Jan 31, 2011

बंधुवर परेशान हैं !


बंधुवर वकीलों को गणेश शंकर विद्यार्थी  से लेकर इमरजेन्सी आंदोलन में पत्रकारों का इतिहास- भूगोल बता डाले, लेकिन ये वकील भी...

निखिल आनंद

अबतक सियासी किस्सागोई और बहस का कारण बंधुवर बनते रहे हैं, लेकिन नवलेश की गिरफ्तारी के बाद इन दिनों बंधुवर ही खासे चर्चा में हैं। बंधुवर करना तो बहुत कुछ चाहते हैं, लेकिन डरते हैं कि ज्यादा बोले तो अगला नंबर उनका न हो। अब बंधुवर नौकरी बचाएं कि आंदोलन बचाएं, दुविधा में पड़े हैं। हालत ये है की अब तो राह चलते लोग मजाक उड़ाने लगे हैं कि जैसे पत्रकार न हुए कोई अपराध हो गया।

अब कुछ दिनों पहले की ही बात है, बंधुवर हाईकोर्ट गये प्रतिक्रिया लेने कुछ वकीलों की। मामला था सुप्रीम कोर्ट ने बिहार की निचली अदालतों की कार्यप्रणाली सुधारने के बारे में टिप्पणी की थी। वे प्रतिक्रिया लेते, उससे पहले ही वकीलों ने बंधुवर से पूछ लिया कि भाईजी का क्या हाल है? बंधुवर पहले तो समझे ही नहीं, तो वकील साहब ने कहा-'अरे वही आपके नवलेश भाई। देखिये,खबर आपलोग बहुत छापते हैं। जरा संभल के रहियेगा की अगला नंबर आप ही का न हो।'

 दूसरे वकील साहब ने कहा, 'बंधुवर! मणिपुर की खबर पता है न, 30 दिसम्बर 2010 को एक संपादक की गिरफ्तारी हुई तो मणिपुर में अखबार ही नहीं छपा।'बंधुवर को खबर का पता ही नहीं था, तो भौचक रह गए। वकील साहब ने कहा की 'गूगल' पर जाकर खोजिये मिल जायेगा। बंधुवर फजीहत होते देख कहते हैं- ऐसा नहीं है जनाब, हमारे साथियों ने पूर्णिया और फतुहा में विरोध-प्रदर्शन किया है।

वकील साहब ने कटाक्ष किया-'भाई बिहार की पत्रकारिता की धुरी पटना से हैंडल होती है। ये तो गजब हो गया है कि पटना में नवलेश के मसले पर विरोध और सड़क पर उतरना तो दूर, कोई लिखने को भी तैयार नहीं है। लगता है कि आपलोग भी भोंपू बनते जा रहे हैं। बंधुवर ने वकीलों को गणेश शंकर विद्यार्थी, हजारी प्रसाद द्विवेदी से लेकर इमरजेन्सी आंदोलन में पत्रकारों का इतिहास- भूगोल बता डाला। लेकिन ये वकील भी पता नहीं किस जनम का बैर मिटा रहे थे।

वकीलों ने  बंधुवर को फिर धर-लपेटा, ' भाई! हमारे वकालत में छेद देखने आये हैं। अपने दुकान में देखिये, ये आप ही लोग हैं जनाब जो छोटी कुर्सियों को सत्ता का केन्द्र बनाते हैं। सत्ता से गठजोड़ कर सदन पहुँचने की कला आप ही लोग बेहतर जानते हैं।'

जान बचते न देख बंधुवर थोड़ा  आदर्शवादी होकर कहते हैं- 'अब पहले वाली बात नहीं है, लोकतंत्र के सभी खम्बे नैतिकता के मसले पर सवालों के घेरे में हैं।' वकील साहब गुस्साए-'अब अपना छेद छुपाने के लिए सबको मत लपेटिये। मुखौटे के पीछे क्या है, सब पता है । सत्ता की चाटुकारिता और चापलूसी से गांवों में ठेकेदारी कराने के किस्से भी मशहूर हैं। नीरा राडिया के बहाने तो दलाली में शामिल आपके मीडिया के मठाधीशों  के चेहरे पहले ही बेनकाब हो चुके है।'

बाप-रे-बाप! जिंदगी में इतनी फजीहत किसी लंगोटिया दोस्त और खानदानी दुश्मन ने भी बंधुवर की नहीं की थी। वकीलों के व्यंग्य-बाण से घायल बंधुवर सोचने लगे, नवलेश के मसले पर वाकई सब चुप हैं। एक दिन बंधुवर ने जोश में आकर अपने सहयोगियों को फोन किया कि 'भाई ये तो गजब हो गया है। अब तो पत्रकारों की भी शामत आ गई है। हमें कुछ करना चाहिये, सो कल 2 बजे बैठक में आइयेगा। नवलेश के मसले पर आंदोलन खड़ा करना है।' बंधुवर पहुँचे तो बैठक स्थल पर अकेले पहले आदमी थे। दो घंटे बैठे तो कुल जमा चार  लोग पहुँचे। अब बंधुवर ने थककर कहा कि 'चलिये अपने बड़े श्रमजीवी बंधुओं से मुलाकात कर एक प्रेस रिलीज निकालते हैं।'

तब तक सीबीआई इन्क्वारी की खबर आई तो बड़े बंधु ने फोन किया  'बंधुवर अब खुशी मनाईये, आपकी बात मान ली गई है।' बंधुवर ने पूछा कौन सी भईया।'तो महोदय ने खुशी से उछलते हुए कहा 'बंधुवर नीतीशजी ने सीबीआई इन्क्वारी की घोषणा कर दी है। अब तो आप खुश हैं न... अब तो प्रेस रिलीज निकालने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी।'

फोन कट चुका था और बंधुवर हाथ में रिसीवर पकड़कर उसे झुनझुने की तरह हिला रहे थे।


(लेखक निखिल आनंद टीवी पत्रकार हैं. फिलहाल 'इंडिया न्‍यूज बिहार' के राजनीतिक संपादक  हैं. उनसे nikhil.anand20@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है .) 



आंदोलन के 'प्याज' और जनयुद्ध की शुरूआत


तो जी आप जे कह रहे हो कि विनायक सेन आंदोलनों के प्याज हो गये हैं। जैसे महंगायी के नाम पर मीडिया और सरकार ऐसे बात करते हैं मानों प्याज को छोड़ बाकी पर तो कोई महंगायी ही न हो...

अजय प्रकाश

महात्मा गांधी के पुण्यतिथि  30जनवरी को देश के तमाम हिस्सों में भ्रष्टाचार विरोधी रैली का आयोजन किया गया। इसी अवसर पर दिल्ली के लालकिला से शहीद भगत सिंह पार्क तक माओवादियों के सहयोगी होने के आरोप में बंद डॉक्टर विनायक सेन के रिहाई के समर्थन में एक संक्षिप्त रैली भी निकाली गयी। भ्रष्टाचार के विरोधियों की रैली में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध के शुरूआत की घोषणा हुई,तो वहीं विनायक समर्थकों ने सरकारी हिंसा के मुकाबले अहिंसा की ताकत के पक्ष में क्रांतिकारी गीतों और भाषणों का आयोजन किया।

संक्षिप्त और वृहत रैली की संयुक्त सफलता के बाद विश्लेषकों ने दोनों रैलियों को मिलाकर ‘हॉलीडे रैली’की संज्ञा दी है। रैली को हॉलीडे कहने वालों का तर्क था कि 30 जनवरी को रविवार होने की वजह से वे ऐसा कह रहे थे, जबकि तरफदारों ने गांधी जी के जन्मदिन की मजबूरी कहा। बहरहाल भगत सिंह पार्क के पास नौकरी बजा रहे दिल्ली पुलिस के सिपाही यशवीर को इस बात से राहत रही कि जो लोग सरकार की हिलाने-उखाड़ने की बात कर रहे हैं, बेसिकली यह उनकी ड्यूटी है। आंदोलनकारियों को संभालने की ड्यूटी में लगे सिपाही यशवीर की राय में ऐसा करके वे लोग अपने चुन्नु-मुन्नु का पेट भरते हैं।

सिपाही की बात सुन रहे एक बुद्धिजीवी जो कि सभा के भागीदार थे,ने कहा ‘ऐसा नहीं है। पार्क में जमा हुए और नारा लगा रहे लोग विनायक सेन की नाजायज गिरफ्तारी के खिलाफ लड़ रहे हैं। ये लोग चाहते हैं कि सरकार बिना शर्त विनायक सेन को छोड़े। इसमें किसी का कोई स्वार्थ नहीं है, जैसा कि आप सोच रहे हैं। सिर्फ ड्यूटी ही न बजाइये, थोड़ा पढ़ा लिखा कीजिए।’

बुद्धिजीवी का तेवर देख सिपाही उभरने वाली झंझट को ताड़ गया। अपनी बात से पीछे हटते हुए बोला ‘साहब जी हमको कहां पढ़ने की फुरसत, आप ही बता दीजिए।’

बुद्धिजीवी- ‘क्या बतायें आपको, आप लोगों को तो सिर्फ निरीह जनता पर गोली चलानी है।’

सिपाही-‘ना जी ना। मैंने तो कभी किसी को एक थप्पड़ भी नहीं मारा, गोली की कौन कहे।’

बुद्धिजीवी-‘अरे आपने नहीं चलायी होगी,बाकी तो चलाते हैं न।’


सिपाही-‘बाबूजी मैं भी तो आपको यही बात समझाना चाह रहा हूं  कि आपकी रोटी आंदोलन से भले न चले लेकिन बाकियों की तो चलती है।’

बुद्धिजीवी-‘सो तो है। पर जब देश ही भ्रष्टाचार और अपराध की गिरफ्त में हो तो क्या किया जा सकता।’

सिपाही- ‘हां जी-हां जी, कुछ नहीं हो सकता।’

‘ये लीजिये हमलोगों ने एक पर्चा निकाला है। अकेले सिर्फ विनायक सेन की ही रिहाई बात क्यों  की जा रही है? जरूरी है कि काले कानूनों के खिलाफ और उन हजारों लोगों के पक्ष में भी संघर्ष हो जो देशद्रोह और अन्य जन संघर्षों  के मामलों में जेलों में बंद हैं।’ -इतना कह एक  एक ने पर्चा बुद्धिजीवी की ओर बढ़ाया तो सिपाही भी उचक कर देखने लगा। तभी बुद्धिजीवी बोले, ‘कॉमरेड इन्हें भी दीजिए यह लोग भी पढ़े-लिखें।’

उसके बाद पर्चा बांट रहे सज्जन ने सिपाही की ओर पर्चा बढ़ा बोलना शुरू किया ‘बेशक विनायक सेन के खिलाफ सरकार ने जो मुकदमा दर्ज किया है वह गलत है। मगर सिर्फ विनायक की बात कर बाकियों को भूल जाना पैर में कुल्हाड़ी मारना है। हो सकता है कल को सरकार विनायक को छोड़ दे,फिर क्या जुल्मतों पर बात बंद हो जायेगी।’-इतना बोल सज्जन ने सिपाही को पर्चा थमा दिया।

सिपाही-‘तो जी आप जे कह रहे हो कि विनायक सेन आंदोलनों के प्याज हो गये हैं। जैसे महंगायी के नाम पर मीडिया और सरकार ऐसे बात करते हैं मानों प्याज को छोड़ बाकी पर तो कोई महंगायी ही न हो।’

पर्चा वाले सज्जन, ‘बिल्कुल सही समझा आपने। हमलोग भी यही कह रहे हैं कि जिस तरह प्याज-प्याज चिल्लाकर सरकार बाकी चीजों की महंगायी चुपके से बढ़ाती जा रही है और हम हैं कि महंगायी के खिलाफ लड़ने के नाम पर सिर्फ प्याज के लिए आंसू बहाये जा रहे हैं। उसी तरह ज्यादातर बुद्धिजीवी और समर्थक विनायक माला का यों जाप कर रहे हैं,मानों बाकी सब छटुआ हों। परिणाम के तौर पर देखिये जबसे प्याज की कीमत थोड़ी कम हो गयी है तबसे मीडिया वाले महंगायी गायन में डायन शब्द का इस्तेमाल भूल रहे हैं,जबकि इसी महीने फिर से कई चीजों में महंगायी बढ़ी है। तो सोचिये विनायक मामले में भी तो यही होगा।’

बहस में नया मोड़ आते देख बुद्धिजीवी पर्चा बांटने वाले सज्जन की ओर मुखातिब हुए। पर सज्जन थे कि ‘विनायक सेन हुए प्याज’ कथा पर धारा प्रवाह बोले जा रहे थे। सिपाही यशवीर की निगाह बुद्धिजीवी से मिली तो उसने कहा, ‘ये देखिये आपके सरजी कुछ कह रहे हैं...’

बुद्धिजीवी- ‘हमलोगों में कोई सर या नौकर नहीं होता। हम सभी लोग कार्यकर्ता होते हैं।’

सिपाही- ‘ओह जी सॉरी। देख कर लगा था कि आप साहब हैं और ये आपके....’

