Dec 13, 2010

एसटीएफ़ के फरेब से उठेगा पर्दा



जनज्वार ब्यूरो. मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल)ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती से प्रदेश की जेलों में बंद तारिक कासमी और खालिद की गिरफ्तारी की जांच के लिए बने आरडी निमेष जांच आयोग की रिपोर्ट तत्काल  प्रभाव से सार्वजनिक करने की मांग की।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी,फ़ैजाबाद और लखनऊ कचहरी में २७नवम्बर २००७को हुए छह  श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों के आरोपी तरीक कासमी और खालिद अंसारी की गिरफ़्तारी के तीन साल से अधिक का समय गुजार चुका है .  संगठन के प्रदेश संगठन मंत्री मसीहुद्दीन संजरी,तारिक शफीक और विनोद यादव ने कहा कि कासमी और खालिद पर जो आतंकवादी होने का  आरोप लगा है वह झूठा है. मगर धमाकों बंद ये दोनों  बेगुनाह इसलिए जेलों से बाहर नहीं हो पा रहे हैं कि आरडी निमेश कमिटी की जाँच रिपोर्ट सार्वजानिक नहीं हुई है.

तारिक कासमी: बाराबंकी जेल में बंद

पीयुसीएल  के सदस्यों के मुताबिक यूपी एसटीएफ को जाँच के बहाने जो विशेष अधिकार दिए गए हैं वो अपने अधिकारों का उल्लंघन कर रही है. एसटीएफ़ जहां राष्ट् के आम नागरिकों को गैर कानूनी तरीके से फंसा  रही है तो वहीं गैरकानूनी तरीके से खतरनाक विस्फोटक और असलहे राष्ट् विरोधी तत्वों से प्राप्त कर रही है।

पीयूसीएल के मसीहुद्दीन संजरी, तारिक शफीक, विनोद यादव, अंशु माला सिंह, अब्दुल्ला एडवोकेट, जीतेंद्र हरि पांडे, आफताब, राजेन्द्र यादव,तबरेज अहमद ने मायावती सरकार से मांग की कि आरडी निमेष जांच आयोग की रिपोर्ट तत्काल लायी जाय।

संगठन ने जिलाधिकारी के माध्यम से मुख्यमंत्री को भेजे ज्ञापन में कहा कि हम आपको याद दिलाना चाहेंगे कि आजगढ़ के तारिक कासमी का 12 दिसंबर 2007 को रानी की सराय चेक पोस्ट पर कुछ असलहाधारियों ने अपहरण कर लिया, जिस पर स्थानीय स्तर पर तमाम राजनीतिक दलों और मानवाधिकार संगठनों ने धरने प्रदर्शन किए और जनपद की स्थानीय पुलिस ने तारिक को खोजने के लिए एक पुलिस टीम का गठन भी किया।

 वहीं खालिद को जिला जौनपुर के   बाजार मड़ियांहूं से 16 दिसंबर 2007 की शाम चाट की दुकान से कुछ असलहाधारी टाटा सूमों सवार उठा ले गए थे, जिसके मड़ियाहूं बाजार में दर्जनों गवाह हैं। जिस पर भी काफी धरने-प्रदर्शन हुए और मांग की गई कि जल्द से जल्द उसको खोजा जाय। और इसी के बाद 22 दिसंबर 2007 को यूपी एसटीएफ ने दावा किया कि उसने यूपी के लखनऊ, फैजाबाद और वाराणसी कचहरी बम धमाकों के आरोपी तारिक कासमी और खालिद को उसने सुबह बाराबंकी रेलवे स्टेशन से भारी मात्रा में विस्फोटक पदार्थों और असलहों  के साथ गिरफ्तार किया।

यूपी एसटीएफ के इस दावे के बाद मानवाधिकार संगठनों के लोगों का यह दावा पुख्ता हो गया कि इन दोनों को यूपी एसटीएफ ने गैर कानूनी तरीके से उठा कर अपने पास गैर कानूनी तरीके से पहले से रखे विस्फोटक पदार्थों को दिखा कर गिरफ्तार किया। जिस पर उत्तर प्रदेश सरकार की तरफ से इस घटना की जांच के लिए आरडी निमेष जांच आयोग का गठन किया गया. आयोग को  छह महीने के भीतर अपनी जांच प्रस्तुत करनी थी।

