Dec 31, 2010

दगा दे गयी माओवादी दाग छुड़ाने की तरकीब

बिनायक सेन की जेल से रिहाई के लिए चलाए गए आंदोलन में इसी बात पर जोर दिया गया कि वह माओवादी नहीं है,अहिंसावादी हैं। जज शायद इन तर्कों में छिपे फांफड़ को देख लिया था और बिना साक्ष्य के भी यह सिद्ध कर दिया कि बिनायक सेन माओवादी हैं...

अंजनी कुमार


विनायक  सेन  के समर्थन में चंडीगढ़ में प्रदर्शन
‘यह न्याय नहीं है बल्कि द्वेष से भरी एक अन्यायपूर्ण सजा है। यह सजा एक ऐसे अहिंसावादी मानवाधिकार कार्यकर्ता को दी गयी है जिसने जनता के अधिकारों के हनन को चुनौती दी....फैसला देश की लोकतांत्रिक बुनावट पर एक क्रूर हमला है।’ मेधा पाटकर के इस बयान से क्या यह निष्कर्ष निकाला जाय कि अहिंसावादी सरकार के लिए अपराधी नहीं होते हैं? क्या इससे यह निष्कर्ष निकाला जाय कि माओवादी अपराधी इसलिए हैं कि वे हिंसावादी हैं?

तब क्या अपराध का प्रश्न हिंसा-अहिंसा से जुड़ा हुआ है?तब यह इस बात को याद कर लेना जरूरी है कि ब्रिटिश हुकुमत वाले भारत में गांधी जी व शहीद भगत सिंह दोनों ही बहुत से मामलों में अपराधी ठहराए गए। आज हम दोनों को ही महात्मा व शहीद ए आजम के रूप में याद करते हैं। ठीक ऐसा 1857 के गदर को याद करते हुए करते हैं। तब क्या यह माना जाय कि अपराध का प्रश्न व्यवस्था से जुड़ा हुआ है? निजाम ए कोहना से जुड़ा हुआ है? न्याय की पीठ पर बैठे सैययादों से जुड़ा है?

अनुभव तों यही बता रहे हैं,विश्लेषण हमें वहीं पहुंचा रहे हैं,विमर्श का निष्कर्ष यहीं पहुंच रहा है। लेकिन कॉमन सेंस अभी भी कुछ और बना है। जिसके चलते बिनायक सेन को रायपुर की स्पेशल कोर्ट द्वारा दिये गए आजीवन कारावास की सजा के खिलाफत में इस तरह के हजारों बयान,लेख लगातार छपते ही जा रहे हैं।

बिनायक सेन के साथ नारायण सान्याल व पीयूष गुहा को भी आजीवन कारावास की सजा दी गई। बल्कि इस बात को यूं कहना ठीक होगा कि बिनायक सेन को सजा ही इस बात से हुई कि वह नारायण सान्याल व पीयूष गुहा के साथ उनके संबंध एक गवाह के बयान के आधार पर सिद्ध हुए और जज के अनुसार यह स्वयंभू साक्ष्य था कि वे दोनों सीपीआई-माओवादी पार्टी के सदस्य थे। इस कारण से स्वभावतः गुनहगार थे।

ऐसा लगता है कि इन दोनों की गुनहगारी को अपने देश की बुद्धिजीवियों की सोसायटी की बहुसंख्या पहले से ही स्वीकार कर चुकी थी। शायद यही कारण था जिसके चलते बिनायक सेन की जेल से रिहाई के लिए चलाए गए आंदोलन में इसी बात पर जोर दिया गया कि वह माओवादी नहीं है,अहिंसावादी हैं,आदि आदि। जज शायद इन तर्कों में छिपे फांफड़ को देख लिया था और बिना साक्ष्य के भी यह सिद्ध कर दिया कि बिनायक सेन माओवादी हैं। उसने दो ‘हार्डकोर नक्सलाइटों’शंकर सिंह व अमिता श्रीवास्तव का जिक्रकर बिना मुकदमा ही उनका अपराध घोषित कर दिया। जाहिर है एक संकरे रास्ते को जज ने हाइवे बना दिया जिस पर से देशद्रोही,अपराधियों को सरपट दौड़ाया जा सकता है।

प्रतिरोध के हर स्वर को आंतकवादी,नक्सलाइट, माओवादी घोषित कर लैंड ऑफ रूल पर अब लाखों लोगों का मार्च पास्ट करा देने के लिए शासक वर्ग के पास एक नायाब रास्ता हासिल हो चुका है। जबकि सिविल सोसायटी की बहुसंख्या अभी भी साक्ष्य की लकीर पीटने में मशगूल है। सच्चाई यह है कि न्यायपालिका में साक्ष्य के संवैधानिक व दंड संहिता के प्रावधान को अनगिनत बार धज्जी उड़ाते हुए बाहर फेंक दिया गया और जज ने ‘संप्रभु साक्ष्य’गढ़े और न्याय वही सुनाया जिसे प्रभुत्वशाली वर्ग सुनना चाहता था। मसलन, राम का जन्म व जन्म स्थान संप्रभु साक्ष्य है, सवर्ण दलित स्त्री को नहीं छू सकता यह संप्रभु साक्ष्य है, बारा हत्याकांड में रात के अंधेरे में 16 दलित लोगों को पुलिस कांस्टेबल द्वारा पहचान लेना स्वभाविक साक्ष्य है और व्यापारी अनिल कुमार सिंह द्वारा दिया गया बयान 1872 अधिनियम के तहत साक्ष्य है।

दरअसल न्याय ने अपने पाठ का अर्थ बदल दिया है। उसने शब्दों के निहितार्थ बदल दिए हैं। इसने अपने क्षेत्र को इतना विस्तारित किया है कि उसका चौखटा हमारे घरों के भीतर घुस आया है और उसका हथौड़ा सीधा हमारे सिर के उपर गिर रहा है ---सजा की तरह और धमकी की तरह भी। 1947 से आज तक देश की सुरक्षा के नाम केन्द्रिय स्तर पर 16 वैधानिक प्रावधान पारित हो चुके हैं। इसमें राज्य स्तरीय विधानों को जोड़ दिया जाय तो गिनती सैकड़ा पार कर जाएगी। मीसा,टाडा, पोटा, यूएपीए व राज्य स्तरीय छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, मोकोका जैसों से हम ज्यादा रूबरू हुए।

यही वे कानून हैं जिसके तहत कम्युनिस्टों,मुसलमानों,दलित-आदिवासीयों,कश्मीर व उत्तर-पूर्व की राष्ट्रीयताओं और यहां तक कि समय समय पर अपने राज्य व भाषा की पहचान की मांग करने वालो के खिलाफ राज्य की सुरक्षा की बंदूक से बच रहे लोगों के खिलाफ न्याय के विशेष अभियान के तहत प्रयोग किया गया।पत्रकारों,मानवाधिकार-सामाजिक कार्यकर्ताओं,असहमत राजनीतिक व बौद्धिक लोगों के खिलाफ इन्हीं के तहत बूट की नकेल का प्रयोग किया गया। आज बहुत से सयाने बन गए लोग इन्हीं क्रूरताओं से होकर-भोगकर निकले हैं। इसी के तहत ही अंतराष्ट्रीय स्तर की वामपंथी पत्रिका ‘ए वर्ल्ड टू विन’के हिन्दी संस्करण के संपादक असित सेन गुप्ता को गुनहगार ठहराकर आठ साल की सजा सुनाई गई। उन्हें भी बिनायक सेन की तरह के साक्ष्यों के आधार पर जज ने सजा मुकर्रर कर दी।