‘कोई नहीं’- सिपाही से बुद्धिजीवी इतना बोल पर्चा वाले सज्जन की ओर मुखातिब हुए, ‘अरे आप माक्र्सवादी हैं या नहीं। प्रधान अंतरविरोध, मुख्य अंतरविरोध आदि का नाम सुना है या नहीं जो एक सिपाही से आंदोलन की रणनीति समझ रहे हैं। अगर माक्र्सवाद नहीं समझते तो भी इतना जान लीजिए कि कभी पूरी मछली का शिकार नहीं किया जाता है, टारगेट आंख पर किया जाता है।’

अभी बुद्धिजीवी इतना बोले ही थे कि मंच संबोधित करने के लिए उनकी बुलाहट हो गयी और वे वहां से मछली की आंख पर टारगेट करने लगे। उधर रामलीला मैदान से दोपहर में भ्रष्टाचार के खिलाफ चला जनयुद्ध जंतर मंतर तक पहुंच चुका था और वहां एक बुद्धिजीवी कह रहे थे कि ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ जनयुद्ध की शुरूआत हो चुकी है।’

बेचारे ड्यूटी पर तैनात सिपाही यहां भी हंस रहे थे कि भ्रष्टाचार के विरोध वाले भी खूब उल्लू बना रहे हैं और लोग हैं कि जंगलों में चलाये जा रहे माओवादियों के जनयुद्ध को यहां चलाने की बात पर तालियां बजा रहे हैं।  उन्हीं सिपाहियों में एक ने कहा,‘फिर तो यह भी एक भ्रष्टाचार हुआ,भरमाने का भ्रष्टाचार।’


एक गाँव, एक महीना और पंद्रह मौतें


दुद्धी तहसील के  गांवों में हैण्डपम्प जबाब दे रहे है और कुएं सूख रहे है। पानी के अभाव किसानों की फसल पिछले चार वर्षो से बरबाद हो रही है और इससे पैदा हुई आर्थिक तंगी की वजह आदिवासी गेठी, कंदा खाने को मजबूर हैं... 

दिनकर कपूर

उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जनपद में जहरीले पानी को पीने से लगातार मौतें हो रही है। विगत एक माह में म्योरपुर ब्लाक के बेलहत्थी ग्रामसभा के रजनी टोला में रिहन्द बांध के जहरीले पानी को पीने से पन्द्रह बच्चों की मौत हो गयी है। इसके पूर्व भी इसी ब्लाक के कमरीड़ाड,लभरी और गाढ़ा में दो दर्जन से ज्यादा बच्चे रिहन्द बांध का पानी पीने से मर चुके है।

इस सम्बंध में जन संघर्ष मोर्चा के पत्र को संज्ञान में लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने लेकर जिलाधिकारी सोनभद्र को निर्देषित भी किया था और उनसे रिर्पोट भी तलब की थी बावजूद इसके जिला प्रषासन का रवैया संवेदनहीन ही बना रहा है। यहां तक कि आंदोलन के दबाब में प्रदूषण बोर्ड और मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा करायी गयी जांच से यह प्रमाणित होने के बाद भी कि रिहन्द बांध का पानी जहरीता है, यूपी  सरकार और जिला प्रषासन द्वारा इसे जहरीला बनाने वाली औद्योगिक इकाईयों के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गयी और न ही रिहंद बांध के आस पास बसे गांवों में शुद्ध पेयजल की व्यवस्था की गयी।

अगर समय रहते जिला अधिकारी सोनभद्र ने कार्यवाही की होती तो बेलहत्थी में बच्चों को मरने से बचाया जा सकता था। जनपद में विकास के लिए आ रहे धन की चौतरफा लूट हो रही है विकास के सारे दावे कोरी लफ्फाजी है। शुद्ध पेयजल देने में सरकार नाकाम रही है। आज भी लोग बरसाती नालों और बंधों का पानी पीने को मजबूर है और इससे विभिन्न बीमारियों का षिकार होकर बेमौत मर रहे है। अभी से ही इस पूरे क्षेत्र में पेयजल का संकट दिख रहा है।

१.रामधारी पुत्र बलजोर उम्र 1 वर्ष
2. रामकिशुन पुत्र वंश बहादुर उम्र 1 वर्ष
3. सुनीता कुमारी पुत्री छबिलाल उम्र 6 वर्ष
4. बबलू पुत्र शिवचरण  उम्र 1 वर्ष
5. मानकुवंर पुत्री ब्रजमोहन उम्र 8 वर्ष
6. सन्तोष कुमार पुत्र शंकर उम्र 1 वर्ष
7. सविता कुमारी पुत्री जीत सिंह खरवार उम्र 3 वर्ष
8. बबलू सिंह पुत्र जवाहिर सिह खरवार उम्र 2 वर्ष
9. चादंनी कुमारी पुत्री राजेन्द्र उम्र 3 वर्ष
10. मुनिया कुमारी पुत्री रामचरन उम्र 3 वर्ष
11. कुन्ती कुमारी पुत्री हिरालाल उम्र 2 वर्ष
12. लल्ला पुत्र देवनारायण उम्र 6 वर्ष
13. मुन्ना कुमार पुत्र सुभाष उम्र 2 वर्ष
14. जितराम पुत्र अशोक उम्र 2 वर्ष
15. बबिता कुमारी पुत्री रमाशंकर  उम्र 5 वर्ष

दुद्धी तहसील के तो गांवों में हैण्डपम्प जबाब दे रहे है और कुएं सूख रहे है। स्थिति इतनी बुरी है कि पानी के अभाव किसानों की फसल पिछले चार वर्षो से बरबाद हो रही है और इससे पैदा हुई आर्थिक तंगी की वजह से यहां के आदिवासी गेठी कंदा खाने को मजबूर है,जो की जहरीला है। यही नहीं इन बुरे हालतों में भी मनरेगा में काम कराकर मजदूरों की करोड़ो रूपया मजदूरी भुगतान नही किया गया। लम्बे संघर्षो से हासिल वनाधिकार कानून को जनपद में विफल कर दिया गया है।

आदिवासियों तक के उन अधिकारों को जिसे गांव की वनाधिकार समिति ने स्वीकृत कर दिया था उसे भी उपजिलाधिकारी ने खारिज कर दिया गया है। दूसरी तरफ जनपद में प्राकृतिक सम्पदा और राष्ट्रीय सम्पदा की चौतरफा लूट हो रही है। सोन नदी को बंधक बना लिया गया है और सेंचुरी  एरिया और वाइल्ड जोन में जहां तेज आवाज निकालना भी मना है वहां खुलेआम ब्लास्टिंग करायी जा रही है।

यहां की पहाडियों को लूटकर मायावती सरकार लखनऊ में पार्क और बादलपुर में महल बनाने में लगी हुई है। इस लूट के खिलाफ और आम नागरिकों की जिदंगी की रक्षा के के लिए जन संघर्ष मार्चा का आंदोलन जारी है।


Jan 30, 2011

तिरंगे की आड़ में भाजपा में मची होड़


'राष्ट्रीय एकता यात्रा' भारतीय जनता पार्टी के भीतरी सत्ता संघर्ष के रूप में उभरकर सामने आया है.भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से भयभीत सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे बिना जनाधार वाले नेताओं ने स्वयं को मोदी से आगे ले जाने की गरज़ से इस यात्रा को अपना नेतृत्व प्रदान किया...


तनवीर जाफरी

राष्ट्रीय ध्वज के स्वाभिमान की आड़ में भारतीय जनता पार्टी द्वारा गत् दिनों एक बार फिर भारतवासियों की भावनाओं को झकझोरने का राजनैतिक प्रयास किया गया जो पूरी तरह न केवल असफल बल्कि हास्यास्पद भी रहा। कहने को तो भाजपा द्वारा निकाली गई राष्ट्रीय एकता नामक यह यात्रा कोलकाता से लेकर ज मू-कश्मीर की सीमा तक 12 राज्यों से होकर गुज़री। परंतु यात्रा के पूरे मार्ग में यह देखा गया कि आम देशवासियों की इस यात्रा के प्रति कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आई।

सुषमा  स्वराज:  कैसे बनें पीएम उम्मीदवार

हां इस यात्रा के बहाने अपना राजनैतिक भविष्य संवारने की होड़ में लगे शीर्ष नेताओं से लेकर पार्टी के छोटे कार्यकर्ताओं तक ने इसे अपना समर्थन अवश्य दिया। भारतीय जनता पार्टी द्वारा अपना राजनैतिक जनाधार तलाश करने के लिए पहले भी इस प्रकार की कई 'भावनात्मक यात्राएं' निकाली जा चुकी हैं। लिहाज़ा जनता भी अब इन्हें पेशेवर यात्रा संचालक दल के रूप में ही देखती है। फिर भी भाजपा ने अपने कुछ कार्यकर्ताओं के बल पर निकाली गई इस यात्रा को जम्मू -कश्मीर व पंजाब राज्यों की सीमा अर्थात् लखनपुर बार्डर पर जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा रोके जाने को इस प्रकार प्रचारित करने की कोशिश की गोया पार्टी के नेताओं ने राष्ट्रीय ध्वज के लिए बहुत बड़ा बलिदान कर दिया हो अथवा इसकी आन-बान व शान के लिए अपनी शहादत पेश कर दी हो।

परंतु राजनीतिक  विश्लेषक  इस यात्रा को न तो ज़रूरी यात्रा के रूप में देख रहे थे न ही इसे भाजपा के चंद नेताओं की राष्ट्रभक्ति के रूप में देखा जा रहा था। बजाए इसके तिरंगा यात्रा अथवा राष्ट्रीय एकता यात्रा को भारतीय जनता पार्टी के भीतरी सत्ता संघर्ष के रूप में देखा जा रहा था। भाजपा में नरेंद्र मोदी के बढ़ते प्रभाव से भयभीत सुषमा स्वराज तथा अरुण जेटली जैसे बिना जनाधार वाले नेताओं ने स्वयं को मोदी से आगे ले जाने की गरज़ से इस यात्रा को अपना नेतृत्व प्रदान किया।

इसके आलावा  यह भी था कि  हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के पुत्र और  सांसद अनुराग ठाकुर भारतीय जनता युवा मोर्चा के अध्यक्ष होने के बाद स्वयं को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने की बुनियाद डालना चाह रहे थे। अत:तिरंगा यात्रा की आड़ में देशवासियों की भावनाओं को भड़काने तथा अपने नाम का राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार करने का इससे 'बढिय़ा अवसर' और क्या हो सकता था। यदि यह यात्रा भाजपा नेताओं की आपसी होड़ का परिणाम न होती तो पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह महात्मा गांधी की समाधि पर 26जनवरी को जाकर धरने पर क्यों बैठते। भाजपा का अथवा भाजपा नेताओं का  महात्मा गांधी या उनकी नीतियों से वैसे भी क्या लेना-देना।

इधर भाजपा नेता अरुण जेटली व सुषमा स्वराज तथा नीरा राडिया टेप प्रकरण में चर्चा में आने वाले भाजपा नेता अनंत कुमार बार-बार देश को मीडिया के माध्यम से यह बताने की कोशिश करते रहे कि हमें लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका गया। इनका आरोप है कि जम्मू -कश्मीर की उमर अब्दुल्ला सरकार ने केंद्र की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के इशारे पर हमें श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोका है। इन नेताओं द्वारा यह भी कहा जा रहा है कि लाल चौक पर हमें झंडा फहराने से रोककर कश्मीर की उमर सरकार व केंद्र सरकार दोनों ही ने कश्मीर के अलगाववादियों तथा वहां सक्रिय आतंकवादियों के समक्ष अपने घुटने टेक दिए हैं।


अनुराग ठाकूर का चेहरा: स्थापित होने की  कवायद
 बड़ी अजीब सी बात है कि यह बात उस पार्टी के नेताओं द्वारा की जा रही है जिसके नेता जसवंत सिंह ने कंधार विमान अपहरण कांड के दौरान पूरी दुनिया के सामने तीन खूंखार आतंकवादियों को भारतीय जेलों से रिहा करवा कर कंधार ले जाकर तालिबानों की देख-रेख में आतंकवादियों के आगे घुटने टेकते हुए उन्हें आतंकियों के हवाले कर दिया। जिनके शासन काल में ही देश की अब तक की सबसे बड़ी आतंकी घुसपैठ कारगिल घुसपैठ के रूप में हुई। देश के इतिहास में पहली बार हुआ संसद पर आतंकी हमला इन्हीं के शासन में हुआ। परंतु अब भी यह स्वयं को राष्ट्र का सबसे बड़ा पुरोधा व राष्ट्रभक्त बताने से नहीं हिचकिचाते।

जिस उमर अब्दुल्ला की राष्ट्रभक्ति पर आज यह संदेह जता रहे हैं वही अब्दुल्ला परिवार इनके साथ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का सहयोगी दल था तब राष्ट्रभक्त कहते थे. ठीक उसी प्रकार जैसे कि 24अप्रैल 1984को भारतीय संविधान को फाड़ कर फेंकने वाले प्रकाश सिंह बादल आज इनकी नज़रों में सबसे बड़े राष्ट्रभक्त बने हुए हैं। जैसे कि उत्तर भारतीयों को मुंबई से भगाने का बीड़ा उठाने वाले बाल ठाकरे जैसे अलगाववादी प्रवृति के राजनीतिज्ञ इनके परम सहयोगी बने हुए हैं। मुख्यमंत्री  उमर अब्दुल्ला ने भाजपा की तिरंगा यात्रा को लाल चौक पर तिरंगा फहराने से रोकने का प्रयास इसलिए किया था कि उनके अनुसार वे नहीं चाहते थे कि भाजपा की इस यात्रा से प्रदेश के हालात बिगड़ जाएं।

अभी ज़्यादा दिन नहीं बीते हैं जब पूरी कश्मीर घाटी कश्मीरी अलगाववादी नेताओं  के आन्दोलन में शामिल होकर  पत्थरबाज़ी कर रही थी। इस घटना में सैकड़ों कश्मीरी तथा कई सुरक्षाकर्मी आहत भी हुए। इससे पूर्व अमरनाथ यात्रा को ज़मीन आबंटित किए जाने के मामले को लेकर जम्मू में जिस प्रकार तनाव फैला था तथा पूरी घाटी शेष भारत से कई दिनों तक कट गई थी यह भी पूरे देश ने देखा था। ऐसे में एक ओर भाजपा ने जि़द की शक्ल अख्तियार  करते हुए जहां श्रीनगर के लाल चौक पर गणतंत्र दिवस पर झंडा फहराने की घोषणा की थी वहीं कुछ अलगाववादी नेताओं ने भी यह चुनौती दे डाली था कि भाजपा नेताओं में यदि हिम्मत  है तो वे लाल चौक पर तिरंगा फहराकर दिखाएं।