मगर गिरफ्तारी के  तीन साल बीत जाने के बाद भी जांच आयोग की निष्क्रियता के चलते रिपोर्ट नहीं पेश की गई जो मानवाधिकार हनन का गंभीर मसला है। जबकि जांच आयोग को मानवाधिकार संगठनों और राजनीतिक दलों तक ने अपने पास उपलब्ध जानकारियां दी। मड़ियाहूं से गिरफ्तार खालिद की गिरफ्तारी के विषय में स्थानीय मड़ियाहूं कोतवाली तक ने सूचना अधिकार के तहत यह जानकारी दी कि खालिद को 16 दिसंबर 2007 को मड़ियाहूं से गिरफ्तार किया गया था। जो यूपी एसटीएफ के उस दावे की कि उसने उसको बाराबंकी से विस्फोटक के साथ गिरफ्तार किया था, के दावे को खारिज करता है।

ऐसे में महत्वपूर्ण सवाल राष्ट् की सुरक्षा के लिए भी है  कि यूपी एसटीएफ के पास कहां से इतनी भारी मात्रा में अवैध विस्फोटक और असलहे आए। साथ ही  आरडी निमेष जाँच आयोग की रिपोर्ट आते ही असल गुनहगारों पर शिकंजा  कसेगा और बाराबंकी की जेल में बंद बेगुनाहों को न्याय मिलेगा.

वैश्विक पत्रकारिता का नया दौर


विकीलिक्स के खुलासों ने दुनिया भर में  जिस तरह से खलबली मचाई  है,वह इस बात का सबूत है कि इसके असर से मुख्यधारा और उससे इतर वैकल्पिक पत्रकारिता के स्वरुप,चरित्र और कलेवर में आ रहे परिवर्तनों का कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ने लगा है.


आनंद प्रधान


विकीलिक्स ने मुख्यधारा की पत्रकारिता को निर्णायक रूप से बदलने की जमीन तैयार कर दी है.हम-आप आज तक पत्रकारिता को जिस रूप में जानते-समझते रहे हैं,विकीलिक्स के बाद यह तय है कि वह उसी रूप में नहीं रह जायेगी.

अभी तक हमारा परिचय और साबका मुख्यधारा की जिस कारपोरेट पत्रकारिता से रहा है,वह अपने मूल चरित्र में राष्ट्रीय,बड़ी पूंजी और विज्ञापन आधारित और वैचारिक तौर पर सत्ता प्रतिष्ठान के व्यापक हितों के भीतर काम करती रही है लेकिन विकीलिक्स ने इस सीमित दायरे को जबरदस्त झटका दिया है.यह कहना तो थोड़ी जल्दबाजी होगी कि यह प्रतिष्ठानी पत्रकारिता पूरी तरह से बदल या खत्म हो जायेगी लेकिन इतना तय है कि विकीलिक्स के खुलासों के बाद इस पत्रकारिता पर बदलने का दबाव जरूर बढ़ जायेगा.

असल में,विकीलिक्स के खुलासों ने दुनिया भर में खासकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान में जिस तरह से खलबली मचाई हुई है,वह इस बात का सबूत है कि विकीलिक्स के असर से मुख्यधारा और उससे इतर वैकल्पिक पत्रकारिता के स्वरुप,चरित्र और कलेवर में आ रहे परिवर्तनों का कितना जबरदस्त प्रभाव पड़ने लगा है.


इसमें कोई दो राय नहीं है कि विकीलिक्स की पत्रकारिता शुरूआती और सतही तौर पर चाहे जितनी भी ‘अराजक’,‘खतरनाक’और ‘राष्ट्रहित’को दांव पर लगानेवाली दिखती हो लेकिन गहराई से देखें तो उसने पहली बार राष्ट्रीय सीमाओं और राष्ट्रीय सुरक्षा के संकीर्ण और काफी हद तक अलोकतांत्रिक दायरे को जोरदार झटका दिया है.

इस अर्थ में,यह सच्चे मायनों में २१ वीं सदी और भूमंडलीकरण के दौर की वास्तविक वैश्विक पत्रकारिता है.यह पत्रकारिता राष्ट्र और उसके संकीर्ण बंधनों से बाहर निकलने का दु:साहस करती हुई दिखाई दे रही है,भले ही उसके कारण देश और उसकी सरकार को शर्मिंदा होना पड़ रहा है.