जिन साक्ष्यों के आधार पर असिल सेन गुप्ता को सजा दी गई उससे इस देश की हजारों पत्रकार, लेखक, बुद्धिजीवी, अकादमिशियन आदि सैकड़ों बार जेल की हवा खाने और जजों के न्याय के हथौड़े की मार सहने के लिए तैयार रहना होगा। यही वे कानून हैं जिनके अस्तित्व में आने के साथ ही इस देश की संघीय समाजवादी लोतांत्रिक जनवादी संवैधानिक व कानून आधारित न्यायपूर्ण जीवन के पाठ का अर्थ बदल गया। राजनीति में ‘जन’ एक ऐसी वैधानिक शब्दावली में बदल गया जिसका वास्तविक अर्थ ‘अभिजन’ ही निकलता है। ‘देश’ पाश के शब्दों में जांघिए का नाड़े का पर्यायवाची में बदल गया जिसके प्रयोग प्रतिरोध व अभिव्यक्ति का गला घोंट देने किया जाने लगा। और ‘भारत’ फासिस्ट हिन्दुत्ववादियों के लिए ढाल व तलवार और आग में बदल गया। ‘धर्म निरपेक्षता’से चिरायंध गंध आने लगी और कानून-व्यवस्था का अर्थ लोमड़ों का आशियाना बन गया जहां से गैरबिरादरों को साबूत नहीं लौटना है।

मेधा  पाटेकर बिनायक सेन के पक्ष में सोलहो आने ठीक दलील देती हैं कि बिनायक सेन अहिंसावादी हैं। लेकिन बिनायक सेन हिंसक हैं यह कहकर उन्हें सजा नहीं दी गई। उन्हें तो इस देश की वर्तमान व्यवस्था को पलट देने व इसके खिलाफ षडयंत्र करने के लिए सजा ए आजीवन कारावास दिया गया। इसी के तहत पीयूष गुहा,असित सेनगुप्ता व नारायण सान्याल को सजा दी गई। अब तक हजारों लोग इसी के तहत सजा भुगतते जा रहे हैं। तब क्या यहां मसला हिंसक-अहिंसक होने का है? क्या हिंसक हो जाने से ही अपराध तय हो जाता है और अहिंसक अपराधी ही नहीं होते?अपने देश में राजनीतिक हिंसा में मरने वालों की संख्या प्रतिवर्ष सैकड़ा के उपर है और इसके लिए संसदीय राजनीतिक पार्टियां जिम्मेदार होती हैं। तब क्या इसके लिए इन पार्टियों के नेतृत्व प्रकाश करात,बुद्धदेव भट्टाचार्य, ममता बनर्जी, जय ललिता, सोनिया गांधी, लालकृष्ण आडवाडी, मुलायम सिंह, चंद्रबाबू नायडू, आदि आदि जिम्मेदार ठहराए जाते हैं? यह दिगर बात है कि बुद्धिजीवी  सोसायटी का एक बड़ा हिस्सा मोदी को छोड़ किसी को भी इस दायरे में घसीटने से बचता हैं।

इसी तरह किसी भी संसदीय पार्टी का कार्यक्रम वर्तमान व्यवस्था के संविधान व कानून के अनुरूप नहीं है। इनके बीच एका सिर्फ इस विदेशी पूंजी व देश के पूंजीपतियों, जमींदारों, बड़ी जमीन के मालिकों, व्यापारियों आदि के पक्ष में खड़ा होने को लेकर है। कई इससे भी सहमत नहीं हैं। एक बार फिर यह सवाल बनता है कि चल रही व्यवस्था की खिलाफत भी अपराध नहीं है तब अपराध क्या है!अपने देश में बहुत पहले से ही सीविल सोसायटी ने न्याय व्यवस्था को अस्वीकार करते हुए सामांनांतर जन सुनवाई व न्याय की प्रक्रिया को अपना लिया था और अब तो यह एक रोजमर्रा की बात है। यह भी माओवादियों की इजाद व्यवस्था नहीं। ठेठ दिल्ली में कांस्टीट्यूशनल क्लब के भवन में न्याय की जन व्यवस्था यानी जनसुनवाई की जाती है।

यदि सामानांतर व्यवस्था की बात करना ही नहीं बल्कि व्यवहार में एक हद तक उसे उतारना भी अपराध नहीं है तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के आंतरिक सुरक्षा के राग का वास्तविक अर्थ क्या है?भगवा फासिस्टों की देश की अखंडता का निहितार्थ क्या है? और सीपीएम के हिंसक अराजकतावादियों के खिलाफ अभियान के पीछे की सोच क्या है? क्या इसलिए कि ‘आतंकवादियों’ व नक्सलाइटों के पास सेना या गुरिल्ला है?यह बात भी सच् नहीं लगती क्योंकि यह सब कुछ तो संसदीय राजनीतिक पार्टियों के पास है और और तो और इन धर्म के पुजारियों, निरंकारियों के पास भी यह सब कुछ खुलेआम है। रही बात इस व्यवस्था से असहमत होने व इसे बदल देने की तो यह मांग आम हो चुकी है और संसद के भीतर व बाहर,अकादमी से भीतर व बाहर, हर जगह चल रही है।ऐसे में बुद्धिजीवी सोसायटी की बहुसंख्या जब बिनायक सेन माओवादी नहीं है, के आधार पर संघर्ष शुरू करती है तो इससे स्वभावतः यह साबित हो जाता है कि जेलों में बंद माओवादी-नक्सलवादी अपराधी ही हैं।

न्याय के विमर्श में यह एक अद्भुत परिघटना है जो कोर्ट के भीतर ही नहीं हमारे बीच भी तय किया जा रहा है कि माओवादी अपराधी हैं और यही बात तो अदालत भी कह रही है। विनायक की सजा का आधार भी यही है। यह बहस कि एक नागरिक समाज में यूएपीए जैसा कानून वैध है या नहीं,राजनीतिक सामाजिक परिघटनाओं का कोई ऐतिहासिक, तात्कालिक कारण व उसकी प्रासंगिकता है या नहीं, आदि आदि सवालों से टकराए बिना ही कॉमन सेंस के आधार पर बुद्धिजीवी सोसायटी के विमर्श का नतीजा एक खतरनाक निष्कर्ष तक जा रहा है कि दरअसल, विनायक सेन माओवादी नहीं है।

हिंसा सामानांतर व्यवस्था की बात करना, सामानांतर कोर्ट खड़ा करना,सेना बना लेना, अपराध नहीं है तब इस व्यवस्था में अपराध क्या है?या यूं कहें कि बिनायक सेन व माओवादियों का और यहां तक कि गांधीवादियों का अपराध क्या है?बिनायक सेन एक ऐसी अस्पताल व्यवस्था से जुड़े जो आदिवासियों व मजदूरों के लिए बनाई गई थी। जिसकी स्थापना मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी ने की थी। एक डाक्टर के पेशे के तहत वे आदिवासियों की रिहाइशों की तरफ बढ़े और उनके जीवन के भौतिक उत्पादन व रहन सहन की बदहालियों को समझते हुए रोग व जीवन को दुरूस्त करने के प्रयास में लग गए।