जाहिर  ऐसे में पार्टी के कई शीर्ष नेताओं सहित भाजपा की यात्रा में शामिल सभी कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी  भी राज्य सरकार की हो जाती है। लिहाज़ा यदि राज्य के वातावरण को सामान्य रखने तथा भाजपा नेताओं की सुरक्षा के मद्देनज़र उनकी जि़द पूरी नहीं की गई तो इसमें स्वयं को अधिक राष्ट्रभक्त व राष्ट्रीय ध्वज का प्रेमी बताना तथा दूसरे को राष्ट्रद्रोही या तिरंगे को अपमानित करने वाला प्रचारित करना भी राजनैतिक स्टंट मात्र ही है।

हम भारतवासी होने के नाते बेशक यह मानते हैं कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। परंतु यह भी एक कड़वा सच है कि हमारा यह कथन न तो पाकिस्तान के गले से नीचे उतरता है न ही पाकिस्तान से नैतिक,राजनैतिक तथा पिछले दरवाज़े से अन्य कई प्रकार का समर्थन पाने वाले कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के गले से। यदि मसल-ए-कश्मीर इतना ही आसान मसला होता तो हम आम भारतीयों की ही तरह भाजपा नेता व पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी यही कहा होता कि कश्मीर का मसला भारतीय संविधान के दायरे के अंतर्गत ही हल होना चाहिए। परंतु इसके बजाए उन्होंने भी यही कहना उचित समझा कि कश्मीर समस्या का समाधान इंसानियत के दायरे में किया जाना चाहिए।

लिहाज़ा वर्तमान समय में इंसानियत का तक़ाज़ा यही था कि कश्मीर घाटी में बामुश्किल कायम हुई शांति को बरकरार रहने दिया जाए तथा उन कश्मीरी अवाम का दिल जीतने का प्रयास किया जाए जो मुट्ठीभर   अलगाववादी नेताओं के बहकावे में आकर कभी हथियार उठा लेते हैं तो कभी पत्थरबाज़ी करने लग जाते हैं।  इसलिए लाल चौक पर तिरंगा लहराने की जि़द पूरी करने के पहले तो  भाजपा को नक्सलवाद,आतंकवाद तथा अलगाववाद से प्रभावित तमाम ऐसे इलाकों की फिक्र  करनी चाहिए जहां तिरंगा फहराना तो दूर की बात है भारतीय शासन व्यवस्था को ही स्वीकार नहीं किया जाता.

लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafri1@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.



Jan 29, 2011

अमर रहे सुर तुम्हारा

  
भीमसेन जोशी की संगीत-दृष्टि अपने घराने से होती हुई बहुत दूर, दूसरे घरानों, संगीत के लोकप्रिय रूपों, मराठी नाट्य और भाव संगीत,कन्नड़ भक्ति-गायन और कर्नाटक संगीत तक जाती थी। यह एक ऐसी दृष्टि थी जिसमें समूचा भारतीय संगीत एकीकृत रूप में गूंजता था...


मंगलेश डबराल

उन्नीसवीं शताब्दी के आखिरी वर्षों में उस्ताद अब्दुल करीम खां की जादुई आवाज ने जिस किराना घराने को जन्म दिया था,उसे बीसवीं शताब्दी में सात दशकों तक नयी ऊंचाई और लोकप्रियता तक ले जाने वालों में भीमसेन जोशी सबसे अग्रणी  थे। किराना घराने की गायकी एक साथ मधुर और दमदार मानी जाती है और इसमें कोई संदेह नहीं कि जोशी इस गायकी के शीर्षस्थ कलाकार थे।

अर्से से बीमार चल रहे जोशी का निधन अप्रत्याशित नहीं था,हालांकि उनके न रहने से संगीत के शिखर पर एक बड़ा शून्य नजर आता है। लेकिन सिर्फ यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि भीमसेन जोशी किराना घराने के सबसे बड़े संगीतकार थे। दरअसल उनकी संगीत-दृष्टि अपने घराने से होती हुई बहुत दूर, दूसरे घरानों, संगीत के लोकप्रिय रूपों, मराठी नाट्य और भाव संगीत,कन्नड़ भक्ति-गायन और कर्नाटक संगीत तक जाती थी। यह एक ऐसी दृष्टि थी जिसमें समूचा भारतीय संगीत एकीकृत रूप में गूंजता था।

कर्नाटक संगीत के महान गायक बालमुरलीकृष्ण के साथ उनकी विलक्षण जुगलबंदी से लेकर लता मंगेशकर के साथ उपशास्त्रीय गायन इसके उदाहरण हैं। दरअसल भीमसेन जोशी इस रूप में भी याद किये जायेंगे कि उन्होंने रागदारी की शुद्धता से समझौता किये बगैर,संगीत को लोकप्रियतावादी बनाये बगैर उसका एक नया श्रोता समुदाय पैदा किया। इसका एक कारण यह भी था कि उनकी राग-संरचना इतनी सुंदर,दमखम वाली और अप्रत्याशित होती थी कि अनाड़ी श्रोता भी उसके सम्मोहन में पड़े बिना नहीं रह सकता था।




धारवाड़ के गदग जिले में 1922  में जन्मे भीमसेन जोशी की जीवन कथा भी आकस्मिकताओं से भरी हुई है। वे 11 वर्ष की उम‘ में अब्दुल करीम खां के दो 78 आरपीएस रिकॉर्ड सुन कर वैसा ही संगीत सीखने घर से भाग निकले थे और बंगाल से लेकर पंजाब तक भटकते,विष्णुपुर से लेकर पटियाला घरानों तक के सुरों को आत्मसात करते रहे।

अंततः घर लौटकर उन्हें पास में ही सवाई गंधर्व गुरू के रूप में मिले जो अब्दुल करीम खां साहब के सर्वश्रेष्ठ शिष्य थे। उन्नीस वर्ष की उम‘में पहला सार्वजनिक गायन करने वाले भीमसेन जोशी पर जयपुर घराने की गायिका केसरबाई केरकर और इंदौर घराने के उस्ताद अमीर खां की मेरुखंड शैली का प्रभाव भी पड़ा। इस तरह उन्होंने अपने संगीत का समावेशी स्थापत्य निर्मित किया जिसकी बुनियाद में किराना था, लेकिन उसके विभिन्न  आयामों में दूसरी गायन शैलियां भी समाई हुई थीं।

भीमसेन जोशी अपने गले पर उस्ताद अमीर खां के प्रभाव और उनसे अपनी मित्रता का जिक‘अक्सर करते थे। कहते हैं कि एक संगीत-प्रेमी ने उनसे कहा कि आपका गायन तो महान है लेकिन अमीर खां समझ में नहीं आते। भीमसेन जोशी ने अपनी सहज विनोदप्रियता के साथ कहा: ‘ठीक है, तो आप मुझे सुनिए और मैं अमीर खां साहब को सुनता रहूंगा।’

भीमसेन जोशी के व्यक्तित्व में एक दुर्लभ  विनम्रता  थी। किराना में सबसे मशहूर होने के बावजूद वे यही मानते रहे कि उनके घराने की सबसे बड़ी गायिका उनकी गुरू-बहन गंगूबाई हंगल हैं। एक बार उन्होंने गंगूबाई से कहा,‘बाई, असली किराना घराना तो तुम्हारा है। मेरी तो किराने की दुकान है।’ अपने संगीत के बारे में बात करते हुए वे कहते थे: ‘मैंने जगह-जगह से, कई उस्तादों से संगीत लिया है और मैं शास्त्रीय   संगीत का बहुत बड़ा चोर हूं। यह जरूर है कि कोई यह नहीं बता सकता कि मैंने कहां से चुराया है।’  

दरअसल विभिन्न  घरानों के अंदाज भीमसेन जोशी की गायकी में घुल-मिलकर इतना संश्लिष्ट रूप ले लेते थे कि मंद्र से तार सप्तक तक सहज आवाजाही करने वाली उनकी हर प्रस्तुति अप्रत्याशित रंगों और आभा  से भर उठती थी। किराना का भंडार ग्वालियर या जयपुर घराने की तरह बहुत अधिक या दुर्लभ रागों से भरा हुआ नहीं है,लेकिन किसी राग को हर बार एक नये अनुभव की तरह,स्वरों के लगाव,बढ़त और लयकारी की नयी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत करने का जो कौशल भीमसेन जोशी के पास था वह शायद ही किसी दूसरे संगीतकार के पास रहा हो।

मालकौंस, पूरिया धनाश्री, मारू विहाग, वृंदावनी सारंग, मुल्तानी, गौड़ मल्हार, मियां की मल्हार, तोड़ी, शंकरा, आसावरी, यमन, भैरवी  और कल्याण के कई प्रकार उनके प्रिय रागों में से थे और इनमें शुद्ध कल्याण और मियां की मल्हार को वे जिस ढंग से गाते थे,वह अतुलनीय था। उनके संगीत में एक साथ किराना की मिठास और ध्रुपद  की गंभीरता थी, जिसे लंबी, दमदार और रहस्यमय तानें, जटिल सरगम और मुरकियां अलंकृत करती रहती थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था: ‘गाते हुए आपकी साधना आपको ऐसी सामर्थ्य देती है कि यमन या भैरवी  के स्वरों से आप किसी एक प्रतिमा को नहीं, बल्कि समूचे ब्राह्मांड को बार-बार सजा सकते हैं।’

भीमसेन जोशी करीब सत्तर  वर्षों तक अपने स्वरों से किसी एक वस्तु या मूर्ति को नहीं,समूची सृष्टि को अलंकृत करते रहे। यही साधना थी जो उन्हें बीसवीं सदी में उस्ताद अमीर खां साहब के बाद इस देश के समूचे शास्त्रीय   संगीत का सबसे बड़ा कलाकार बनाती है और उन्हीं की तरह वे अपनी देह के अवसान के बावजूद अपने स्वरों की अमरता में गूंजते रहेंगे।
 (एनबीटी  से साभार)


 

 साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित , हिंदी के प्रमुख कवि और पत्रकार.उनसे mangalesh.dabral@gmail.com   पर संपर्क  किया जा सकता है.




 
 
 

पब्लिक को लतियाये पुलिस


उत्तर प्रदेश की औद्योगिक नगरी कानपूर में  महंगाई के खिलाफ लोग सड़क  पर आये तो पुलिस  उन्हें  कुछ इस तरह से संभाला. जाहिर है पुलिस ने ऐसा कानून और व्यवस्था बनाये रखने के लिए किया....

  





Jan 28, 2011

समर्थन की यह तहजीब घातक होगी कामरेड


विनायक सेन के उन पक्षकारों की चालबाजी तो नहीं जो विनायक को हीरो बनाकर काले कानूनों को ढंग से उठने ही न दें,जिनका इस्तेमाल कर राज्य ने इतने लोगों को भारतीय जेलों में तो बंद किया ही है,जिनकी संख्या विनायक सेन के पक्ष में आयोजित किसी भी धरने से कई गुना है...

अजय प्रकाश

माओवादियों के सहयोगी होने का आधार बताकर भारतीय राज्य ने छत्तीसगढ़ की अदालत के जरिये सामाजिक और मानवाधिकार नेता विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है।

इस मुकदमें में विनायक सेन के साथ माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य नारायण सान्याल और कोलकाता के व्यापारी पीयुष गुहा को भी बराबर की सजा सुनायी गयी है। 24 दिसंबर से सजा भुगत रहे विनायक सेन के विशेष अपराध के बारे में अदालत ने माना है कि वे जेल में बंद नारायण सान्याल के संवदिया का काम करते थे,जिसके एक दूसरे जरिया पीयुष गुहा थे।

मुल्क में बने कानूनों के मुताबिक माओवादी होना देशद्रोही होना है। इस अपराध में पुलिस हत्या,मुठभेड़,फर्जी गिरफ्तारी, लूटपाट, बलात्कार आदि कर सकती है, जबकि अदालत आजीवन कारावास से लेकर फांसी की सजा देने का अधिकार रखती है। यह तथ्य थानों के अधिकारियों और जानकारों के बीच पिछले कई वर्षों से दर्ज है। इसलिए नारायण सान्याल के संपर्क में विनायक सेन का आना कानूनन जुर्म है। कानून की ही स्वस्थ परंपरा को बरकरार रखते हुए रायपुर के जिला और सत्र न्यायधीश पीबी वर्मा की अदालत ने विनायक सेन को सजा मुकर्रर की है।

हालांकि अभी यह तथ्य उजागर नहीं हो पाया है कि विनायक सेन की रिहाई के लिए संघर्षरत हजारों लोग इस फैसले से हतप्रभ क्यों हैं। ओह, आह, आश्चर्य, शर्मनाक है, ऐसा पहले नहीं हुआ, हद है, यह कोई फैसला है, गश खा गया, विश्वास ही न हुआ, लोकतंत्र से खिलवाड़ है जैसे अनगिनत शब्द विनायक सेन के पक्ष में लगातार लिखे जा रहे हैं,आखिर क्यों। फैसला तो उसी कानून का सिर्फ अमल है जो जनता की चुनी हुई सरकार बना चुकी है,जिस सरकार के भागीदार विनायक सेन के बहुतेरे पक्षकार भी हैं। यानी जिस फैसले का सीधा मायने है,उसको जलेबी बनाने की कोशिश ये बेचारे पक्षकार, क्यों कर रहे हैं?

