Jan 25, 2011

लोकसंस्कृति की पक्षपधरता का प्रश्न

जबकि चौतरफा अपसंस्कृति का बोलबाला बढ़ता जा रहा हो,लोकसंस्कृति ह्रासमान हो और जनसंस्कृति का एक सिपाही गिरीश तिवारी गिर्दा हमारे बीच से चला गया हो,‘लोकसंस्कृति की चुनौतियों’ पर बात करना बेहद प्रासंगिक है...

पिछले 19जनवरी को रुद्रपुर के नगरपालिका सभागार में गिर्दा स्मृति संगोष्ठी में ‘लोकसंस्कृति की चुनौतियों’पर बोलते हुए वरिष्ठ आलोचक और इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य डॉक्टर राजेन्द्र कुमार ने कहा कि ‘लोकसंस्कृति वही है जिसमें गतिशीलता हो और जो मुक्त करने की ओर उन्मुख। इसलिए लोकसंस्कृति के नाम पर सबकुछ को पीठ पर लादे नहीं रखा जा सकता है। सड़ांध पैदा करने वाली चीजों की निराई-गुड़ाई करते हुए आगे बढ़ना ही सच्चे लोकसंस्कृति की विशेषता हो सकती है।’


संगोष्ठी का आयोजन उत्तराखण्ड के रूद्रपुर जिले की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘उजास’ने किया था। वर्तमान चुनौतियों की चर्चा करते हुए उन्होंने आगे कहा कि आज बाजार की संस्कृति हावी है,जिसने इंसान को माल में तब्दील कर दिया है। साजिशन आमजन से तर्क व विवके छीनकर आस्था को मजबूत किया जा रहा है। बाजार की शक्तियां ही यह तय कर रहीं हैं कि लोक को क्या जानने दा, क्या नहीं। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि बगैर पक्षधरता तय किए वास्तव में लोकसंस्कृति की चुनौतियों से नहीं टकराया जा सकता है।

विषय प्रवर्तन करते हुए ललित जोशी ने कहा कि आज के दौर में लोकसंस्कृति के बरक्स अपसंस्कृति और अंग्रेजियत की संस्कृति हावी है। मानसिक गुलामी की यह संस्कृति समाज को भीतर से तोड़ रही है,इंसान को इंसान से कमतर, आत्मकेन्द्रित, स्वार्थी व मौकापरस्त बना रही है।
डॉ.शम्भूदत्त पाण्डे शैलेय ने लोक के लिए समर्पित गिर्दा को याद करते हुए बताया कि सहज व सरल ढ़ंग से बात रखना ही जन से जुड़ाव का प्रस्थान बिन्दु है। उन्होंने अपने वक्तव्य में इस सामाजिक त्रासदी का उल्लेख किया कि घर के पूजा कक्षों,त्योहारों एवं ब्यक्तिगत-सामाजिक कर्मकाण्डों में चाहें जैसी संस्कृति हो,सामाजिक जीवन में औपनिवेशिक संस्कृति और उससे गढ़ा गया मानस ही है।


‘नौजवान भारत सभा’ के मुकुल ने कहा कि आज हम सांस्कृतिक वर्चस्व के ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां बाजार की शक्तियां जनता के मन-मस्तिक पर जबर्दस्त नियंत्रण कायम कर रखी हैं। स्थिति यह है कि भाषा के नाम पर साजिशन हिंगलिस परोसा जा रहा है। उन्होंने कहा कि लुटेरी शक्तियों ने एक प्रक्रिया में नियंत्रण के हथियार विकसित किए हैं। हमे भी इतिहास से सबक लेकर अपने नए हथियारों को विकसित करना होगा। तभी हम सांस्कृतिक चुनौतियों से जूझ सकते हैं।

अपने अध्यक्षीय वक्तब्य में वरिष्ठ साहित्यकार ड़ा.प्रद्युम्न कुमार जैन ने लोकसंस्कृति की चुनौतियों को समझने के लिए अपने इतिहास को जानने की जरूरत पर जोर दिया। उन्होंने नारावादी मानसिकता से मुक्त होकर समाज की बहती मुक्तधारा को आगे बढ़ाने का आह्वान किया।

संगोष्ठी में ‘इंक़लाबी मजदूर केन्द्र’ के कैलाश भट्ट, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के प्रताप सिंह, वरिष्ठ पत्रकार विधि चंद्र सिंघल , प्रो. प्यारेलाल, पद्यलोचन विश्वास, रूपेश सिंह, ए.पी. भारती आदि ने भी विचार प्रकट किए। नाट्यकर्मी हर्षवर्धन वर्मा ने गिर्दा को समर्पित कविता प्रस्तुत की। संचालन खेमकरन सोमन व नरेश कुमार ने संयुक्त रूप से किया। इस अवसर पर पोस्टर व पुस्तक प्रदर्शनी भी आयोजित हुयी।



प्रस्तुती- एल.जोशी



1 comment:

  1. रवि कुमारWednesday, January 26, 2011

    अच्छा प्रयास है.

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