विनायक सेन ने आदिवासियों की संपदा की लूटपाट और उन्हें उजाड़ने के षडयंत्रों को समाज के सामने रखना शुरू किया। खनिज, जमीन, बीज, जल और उनके श्रम की लूट की खिलाफत का अर्थ बहुराष्ट्रीय-राष्ट्रीय पूंजीपतियों की लूट को रोकना था। बिनायक सेन मानवीय जीवन के मौलिक अधिकारों के सवालों को एक संदर्भ देकर उसे न केवल हमारे बीच, सरकारी-गैरसरकारी संस्थानों के बीच बल्कि आदिवासियों के बीच एक बहस को केन्द्र में ला रहे थे कि इस कथित विकास की नीति में मनुष्य कहां है।

इसलिए यहां सवाल बिनायक सेन या वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख हिमांशु के हिंसक होने या न होने का नहीं है बल्कि उस प्रक्रिया का है जिसकी वजह से छत्तीसगढ़ में केंद्र और राज्य सरकार की जनविरोधी नीतियों का विश्वस्तर पर पर्दाफाश हो रहा है। इस प्रक्रिया में हजारों बुद्धिजीवी शामिल थे जिनके प्रभाव से सूदूरवर्ती क्षेत्रों के साथ-साथ शहरों में भी प्रतिरोध की चेतना तेजी से एक रूप ले रही थी। गांव व आदिवासी जीवन,शहरों में मजदूरों के प्रति युवा वर्ग का बढ़ता आकर्षण ही वह पक्ष था जिसके चलते चिदम्बरम को घबड़हाहट है।

अदालत में सरकारी वकील ने बिनायक सेन को और पीयूसीएल को सीपीआई-माओवादी का घटक सिद्ध करने की इस आधार पर कोशिश की गयी कि दोनों ही छत्तीसगढ़ के माओवाद वाले क्षेत्रों से सीआरपीएफ के वापसी की मांग करते हैं।

कुछ साल पहले राजस्थान के किसानों के हिंसक आंदोलन,गुर्जरों के आरक्षण की मांग में उठा हिंसक संघर्ष, हाल ही में अलीगढ़ के किसानों के आंदोलन में माओवादियों के हाथ होने की शंका जाहिर की गई। किसी भी जगह जनता द्वारा रेडिकल बात करने का अर्थ माओवादी होना हो गया। हजारों लोगों को इसी आरोप के तहत यूएपीए,विशेष सुरक्षा अधिनियमों के तहत जेलों में बंद करने की प्रक्रिया अभी भी जारी है। इसलिए यहां मूल सवाल एक ऐसी परिघटना से है जिससे वर्तमान साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था वैधानिकता खोने लगती है,साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था के चल रहे सामाजिक ढ़ांचे को अंदर से तोड़ने लगती है।

ऐसे में यह बात उठाना बहुत जरूरी है कि क्या साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था की वैधानिकता पर सवाल ही अपराध है? क्या साम्राज्यवादी-पूंजीवादी विकास की नीति व कारपोरेट प्रबंधन की राजनीति के सामने समर्पण ही एक मात्र विकल्प है?क्या यह देश चंद दस करोड़ लोगों का है जिसमें शामिल होने के लिए भेड़ियाधसान किया जाय? जाहिरा तौर पर देश का संविधान भी यह बात नहीं कहता है। न्याय की व्याख्या भी इसकी अनुमति नहीं देती। इसलिए जरूरी है कि न्याय की तराजू में तय किए गए अपराध के पाठ का पुनर्पाठ किया जाय,उसके विमर्शों को बदला जाय और सवाल उठाया जाय कि नक्सलाइट, माओवादी का पर्याय अपराध कैसे है?


(लेखक  स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक-राजनितिक कार्यकर्त्ता हैं. उनसे anjani.dost@yahoo.co.in   पर संपर्क किया जा सकता है.)

Dec 30, 2010

पीयूसीएल अध्यक्ष कन्नाबिरन नहीं रहे


जनज्वार टीम. मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के राष्ट्रीय अध्यक्ष और प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकता केजी कन्नाबिरन की कल शाम  साढे़ छह बजे हैदराबाद स्थित उनके आवास पर निधन हो गया। पेशे से वकील रहे 81 वर्षीय कन्नाबिरन के परिवार में उनकी पत्नी बसंता, दो बेटियां कल्पना, चित्रा और बेटा अरविंद हैं।

मानवाधिकार के राष्ट्रीय दूत कहे जाने वाले कन्नाबिरन पिछले पांच दशकों से नागरिक अधिकारों के लिए संघर्षरत थे। हमारे बीच से कन्नाविरन का चले जाना एक ऐसे दीपक का बुझना है जो हमेशा लोगों के हक के लिए जलता रहा। हमने एक महान युगद्रष्टा,शिक्षक और सलाहकार को खो दिया है। वे आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टिज कमिटी (एपसीएलसी)के पंद्रह वर्ष और पीयूसीएल के दस वर्ष तक अध्यक्ष रहे।

दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों और नक्सवादियों के खिलाफ राज्य प्रायोजित अत्याचार और हिंसा के खिलाफ वह आजीवन संघर्षरत रहे। आंध्र प्रदेश में उन्हें मानवाधिकारों का पर्याय माना जाता रहा है। आंध्र प्रदेश में माओवादियों के नाम पर की जाने वाली फर्जी मुठभेड़ों को उन्होंने हमेशा ही तीखे ढंग से उठाया और कई मामलों में उन्होंने मानवाधिकारों की एक नयी परंपरा बहाल की।




Sex, Lies, Iran, Israel and WikiLeaks

Dec 29, 2010

हमीं तो देश हैं, बाकी जो हैं सब देशद्रोही हैं

मानवाधिकार कार्यकर्ता और बाल चिकित्सक डॉ. बिनायक सेन की रिहाई के लिए 27 दिसंबर 2010 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए धरने-प्रदर्शन से लौटकर...


मुकुल सरल

                                     फोटो- लोकसंघर्ष ब्लॉग से


हमारे राज में
फूलों में खुशबू!
कुफ़्र है ये तो!

हमारे राज में
शम्मां है रौशन!
कुफ़्र है ये तो!

हमारे राज में
कोयल भला ये
कैसे गाती है?
कोई जासूस लगती है
किसे ये भेद बताती है?

हमारे राज में
क्यों तारे चमके?
चांद क्यों निकला?
दिलों में रौशनी कैसी!
ये सूरज क्यों भला चमका?