कहीं यह विनायक सेन के उन पक्षकारों की चालबाजी तो नहीं जो विनायक को हीरो बनाकर उन काले कानूनों को ढंग से उठने ही न दें,जिनका इस्तेमाल कर राज्य ने इतने लोगों को भारतीय जेलों में तो बंद किया ही है,जिनकी संख्या विनायक सेन के पक्ष में आयोजित किसी भी धरने से कई गुना है।

 ऐसे में फैसले से ऐतराज जताने वालों की यह उम्मीद क्या मुगालता नहीं कि वे जिला और सत्र न्यायधीश से उम्मीद करें कि वह छत्तीसगढ़ जन सुरक्षा कानून(2004),आंतकवाद गतिविधी निरोधक कानून (1967)जैसे आपराधिक उपबंधों को पलट देगा,जो कि सिर्फ और सिर्फ सरकार के तय राष्ट्रीय हितों के खिलाफ बगावत करने वाले लोगों,संगठनों और समूहों पर लागू करने के लिए बना है। अरे जज ने तो विनायक सेन की पत्नी इलीना सेन,छत्तीसगढ़ की वकील सुधा भारद्वाज,वर्धा हिंदी विश्वविद्यालय की शिक्षिका शोमा सेन,पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ महासचिव राजेंद्र सायल और कुछ अन्य लोगों का नाम मुकदमे में लपेटकर भविष्य का सह-अभियुक्त बना दिया है।

जाहिर तौर पर अब असल सवाल उस कानून का है (छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून और आतंकवाद गतिविधी निरोधक कानून),जो माओवाद के हर हरफ को अपराध बनाने के लिए बना है और माओवादियों को अछूत। दरअसल विनायक सेन माओवादी नहीं हैं,पक्षकारों के बहुतायत जमात की यह कोशिश मूंह के बल गिर चुकी है और सरकार ने साबित कर दिया है कि विनायक सेन अंततः माओवादी हैं।

 विनायक सेन ने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के आपसी मारकाट के लिए सरकार के बनाये सलवा-जूडुम अभियान का विरोध किया और राष्ट्रीय स्तर पर उजागर करने में महत्वपूर्ण रहे और इसीलिए सजायाफ्ता किये गये यह बात अधूरी है। साथ ही विनायक सेन के किये कामों को छोटा करके आंकना है और उस शिरे को छोड़ना है जिसके कारण सरकार की निगाह में विनायक सेन खलनायक बनते गये और माओवादियों के नजदीकी।

मुझे याद है कि विनायक सेन के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किये हुए कुछ ही दिन बीते थे और मैं छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के उन गांवों में पहुंचा था जहां विनायक सेन अस्पताल और स्कूल चलाते थे। मई 2007 में विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद से बगरूमनाला गांव के सुनसान पड़े अस्पताल को देख गांव की ओर आगे बढ़े और विनायक सेन को वहां के लोगों से जानना चाहा।

तो गांव के किसान जनक कुमार ने अपनी बात एक सवाल से शुरू किया था, ‘हम घर में ईंट बनायें, शराब बनायें, खाद-बीज बनायें या जंगल से लकड़ी काटें तो पुलिस हमें उठा ले जाती है। मगर ईंट भट्ठे से ले आयें,शराब दूकान से खरीदें,खाद बीज चैराहे के व्यापारी से लायें और अपनी ही लकड़ी ठेकेदार से खरीदें तो पुलिस वाले कहते हैं कि यह काम का जायज तरीका है और तुम अब नक्सली नहीं हो। डॉक्टर साहब उन कामों को सही कहते रहे जिनको पुलिस, सीआरपीएफ और व्यापारी नक्सली क्राइम कहते हैं, तो फिर डॉक्टर साहब पुलिस की निगाह में नक्सली हुए कि नहीं।’

जाहिर है विनायक सेन के इन कामों को समझे बगैर उस सरकारी डोर को समझना मुश्किल होगा जिसका विस्तार विनायक सेन को माओवादी करार दिये जाने में हुआ है। उस विस्तार ने हिंसा और अहिंसा के बीच के शब्दकोशिय मायने पलट दिये हैं और विनायक को उस प्रक्रिया का हिस्सा साबित किया है जिससे माओवादी राजनीति को बल मिलता है। 1992से लेकर 2007तक हमेशा ही विनायक सेन ने अहिंसक तौर पर राज्य के विनाशी विकास के मुकाबले जनविकास के ढांचे पर बल दिया, मुनाफे और पूंजी केंद्रीत व्यवस्था के सामानांतर उन्होंने सामूहिक उत्पादन प्रक्रिया पर जोर दिया। जनविकास का यही ढांचा माओवादियों के उस सुरक्षित क्षेत्र से मेल खाता है जो कि उनके आधार इलाके हैं। माओवादी इसी तरह से जन केंद्रीत विकास के ढांचे को लागू करने की बात कहते हैं।

इसलिए जज ने जिन घटनाओं की निरंतरता को आधार बनाकर फैसला सुनाया है उन पर गौर करें तो बात दो कदम और आगे जाती है और साफ हो जाता है कि माओवादी साबित किये जाने का जो सैद्धांतिक घेरा सरकार ने तैयार किया था, उसका व्यावहारिक अमल अब जोरों पर है। जोरों पर इसलिए कि पहले भी हजारों लोग इस तरह के हवाई अपराध में बंद हैं, जिसके लिए सबूत पुलिस की जुबान होती है और अपराध पुलिस की वह डायरी जिसमें भुक्तभोगी का नाम दर्ज होता है।

जिन्हें अभी भी सरकार की इस तय नियत पर भरोसा नहीं है और मुगालतों की पक्षकारी ही उनका पक्ष है तो वे एक बार छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में चल रही गतिविधियों पर जरूर गौर करें। रायपुर में राज्य के करीब सभी नामचीन मीडिया माध्यमों के प्रतिनिधियों ने बैठक कर मांग रखी है कि विनायक सेन की पत्नी को गिरफ्तार किया जाये। गिरफ्तारी की मांग का आधार जज का वह फैसला है जिसमें रूपांतर संस्था की निदेशक होने के नाते इलीना को भी अभियुक्त करार दिया गया है।

ऐसे में सिर्फ हम विनायक सेन पर बात करें और उन्हें नायक बनाकर संभव है 24दिसंबर की बिलासपुर उच्च न्यायालय में होने वाली सुनवायी में रिहा भी करा लें,मगर सवाल तो उन कानूनों का है जो कि आगे से हर मुकम्मिल विपक्ष के खिलाफ आजमाया जाना तय है। तो फिर बेहतर होगा कि हम अपनी बात कमसे कम नोबल पुरस्कार विजेता अमत्र्य सेन के उस वक्तव्य से शु रू करें कि ‘अगर विनायक ने चिट्ठियां किसी विप्लवी को पहुंचायी भी तो यह कोई जुर्म नहीं है।’

(तीसरी दुनिया से साभार व संपादित)

 

Jan 27, 2011

जो भ्रष्ट नहीं होंगे वे मारे जायेंगे


गणतंत्र वास्तव में भ्रष्टतंत्र के रूप में परिवर्तित होने तो नहीं जा रहा? आम लोगों के ज़ेहन में यह उठने लगा है कि कहीं देश के शासक   मुट्ठी भर अपराधियों, भ्रष्टाचारियों  और माफियाओं के तंत्र को ही गणतंत्र तो नहीं बता रहे ...

निर्मल रानी  

गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर देश की राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल द्वारा राष्ट्र के नाम अपना संदेश प्रसारित किए जाने में अभी कुछ ही घंटे का समय बाकी था कि इसी बीच महाराष्ट्र राज्य के नासिक जि़ले के करीब मनमाड नामक स्थान से एक दिल दहला देने वाला सनसनीखेज़ समाचार प्राप्त हुआ। खबर आई कि पेट्रोल में मिट्टी के तेल की मिलावट करने वाले तेल माफियाओं  ने एक अतिरिक्त जि़लाधिकारी को 25जनवरी,मंगलवार को दोपहर ढाई बजे के करीब मुख्य मार्ग पर सरेआम जि़ंदा जला कर मार डाला।

यशवंत सोनावणे: मारे गए कि भ्रष्ट न हुए  

हाल
ही में पदोन्नति प्राप्त करने वाले अतिरिक्त जि़लाधिकारी यशवंत सोनावणे ने पानीवाडी ऑयल डिपो में छापा मारा तथा यह पाया कि एक कैरोसीन टैंकर से तेल निकाल कर पैट्रोल में मिलाया जा रहा है। उन्होंने इस पूरे अपराधिक घटनाक्रम की वीडियो भी अपने मोबाईल द्वारा बनाई। जब उन्होंने रंगे हाथों अपराधियों द्वारा की जाने वाली मिलावट खोरी का पर्दाफाश किया तथा आवश्यक कार्रवाई के लिए संबंधित विभाग के अधिकारियों को बुलाया उसी समय मोटर साईकलों पर सवार कई व्यक्ति पानीवाडी ऑयल डिपो पर पहु़ंचे तथा अतिरक्ति जि़लाधिकारी यशवंत सोनावणे से उलझ बैठे।

देखते ही देखते वे अपराधी यशवंत के प्रति आक्रामक हो गए। उनकी आक्रामकता तथा अधिकारी के साथ की जा रही मारपीट से भयभीत होकर यशवंत सोनावणे का ड्राईवर तथा उनके निजी सचिव घटना स्थल से भाग गए तथा पुलिस की सहायता लेने हेतु करीबी पुलिस स्टेशन पर जा पहु़ंचे। जब तक पुलिस घटना स्थल पर पहुंचती तब तक यशवंत सोनावणे के रूप में एक और ईमानदार अधिकारी अपने कर्तव्यों की बलिबेदी पर अपनी जान न्यौछावर कर चुका था। मिलावट खोर तेल माफिया  ने उन्हें मिटटी का तेल छिड़क कर सड़क पर ही जि़ंदा जला कर मार डाला.

अभी अधिक समय नहीं बीता है जबकि देश ने इंडियल ऑयल के मार्केटिंग अधिकारी एस मंजूनाथन के रूप में ऐसे ही तेल के मिलावट खोरों के विरूद्ध अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए उत्तर प्रदेश के लखीमपुरखीरी जि़ले के एक मिलावट खोरी करने वाले पेट्रोल पंप पर अपनी शहादत दी थी। सत्येंद्र दूबे नामक उस ईमानदार व होनहार परियोजना अधिकारी को भी अभी देश नहीं भूल पाया है जिसे स्वर्णिम चर्तुभुज सड़क परियोजना के निर्माण के दौरान बिहार के गया जि़ले में 27 नवंबर 2003 को ऐसे ही भ्रष्टाचारियों द्वारा शहीद कर दिया गया था।

दूबे ने परियोजना में बड़े पैमाने पर हो रही धांधली की शिकायत तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यालय में की थी । इसी शिकायत के तत्काल बाद दूबे की हत्या कर दी गईथी। 'वाइब्रेंट ट गुजरात' में भारतीय जनता पार्टी के सांसद दीनू सोलंकी के भतीजे ने अमित जेठवा नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता की 20 जुलाई 2010 को हत्या कर दी थी। इसी हत्या के आरोप में इन दिनों वह जेल की सलाखों के पीछे है। अमित जेठवा का भी यही कुसूर था कि उसने भाजपा सांसद दीनू सोलंकी द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार तथा सरकारी संपत्ति की व्यापक लूट के विरूद्ध आवाज़ उठाने की कोशिश की थी।

यशवंत सोनावणे की हत्या के बाद,ख़ासतौर पर गणतंत्र दिवस समारोह से मात्र चंद घंटे पूर्व किए गए इस बेरहमी पूर्व कत्ल के बाद एक बार फिर यह सवाल जीवंत हो उठा है कि क्या हमारा गणतंत्र वास्तव में गणतंत्र एवं जनतंत्र कहे जाने योग्य है? कहीं यह गणतंत्र वास्तव में भ्रष्टतंत्र के रूप में परिवर्तित होने तो नहीं जा रहा?कब तक इस देश को भ्रष्टचारियों व मिलावट खोरों तथा माफियाओं  व अपराधियों के चंगुल से मुक्त कराने में मंजू नाथन,सत्येंद्र दूबे,अमित जेठवा और अब यशवंत सोनावणे जैसे होनहार राष्ट्रभक्त देशवासी हमसे इसी प्रकार छीने जाते रहेंगे? एक और अहम सवाल आम लोगों के ज़ेहन में यह उठने लगा है कि कहीं देश का मुट्ठी भर संगठित अपराधी,भ्रष्ट एवं मिलावट खोर माफिया देश के एक अरब से अधिक की आबादी वाले असंगठित लोगों पर हावी तो नहीं होने जा रहा है?

