Feb 11, 2011

इतिहास के आउटलुक में वर्तमान का आइडिया


अखबारों की तर्ज पर  इतिहास का भी नजरीया बदल देने वाले इतिहासकार रामचंद्र गुहा जब बुर्जुआ राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को ही विकृत कर पेश कर रहे हैं तो निश्चय ही इसके पीछे उनकी कोई मंशा है...

अंजनी कुमार

प्रसिद्ध इतिहासकार शाहिद अमीन ने प्रेमचंद पर अपने हालिया लेख में नए इतिहासकारों से अपील की है -‘पक्की’से थोड़ा हटकर लिखें। मगर शायद ही कोई इतिहासकार होगा जो कहेगा कि वह पक्की राह पर चल रहा है। कारण कि पक्की से हटकर चलने की दावेदारी और मार्क्स से आगे जाने का तमगा सभी हासिल करना चाहते हैं। भला कौन होगा जो पक्की राह पर चल कर मुंह पिटाए और मौलिक इतिहासकार होने की दावेदारी न पेश करे।

भले ही नए लेखन के नाम पर वह पुरानी लकीर ही पीटे जा रहा हो और इस पीटने में इतिहास की उन सच्चाईयों को भी पीटे जा रहा हो जिसका चेहरा इतिहास के गिरेबान से निकल ही आता है। इसलिए सच का थोबड़ा बिगाड़ देने की हद तक जाने वाले इतिहासकारों की फेहरिस्त बढ़ रही है।

इतिहास को समसामयिक खबर की तरह पेश करने वाले इतिहासकार रामचंद्र गुहा का अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक के 31जनवरी 2011 के अंक में ‘द एनिमी ऑफ द आइडिया ऑफ इंडिया’ विषय पर ‘ए नेशन कंज्यूम्ड बाय द स्टेट-एक राष्ट्र जिसे राज्य ही नष्ट कर रहा है’ लेख छपा है। रामचंद्र गुहा ने भारतीय राष्ट्र के जिन दुश्मनों का नाम गिनाया वे हैं: हिन्दू साम्प्रदायिकता, माओवादी, उत्तर पूर्व व कश्मीर की राष्ट्रीयता मुक्ति का आंदोलन, आदिवासियों का विस्थापन, लूट, भ्रष्टाचार और राज्य की दमनकारी नीति.    

रामचंद्र गुहा को इस बात का मलाल है कि आदिवासियों को उनका ‘अंबेडकर’नहीं मिला और माओवादी ‘भारतीयता’में ढुंढ नहीं रहे हैं। उन्हें डर है कि कश्मीर अल कायदा का गढ़ न बन जाय और भ्रष्टचार-लूट में राज्य भारतीय राष्ट्र को डूबा न दे। उनके गिनाए गए दुश्मनों के खेमे से बाहर दलित, मुस्लिम, सिख और स्त्री हैं। तब क्या यह मान लिया जाय कि यही भारतीय राष्ट्र हैं?यह कहना ज्यादती होगा। वह मानते हैं कि ये समुदाय चुनावी राजनीति के जरिए भारतीय राष्ट्र के हिस्सा बन चुके हैं।

उनकी यह दावेदारी उपरोक्त समुदाय की वास्तविक स्थिति पर पर्देदारी होगी। दलित, मुस्लिम व स्त्री पर राज्य व गैर राज्य स्तरीय हिंसा के मद्देनजर यह बात सतह पर भी सच नहीं दिखती। और यदि ऐसा है तो उनके तर्क का सीधा परिणाम यही निकलता है कि यह देश सिख समुदाय से ही चल रहा है। जाहिरा तौर पर इस निष्कर्ष पर हां में जबाब नहीं बन सकता। तब यह जानना जरूरी बन जाता है कि उनकी भारतीय राष्ट्र की अवधारणा क्या है।