हमारा राज है तो
बस अंधेरा ही रहे कायम
हरेक आंख में आंसू हो
लब पे चुप रहे हरदम

हमारे राज में
तारे बुझा दो
सूरज गुल कर दो
हवा के तेवर तीख़े हैं
हवा पे सांकले धर दो

हमारा लफ़्ज़े-आख़िर है
हमारी ही हुकूमत है
हमारे से जुदा हो सच कोई
ये तो बग़ावत है

हमारे राज में ये कौन साज़िश कर रहा देखो
हमारे राज में ये कौन जुंबिश कर रहा देखो

ये कौन लोग हैं जो आज भी मुस्कुराते हैं
ये कौन लोग हैं जो ज़िंदगी के गीत गाते हैं
ये कौन लोग हैं मरते नहीं जो मौत के भी बाद
ये कौन लोग हैं हक़ की सदा करते हैं ज़िंदाबाद

ज़रा तुम ढूंढ कर लाओ हमारे ऐ सिपाहियो
इन्हे जेलों में डालो और खूब यातनाएं दो
अगर फिर भी न माने तो इन्हे फांसी चढ़ा दो तुम
इन्हे ज़िंदा जला दो तुम, समंदर में बहा दो तुम

हमारा राज है आख़िर
किसी का सर उठा क्यों हो
ये इतनी फौज क्यों रखी है
ज़रा तो डर किसी को हो

हमारी लूट पर बोले कोई
ये किसकी जुर्रत है
हमें झूठा कहे कोई
सरासर ये हिमाक़त है

ये कौन जनता के वकील हैं
जनता के डाक्टर
ये कौन सच के कलमकार हैं
दीवाने मास्टर

हमारे से अलग सोचें जो वो सब राजद्रोही हैं
हमीं तो देश हैं, बाकी जो हैं सब देशद्रोही हैं

जज साहब के पौव्वे से चूता है न्याय


विनायक  सेन  को  हुई आजीवन कारावास की सजा के बाद बहुतेरे लोग आश्चर्यों में जी रहे हैं.ओह-आह करते हुए-सदमा तो है मुझे भी,का राग लिए जो लोग इस घटना को अनोखा मान रहे हैं,उनके लिए यह बेहद जरूरी लेख है.हो सकता है लेख छपने के बाद लेखक -प्रकाशक पर अदालत की मानहानि का कोई मामला बने.हो सकता है सदमें वालों में से ही कुछ कहें कि सच बयान यों तो नहीं किया जाता लोकतंत्र में. लेकिन अगर यह लेख नहीं प्रकाशित किया गया तो जनता की मानहानि होगी और कल को वो पूछेगी लल्ला, तुने  किसकी रोटी खायी - मोडरेटर


हिमांशु कुमार

हमारे देश में कोई व्यक्ति किसी जज के फैसले या आचरण के खिलाफ यदि अपनी जुबान खोलता है तो है तो उसको न्यायालय की अवमानना के जुर्म में सज़ा हो सकती है.किसी भी समाज में तभी तक शांति रह सकती है, जब तक सब यह महसूस करते हैं कि उनके साथ अन्याय नहीं हो रहा है.यदि अन्याय होगा तो न्याय के लिए आवाज़ उठाने पर उसकी सुनवाई होगी, लेकिन जब समाज में ये व्यवस्था टूटने लगती है तो समाज भी टूटने लगता है, क्योंकि उसके बाद न्याय के लिए लोग फिर अपने तरीकों से लड़ने लगते हैं.

आज़ादी के बाद हमारा विश्वास राजनेताओं पर से समाप्त हो गया.नौकरशाही विकास के काम करने में न सिर्फ नकारा साबित हुयी, बल्कि विकास में बाधक भी साबित हो गयी. धर्म का खोखलापन पहले ही उजागर हो गया था. ऐसे में इस देश के सामने आज़ादी के बाद आम आदमी के लिए तय किये गए रोटी,बराबरी और इज्ज़त के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कोई भी सहारा नहीं बचा.

हमारे देश में अभी तक किसी भी तकलीफ के निवारण के लिए अदालतों पर आखिरी भरोसा बचा है, गाँव के गरीब आदमी से लेकर बड़े सामाजिक कार्यकर्ता तक किसी समस्या के समाधान के लिए नेता या अधिकारी के पास न जाकर अदालत में गुहार लगाते हैं. लेकिन चिंता का विषय यह है कि अब अदालतें भी बाकी लोकतान्त्रिक संस्थाओं की तरह अपनी विश्वसनीयता खो रही हैं. अदालतों की इस हालत से चिंतित होकर जब कोई व्यक्ति या संस्था समाज का ध्यान इस ओर खींचना चाहता है तो उसे इन अदालतों में बैठे हुए समस्त मानवीय कमजोरियों से भरे हुए लोग न्यायालय की अवमानना की सज़ा का खौफ दिखाकर खामोश कर देते हैं.

मेरा कई वर्षों तक अदालतों से नज़दीकी सम्बन्ध रहा है,पाँच वर्ष तक उपभोक्ता फोरम का सदस्य रहा,तीन वर्ष लोक अदालत की सीनियर बेंच का मेम्बर रहा और चार वर्ष विधिक सेवा प्राधिकरण का सदस्य रहा.इस दौरान जजों के मानसिक स्तर, सोच और चारित्रिक स्तर के बारे में अच्छे से जानने का मौक़ा मिला.

सारी बातें तो खोलकर नहीं बताऊंगा, क्योंकि अश्लील लेखन से बचना चाहता हूँ. लेकिन मैं देखता था कि जज लोग छोटी छोटी बातों जैसे घर जाते समय बस में बिना किराया दिए मुफ्त में सफ़र करने के लिए थानेदार को फोन करते थे.थानेदार जज साहब को सपरिवार बस में मुफ्त ले जाने के लिए बस के कंडेक्टर को धमकाने के लिए सिपाही भेजता था. ऐसे में उसी थानेदार के खिलाफ उसी जज की अदालत में कोई कैसे न्याय पाने की उम्मीद कर सकता है.

जब हमारी संस्था की मदद से 'सलवा जुडूम' से उजाड़े गए लिंगागिरी और बासागुडा गाँव को दुबारा बसाया जा रहा था, और आदिवासी आंध्र प्रदेश और जंगलों में अपने छिपे हुए स्थानों से बाहर आकर अपने उजड़े हुए गावों में जला दिए गये घरों को दुबारा बना रहे थे तो उनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं था.हमारा आदिवासी साथी कोपा और उसकी टीम संस्था की बस में दाल, चावल, तेल, मसाले, आलू, प्याज आदि भरकर उन भूखे ग्रामीणों के लिए दंतेवाडा से बासागुडा जा रहे थे (हालाँकि उन गाँव वालों को राहत पहुंचाना सरकार का काम था जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट का आदेश मिला हुआ था) तो 'सलवा जुडूम' और उनकी माई-बाप पुलिस ने इस दाल-चावल से भरी गाडी को रोक लिया और कहा कि इस राशन का बिल दिखाओ तब गाडी को आगे जाने देंगे.

कोपा ने कहा कि 'हम ये सामग्री मुफ्त में बांटने के लिए ले जा रहे हैं,हम गाँववालों को इसका बिल थोड़े ही देंगे. बिल हमारी संस्था के आफिस में है, आप ठहरिये मैं बिल भी लाकर दिखा देता हूँ.' लेकिन पुलिस तो गाँव के दुबारा बसने को ही रोकना चाहती थी, इसलिए फटाफट पूरे राशन को गाडी समेत ज़ब्त कर थाने में ले गए.उधर गाँव में बच्चे, औरतें, बूढ़े भूखे थे. मैं बिल लेकर थाने पहुँचा. थानेदार ने कहा अब राशन और गाडी अदालत से छूटेगी.

हम अदालत गए. जज साहब शराब पीकर अपने न्याय के आसन पर विराजमान थे. थानेदार साहब हमारे ही सामने बिना हिचक के डायस पर पहुँच गए और जज के कान में फुसफुसाने लगे तो जज ने चिल्लाकर थानेदार से कहा, 'हाँ, हाँ में इन लोगों को अच्छी तरह जानता हूँ. ये सब नक्सलवादी हैं. तुम चिंता मत करो.'