इस प्रकार की घटनाएं आम लोगों को बार-बार यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि आज़ाद देश की परिभाषा आखिर है क्या ?किस बात की आज़ादी और कैसी आज़ादी?क्या ताकतवर माफियाओं  को अपने सभी काले कारनामे,अपराध,मिलावट खोरी,भ्रष्टाचार,लूट-खसोट,कालाबाज़ारी व जमाखोरी यहां तक कि दिनदहाड़े हत्या जैसे कृत्य करने की पूरी आज़ादी है?परंतु एक ईमानदार व होनहार अधिकारी को आज अपना कर्तव्य निभाने की आज़ादी हरगिज़ नहीं?गोया स्वतंत्रता की परिभाषा ही खतरे में पड़ती दिखाई देने लगी है।

यशवंत सोनावणे की हत्या के बाद समाचार यह है कि महाराष्ट्र के लगभग 17लाख कर्मचारी बृहस्पतिवार को अर्थात् 27जनवरी को हड़ताल पर चले गए थे। इनमें लगभग एक लाख दस हज़ार राजपत्रित अधिकारी भी शामिल थे जिन्होंने मुंबई में आयोजित एक विरोध मार्च में भाग लिया। इस विरोध प्रदर्शन एवं हड़ताल को राज्य के कर्मचारियों की लगभग सभी ट्रेड यूनियन का भी समर्थन प्राप्त था। बेशक अपराधियों व मािफयाओं के विरुद्ध कर्मचारियों का इस प्रकार संगठित होना बहुत सकारात्मक लक्षण है।

परंतु क्या एक राज्य के एक उच्च अधिकारी की हत्या के बाद ही इनके संगठित होने मात्र से तथा विरोध प्रदर्शन कर लेने भर से इस प्रकार के मिलावट खोर माफियाओं का संपूर्ण नाश या दमन संभव हो पाएगा? क्या इस विरोध प्रदर्शन व हड़ताल में शामिल लोगों में वे कर्मचारी या अधिकारी शामिल नहीं होंगे जो इन्हीं माफियाओं या मिलावटखोरों से पिछले दरवाज़े से अपनी सांठगांठ बनाए रखते हैं?

आखिर इन मिलावटखोरों के हौसले इस कद्र कैसे बुलंद हो गए कि एक प्रशासनिक सेवा स्तर के ईमानदार अधिकारी को इन्होंने बेरहमी से दिन के उजाले में जि़ंदा जला कर मार डाला? क्या ऐसा संभव है कि सरेआम इतना बड़ा अपराध अंजाम देने वालों पर तथा विगत् काफी लंबे समय से इसी प्रकार मिलावटी तेल बेचते रहने वालों पर किसी प्रकार का राजनैतिक,प्रशासनिक अथवा शासकीय संरक्षण न हो?

इलाके की पुलिस स्वयं यह स्वीकार कर रही है कि इस घटना को अंजाम देने वाला व्यक्ति इस क्षेत्र का सबसे बदनाम तेल का मिलावटखोर तथा तेल की ब्लैक मार्किटिंग करने वाला व्यक्ति है। इस घटना में शामिल एक अपराधी पोपट शिंदे पहले भी दो बार तेल में मिलावट करने तथा तेल ब्लैक करने जैसे अपराध में गिरफ्तार किया जा चुका है। इसी इलाके से एक और खबर यह भी प्राप्त हुई है कि कुछ ही समय पूर्व वसई नामक स्थान पर एक ट्रैफिक कर्मचारी को भी गुंडों द्वारा इसी प्रकार जि़ंदा जलाकर मार दिया गया था। यानी यह भी गणतंत्र पर गुंडातंत्र के हावी होने की एक जीती-जागती मिसाल थी।

बहरहाल इस प्रकार की घटनाएं जहां हमारे देश की न्याय व्यवस्था,शासन व प्रशासन को बहुत कुछ सोचने तथा अभूतपूर्व किस्म के फैसले लेने पर मजबूर कर रही हैं वहीं देश की साधारण एवं आम जनता का भी और अधिक देर तक मूक दर्शक व असंगठित बने रहना भी ऐसे माफियाओं व भ्रष्टाचारियों की हौसला अफज़ाई करने से कम हरगिज़ नहीं है।

 कमोबेश देश के सभी जि़लों,शहरों,कस्बों व नगरों के आम लोगों को अपने-अपने क्षेत्र के ऐसे भ्रष्टाचारियों,मिलावटखोरों तथा माफियाओं के संबंध में सारी हकीकतें भलीभांति मालूम होती हैं। ज़रूरत केवल इस बात की है कि यही उपभोक्ता रूपी आम जनता जोकि स्वयं किसी न किसी रूप में ऐसे भ्रष्टाचारियों का कभी न कभी कहीं न कहीं शिकार ज़रूर होती है वही आम जनता न केवल संगठित हो बल्कि शासन व प्रशासन को ऐसे लोगों के विरुद्ध सहयोग भी दे। संभव है कि ऐसा करते समय मंजुनाथन,दूबे तथा सोनावणे या जेठवा की ही तरह कुछ और वास्तविक राष्ट्रभक्त भी देश की वास्तविक स्वतंत्रता एवं वास्तविक गणतंत्र के निर्माण के लिए अपनी जान कुर्बान कर बैठें।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इन मुट्ठीभर माफियाओं,मिलावटखोरों व भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध यदि जनता संगठित हो गई तो निश्चित रूप से इनके हौसले पस्त होकर ही रहेंगे। अन्यथा ऐसों का निरंतर कसता शिकंजा न केवल हमारे गणतंत्र को पूरी तरह भ्रष्टतंत्र में परिवर्तित कर देगा बल्कि हमारी आने वाली वह नस्लें जिनपर हम देश के भावी कर्णधार होने का गुमान करते हैं वह भी इनसे भयभीत व प्रभावित होने से स्वयं को नहीं बचा सकेंगी।

यशवंत सोनावणे की बेरहमी से की गई हत्या से दु:खी होकर प्रसिद्ध गांधीवादी एवं सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हज़ारे ने अपना मौन व्रत तोड़ते हुए यह मांग की है कि जिस प्रकार मिलावटखोर तेल माफियाओं ने एक होनहार व ईमानदार अधिकारी को जि़ंदा जलाकर दिनदहाड़े मार डाला है उसी प्रकार इन जैसे अपराधियों को भी सरेआम फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना चाहिए। हमारे कानून निर्माताओं को इस विषय पर भी गंभीरता से चिंतन करते हुए तत्काल ऐसे कानून बनाए जाने चाहिए तथा ऐसे कुछ अपराधियों को यथाशीघ्र कठोर सजा दी जानी चाहिए ताकि हमारा देश में गणतंत्र महसूस  किया जा सके।



सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखती हैं,उनसे nirmalrani@gmail.com   पर संपर्क किया जा सकता है.






Jan 26, 2011

नेताजी को अब वह चरित्रहीन लगती है !


बिहार में किसी महिला का विधायक से बदला लेने की ये पहली घटना नहीं  है। इसके पहले योगेन्द्र सरदार नाम के विधायक  ने जब एक महिला से जबरदस्ती की तो उस साहसी महिला ने महोदय का गुप्तांग  काट लिया था...

निखिल आनंद

बिहार में  पुर्णिया के बीजेपी  विधायक राजकिशोर केसरी चौथी बार विधायक बने थे। रुपम पाठक नाम की एक एमए  पास शिक्षिका ने विधायक पर यौन शोषण के इल्जाम में विधायक केसरी की छुरामार कर हत्या कर दी। पुरूष वर्चस्व वाले समाज में वाकई ये आश्चर्य की बात है कि अब तक की परंपरा के अनुसार एक निरीह अकेली महिला के साथ पुरुष ज्यादती करता था । पर इस घटना में एक महिला ने एक जनप्रतिनिधि की यौन शोषण बदला लेने के लिए हत्या कर दी है। महिला ने विधायक की हत्या की इसकी जितनी निंदा की जाय कम है और कानून उसके किये की सजा भी अवश्य देगा ।

रूपम पाठक : किये पर मलाल नहीं
 राजकिशोर केसरी पर लगाये आरोप सही थे या गलत ये भी जाँच का विषय है क्योंकि महिला के लगाये गए आरोप विधानसभा के सदस्य की गरिमा और मर्यादा के लिहाज़ से अत्यंत गंभीर हैं। लेकिन इस घटना से सहज ही समझ सकते हैं कि उक्त महिला के भीतर प्रतिशोध की ज्वाला किस कदर भड़की हुई थी।

 इस पूरी घटना ने एन.चन्द्रा की एक फिल्म - प्रतिघात-का वो अंतिम दृश्य आँखों के सामने घुमा दिया जिसमें फिल्म की हिरोइन ने अपने अत्याचार का प्रतिशोध लिया था। बिहार में किसी महिला का विधायक से बदला लेने की ये पहली घटना नही है। इसके पहले भी -योगेन्द्र सरदार-नाम के विधायक  जी ने जब एक महिला को गलत काम के लिए बाध्य करने की कोशिश की तो उस साहसी महिला ने महोदय का गुप्त अंग काट लिया था।

पुर्णिया के बी.जे.पी.विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या से बी.जे.पी.जितनी दुखी है उससे ज्यादा कहीं सुशील कुमार मोदी को आघात पहुँचा है। यही कारण है कि केशरी की हत्या के बाद मोदीजी मिडिया के सामने अपने विधायक का चरित्र चित्रण करने में जुटे रहे। उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने मिडिया से कहा कि राजकिशोर केशरी इमानदार, कर्मठ, जुझारू नेता थे । वहीँ मोदी ने ये भी कहा की महिला ब्लैकमेलर थी यानी गलत थी,इशारा साफ़ था की चरित्रहीन है ।

एक जिम्मेदार पद पर बैठे नेता का बयान कई सवाल खड़ा करता है. पहली बात तो ये की किसी के चरित्र की कोई ठेकेदारी नहीं ले सकता है l सच क्या है वो जांच के विषय हैं, कई बिन्दुयों पर जांच होनी चाहिए - रूपम और राज किशोर केसरी के बीच क्या सम्बन्ध थे ? रूपम विधायक को ब्लैकमेल कर रही थी लेकिन क्यों ? क्या ये सच है की विधायक और उनके सहयोगी विपिन राय रूपम का ब्लैकमेलिंग कर यौन शोषण कर रहे थे ? क्या ये बात सच है की रूपम के बाद उसकी बेटी पर बुरी नज़र रखी जा रही थी ? अब जहाँ तक महिला के चरित्रहीन होने की बात है तो क़ानून ये कहता है की पत्नी के साथ पति का या किसी यौन कर्मी  के साथ किसी भी व्यक्ति का जबरदस्ती शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना- ये सभी बलात्कार की श्रेणी में आता है .

एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के आंकड़े के अनुसार जो 142विधायक इस बार की विधानसभा में दागी है और इनमें 85 पर गंभीर आरोप हैं l ए.डी.आर. की इस लिस्ट में राजकिशोर केसरी भी शामिल थे और उनपर आई.पी.सी. की धारा- 323, 353, 307, 147, 148, 149, 308, 379, 504, 452 और 426 के तहत मामले दर्ज थे । राज्य के मुखिया नीतीश कुमार के भ्रष्ट्राचार के खिलाफ अभियान और क़ानून-व्यवस्था के दावे पर भी जनप्रतिनिधियों से जुड़े मामलों से बट्टा लग रहा है.
मारे गए विधायक राजकिशोर : हत्या नहीं विकल्पहीनता   
सरकार बनने के डेढ़ महीने में ही बीमा भारती,हुलास पाण्डेय,सुनील पाण्डेय और अब राजकिशोर केसरी से जुड़े मामले सुर्खियाँ बन चुके है. नीतीश ज़ी की कोशिश भी है की सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बरती जाय .  इस सन्दर्भ में जनप्रतिनिधियों और उनके नजदीकियों से जुड़े मामले का स्पीडी ट्रायल भी एक विचारणीय मुद्दा है.

अफसोस की केसरीजी जनप्रतिनिधि थे और उनकी हत्या हो गई,लेकिन सरकार के सुशासन के दावे के बीच ये घटना सुरक्षा व्यवस्था की पोल खोलता है यानि जब जनप्रतिनिधि सुरक्षित नही है तो आम जनता की कौन पूछे। फिर ये नीतीश बाबू की सरकार बनने के बाद ये विधायकों के साथ हुआ दूसरा मामला है।

इससे पहले बीमा भारती पर उनके क्रिमिनल पति अवधेश मंडल ने अपहरण कर अवैध कब्जे में लेकर जान से मारने की कोशिश की थी । फिर सवाल महिलाओं के खिलाफ राज्य में हो रहे उत्पीड़न और समय रहते न्याय न मिल पाने का का भी है। लेकिन बिहार की राजनीतिक सर्किल में सनसनीखेज और चर्चित सेक्स स्कैंडल की लिस्ट में श्वेत निशा उर्फ़ बाबी, चंपा विश्वास, शिल्पी-गौतम, रेशमा उर्फ़ काजल के बाद अब "रूपम पाठक- राजकिशोर केसरी" का भी नाम जुड़ गया है .

 इन सभी मामलों की परिणति क्या हुई ये किसी से छुपी हुई नहीं है और अभी तक केसरी हत्याकांड में जो प्रगति है उससे इस मामले के हश्र की तरफ एक इशारा मिल गया है .डी.आई.ज़ी ने कहा की हम हत्याकांड को केंद्र में रखकर पूरे मामले की जांच कर रहे है जबकि ये पूरा मामला सेक्स स्कैंडल का है जिसमें सही जांच की दिशा कुछ बड़े गिरेबान तक पहुँच सकते है .दूसरा की इस मामले का सबसे पहले खुलासा करने वाले 'Quisling' अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका के संपादक नवलेश पाठक को पुलिस उनके घर से बिना नोटिस के घसीटते हुए ले गयी है.