सच पूछिए तो अभी तक विकीलिक्स ने जिस तरह के खुलासे किए हैं, उस तरह के खुलासे आमतौर पर मुख्यधारा के राष्ट्रीय समाचार मीडिया में बहुत कम लगभग अपवाद की तरह दिखते थे.लेकिन विकीलिक्स ने उस मानसिक-वैचारिक संकोच,हिचक और दबाव को तोड़ दिया है जो अक्सर संपादकों को ‘राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा’के नाम पर इस तरह की खबरों को छापने और प्रसारित करने से रोक दिया करता था.

दरअसल,राष्ट्र के दायरे में बंधी पत्रकारिता पर यह दबाव हमेशा बना रहता है कि ऐसी कोई भी जानकारी या सूचना जो कथित तौर पर ‘राष्ट्रहित’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के अनुकूल नहीं है, उसे छापा या दिखाया न जाए. इस मामले में सबसे चौंकानेवाली बात यह है कि आमतौर पर ‘राष्ट्रहित’ और ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ की परिभाषा सत्ता प्रतिष्ठान और शासक वर्ग तय करता रहा है. वही तय करता रहा है कि क्या ‘राष्ट्रहित’ में है और किससे ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ को खतरा है?

सरकारें और कारपोरेट मीडिया भले ही लोकतंत्र,अभिव्यक्ति की आज़ादी,पारदर्शिता,जवाबदेही,सूचना के अधिकार,मानव अधिकारों जैसी बड़ी-बड़ी बातें करते न थकते हों लेकिन सच्चाई यही है कि शासक वर्ग और सत्ता प्रतिष्ठान आम नागरिकों से जहां तक संभव हो,कभी ‘राष्ट्रहित’और कभी ‘राष्ट्रीय सुरक्षा’ के नाम पर सूचनाएं छुपाने की कोशिश करते रहे हैं.

इसकी वजह किसी से छुपी नहीं है.कोई भी सरकार नहीं चाहती है कि नागरिकों को वे सूचनाएं मिलें जो उनके वैध-अवैध कारनामों और कार्रवाइयों की पोल खोले.सच यह है कि सरकारें ‘राष्ट्रीय हित और सुरक्षा’के नाम पर बहुत कुछ ऐसा करती हैं जो वास्तव में,शासक वर्गों यानी बड़ी कंपनियों, राजनीतिक वर्गों, ताकतवर लोगों और हितों के हित और सुरक्षा में होती हैं.

असल में,शासक वर्ग एक एक आज्ञाकारी प्रजा तैयार करने के लिए हमेशा से सूचनाओं को नियंत्रित करते रहे हैं. वे सूचनाओं को दबाने, छुपाने, तोड़ने-मरोड़ने से लेकर उनकी अनुकूल व्याख्या के जरिये ऐसा जनमत तैयार करते रहे हैं जिससे उनके फैसलों और नीतियों की जनता में स्वीकार्यता बनी रहे.मुख्यधारा का मीडिया भी शासक वर्गों के इस वैचारिक प्रोजेक्ट में शामिल रहा है.

लेकिन विकीलिक्स ने सूचनाओं के मैनेजमेंट की इस आम सहमति को छिन्न-भिन्न कर दिया है.इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह किसी एक देश और उसकी राष्ट्रीयता से नहीं बंधा है.वह सही मायनों में वैश्विक या ग्लोबल है.यही कारण है कि वह राष्ट्र के दायरे से बाहर जाकर उन लाखों अमेरिकी केबल्स को सामने लाने में सफल रहा है जिसमें सिर्फ अमेरिका ही नहीं,अनेक राष्ट्रों की वास्तविकता सामने आ सकी है.

राष्ट्रों के संकीर्ण दायरे को तोड़ने में विकीलिक्स की सफलता का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि जूलियन असान्जे ने केबल्स को लीक करने से पहले उसे एक साथ अमेरिका,ब्रिटेन,फ़्रांस और जर्मनी के चार बड़े अख़बारों को मुहैया कराया और उन अख़बारों ने उसे छापा भी.

यह इन अख़बारों की मजबूरी थी क्योंकि अगर वे उसे नहीं छापते तो कोई और छापता और दूसरे, उन तथ्यों को सामने आना ही था, उस स्थिति में उन अख़बारों की साख खतरे में पड़ जाती. यह इस नए मीडिया की ताकत भी है कि वह तमाम आलोचनाओं के बावजूद मुख्यधारा के समाचार मीडिया का भी एजेंडा तय करने लगा है.