इसके बाद हम अपना वकील तलाश करने बार रूम में आ गए. हमारे साथ पूना से आयी हुयी एक महिला पत्रकार भी थी. जज साहब हमारे पीछे-पीछे अपने आसन से उठकर बार रूम में आ गए. सारे वकील जज साहब को देखकर खड़े हो गए. जज साहब एक कुर्सी पर बैठ गए और उस महिला पत्रकार को अपने साथ बैठने के लिए कहा. महिला पत्रकार पास में एक कुर्सी पर बैठ गयी.

जज साहब ने अपनी जींस (जी हाँ जींस) में से पव्वा निकाला, दो घूँट मारे और इजहारे मुहब्बत करने लगे कि 'मेरी बीबी एकदम गंवार है. मैं यहाँ अकेला रहता हूँ. तुम मेरे घर चलो.' महिला पत्रकार भी बहुत होशियार थी उसने कहा, 'सर, मैंने आप जैसा इंसान नहीं देखा. ये राशन की गाडी छोड़ दीजिये.' जज साहब ने तुरंत गाडी छोड़ने के कागजों पर हस्ताक्षर कर दिए और वो महिला पत्रकार फिर मिलने का वादा करके राशन लेकर कोपा के साथ तुरंत गाँववालों के पास पहुँच गयी.

कुछ और वाकये छत्तीसगढ़ में आजकल की न्यायिक व्यवस्था की स्थिति पर हैं.हालाँकि हम सब ये जानते हैं कि जजों के माईनिंग कम्पनियों में शेयर के किस्से बहुत आम हैं. माईनिंग कंपनियों के मालिक जजों को अनेक तरीकों से प्रभावित या दुष्प्रभावित कर सकते हैं. दंतेवाड़ा में आदिवासियों का कत्लेआम माईनिंग कंपनियों के लिए ही किया जा रहा है इसलिए जजों का रवैया आदिवासियों के खिलाफ ही रहा है.

कुछ और उदाहरण देना चाहूंगा. दंतेवाड़ा जिले में एक गाँव नेन्द्रा है, इस गाँव को पुलिस और सलवा जुडूम ने तीन बार जलाया था.इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की टीम आदिवासियों की शिकायतें सुनने दंतेवाडा गयी तो नेन्द्रा गाँव के लोग भी अपनी आपबीती सुनाने आये. उन्हें आज तक न्याय तो नहीं मिला, अलबत्ता 10 जून 2008 को ग्रामीणों ने अपना बयान दर्ज कराया और 16 जून 2008 यानी छः दिन बाद ही उनका गाँव पुलिस ने चौथी बार फिर जला दिया.

इसके बाद हमारी संस्था इस गाँव में डट गयी. एक मानव कवच का निर्माण किया गया, जिसमें 22 आदिवासी युवक-युवतियां शामिल थे. डेढ़ साल तक सब लोग वहां रहे. उस इलाके के गाँववालों को बाज़ार नहीं जाने दिया जाता था. लोग भूख से मर रहे थे. औरतों के पास कपडे नहीं बचे थी और वो चीथड़ों से अपना तन ढकने के लिए मजबूर थीं. इसलिए ये मानव कवच के सदस्य गाँववालों को लेकर बाज़ार जाते थे.

तीन साल से ग्रामीण खेती नहीं कर पा रहे थे,क्योंकि पुलिस आकर फसल जला देती थी.संस्था के मानव कवच वालों ने गाँववालों के साथ-साथ खेती फिर से शुरू की. उस गाँव से पिछले आठ महीने से चार लड़कियां गायब थीं, जिसमें से 'सलवा जुडूम'कैंप के नेताओं के घर पर बंधक बनाकर रखी गयी दो लड़कियों को तो हमारे कार्यकर्ता छुपकर मुक्त करा लाये और उनके परिजनों को सौंप दिया (मेरे पास दोनों के फोटो मौजूद हैं.मैं किस्से नहीं सुना रहा हूँ ), लेकिन जिन दो लडकियों को पुलिसवाले ले गए थे उनका कुछ पता नहीं चल रहा था. उनमें से एक लडकी के पिता को भी उसके साथ ले जाकर पुलिस ने पिता की ह्त्या कर दी थी.

गायब लड़कियों के परिजन उनकी तलाश करने की प्रार्थना कर रहे थे.हमने उनके भाइयों की प्रार्थना पत्र एसपी को भेजे, मगर एसपी ने नौ माह तक कोई कार्यवाही नहीं की.अंत में हाईकोर्ट में हेबियस कार्पस दायर की गयी. नियमतः हेबियस कार्पस पर उसी दिन सुनवाई करके पुलिस को नोटिस दिया जाना चाहिए था, लेकिन छह महीने बाद जज ने लडकी के भाई के वकील को फटकारा कि इसने अपनी बहन के गुम होने की शिकायत इतनी देर से क्यों की? वकील ने जज को बताया कि 'इसकी बहन का पुलिस ने ही अपहरण किया है और ये तो अपनी जान बचाकर जंगल में छुपा हुआ था.अपहरणकर्ता लोग तो थाने के मालिक बनकर बैठे हुए है,ये डरा हुआ लड़का थाने कैसे जाता? अगर इस संस्था ने इसकी मदद न की होती तो ये मामला तो कभी भी कोर्ट तक भी नहीं पहुँचता. असली क़ानून तो एसपी ने तोडा है, जिसने शिकायत मिलने के बाद भी नौ महीने तक कोई कार्यवाही नहीं की.'

इतना सब सुनने के बाद जज साहब ने उस एसपी के खिलाफ कोई टिप्पणी तक नहीं की.जज ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई आदमी थाने में जाने से डरे.लडकी के भाई के वकील ने बताया 'साहब दंतेवाड़ा में तो वकीलों को थाने में जाने पर थानेदार पीट देते हैं.उदाहरण के लिए ये देखिये अलबन टोप्पो वकील साहब आपके सामने खड़े हैं.इनको कोपा कुंजाम के साथ थाने जाने के अपने कानूनी अधिकार का इस्तेमाल करने पर एसपी के निर्देश पर रात भर थानेदार ने थाने में बंद करके पीटा है. आप करेंगे कार्यवाही?

इस पर जज साहब चुप रहे.एक सप्ताह बाद पुलिस लडकी के भाई को उठाकर लाई.जान से मारने की धमकी के बाद उसे उसी जज के सामने पेश किया. गायब लड़की के भाई के वकील ने जज को बताया कि इसे पुलिस उठाकर लाई है.आप इसे कम से कम 48घंटे के लिए पुलिस से अलग कर दें .और फिर बयान दर्ज करें.लेकिन जज ने तुरंत बयान दर्ज करने का आदेश दिया.लड़की के भाई ने पुलिस के दबाव में बयान दिया कि 'मेरी बहन का अपहरण हुआ ये सच है. मेरे बाप की ह्त्या हुई ये भी सच है, लेकिन वो पुलिस ने नहीं की. किसने की मैं नहीं जानता. ' और जज ने तुरंत मामला खारिज कर दिया.

उसके भाई का फोन मेरे पास आया तो मैंने उससे पूछा कि ऐसा बयान क्यों दिया? उसने बताया, 'एक बहन बची है, बूढ़ी मां है. मुझे भी मार देते तो उन्हें कौन पालता? इसलिए उन्होंने जो सिखाया मैंने बोल दिया.'