सुशील मोदी: लीपापोती की कोशिश

 फिलहाल पत्रकार बिरादरी ने चुप्पी साधी हुई है जो वाकई आश्चर्य का विषय है .इस घटना से एक बार फिर स्पष्ट है की जनप्रतिनिधियों के चाल- चरित्र- और चेहरे दागदार है या बहस का मुद्दा है .यही कारण है की सार्वजनिक लोगो की निजी जिंदगी में लोगो की खासी दिलचस्पी हमेशा से रही है पर कई बार जब बड़ी घटना होती है तो वो मिडिया की सुर्खिया भी बन जाता है l

रूपम के साथ क्या हुआ ये जाँच का विषय है। इस पूरी घटना पर सही-गलत का फैसला मोदी या मिडिया के कहने से नही होगा। इस पूरे मामले में उच्चस्तरीय जाँच ही दूध-का-दूध और पानी-का-पानी स्पष्ट करेगा। तब तक राजकिशोर केसरी या रूपम पाठक-दोनों में से किसी का भी चरित्र चित्रण, चरित्र हनन और महिमामंडन नहीं होना चाहिए।  पूर्णिया की गलियों में खामोश घूम रही जनता सब जानती है और फैसला क़ानून के हाथ में है,जिसके लिए वाकई इंतज़ार करना होगा।


(निखिल आनंद   'इंडिया न्‍यूज बिहार' के पॉलिटिकल एडिटर हैं, उनसे  nikhil.anand20@gmail  पर  संपर्क किया जा सकता है.)


पेट की आग शहर का रास्ता सुझाती है...


बेघरों के बीच जाति-धर्म का कोई झमेला लगभग नहीं है.नाम से भले ही वे हिंदू-मुसलमान या बाभन-चमार हों, लेकिन यहां सब केवल परदेसी मज़दूर हैं—सबसे पहले और सबसे आख़ीर में बस मुसीबत के मारे हैं...


आदियोग 

शेर अर्ज़ है—‘कल इक महल देखा तो देर तक सोचा/इक मकां बनाने में कितने घर लुटे होंगे.’दिसंबर के दूसरे पखवाड़े से एक तरफ़ बहन जी की सालगिरह की योजनाएं बनने लगी थीं तो दूसरी तरफ़ बदन गलाती सर्दी से होनेवाली बेघरों की मौत का खाता भी खुलने लगा था. ऊंचे महलों में बड़ों का जश्न और फ़ुटपाथ पर मातम. दूर क्यों जायें,राजधानी लखनऊ की बात करें और उससे अंदाज़ा लगायें कि सूबे के दूसरे बड़े शहरों में फ़ुटपाथ की ज़िदगी जी रहे लोगों को सर्दी का निवाला बनने से बचाने के लिए ‘सर्व जन सुखाय,बहुजन हिताय’का नगाड़ा बजानेवाली राज्य सरकार कितना और किस तरह मुस्तैद रही.


 दिनभर लोगों को ढोता है,रात में जिंदगी इसे ढोती है

सरकार बहादुरों की मेहबानी से आलम यह है कि जन हित में जारी किये गये तमाम आदेश या तो काग़ज़ी दौड़भाग में उलझ कर ठहर जाते हैं या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं. दिसंबर 2009 में देश की राजधानी में हुई बेघरों की मौत की ख़बरों के बाद दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार को आदेश दिया था कि लोगों को मौत से बचाने के लिए फ़ौरन ज़रूरी क़दम उठाये जायें. इस आदेश पर बस कहने भर को अमल हुआ.2010शुरू हुआ कि पीयूसीएल ने देश की सबसे बड़ी अदालत में गोहार लगायी. इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने 27 जनवरी को दिल्ली सरकार समेत सभी राज्य सरकारों को दिशा निर्देश जारी किया कि दिसंबर 2010तक स्थाई रैन बसेरे बना दिये जायें और जिसमें पीने के साफ़ पानी, स्वच्छता, स्वास्थ्य, सस्ते दरों पर राशन, सुरक्षा आदि की भी व्यवस्था हो.

उत्तर प्रदेश सरकार ने मई 2010को अदालत में अपना जवाब दाख़िल किया कि सूबे के पांच बड़े शहरों मेरठ, कानपुर, इलाहाबाद, आगरा और बनारस में आठ स्थाई रैन बसेरे चल रहे हैं. लेकिन यह दर्ज़ नहीं किया गया कि वे किस जगह पर हैं और किस हाल में हैं.मसलन,इलाहाबाद में संगम किनारे बाक़ायदा रैन बसेरा है लेकिन उस पर हमेशा साधुओं का डेरा रहता है.बताया गया कि तीन महानगरों में एक-एक स्थाई रैन बसेरा बनाये जाने का फ़ैसला हो चुका है.ज़मीन और धन की व्यवस्था होते ही उसे पूरा कर दिया जायेगा.यह अपनी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही से कन्नी काटने की ज़ुबान थी. वैसे, जिन्हें स्थाई रैन बसेरों के तौर पर पेश किया गया, वे तो असल में सामुदायिक केंद्र हैं और सभी जानते हैं कि उनका उपयोग सामुदायिक गतिविधियों के लिए नहीं, भाड़े पर उठाने के लिए किया जाता है. लखनऊ में नगर निगम के कम से कम 20 स्थाई रैन बसेरे हैं, लेकिन उनका ज़िक्र अदालत को दिये गये सरकारी जवाब से नदारद है.

हो भी तो कैसे.एक को छोड़ कर बाक़ी रैन बसेरे या तो शादी और माल बेचने की प्रदर्शनियों के लिए बुक हो जाते है या फ़िर उन पर अवैध कब्ज़े हैं.हद की बानगी देखें कि निशातगंज में लखनऊ-फ़ैज़ाबाद रोड पर बना एक रैन बसेरा अब रैन बसेरा कामप्लेक्स के नाम से जाना जाता है और फ़िलहाल दूकानों-गोदामों के काम आता है.दूसरा रैन बसेरा इंदिरानगर कालोनी के सेक्टर 16में अमीरों के एक रिहायशी इलाक़े के बीच है और उसके बड़े हिस्से को सामुदायिक केंद्र का नाम दिया जा चुका है.इस बेहतरीन परिसर के बाहर लगा ‘आवश्यक सूचना’का बोर्ड ही ख़ुलासा करता है कि यह जगह बेघरों की कोई पनाहगाह नहीं है.यह सूचना रैन बसेरे के ‘सम्मानित ग्राहकों’के लिए है, उसके लाभार्थियों के लिए नहीं. वैसे, ब्याह के इस मौसम में यह रैन बसेरा अगली मार्च तक बुक है. चारबाग़ शहर का मुख्य रेलवे स्टेशन है और उसके नज़दीक बना रैन बसेरा केवल सर्दियों में खुलता है और जिसके दरवाज़े शाम ढलते ही बंद होने लगते हैं.

तारीफ़ की जानी चाहिए कि जब सरकारी अमला सो रहा था,विज्ञान फ़ाउंडेशन नाम का सामाजिक संगठन जाग रहा था.23दिसंबर से उसके कार्यकर्ता टोलियों में बंट कर कड़ाके की सर्दी में देर रात तक शहर की गश्त पर निकले. 14 जनवरी तक चले तीन हफ़्ते के इस अभियान में कोई 18हज़ार बेघरों की गिनती निकली और उनके छह सौ बड़े ठिकाने मिले जहां उनकी रात ओस बरसाते आसमान के नीचे या बंद दूकानों के बाहर खुले गलियारों में गुज़रती है. बेघरी की यह तसवीर शहर की केवल अहम सड़कों से गुज़र कर उभरी.इसमें गली-मोहल्लों में पसरी बेघरी शामिल नहीं हैं. झुग्गी-झोपड़ियों की नरक जैसी झांकियां भी इससे बाहर हैं.

ख़ैर,31 लाख की आबादीवाले इस शहर में जिला प्रशासन ने   जनवरी   में  जाकर  अलाव समेत 30 अस्थाई रैन बसेरों का इंतज़ाम किया. इनमे से आठ रैन बसेरों को चलाने की ज़िम्मेदारी विज्ञान फ़ाउंडेशन ने ली और बाकी रैन बसेरों का जायज़ा भी लिया.पता चला कि रैन बसेरों के इर्द-गिर्द बसेरा डालनेवाले मेहनतकशों को इसकी ख़बर ही नहीं और अगर ख़बर है भी तो वे उसका इस्तेमाल करने से कतराते हैं. अव्वल तो उन्हें यक़ीन नहीं होता कि यह सुविधा वाक़ई उनके लिए है. दूसरी बात यह कि चार दिन की चांदनी के चक्कर में वे मुश्किल से बनायी गयी अपनी जगह छोड़ना नहीं चाहते.

उस पर किसी दूसरे बेघर के काबिज़ हो जाने का ख़तरा बना रहता है. उन्हें अपने से ज़्यादा अपने रिक्शे या ठेलिया की हिफ़ाज़त की चिंता भी होती है और चार दिन की चांदनी भी कैसी ? पतली चादर से बनायी गयी चारदीवारी की यह सुविधा भी तो बस लिफ़ाफ़ा होती है जो बदन चीरती ठंड से मामूली बचाव भी नहीं कर पाती. रही बात अलाव की तो लकड़ियां भी कम और वह भी गीली.कुल मिला कर हालत यह रही कि रैन बसेरे अमूमन वीरान बने रहे और वहां आवारा कुत्तों और छुट्टा जानवरों ने डेरा डाल दिया.सरकारी मदद से शुरू किये गये अस्थाई रैन बसेरों की सूची में तीन फ़र्ज़ी भी निकले.

कहते हैं कि ‘अस्थाई रैन बसेरे बेघरों की समस्या का हल नहीं हो सकते. 95 फ़ीसदी बेघर मेहनतकश हैं, फ़क़ीर या निराश्रित नहीं. वे अपनी मेहनत का सौदा करते हैं, गरिमा का नहीं. सोचना चाहिए कि उन्हें सर पर छत की ज़रूरत केवल सर्दियों में ही नहीं, गर्मी और बरसात में भी होती है.संविधान ने देश के सभी नागरिकों को जीने का अधिकार दिया है. शहरी बेघर भी इस देश के नागरिक हैं और उन्हें भी जीने का अधिकार है. इसके लिए सरकारों की घेराबंदी होनी चाहिए कि कम से कम हर बड़े शहर में सालों साल चलनेवाले स्थाई रैन बसेरों की व्यवस्था हो और जहां बिजली, पानी और शौचालय से लेकर स्वास्थ्य और सस्ते राशन तक की सुविधा हो.

तीन हफ़्ता चली विज्ञान फ़ाउंडेशन की इस मुहिम में एक ह्फ़्ते के लिए मैं भी हमसफ़र रहा.इस दौरान जो देखा और समझा,उसके हवाले से यही सवाल उभरा कि भाईचारे की तहज़ीब और इनसानी रवायतों की उम्दा मिसाल रहा यह शहर क्या सचमुच इतना ज़ालिम भी हो सकता है. महसूस किया कि क़ुदरत की बेरहम ठंडी मार जिन मुफ़लिसों की आंख से नींद चुरा लेती है, उनके लिए ऐसी रात काटना किस तरह क़यामत से गुज़रना होता है, कि पूरी रात करवटें बदलते रहने और बदन सिकोड़ कर ठंड को चकमा देने की फिज़ूल क़वायद का नाम हो जाती है.गहराते कोहरे के दरमियान कैमरे में क़ैद किये गये इस मंज़र की तसवीरें जैसे पूछती हैं कि यह गठरी है या कोई लेटा है.

सात रात की इस आवारगी में मुझे इनसानियत की मिसालें भी दिखीं और अहसान जताती फ़र्ज़ अदायगी का नाटक भी.यह वाक़या भी सुनने को मिला-ठिठुरन से भरी रात में कोई छुटभय्या नेता पैरों को पेट से सटा कर फुटपाथ पर सो रहे लोगों की मदद के लिए निकला.सांता क्लाज़ की तरह वह दबे पांव उन्हें कंबल उढ़ाता गया और पीछे से उसके शागिर्द उन कंबलों को वापस समेटते गये. लेकिन हां, पहले सीन की फ़ोटू ज़रूर खिंच गयी. इस तरह उसने दो साल बाद होनेवाले पार्षदी के चुनाव के मद्देनज़र अपना चेहरा चमकाने की शुरूआत ज़रूर कर दी.

इसी चक्कर में किसी दूसरे उभरते नेता ने अपने इलाक़े में फ़ुटपाथ पर रहनेवालों के बीच एक शाम पूड़ी-सब्ज़ी बंटवा दी गोया कि बेघर कोई भिखमंगे हों, किसी मंदिर के बाहर बैठे हों. पता यह भी चला कि तीन-चार संस्थाएं हर साल अस्थाई रैन बसेरों का ढांचा खड़ा करती हैं और उस पर अपना बैनर टांग कर बाक़ी ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेती हैं और फिर झांकने के लिए भी नहीं लौटतीं.आराम से पुण्य लूटनेवालों की इस कतार में व्यापारिक संगठन और टेंट हाउस भी शामिल रहते हैं.

लखनऊ विधानसभा के सामने : यह गठ्हर नहीं जिन्दा इन्सान है

लेकिन ख़ैर,इस तस्दीक से सुकून मिला कि बेघरों के बीच जाति-धर्म का कोई झमेला लगभग नहीं है. नाम से भले ही वे हिंदू-मुसलमान या बाभन-चमार हों, लेकिन यहां सब केवल परदेसी मज़दूर हैं— सबसे पहले और सबसे आख़ीर में बस मुसीबत के मारे हैं जिन्हें पेट की आग शहर का रास्ता सुझाती है और उन्हें मजबूरन बेघर बनाती है.उनके बीच दिखे सहयोग,विश्वास और साझेदारी की यही बुनियाद है. और हां, यह आम लोगों की भलमनसाहत का ‘क़ुसूर’ है कि ठंड से होनेवाली बेघरों की मौत अक़्सर दर्ज़ नहीं हो पाती. इसलिए कि लाश के अंतिम संस्कार के लिए चंदा जुटने में देर नहीं लगती और उसे कांधा देनेवाले मिल जाते हैं.प्रशासन लाश फूंकने-गाड़ने की तकलीफ़ उठाने से बच जाता है.