 मामूली बात नहीं है कि विकीलिक्स से नाराजगी के बावजूद मुख्यधारा के अधिकांश समाचार माध्यमों ने उसकी खबरों को जगह दी है.यह समाचार मीडिया के मौजूदा कारपोरेट माडल की जगह आम लोगों के सहयोग और समर्थन पर आधारित विकीलिक्स जैसे नए और वैकल्पिक माध्यमों की बढ़ती ताकत और स्वीकार्यता की भी स्वीकृति है.

यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि पिछले डेढ़-दो दशकों से मुख्यधारा की कारपोरेट पत्रकारिता के संकट की बहुत चर्चा होती रही है.लेकिन यह संकट उनके गिरते सर्कुलेशन और राजस्व से ज्यादा उनकी गिरती साख और विश्वसनीयता से पैदा हुआ है.


विकीलिक्स जैसे उपक्रमों का सामने आना इस तथ्य का सबूत है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने खुद को सत्ता प्रतिष्ठान के साथ इस हद तक ‘नत्थी’(एम्बेडेड)कर लिया है कि वहां इराक और अफगानिस्तान जैसे बड़े मामलों के सच को सामने लाने की गुंजाईश लगभग खत्म हो गई है.

ऐसे में,बड़ी पूंजी की जकडबंदी से स्वतंत्र और लोगों के समर्थन पर खड़े विकीलिक्स जैसे उपक्रमों ने नई उम्मीद जगा दी है.निश्चय ही,विकीलिक्स से लोगों में सच जानने की भूख और बढ़ गई है.इसका दबाव मुख्यधारा के समाचार माध्यमों को भी महसूस हो रहा है.जाहिर है कि विकीलिक्स के बाद पत्रकारिता वही नहीं रह जायेगी/नहीं रह जानी चाहिए.


('राष्ट्रीय सहारा' से  साभार  )

हर गांव में तीन एनजीओ


पहाड़ में की बढ़ती तादात यहां के सामाजिक एवं आर्थिक बनावट को नुकसान पहुंचाने वाली है। एनजीओ विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से एनजीओ जो काल्पनिक खतरे पैदा करते हैं,उनके समाधान के लिए बड़ा बजट भी प्राप्त करते हैं।

 
राजेंद्र पंत 'रमाकांत'

उत्तराखण्ड में पर्यावरण,जल,जंगल और जमीन के संरक्षण एवं संवर्धन के नाम पर बड़ी संख्या में स्वयंसेवी संगठनों की घुसपैठ बढ़ रही है। सरकार की निर्भरता लगातार इस संगठनों पर बढ़ती जा रही है। अधिकतर काम सरकार एनजीओ से करा रही है।

इससे जहां सरकार अपनी नाकामियों को छुपाने का काम करती है,वहीं ऐसे संगठनों को फलने-फूलने का मौका भी मिल रहा है। अब स्थिति यह है कि पूरे राज्य में जितने गांव हैं,उसके तिगुने एनजीओ हैं। एक अनुमान के अनुसार राज्य के प्रत्येक गांव में औसतन तीन संगठन काम कर रहे हैं।

उल्लेखनीय है कि उत्तराखण्ड में राज्य बनने से पहले इन संगठनों की घुसपैठ शुरू हो गयी थी। पर्यावरण संरक्षण,पानी के संवर्धन से लेकर जन कल्याणकारी परियोजनाओं तक उनके जुडऩे की लंबी फेहरिस्त रही है। धीरे-धीरे वे यहां के विकास की अगुवाई के सबसे बड़े पुरोधा बन गये।


इस समय राज्य में पचास हजार के करीब स्वंयसेवी संगठन कार्य कर रहे हैं। उन्हें देश-विदेश की वित्तीय संस्थाओं के अलावा सरकार भी काम देती है। इस समय राज्य एनजीओ के लिए सबसे मुनाफा देने वाली जगह साबित हो रही है। यहां किसी उद्योग या उत्पादन का नहीं, बल्कि समाजसेवा से एनजीओ लाभ कमा रहे हैं।


राज्य में स्वयंसेवी संस्थाओं के आंकड़ों में देखें तो इस समय तेरह जिलों में कुल 49954संस्थाएं जनसेवा में लगी हैं। यह आंकड़ा बहुत दिलचस्प है कि राज्य में कुल गांवों की संख्या 17हजार के आसपास है। अर्थात प्रत्येक गांव में तीन एनजीओ कार्यरत हैं। सरकारी संरक्षण में फलते-फूलते एनजीओ अब पहाड़ की दशा-दिशा तय करने लगे हैं।