दंतेवाडा स्थित वनवासी चेतना आश्रम के प्रमुख और सामाजिक कार्यकर्त्ता हिमांशु कुमार का संघर्ष,बदलाव और सुधार की गुंजाईश चाहने वालों के लिए एक मिसाल है.उनसे vcadantewada@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
 
 

Dec 28, 2010

जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश

मैं छत्तीसगढ़ नहीं गया,अरुंधति की तरह पहले नहीं बोला,मेधा पाटकर के साथ नर्मदा पर नहीं लड़ा.दूर रहा,सुरक्षित लेखन किया,उड़ीसा और कर्नाटक और गुजरात मेरा जाना नहीं हुआ.मैंने खुद को किसी जोखिम में नहीं डाला. फिर भी मैं डरा हुआ क्यों हूं...


शिव प्रसाद जोशी

21वीं सदी के पहले दस साल पूरे हो गए हैं और एक अभूतपूर्व विकास दर की कुलांचे भरते देश में दुश्चिंता का न जाने ये साया क्यों नहीं जाता कि क्या हम सब वलनरेबल हैं.यानी हम सब आम नागरिक.

मुझे बार बार आशंका होती है कि मुझे कभी भी गिरफ़्तार तो नहीं कर लिया जाएगा.हालांकि अगले ही पल मैं सोचता हूं कि मैने तो कोई अपराध किया नहीं.पत्रकार हूं ख़बरें की हैं,कविताएं-निबंध लिखता हूं, ईमानदारी से लेखन करता हूं. बस. और तो मेरा कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है. पर फिर भी मुझे क्यों लगता है कि कोई मुझे देख रहा है, घूर रहा है, मेरा पीछा कर रहा है.मुझे कभी भी दबोचा जा सकता है.मैं कार ड्राइव कर दफ्तर जाता हूं, मुझे कोई किसी आधार पर फंसा सकता है.

क्या मैं सरकार या सत्ता के किसी नुमायंदे के लिए असहनीय होने की स्थिति में आ चुका हूं. क्या मैं शांति भंग कर सकता हूं. क्या मैं सत्ता राजनीति या दबंग समाज की आंख में खटका हूं. क्या मेरी शिनाख्त दुर्योग से एक व्यवस्था विरोधी शख़्स के रूप में हो चुकी है. क्या किसी को भनक लग गई है कि दमनकारी रवैये का मैं विरोधी हूं. क्या मुझे देशद्रोही माना जाएगा.



दिल्ली में में प्रदर्शन
 
मैं अरुंधति रॉय का समर्थक हूं.मैं वरवर राव को हमारे समय का एक बड़ा कवि क्रांतिकारी मानता हूं.मुझे सांप्रदायिकता से नफ़रतहै. मुझे अमेरिकापरस्ती  नापसंद है.मैं इस्राएल की दमनकारी नीतियों का विरोधी हूं.मुझे हुसैन एक बड़े आर्टिस्ट लगते हैं.मुझे सचिन तेंदुलकर के व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं पर एतराज़ है.मुझे टीवी समाचार में फैले हुए अघाएपन और अपठनीयता और एक घमंडी किस्म की नालायकी से नफ़रत है.

मुझे हिंदी में ज्ञानरंजन, चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल,विनोद कुमार शुक्ल,असद ज़ैदी, वीरेन डंगवाल,देवीप्रसाद मिश्र और योगेंद्र आहुजा की रचनाएं सबसे ज़्यादा पसंद हैं.मुक्तिबोध के बाद रघुबीर सहाय की कविता आने वाले वक़्तों की भयावहता को सबसे पहले दर्ज करती हैं,ये मैं भी आगे बढ़कर मानता हूं.

मेरे कुछ पत्रकार ब्लॉगर कवि लेखक साथी हैं,वे मुझे पसंद करते हैं,मैं उनसे निकटता महसूस करता हूं.मुझे नॉम चॉमस्की पसंद हैं,एडवर्ड सईद पसंद हैं,रोमिला थापर और पी साईनाथ पसंद हैं.हमारे कुटुंब के एक बड़े बुज़ुर्ग मार्क्सवादी हैं.हमारे आसपास लोकतंत्रवादी विचारधारा के बहुत से कवि लेखक संस्कृतिकर्मी और एक्टिविस्ट हैं.

क्या ये सब वजहें हैं जिनके चलते मुझे डरा रहना चाहिए.एक निहायत ही दुबकेपन में रहना चाहिए.घिरा घिरा सा अपने ही डर दुविधा और सवालों में. अपने बच्चों और परिवार की फ़िक्र करता हुआ. नौकरी करता हुआ. कोई कड़वी बात न कह दूं इसके लिए सजग रहता हुआ,हर महीने तनख्वाह घर लाता हुआ.रोटी मक्खन चैन से खाता हुआ और ईश्वर को प्रणाम कर एक बेफ़िक्र नींद में जाता हुआ.

मैं छत्तीसगढ़ नहीं गया,अरुंधति की तरह पहले नहीं बोला,मेधा पाटकर के साथ नर्मदा पर नहीं लड़ा.दूर रहा, सुरक्षित लेखन किया, उड़ीसा और कर्नाटक और गुजरात मेरा जाना नहीं हुआ. मैंने खुद को किसी जोखिम में नहीं डाला.फिर भी मैं डराहुआ क्यों हूं. जब से डॉक्टर बिनायक सेन को उम्रक़ैद देने की ख़बर आई है,मेरा डर और बढ़ गया है.वो तीस साल से छत्तीसगढ़ में अपनी डॉक्टरी को आम आदिवासियों के बीच अमल में ला रहे थे.

उनको मदद पहुंचा रहे थे.वो शंकर गुहा नियोगी के अघोषित शागिर्द थे.उन्होंने अपनी डॉक्टरी के नए आयाम खोलते हुए इतना भर किया था कि इलाक़े में नक्सलवाद पर काबू पाए जाने के नाम पर की जा रही बर्बरताओं का खुला और पुरज़ोर विरोध किया था. उन्होंने लोगों को मिटाए जाने की उस रौद्र षडयंत्र भरी रणनीति को अन्याय कहा था. बस.

अदालतें इंसाफ़ का एक ठिकाना होती हैं.पर उन्होंने मेरा डर बढ़ा दिया है.हम सबका डर बढ़ा दिया है. मेरे पिता का, मेरी मां का, मेरी पत्नी का, मेरे बच्चे डरेंगे. हम सब डरे हुए हैं. हमारा परिवार, हमारा समाज, हमारे लोग. क्यों?

दशमलव के नीचे की या उससे थोड़ा ऊपर की आबादी दिल्ली मुंबई कोलकाता बंगलौर,हैदराबाद, चेन्नई, पटना, सूरत, बड़ौदा, अहमदाबाद, देहरादून, लखनऊ, जयपुर आदि में अविश्वसनीय किस्म की विलासिता भोग रही है. वह हमारे समय के समस्त सुख भोग रही है.हमारे महादेश की बाकी आबादी न जाने क्यों भुगतते रहने पर विवश है.नीरा राडिया की कंपनी बहुत कम समय में करोड़ों अरबों की कंपनी बन जाती है.उसके लिहाज़ से ये ऊंचा और ऊंचा उठती विकास दर तो ठीक है.