रामचंद्र गुहा रविन्द्रनाथ टैगोर के हवाले से बताते हैं कि भारतीय राष्ट्र 19वीं सदी के यूरोपीय राष्ट्रवाद यानी ‘एक भाषा, एक धर्म व एक निश्चित दुश्मन -जो बाद की राष्ट्रीयताओं (जिसमें पाकिस्तान, इजराइल शामिल हैं) के लिए सांचे का काम किया, से भिन्न तरीके से उभरकर आया। रामचंद्र गुहा के शब्दों में ‘भारतीय राष्ट्र के विशाल भूभाग में किसी भी अन्य राष्ट्र के मुकाबले अधिक सामाजिक वैविध्यता है’।

इतिहास का क ख ग जाने वाले छात्र  भी यूरोपीय राष्ट्र-राज्य की अवधारणा की इस नई परिभाषा से चौकेंगे। और यदि हम रामचंद्र गुहा की ही परिभाषा को मान लें तब भी इस खांचें में देर से बने राष्ट्र यानी पाकिस्तान व इजराइल फिट बैठते हैं?14अगस्त 1947को अस्तित्व में आने वाले पाकिस्तान के बारे में कौन नहीं जानता कि वह एक बहुभाषी राज्य था। भाषागत व इतिहास-क्षेत्र की वैशिष्ट्यता के आधार पर ही 1971 में बांग्लादेश का अभ्युदय हुआ।

भारतीय अखबारों की तरह इतिहास का भी नजरीया बदल देने वाले इतिहासकार रामचंद्र गुहा जब बुर्जुआ राष्ट्र-राज्य की अवधारणा को ही विकृत कर पेश कर रहे हैं तो निश्चय इसके पीछे उनकी कोई मंशा है। वे इतिहास की अवधारणाओं को नहीं जानते,यह कहना-सोचना भुलावे में डालना होगा। दरअसल वे इतिहास को समसामयिक की तरह पेश कर इतिहास के निष्कर्षों से बच निकलना चाहते हैं। वह संघर्ष,प्रतिनिधित्व व निर्माण-अभ्युदय की प्रकिया को सम्मिलन,समर्पण व अधिनायकत्व की वर्तमान राजनैतिक-आर्थिक धारा में डूबो देना चाहते हैं।

जब गुहा निषेध की प्रक्रिया में गर्व से यह दावेदारी करते हैं कि ‘भारतीय राष्ट्र के विशाल भूभाग में किसी भी अन्य राष्ट्र के मुकाबले अधिक सामाजिक वैविध्यता है’ तब वे सामाजिक वैविध्यता के ठंडे पानी में भाषा, इतिहास, क्षेत्र व लोगों को डूबो देते हैं। भारत के विशाल भूभाग में रहने वाले लोगों के बीच सामाजिक वैविध्यता नहीं बल्कि राष्ट्र-राज्यों का सामूहिकीकरण है। इस समहिकीकरण के पीछे लगातार चलने वाली रक्त रंजीत टकराहटें हैं। जिसमें दिल्ली में बैठने वाला राष्ट्र-राज्य निरंतर ताकतवर बनता गया है। रामचंद्र गुहा राजनीतिक विविधता को सामाजिक विविधता के तले दबाकर विविधता की प्रकृति को खा जाना चाहते हैं।

अन्यथा, कौन यह बात नहीं जानता कि केरल, कश्मीर, भोजपुर और नागलैंड के बीच सामाजिक नहीं इतिहासगत विविधता है। क्षेत्र, भाषा व लोगों के बीच विशिष्ट प्रकृति की विविधता है। रामचंद्र गुहा की चिंता वैविध्यता को लेकर इस कारण से है कि ये समूह अभी तक ‘अधिनायक’ का हिस्सा नहीं बन पाए हैं। वह लिखते हैं, ‘‘मुस्लिम व दलित मुद्दों को लोकतांत्रिक चुनावों में पार्टियों के माध्यम से अभिव्यक्ति तो मिली है लेकिन आदिवासियों का अंबेडकर कहां है? या आदिवासियों की मायावती कहां हैं?’