इस कड़ी में राकेश नाम के रिक्शा चालक का ज़िक्र किया जा सकता है. उनकी अपनी झुग्गी है यानी कहने भर को वे बेघरों की जमात से बाहर हैं लेकिन अपने आसपास के दूसरे मेहनतकशों की बेघरी के दर्द के अहसास से जुड़ कर उन्होंने चंदा बटोर कर सड़क किनारे 10-12 लोगों के सोने लायक़ छोटा सा रैन बसेरा खड़ा करने की क़ाबिले तारीफ़ पहल की.क्या पता कि हमदर्दी और साझी पहल की यह गरमाहट शहर की दूसरी जगहों पर भी उपजी हो जहां तक हमारी नज़रें नहीं पहुंच सकीं.ज़ाहिर है इसलिए कि वहां रैन बसेरे का कोई बैनर नहीं था.

इसलिए कि वहां अपनी पीठ ठोंकने की चाहत नहीं थी,उसकी कोई ज़रूरत ही नहीं थी.कितना अच्छा होता अगर शहर के ऐसे राकेशों की पहचान होती और उन्हें अस्थाई रैन बसेरे बनाने और चलाने का ज़िम्मा सौंप दिया जाता.लेकिन यह तो तभी होता जब सरकारी महकमे में बेघरों पर आनेवाले जानलेवा संकट को लेकर कोई बेचैनी होती. बेचैनी होती तो उससे निपटने की मुकम्मल तैयारी होती.लेकिन सरकारी अमले को महारानी की सालगिरह की तैयारी से ही फ़ुर्सत कहां थी.

इसी हज़रतगंज के कोने में उन नवाब आसफ़ुद्दौला का मक़बरा है जो अपनी रियाया के लिए इतना दरियादिल थे कि यह कहावत आम फ़हम हो गयी कि—‘जिसको ना दे मौला,उसको को दे आसफुद्दौला.’लखनऊ का इमामबाड़ा अकाल में राहत देने के लिए लागू की गयी उनकी रोजगार की योजना से बना,किसी शग़ल में नहीं.उन्हीं आसफ़ुद्दौला के मक़बरे के सामने की लंबी-चौड़ी जगह कभी विक्टोरिया पार्क नाम से जानी जाती थी.आज़ादी के बाद उसे उन बेगम हज़रत महल के नाम से जाना गया जिन्होंने गोरी हुक़ूमत के सामने घुटने टेकने से इनकार कर दिया था और जिसकी क़ीमत नवाबी शानो-शौक़त से हाथ धो कर चुकाई थी.लेकिन बसपा की पहली सरकार ने इसे परिवर्तन मैदान बना दिया.

ताजमहल यक़ीनन ख़ूबसूरत है लेकिन साहिर की इस नज़्म के चश्मे से देखिये तो फ़ालतू और ग़ैर ज़रूरी दिखता है कि ‘इक शंहशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल/हम ग़रीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़.’ और जब पता चलता है कि यह बेमिसाल इमारत कोई बीस हज़ार मज़दूरों की कुर्बानी से तामीर हुई तो बदसूरत और भुतहा नज़र आती है.तो दिन में गुलज़ार रहनेवाले और अब नये रंग-रोगन से दमकते हज़रतगंज की सड़कें कड़ाके की ठंडी रात में वीरान थीं, लेकिन उसके फ़ुटपाथ और खुले गलियारे बेघरों से उतने ही आबाद दिखे.

मशहूर मर्सियागो मीर अनीस साहब ख़ालिस लखनवी थे और अपने शहर पर जान छिड़कते थे.लेकिन न जाने क्यों और किस आलम में उन्होंने यह शेर भी कहा कि ‘कूफ़े से नज़र आते हैं किसी शहर के आदाब/डरता हूं वो शहर कहीं लखनऊ न हो.’(कहा जाता है कि कूफ़े में पैग़म्बर मोहम्मद साहब के ख़िलाफ़ साज़िश रची गयी थी और जिसने कर्बला को शहादतों का मैदान बना डाला)लगा कि गोया यह गुमनाम सा शेर आम फ़हम हो गया और चीख़ने लगा. लखनवी तहज़ीब के कुर्ते फाड़ने लगा. काश कि इस शेर की टीस मायूसी और बेबसी की तंग गलियों से निकले और दूर तलक पहुंचे. आमीन.



 
उम्र 53 साल. कोई दो दशक पहले अख़बारी नौकरी से छुट्टी. तब से वैकल्पिक मीडिया के क्षेत्र में  सक्रियता और नये   प्रयोगों की आज़माइश. न्याय और अधिकार के मोर्चों पर साझेदारी.  उनसे  awazlko@hotmail.com पर  संपर्क  किया   जा  सकता  है.

 

Jan 25, 2011

आध्यात्मिक प्रेम में मन नहीं देह श्रेष्ठ


प्रेम जो कुछ भी हो,लेकिन  उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है.फिर  भी  यह एक ऐसा विषय है जिस पर कवि,लेखक,प्रवचन करने वाले जितना लिखते या कहते हैं उतना शायद किसी और विषय पर लिखते या कह्ते नहीं...

निशांत मिश्रा

प्रेम यह एक ऐसा शब्द है जो चिर प्राचीन, मगर चिर नवीन है. यह जादुई आकर्षण से अपनी ओर खींचता है.कहते हैं कि प्रेम दो आत्माओं का मिलन है,इसलिए जहाँ दैहिक आकर्षण होता है वहां कभी सच्चा प्रेम नहीं हो सकता. अगर यह बात सही है तो फिर 'मिलन' का अर्थ क्या है? दूसरा क्या आत्मा और शरीर के मिलन में कोई फर्क है?

वास्तव में देखा जाए तो दैहिक मिलन भी प्रेम का ही एक रूप है.जिस तरह शरीर और मन दो अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं,बिल्कुल उसी तरह प्रेम और उसमें होने वाला दैहिक स्पर्श भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.धर्मशास्त्र और मनोविज्ञान के अनुसार 'काम'एक प्रकार की ऊर्जा है जिसका सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों और शरीर से होता है और यही ऊर्जा जब प्रेम का रूप लेती है तो दैहिक आनंद का सृजन होता है.सभी की इच्छा होती है कि कोई उससे प्रेम करे. आखिर प्रेम क्या है? क्या प्रेम सिर्फ दिमाग की उपज है? वास्तव में प्रेम या भोग की भावनाएँ दिमाग से ही निकलती हैं और इन्द्रियों के माध्यम से शरीर व आत्मा को इसकी अनुभूति कराती हैं.


ओशो की माने तो प्रेम जो कुछ भी हो, उसे शब्दों में कहने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि वह कोई विचार नहीं है. प्रेम तो अनुभूति है. उसमें डूबा जा सकता है पर उसे जाना नहीं जा सकता.प्रेम पर विचार मत करो.विचार को छोड़ो और फिर जगत को देखो. उस शांति में जो अनुभव करोगे वही प्रेम है.मनोविज्ञानियों की माने तो प्रेम कुछ और नहीं मात्र आकर्षण है जो अपोजिट जेंडर के प्रति सदैव आकर्षित करता है,लेकिन इसमें भी सभी मनोविज्ञानी एक मत नहीं हैं.

चार्ल्स रुथ का मानना है कि किशोर अवस्था में प्रवेश करते ही जिस तरह लड़के और लड़कियां एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं उसका कारण सिर्फ अपोजिट जेंडर नहीं है,बल्कि किशोर अवस्था में आने के साथ ही सेक्स हार्मोंस का संचार उनकी इन्द्रियों और शरीर में तेजी से होने लगता है.यही कारण है कि जहाँ लड़कियां खुद को सुन्दर और आकर्षक बनाने में जुटी रहती हैं वहीं लड़के अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने में लगे रहते हैं.लड़के और लड़कियां सज-धज इसीलिए करते हैं कि कोई उनकी ओर भी आकर्षित हो.सेक्स के प्रति उनकी जिज्ञासा भी इसी उम्र में जागती है. तभी तो उन्हें काल्पनिक कहानियाँ और फिल्मों के हीरो-हीरोइन अच्छे लगते हैं. उनके व्यहवार में परिवर्तन आ जाता है. वह ऐसा क्यों करते हैं? कारण सीधा सा है क्योंकि यह भी एक तरह से यौन इच्छा का संचार है.

अगर बात आकर्षण की करें तो हर किसी का प्रयास होता है कि सबका ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो.इसी आकर्षण से उपजता है प्रेम और इसी प्रेम का परिणाम है दैहिक सुख.इसके लिए इन्सान कुछ न कुछ ऐसा करने को तत्पर रहता है जिस पर सबका ध्यान जाए.यह मनोवृत्ति है जिससे लड़के और लड़कियां भी अछूते नहीं.यही बात प्रेम करने वालों पर भी लागू होती है.जब तक दोनों के बीच आकर्षण रहेगा तब तक प्रेम भी रहेगा.आकर्षण खत्म होते ही प्रेम उड़न छू. फिर प्रेम कैसा?

आकर्षण प्रेम संबंधों को प्रगाढ़ करता है.प्रेम संबंधों के बीच पनपे यौन सम्बन्ध को वासना का नाम देना अनुचित ही होगा.जब दो जने स्वेच्छा से अपने शारीरिक और आत्मिक सुख व आनंद की प्राप्ति के लिए एकाकार होते हैं तो वह अनुचित कैसे हो सकता है,लेकिन हमारी सामाजिक धारणाएं इसे अनुचित और नाजायज़ मानती हैं.हाँ,प्रेम संबंधों के अतिरिक्त मात्र दैहिक सुख के लिए बनाये जाने वाले सम्बन्ध को जरुर वासनापूर्ति की श्रेणी में रखा जा सकता है. हम प्रेम और दैहिक आनंद की व्याख्या कुछ इस तरह से भी कर सकते हैं कि शरीर और आत्मा क्या है? दोनों को ही किसी भी प्रकार की अनुभूति इन्द्रियों के माध्यम से ही होती है.

शरीर और आत्मा हमेशा आनंद पाने को लालायित रहते हैं इसीलिए वह हमेशा अपोजिट जेंडर के प्रति आकर्षित होते हैं और इस आनंद की अनुभूति तब होती है जब प्रेम और भोग के दौरान इन्द्रियां संतुष्टि का अहसास कराती हैं.प्रेम और दैहिक आनंद सभी सुखों से बढ़कर एक ऐसा वास्तविक सुख है जिसका कोई अंत नहीं.शरीर और आत्मा दोनों ही सदैव इस सुख को भोगने के लिए तत्पर रहते हैं. यह शाश्वत और अटल सत्य है जिससे इंकार नहीं किया जा सकता. यह एक ऐसा विषय है जिस पर कवि, लेखक, प्रवचन करने वाले जितना लिखते या कहते हैं उतना शायद किसी और विषय पर लिखते या कह्ते नहीं होंगे.

दैहिक  आनंद और प्रेम को लेकर बहुत भ्रांतियां हैं,लोग दोनों को अलग अलग करके देखते हैं.जबकि वात्सायन के कामसूत्र और उसी को आधार मान कर लिखे गए अन्य ग्रंथों या किताबों का अध्ययन करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि धर्म,सांसारिक संपत्ति और आत्मा की मुक्ति की तरह ही प्रेम और दैहिक आनंद का भी इन्सान के लिए समान महत्व हैं. जीवन की इन प्रमुख गतिविधियों में से किसी एक का अभाव मानव जीवन अधूरा बना देता है.जैसे इनका होना जीवन में आवश्यक है वैसे ही दैहिक सुख का.अगर इस पर ध्यान नहीं दिया जाये तो इन्सान का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा.

दैहिक सुख को हिन्दू शास्त्रों में तीन अन्य व्यवसाय की तरह पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाता है और इसका उल्लेख वृहदरन्यका उपनिषेद में विस्तृत रूप से किया गया है.कुल मिलाकर प्रेम एक ऐसा जादूई अनुभव या अनुभूति है जिसे हम अलग अलग समय पर,बचपन,जवानी,वृद्धावस्था में अलग अलग तरीके से अनुभव करते हैं.



पत्रकार निशांत मिश्रा पिंकसिटी प्रेस क्लब जयपुर के पूर्व  उपाध्यक्ष हैं, उनसे  journalistnishant26@gmail.com संपर्क  किया  जा  सकता  है.

लोकसंस्कृति की पक्षपधरता का प्रश्न

जबकि चौतरफा अपसंस्कृति का बोलबाला बढ़ता जा रहा हो,लोकसंस्कृति ह्रासमान हो और जनसंस्कृति का एक सिपाही गिरीश तिवारी गिर्दा हमारे बीच से चला गया हो,‘लोकसंस्कृति की चुनौतियों’ पर बात करना बेहद प्रासंगिक है...