लेकिन छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तराखंड और कर्नाटक,उड़ीसा केरल तक एक आम मज़दूर और एक खेतिहर के लिए,किसी भी वक़्त नौकरी न रहने की आशंका में झुलसते एक बड़े निम्न मध्यवर्ग के लिए विकास दर आखिर कहां सोई रहती है. क्या वो इन सोए हुए,डरे हुए, भुगतते हुए और खपते हुए पसीने और धूल से सने हुए लोगों की आकांक्षाओं और सपनों के किनारों से किसी शातिर शैतान बिल्ली की तरह दबे पांव निकल जाती है.

बिनायक सेन की सज़ा क्या हम सबको मिली हुई सज़ा नहीं है.क्या इस चिंता से पीछा छु़डाने का य़े वक़्त नहीं है कि हमें कोई क्या दबोचेगा, हम पहले से सज़ायाफ़्ता हैं, हम इस क़ैद में हैं और मुक्ति के लिए संघर्ष हमारा जारी है. 2010 की अभूतपूर्व आर्थिक तरक्की अगले दस साल यानी 2020 में एक नया मकाम हासिल कर लेगी. वो अकल्पनीय विकास का पड़ाव होगा. लेकिन वह कुछ जद्दोजहद कुछ बेचैनियों कुछ लड़ाइयों का भी एक पड़ाव होगा.

उन पड़ावों तक आते आते बहुत सी जेलों में बहुत से बिनायक सेन आ चुके होंगे.पोस्को और वेदांत एक नया सामाजिक चोला पहन लेंगे.वे कानूनों के पास एक चमकीला रिसॉर्ट बना देंगे.सरकारें उनसे अंततः अभिभूत होती जाएगीं.पर अरुंधति रॉय जैसे और स्वर भी तो आएंगें. नवारुण भट्टाचार्य ये याद दिला चुके हैं कि 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश,यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश.'


  • पत्रकार,युवा कवि और अनुवादक.सहारा चैनल में उत्तराखंड ब्यूरो प्रमुख रहने के बाद जर्मन रेडिओ डोयेचे वेले में चार साल तक कार्यरत. स्टीफन हॉकिन्स के अनुवादों के लिए चर्चित.



पोस्टकार्डों से बद्धिजीवी करेंगे प्रतिरोध

मानवाधिकार नेता विनायक सेन को उम्र कैद की सजा के विरोध मे वाराणसी के बुद्धिजीवियों, सामाजिक और छात्र-युवा संगठनो ने जिला मुख्यालय पर बैठक कर विरोध जताया। वक्ताओं ने न्यायपालिका कि विश्वसनियता पर सवाल उठाते हुए कहा कि आम नागरिको की  आवाज को उठाने वाले मानवाधिकार नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओ के खिलाफ राज्य के दबाव में  न्यायपालिका द्वारा लगातार इस तरह के निर्णय दिये जा रहे हैं।
बैठक को संबोधित करते हुए PUCL के प्रदेश अध्यक्ष चितरंजन सिंह ने कहा कि न्यायालय ने फैसले के माध्यम से तमाम जनतांत्रिक आवाजों को यह चेतावनी दी है कि अगर राज्य के लूट तंत्र के खिलाफ वह आवाज उठाएंगे तो उनका हश्र भी यही होगा। इस प्रतिरोध में फादर आनंद, सुनील सहस्त्रबुद्धे, बल्भाचार्य, लेनिन रघुवंशी, चित्रा सहसत्रबुद्धे, सिद्धार्थजी, बल्लभाचार्य पाण्डे, जवाहर लाल कौल, मुलचन्द सोनकर, राजेश, दिलीप कुमार, मो. मूसा, लक्ष्मण प्रसाद समेत अनेक शहर के बुद्धिजीवियों ने शिरकत की।

बैठक में निर्णय लिया गया कि राष्ट्रपति,मुख्य न्यायाधीश एवं छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री को लाखों  की संख्या मे पोस्ट कार्ड भेज कर हम इस निर्णय पर विरोध दर्ज कराएंगे, ताकि भविष्य मे इस तरह के जनविरोधी निर्णय न हो सके।

जिलामुख्यालय पर हुई इस बैठक में CPI(ML), साझा संस्कृति मंच, पहल, प्रगतिशील जनसगंठन, भारतीय किसान यूनियन, सूचना अधिकार अभियान, आसरा, लोक विद्या आश्रम, AISA, मानवाधिकार जन निगरानी समिति, प्रगतिशील लेखक मंच, आशा, आइसा, एशियन ब्रिज इण्डिया, प्रेरणा कला मंच, डिबेट सोसाइटी समेत शहर के बुद्धिजीवियों ने शिरकत की।

द्वारा जारी- गुंजन सिंह, डिबेट सोसाइटी

तितलियों का खू़न


अंशु मालवीय

वे हमें सबक सिखाना चाहते हैं साथी !
उन्हें पता नहीं
कि वो तुलबा हैं हम
जो मक़तब में आये हैं
सबक सीखकर,
फ़र्क़ बस ये है
कि अलिफ़ के बजाय बे से शुरू  किया था हमने
और सबसे पहले लिखा था बग़ावत।

जब हथियार उठाते हैं हम
उन्हें हमसे डर लगता है
जब हथियार नहीं उठाते हम
उन्हें और डर लगता है हमसे
ख़ालिस आदमी उन्हें नंगे खड़े साल के दरख़्त की तरह डराता है
वे फौरन काटना चाहता है उसे।

हमने मान लिया है कि
असीरे इन्सां बहरसूरत
ज़मी पर बहने के लिये है
उन्हें ख़ौफ़ इससे है..... कि हम
जंगलों में बिखरी सूखी पत्तियों पर पड़े
तितलियों के खून का हिसाब मांगने आये हैं।


अंशु मालवीय ने यह कविता विनायक सेन की अन्यायपूर्ण सजा के खिलाफ 27दिसंबर 2010को इलाहाबाद के सिविल लाइन्स,सुभाष चौराहे पर तमाम सामाजिक संगठनों द्वारा आयोजित ‘असहमति दिवस’ पर सुनाई।

Dec 27, 2010

काल्पनिक सबूतों पर सजायाफ्ता


मैं बिनायक सेन के राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं,लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए.भारत दोहरे मापदंडों वाले लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है...

एम जे अकबर


भारत एक अजीब लोकतंत्र बनकर रह गया है,जहां बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई जाती है और डकैत खुलेआम ऐशो-आराम की जिंदगी बिताते हैं.सरकारी खजाने पर डाका डालने वालों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए भी सरकार को खासी तैयारी करनी पड़ती है.जब आखिरकार उन पर ‘धावा’बोला जाता है,तब तक उन्हें पर्याप्त समय मिल चुका होता है कि वे तमाम सबूतों को मिटा दें.

आखिर वह व्यक्ति कोई मूर्ख ही होगा,जो तीन साल पहले हुए टेलीकॉम घोटाले के सबूतों को इतनी अवधि तक अपने घर में सहेजकर रखेगा.तीन साल क्या,सबूतों को मिटाने के लिए तो छह महीने भी काफी हैं.क्योंकि इस अवधि में पैसा या तो खर्च किया जा सकता है,या उसे किसी संपत्ति में परिवर्तित किया जा सकता है या विदेशी बैंकों की आरामगाह में भेज दिया जा सकता है.राजनेताओं-उद्योगपतियों का गठजोड़ कानून से भी ऊपर है.अगर भारत का सत्ता तंत्र बिनायक सेन को कारावास में भेजने के बजाय उन्हें फांसी पर लटका देना चाहे,तो वह यह भी कर सकता है.