वे चुनावी पार्टियों के माध्यम से ही प्रतिनिधित्व देखने के लिए लालायित हैं तो उन्हें झारखंड व छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों-मंत्रियों की फेहरिस्त में जरूर झांक लेना चाहिए। और उनकी चिंता भारतीय ‘राष्ट्र-राज्य’के बनने के दौरान यानी पचास के दशक की है तब उन्हें जरूर नेहरू व उस दौर की राजनीति के गिरेबान में झांकना चाहिए जहां महज 14प्रतिशत लोग देश का भविष्य तय कर रहे थे। इस गिरेबान में झांकने का अर्थ होगा इतिहास के उन अध्यायों से गुजरना जो ‘पक्की’ के किनारे बसे हुए थे। वे जीवन की एक पक्की राह पकड़ना चाह रहे थे। और उनके पक्के रास्ते पर आते ही देश की सुरक्षा को खतरा हो गया। उन्हें गोली से उड़ा दिया गया। जो बच गये उन्हें पीछे ठेल दिया गया। उनके मुद्दों को संविधान की काल कोठरी में डाल दिया गया।

रामचंद्र गुहा के ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को खतरा पचास के दशक में उभरे राष्ट्र-राज्य की राजनीति की प्रवृत्तियों से नहीं है। वे इस दौर को थोड़े विचलनों के साथ स्वर्णिमकाल मानते हैं। उन्हें खतरा ‘‘व्यापक व बड़े स्तर पर चल रहे राजनीतिक भ्रष्टाचार’’ से लग रहा है जो लूट के लिए सम्मिलन की प्रक्रिया को बाधित कर रहे हैं। वह मानते हैं कि आइडिया ऑफ इंडिया ‘‘संवाद,समझौता व समायोजन’’ पर आधारित है। इसके तहत किसी को भी तुरंत-फुरत हल नहीं मिलने वाला है। क्या यह इतिहास का अधिनायकवादी विमर्श नहीं है, जिसकी पक्की राह कैंब्रिज स्कूल की ओर ले जाती है और जिसके पेंदे में पड़ने का अर्थ है साम्राज्यवाद की चाकरी, अधिनायकवाद की जी हुजूरी।

रामचंद्र गुहा ‘‘संवाद, समझौता व समायोजन’’ की कोई समय सीमा तय नहीं करते। ठीक वैसे ही जैसे साम्राज्यवादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बहाल होने की कोई समय सीमा तय नहीं करते। रामचंद्र गुहा को डर है कि कश्मीर की आजादी से वहां अलकायदा का गढ़ बन जाएगा। इससे आइडिया ऑफ इंडिया को खतरा पैदा हो जाएगा। वह यह नहीं बताते कि 1990 के पहले वहां कौन सा खतरा था। या कि, उत्तर-पूर्व की राष्ट्रीयताओं की मुक्ति से क्या खतरा था(है)। देश के भीतर भाषागत राज्य बनाने को लेकर क्या खतरा रहा है? आज भी तेलगांना, बुंदेलखंड या भोजपूर के राज्य बनने से कौन से खतरा उठ खड़ा हो रहा है

इस इतिहास से गुजरने का अर्थ होगा उन मुद्दों व लोगों से उलझना जिनके चलते उनका आइडिया ऑफ इंडिया बनता है। इंडिया के बनने में इतिहास के साथ की गई दगाबाजियों से होकर गुजरने का अर्थ वर्तमान की तकलीफों से होकर गुजरना है। रामचंद्र गुहा इस तकलीफदेह रास्ते से गुजरने के बजाय इन तकलीफों को ही ‘‘दुश्मन’’ करार देते हैं।

इंडिया को स्वरूप देने वाले नेहरू से वह कन्नी काट जाते हैं। उस दौर में बन रहे आइडिया ऑफ इंडिया पर चुप्पी मार जाते हैं। वह यह नहीं बताते हैं कि केरल में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी गई कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार की बर्खास्तगी, उत्तर-पूर्व में आफ्सपा लगाने व तेलगांना में निजामशाही के खिलाफ लड़ रहे किसानों के खिलाफ सेना-अर्धसेना लगाने का काम नेहरू ने ही किया था।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा

कश्मीर के साथ दगाबाजी और उनके नेताओं को जेल भेजने,किसानों को बाजार व जमींदारों के भरोसे छोड़ने का काम इसी काल में हुआ। देश की पांच प्रतिशत आबादी के लिए अभिजात स्कूलों ,कॉलेजों व तकनीकी संस्थानों  को खालेने की नीति व कार्यवाई इसी दौर में हुई। यही वह समय था जब पुरूषों को मार स्त्रियों को सती होने और दलितों-आदिवासियों को सीमांत विषय बनाकर छोड़ दिया गया। जिसकी खिलाफत करते हुए डा.अंबेडकर ने सरकार से इस्तिफा देने का विकल्प चुना और यह विकल्प राष्ट्र-राज्य में उभर रही राजनीति में विकल्पहीनता का बायस बन गया।

दरअसल,रामचंद्र गुहा इंडिया की संकल्पना को बचाए रखने के लिए एक ऐसे अधिनायक की चाह पेश करते हैं जो अपनी गतिविधि में मोदी न हो,लूट व भ्रष्टाचार में डूबा न हो और जो वैविध्यता को अंगीकार कर समरस कर ले। शायद वह ‘प्रिंस’चाहते हैं। या एक ऐसी संविदा जिसमें दैवीय गुण हो। जिसके समक्ष ‘‘संवाद, समझौता, विनिमय व समायोजन’’को चाहने वाले लोग हों। उन्हीं के शब्दों में ‘‘लोकतंत्र को चलने के लिए तीन जरूरी तत्व हैं: राज्य, नीजी उपक्रम व नागरिक समाज’’।

जन व लोक तो घोड़े की पीठ है जिस पर इन्हें सवार होना है। उन्हें यह बात नहीं समझ में आती कि ‘अंग्रेजी शिक्षित मेइति व नागा लोग भारत में अच्छी नौकरी हासिल कर रहे हैं। तब यह समुदाय क्यांे एक छोटी सी जगह में सिकुड़ कर रहने के लिए बेताब है?’इसी तरह उन्हें हिंदूत्ववाद व नक्सलवाद में फर्क नहीं दिखता है। और,न ही उनके आइडिया ऑफ इंडिया में हिंदूवाद की बू आती है। मानो यह मोदी के खाते में ही पूरा का पूरा जमा कर दिया गया है।

रामचंद्र गुहा कभी दस्तावेज में घुसते हैं तो कभी किसी समसामयिक दृश्य में तो कभी किसी के साथ बातचीत का रस निचोड़ते हुए इतिहास का सामयिक आख्यान पेश करते हैं। वह न केवल एक अभिजात समूह की इच्छा व विमर्श को इतिहास के रूप में पेश करते हैं बल्कि वह इतिहास के उत्तर औपनिवेशिक विमर्श की शब्दावलियों को चुराकर उस असली मंशा को छुपा ले जाना चाहते हैं जहां पूंजी अपने अधिनायकत्व के साथ राज करना चाहता है।

रामचंद्र गुहा जन के विविध पक्षों को दुश्मन करार देकर ‘विचार’जैसी सरणी को तेलहंडा में डाल देने का आग्रह करते हैं। इतिहास के उत्तर-आधुनिक विमर्श के आवरण में इतिहास की औपनिवेशिक अवधारणा किस किस रूप में भेष धरकर आएगा,इसे रामचंद्र गुहा के इस लेख से जरूर पता लगता है। जानना हो तो लेख जरूर पढ़ें और तय करें कि साम्राज्यवाद के इस घोर पतन के दौर में संघर्ष,विचार और निर्माण की धुरी इंसान के पक्ष में चलते हुए सृजन कैसे करें।



(लेखक  राजनीतिक -सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार हैं.फिलहाल मजदूर आन्दोलन पर कुछ जरुरी लेखन में व्यस्त.उनसे abc.anjani@gmail.comपर संपर्क  किया जा सकता है. )