एक तरह से एनजीओ एक नई इंडस्ट्री के रूप में स्थापित हो गये हैं। इस समय पहाड़ में मौजूद हजारों एनजीओ उन सारे कामों में हस्तक्षेप कर रहे हैं जो सरकार ने अपने विभागों के माध्यम से कराने थे। पर्यावरण, महिला कल्याण, शिक्षा, पौधारोपण, स्वास्थ्य, एड्स, टीवी और कैंसर के प्रति जागरूकता पैदा करने से लेकर यहां की सांस्कृतिक विरासत को बचाने तक का ठेका इन्हीं संगठनों के हाथों में है।



एनजीओ की जिलेवार संख्या

देहरादून 8249
हरिद्वार 4350
टिहरी 5483
पौड़ी 5292
रुद्रप्रयाग 1357
चमोली 2885
उत्तरकाशी 3218
उधमसिंहनगर 4654
पिथौरागढ़ 3203
बागेश्वर 940
अल्मोड़ा 4166
चम्पावत 806
नैनीताल 5351


कुल योग 49954


यही कारण है कि पहाड़ की मूल समस्याओं से ध्यान हटाकर विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से नये और काल्पनिक खतरों से बचने के लिए फंडिंग एजेंसियों और सरकार से बड़े बजट पर हाथ साफ किया जाता है। असल में सरकारी तंत्र की नाकामी और कार्य संस्कृति ने इस तरह की समाजसेवा की प्रवृत्ति को आगे बढ़ाया है।

जहां सरकार के पास जन कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने के लिए भारी-भरकम विभाग और ढांचागत व्यवस्था है,वहीं इन कामों को करने के लिए सरकार स्वयंसेवी संगठनों की मदद लेती है। दुनिया के विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों में घुसपैठ बनाने के लिए एक रास्ता निकाला।

इनमें अपना साम्राज्य स्थापित करने के लिए वह एक जनपक्षीय मुखौटा भी ओढ़ते हैं। विश्व बैंक और अन्य बड़ी फंडिंग एजेंसियों के माध्यम से आने वाले पैसे को उसी तरह खर्च किया जाता है, जैसा वह चाहते हैं। यही कारण है कि जिन कामों को सरकार ने करना था, वे अब इन संगठनों के हाथों में हैं।


पहाड़ में एनजीओ की बढ़ती तादात यहां के सामाजिक एवं आर्थिक बनावट को नुकसान पहुंचाने वाली है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि यह विभिन्न सर्वेक्षणों के माध्यम से एनजीओ जो काल्पनिक खतरे पैदा करते हैं, उनके समाधान के लिए बड़ा बजट भी प्राप्त करते हैं।

नब्बे के दशक में अल्मोड़ा में कार्यरत ‘सहयोग’संस्था ने जिस तरह पहाड़ के सामाजिक ताने-बाने को एक साजिश के तहत तोडऩे की रिपोर्ट तैयार की थी, उसका भारी विरोध हुआ था। कमोबेश आज भी यही स्थित है। अब एड्स जागरूकता के नाम पर यदा-कदा जमीनी सच्चाई से दूर रिपोर्ट तैयार कर उसके खिलाफ जागरूकता लाने के नाम पर भारी फर्जीवाड़ा हो रहा है।

सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पहाड़ में जिन मामलों को लेकर ये संगठन काम करते रहे हैं, उन्हें पिछले पच्चीस-तीस सालों में ज्यादा नुकसान हुआ है। यहां की आंदोलन की धार को कुंद करने का काम भी ये कर रहे है।


यदि पहाड़ में स्वयंसेवी संगठन यहां की तस्वीर बदल रहे होते तो एक गांव में औसतन तीन से ज्यादा एनजीओ इस प्रदेश को स्वावलंबी ही नहीं,बल्कि दुनिया के बेहतर देशों में शुमार कर सकते थे। सरकार और एनजीओ का यह गठजोड़ कहां जाकर समाप्त होगा, यह आने वाला समय बतायेगा, लेकिन लगातार बढ़ते इन संगठनों पर समय रहते लगाम लगाने की जरूरत है।


(पाक्षिक पत्रिका जनपक्ष आजकल से साभार)