पिछले 19जनवरी को रुद्रपुर के नगरपालिका सभागार में गिर्दा स्मृति संगोष्ठी में ‘लोकसंस्कृति की चुनौतियों’पर बोलते हुए वरिष्ठ आलोचक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉक्टर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि ‘लोकसंस्कृति वही है जिसमें गतिशीलता हो और जो मुक्त करने की ओर उन्मुख। इसलिए लोकसंस्कृति के नाम पर सबकुछ को पीठ पर लादे नहीं रखा जा सकता है। सड़ांध पैदा करने वाली चीजों की निराई-गुड़ाई करते हुए आगे बढ़ना ही सच्चे लोकसंस्कृति की विशेषता हो सकती है।’


संगोष्ठी का आयोजन उत्तराखण्ड के रूद्रपुर जिले की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘उजास’ने किया था। वर्तमान चुनौतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने आगे कहा कि आज बाजार की संस्कृति हावी है,जिसने इंसान को माल में तब्दील कर दिया है। साजिशन आमजन से तर्क व विवके छीनकर आस्था को मजबूत किया जा रहा है। बाजार की शक्तियां ही यह तय कर रहीं हैं कि लोक को क्या जानने दा, क्या नहीं। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि बगैर पक्षधरता तय किए वास्तव में लोकसंस्कृति की चुनौतियों से नहीं टकराया जा सकता है।

विषय प्रवर्तन करते हुए ललित जोशी ने कहा कि आज के दौर में लोकसंस्कृति के बरक्स अपसंस्कृति और अंग्रेजियत की संस्कृति हावी है। मानसिक गुलामी की यह संस्कृति समाज को भीतर से तोड़ रही है,इंसान को इंसान से कमतर, आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी व मौकापरस्त बना रही है।
डॉ.शम्भूदत्त पाण्डे शैलेय ने लोक के लिए समर्पित गिर्दा को याद करते हुए बताया कि सहज व सरल ढ़ंग से बात रखना ही जन से जुड़ाव का प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने अपने वक्तव्य में इस सामाजिक त्रासदी का उल्लेख किया कि घर के पूजा कक्षों,त्योहारों एवं ब्यक्तिगत-सामाजिक कर्मकाण्डों में चाहें जैसी संस्कृति हो,सामाजिक जीवन में औपनिवेशिक संस्कृति और उससे गढ़ा गया मानस ही है।


‘नौजवान भारत सभा’ के मुकुल ने कहा कि आज हम सांस्कृतिक वर्चस्व के ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां बाजार की शक्तियां जनता के मन-मस्तिक पर जबर्दस्त नियंत्रण कायम कर रखी हैं। स्थिति यह है कि भाषा के नाम पर साजिशन हिंगलिस परोसा जा रहा है। उन्होंने कहा कि लुटेरी शक्तियों ने एक प्रक्रिया में नियंत्रण के हथियार विकसित किए हैं। हमे भी इतिहास से सबक लेकर अपने नए हथियारों को विकसित करना होगा। तभी हम सांस्कृतिक चुनौतियों से जूझ सकते हैं।

अपने अध्यक्षीय वक्तब्य में वरिष्ठ साहित्यकार ड़ा.प्रद्युम्न कुमार जैन ने लोकसंस्कृति की चुनौतियों को समझने के लिए अपने इतिहास को जानने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने नारावादी मानसिकता से मुक्त होकर समाज की बहती मुक्तधारा को आगे बढ़ाने का आह्वान किया।

संगोष्ठी में ‘इंक़लाबी मजदूर केन्द्र’ के कैलाश भट्ट, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार विधि चंद्र सिंघल , प्रो. प्यारेलाल, पद्यलोचन विश्वास, रूपेश सिंह, ए.पी. भारती आदि ने भी विचार प्रकट किए। नाट्यकर्मी हर्षवर्धन वर्मा ने गिर्दा को समर्पित कविता प्रस्तुत की। संचालन खेमकरन सोमन व नरेश कुमार ने संयुक्त रूप से किया। इस अवसर पर पोस्टर व पुस्तक प्रदर्शनी भी आयोजित हुयी।



प्रस्तुती- एल.जोशी



'पहली मंजिल है संविधान'


दिल्ली में आयोजित एक  सेमीनार में भाग लेने आये नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)  के  उपाध्यक्ष बाबूराम  भट्टराई से  अजय प्रकाश  की  बातचीत...


नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी)ने नये संविधान निर्माण का जो लक्ष्य तय किया था वह अब तक क्यों नहीं पूरा हो सका?
पार्टी के लिए भी यही सवाल इस समय केंद्रीय बना हुआ है कि आखिर सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर वह कौन सी गलतियां हैं, जिनकी वजह से हम लोग देश की जनता की उम्मीदों को अब तक पूरा नहीं कर सके। पार्टी में बहुतायत की राय बनी है कि हम लोग सिद्धांत और व्यवहार के तालमेल में असफल रहे। पार्टी ने जनयुद्ध के जरिये क्रांति की ओर कदम बढ़ाते हुए दो महत्वपूर्ण सफलताएं दर्ज की थी। पहली पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) और दूसरा आधार क्षेत्र। हमें मौजूदा समय में लग रहा है कि पार्टी आधार क्षेत्रों में अपनी ताकत बरकरार रखने में सफल नहीं रह पायी है।

पार्टी में जिस तरह के विरोध के स्वर उठ रहे हैं, वैसे में कहीं ऐसा तो नहीं कि पार्टी टूट जाये?
अभी-अभी 7हजार पार्टी कार्यकर्ताओं का प्लेनम हुआ है। इस प्लेनम के बाद हम दोटूक कह सकते हैं कि पार्टी में नेतृत्व के स्तर पर ऐसा कोई अंतरविरोध नहीं है जिससे पार्टी के टूटने की कोई बात हो। हो सकता है पहले की तरह एकाध नेता निकलें, मगर पूरी पार्टी अब नयी चुनौतियों के साथ और मजबूत हुई है। भारतीय अखबारों में जो खबरें आती हैं वह अविश्वनीय और अधकचरी दोनों हैं,जिससे यहां भ्रम फैलता है। हालांकि भारतीय शासक वर्ग की चाहत भी यही है। पार्टी में फिलहाल बहस इस बात पर है कि अभी क्या किया जाये। दूसरी बहस प्रधान अंतरविरोध को लेकर भी है। पार्टी बहुमत का मत है कि 2005 में हुए बारह सूत्रीय समझौते को बातचीत के रास्ते आगे बढ़ाया जाये और राष्ट्रीय स्तर पर अपने को मजबूत किया जाये।

कहीं समस्या बारह सूत्रीय समझौते में तो नहीं है?

हमें ऐसा नहीं लगता। मौजूदा विश्व परिस्थिति  और नेपाल में पार्टी की स्थिति के मद्देनजर ही माओवादी नेतृत्व ने निर्णय लिया था। हमारा कतई नहीं मानना है कि बारह सूत्रीय समझौते का निर्णय किसी जल्दबाजी या दबाव में लिया गया था। पार्टी ने एक लंबे अनुभव और बहसों की प्रक्रिया को पूरी करने के बाद ही यह तय किया था कि अब हमें संविधान निर्माण की प्रक्रिया को इसी रास्ते पूरा करना है।



भारत सरकार के नुमाइन्दों  से आपकी क्या बात हुई?
भारत सरकार संभवतः समझना चाहती है कि आखिर कहां गलती हुई, जो सोलह बार सरकार बनाने के लिए हुए प्रयासों के बावजूद नेपाल में कोई स्थिर सरकार नहीं बन सकी। हालांकि यह मेरा अनुमान है। पूर्व विदेश मंत्री और मौजूदा वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी नेपाल की अस्थिरता को लेकर गंभीर दिखे। भारत सरकार को इसी गंभीरता से नेपाल में ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते नेकपा (माओवादी) को संविधान निर्माण का मौका मिले।

मगर अब तो नये संविधान के निर्माण के लिए पांच वर्षों में से सिर्फ चार महीने ही शेष रह गये हैं, आपको लगता है कि आप लोग इस काम को पूरा कर पायेंगे?
बेशक हमारे लिए यह एक चुनौती होगी,जिसमें पार्टी कामयाब होने में अपनी पूरी ताकत झोंक देगी। गांवों में हमारा अभी भी व्यापक जनाधार है। अगर हम लोग गांवों में अपने समर्थकों के बीच फिर एक बार व्यापक एकता कायम करते हुए बढ़ें तो शहरों में जनता स्वतः नये संविधान निर्माण की प्रक्रिया के समर्थन में संगठित हो जायेगी। पार्टी मानती है कि हमें जितनी तैयारी करनी चाहिए थी, उसमें कमी रह गयी।

कहीं ऐसा तो नहीं कि यह रास्ता ही गलत रहा हो?
मैं पहले भी कह चुका हूं और फिर एक बार कह रहा हूँ कि जनयुद्ध के रास्ते से आगे बढ़कर नेकपा (माओवादी) का संघर्ष के इस रास्ते को चुनना कोई भूल नहीं है। बेशक इन पांच वर्षों के लिए पार्टी ने जो सैद्धांतिक निर्णय लिये थे, उनको हम लोग ठीक ढंग से अमल कराने में असफल रहे, जिसे हम स्वीकार करते हैं। बीते पांच वर्षों में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर क्रांति के पक्ष में जो माहौल बनाना था, उसमें भी पार्टी कुछ ज्यादा नहीं कर सकी।

मगर बीते पांच वर्षों में सरकार बनाने-बिगाड़ने को लेकर समझौते और बातचीत तो खूब हुई। आपको नहीं लगता कि माओवादी पार्टी की बड़ी ताकत इसी में उलझी रही?
यह बात भी सही है। मगर दूसरी तरफ देखें तो ऐसा स्वाभाविक तौर पर भी हुआ, क्योंकि 2005 में चुनाव जीतकर आने के बाद से पार्टी का मुख्य कार्यभार नेपाल में नया संविधान निर्माण था। जाहिर तौर पर नया संविधान निर्माण बहुमत की बदौलत ही होना है। इस कारण हम लोगों की बड़ी क्षमता इसी काम में लगी रही कि कैसे भी करके देश में एक जनतांत्रिक संविधान का निर्माण हो। चूंकि देश को एक सच्चे लोकतंत्र बनाने की चिंता और सोच बुनियादी रूप से माओवादी पार्टी की ही है, इसलिए मुश्किलें और भी गंभीर होती चली गयीं।

कुछ लोगों का मानना है कि जनयुद्ध के बाद माओवादी बुर्जुआ पार्टियों के गठबंधन के चक्रव्यूह में उलझ गये?
इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि माओवादियों को छोड़ देश की दूसरी सभी पार्टियां इस खेल में माहिर थीं। मगर एक फर्क लक्ष्य का भी था। पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल की एमाले पार्टी हो या फिर स्वर्गीय गिरिजा प्रसाद कोइराला की नेपाली कांग्रेस, सभी सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए गठबंधन कर रहे थे, जबकि माओवादी उन सहायक शक्तियों से एका कर रहे थे जो नये नेपाल को बना सकें, देश को नया संविधान दे सकें।

कैंपों में रह रहे माओवादी पार्टी की जनसेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए)के जवानों की मानसिक तैयारी कैसी है, क्या वे अभी भी पार्टी के आहवान पर उसी तरह संघर्ष करने को तैयार हो पायेंगे, जैसा उनका इतिहास रहा है?
उम्मीद तो पार्टी यही करती है। हालांकि कैंपों में इतने वर्ष बिताने के बाद पीएलए की संघर्ष के लिए मानसिक तैयारी को मिला-जुला कहना, सच के ज्यादा करीब होगा। मिलिट्री के स्तर पर देखें तो राज्य की सेना के मुकाबले हम कमजोर हैं और अब मुश्किलें और बढ़ गयी हैं। भारतीय सेना वहां के जवानों को प्रशिक्षित कर रही है और भारत हथियार भी नेपाल को दे रहा है। इसलिए हमें लगता है कि फिलहाल तो बातचीत से ही रास्ता निकालने की कोशिश होनी चाहिए।

अगर दूसरी पार्टियां बातचीत के जरिये नये संविधान निर्माण को लेकर सहमत नहीं होती हैं और मई तक की समयसीमा समाप्त हो जाती है, वैसे में आपकी पार्टी क्या करेगी?
फिर से हम नये सिरे से कोशिश करेंगे,क्योंकि संविधान निर्माण तक पार्टी का यही मुख्य कार्यभार है। वैसे तो देश की सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते यह मौका माओवादी पार्टी को मिलना चाहिए। बहरहाल देखिये क्या होता है।

नेपाल में संविधान सभा के चुनाव की समयसीमा समाप्त होने के बाद क्या सेना माओवादियों का दमन करेगी ?
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। इसी वजह से हम लोग फिर से अपने आधार इलाकों को पुनर्गठित करने की जोरदार प्रक्रिया शुरू कर रहे हैं। चूंकि हम सैन्य मामलों में नेपाली सेना से बराबरी नहीं कर सकते इसलिए ऐसी किसी स्थिति से निपटने के लिए जनांदोलनों का रास्ता अपनाया जाये।

क्या माओवादी पार्टी फिर से जनयुद्ध के रास्ते पर लौट सकती है?
बहुत ज्यादा दमन की स्थिति में थोडे़ दिनों के लिए पार्टी बचाव में ऐसा कर सकती है, मगर पहले की तरह 10-12 साल के लिए जनयुद्ध के रास्ते पर अब नेपाली माओवादी नहीं लौटेंगे। हमारे पास 2003के पास कई ऐसे उदाहरण हैं जिनसे साफ हो गया था कि हम लोग सैन्य मामलों में नेपाली सेना को मात नहीं दे सकते।

भारतीय माओवादियों की नेपाली माओवादियों के बारे में जो आलोचना है कि बुर्जुआ राजनीति में भागीदारी विचलन है, इस बारे में आप क्या कहते हैं?
सैद्धांतिक तौर पर देखें तो यह आलोचना सही लगती है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर भारत और नेपाल की राजनीतिक स्थितियां अलग हैं। हम अभी नेपाल में राजशाही का अंत कर एक गणतांत्रिक देश बनने की प्रक्रिया में हैं, जबकि भारत इस दौर से गुजर रहा है। इसलिए नेपाल की विशेष परिस्थितियों में अभी देश में बुर्जुआ संविधान निर्माण ही क्रांति की पहली मंजिल है।

भारतीय माओवादियों से आपके किस तरह के संबंध है?
एक कम्युनिस्ट पार्टी होने के नाते हमारा उनसे बिरादराना संबंध है, इससे इतर कुछ भी नहीं।

(पाक्षिक पत्रिका 'द पब्लिक एजेंडा' से साभार)