आना चाहिए.



कार्यक्रम की एक अन्य वक्ता  कल्पना मेहताने‘स्वास्थ्य की राजनीति का शिकार बनतीं महिलाएँ’ विषय पर बात रखी .कल्पना ने बताया कि  अमेरिका व अन्य विकसित देश भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों की महिलाओं पर तरह-तरह के गर्भ-निरोधक आजमाते हैं और अशिक्षित व जागरूकताहीन जनता की जिंदगी के साथ नेता,अफसर और कंपनियाँ खिलवाड़ करती हैं।

भारतीय महिला फेडरेशन की सचिव सारिका श्रीवास्तव ने गतिविधियों का ब्यौरा देते हुए पिछले वर्ष  दिवंगत हुए कॉमरेड अनंत लागू और कॉमरेड राजेन्द्र केशरी को सभा की ओर से श्रृद्धांजलि दी। सभा का संचालन पंखुड़ी मिश्रा ने किया।

सभा के अंत में महिला मजदूरों के संघर्षों पर आधारित एक नाटक की प्रस्तुति हुई जिसमें गारमेंट फैक्टरी में काम करने वालीं, बीड़ी बनाने वालीं, भवन निर्माण मजदूरी करने वालीं और जमीन से बेदखली की परेशानियों से लड़ने वाली आम मेहनतकश महिलाओं के जीवट और जोश की कहानियाँ थीं। नाटक का शीर्षक था ‘जब हम चिड़िया की बात करते हैं’। नाटक में पंखुड़ी, रुचिता, सारिका, नेहा, शबाना, रवि और आशीष ने अभिनय किया।