बच्चों के डॉक्टर विनायक सेन
 बिनायक ने एक बुनियादी नैतिक गलती की है और वह यह कि वे गरीबों के पक्षधर हैं.हमारे आधिपत्यवादी लोकतंत्र में इस गलती के लिए कोई माफी नहीं है.सोनिया गांधी,मनमोहनसिंह,पी चिदंबरम और यकीनन रमन सिंह के लिए इस बार का क्रिसमस वास्तव में ‘मेरी क्रिसमस’होगा. कांग्रेस और भाजपा दो ऐसे राजनीतिक दल हैं,जो फूटी आंख एक-दूसरे को नहीं सुहाते.वे तकरीबन हर मुद्दे पर एक-दूसरे से असहमत हैं.लेकिन नक्सल नीति पर वे एकमत हैं.नक्सल समस्या का हल करने का एकमात्र रास्ता यही है कि नक्सलियों के संदेशवाहकों को रास्ते से हटा दो.

मीडिया इस गठजोड़ का वफादार पहरेदार है,जो उसके हितों की रक्षा इतनी मुस्तैदी से करता है कि खुद गठजोड़ के आकाओं को भी हैरानी हो. गिरफ्तारी की खबर रातोरात सुर्खियों में आ गई. प्रेस ने तथ्यों की पूरी तरह अनदेखी कर दी. हमें नहीं बताया गया कि बिनायक सेन के विरुद्ध लगभग कोई ठोस प्रमाण नहीं पाया गया था.

अभियोजन ने गैर जमानती कारावास के दौरान बिनायक के दो जेलरों को पक्षविरोधी घोषित कर दिया था. सरकारी वकीलों की तरह जेलर भी सरकार की तनख्वाह पाने वाले नुमाइंदे होते हैं.लेकिन दो पुलिसवालों ने भी मुकदमे को समर्थन देने से मना कर दिया.एक ऐसा पत्र,जिस पर दस्तखत भी नहीं हुए थे और जो जाहिर तौर पर कंप्यूटर प्रिंट आउट था,न्यायिक प्रणाली के संरक्षकों के लिए इस नतीजे पर पहुंचने के लिए पर्याप्त साबित हुआ कि बिनायक सेन उस सजा के हकदार हैं,जो केवल खूंखार कातिलों को ही दी जाती है.

यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी.
बिनायक सेन स्कूल में मेरे सीनियर थे.वे तब भी एक विनम्र व्यक्ति थे और हमेशा बने रहे,लेकिन वे अपनी राजनीतिक धारणाओं के प्रति भी हमेशा प्रतिबद्ध रहे.मैं उनके राजनीतिक विचारों से सहमत नहीं हूं,लेकिन यह केवल एक तानाशाह तंत्र में ही संभव है कि असहमत होने वालों को जेल में ठूंस दिया जाए.भारत धीरे-धीरे दोहरे मापदंडों वाले एक लोकतंत्र के रूप में विकसित हो रहा है.जहां विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए हमारा कानून उदार है,वहीं वंचित तबके के लोगों के लिए यही कानून पत्थर की लकीर बन जाता है.

यह विडंबनापूर्ण है कि बिनायक सेन को सुनाई गई सजा की खबर क्रिसमस की सुबह अखबारों में पहले पन्ने पर थी. हम सभी जानते हैं कि ईसा मसीह का जन्म 25 दिसंबर को नहीं हुआ था. चौथी सदी में पोप लाइबेरियस द्वारा ईसा मसीह की जन्म तिथि 25 दिसंबर घोषित की गई, क्योंकि उनके जन्म की वास्तविक तिथि स्मृतियों के दायरे से बाहर रहस्यों और चमत्कारों की धुंध में कहीं गुम गई थी.क्रिसमस एक अंतरराष्ट्रीय त्यौहार इसलिए बन गया, क्योंकि वह जीवन को अर्थवत्ता देने वाले और सामाजिक ताने-बाने को समरसतापूर्ण बनाने वाले कुछ महत्वपूर्ण मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है. ये मूल्य हैं शांति और सर्वकल्याण की भावना, जिसके बिना शांति का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता.

सर्वकल्याण की भावना किसी धर्म-मत-संप्रदाय से बंधी हुई नहीं है.क्रिसमस की सच्ची भावना का सबसे अच्छा प्रदर्शन पहले विश्व युद्ध के दौरान कुछ ब्रिटिश और जर्मन सैनिकों ने किया था, जिन्होंने जंग के मैदान में युद्धविराम की घोषणा कर दी थी और एक साथ फुटबॉल खेलकर और शराब पीकर अपने इंसान होने का सबूत दिया था.अलबत्ता उनकी हुकूमतों ने उन्हें जंग पर लौटने का हुक्म देकर उन्हें फिर से उस बर्बरता की ओर धकेल दिया,जिसने यूरोप की सरजमीं को रक्तरंजित कर दिया था.

यदि काल्पनिक सबूतों के आधार पर बिनायक सेन जैसों को दोषी ठहराया जाने लगे तो हिंदुस्तान में जेलें कम पड़ जाएंगी.ब्रिटिश राज में गांधीवादी आंदोलन के दौरान ऐसा ही एक नारा दिया गया था.यह संदर्भ सांयोगिक नहीं है,क्योंकि हमारी सरकार भी नक्सलवाद के प्रति साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक रवैया अख्तियार करने लगी है.


 लेखक ‘द संडे गार्जियन’ के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं. बाईलाइन के नाम से लिखे जाने वाले इस कॉलम को रविवार डोट कॉम से साभार लिया जा रहा है.



Dec 26, 2010

न्यायपालिका ध्वस्त कर रही है ढांचा


पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (PUCL)के राष्ट्रीय  उपाध्यक्ष विनायक सेन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर न्यायपालिका ने अपने गैरलोकतांत्रिक और फासीवादी चेहरे को एक बार फिर उजागर किया है। जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी शर्मनाक  मानती है. विनायक सेन प्रकरण के इस फैसले ने अन्ततः लोकतांत्रिक ढ़ांचे को ध्वस्त करने का काम किया है। यह न्यायपालिक की सांस्थानिक जनविरोधी तानशाही है, जिसका हम विरोध करते हैं।

जो काम सत्ता के सहारे पूंजीवादी ताकतें कार्यपालिका और व्यवस्थापिका से कराती थीं उसे अब न्यायपालिका कर रही है। पिछले दिनों विकिलिक्स ने हमारी पूरी व्यवस्था की पोल खोल दी की वह किस तरह देश की महत्वपूर्ण जानकारियों को अमेरिका जैसे देशों से चोरी-छिपे बताती है, और उसके दबाव में जनविरोधी नीतियों को लागू करती है।नक्सलवाद उन्मूलन के नाम पर चलाया जा रहा  आपरेशन ग्रीन हंट भी इसी का हिस्सा है.

विनायक सेन को आजीवन कारावास देकर न्यायालय ने वंचित तबके के प्रतिरोध को खामोश रहने की चेतावनी दी है,जो अब तक न्याय के अंतिम विकल्प के रुप में न्यायपालिका में उम्मीद लगाया था। हिंदुस्तान में न्यायालयों द्वारा पिछले दिनों जिस तरह से संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य जिनके तहत आदमी और आदमी के बीच धर्म,जाति और लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव न करने का आश्वासन दिया गया था को खंडित किया जा रहा है.

छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून जिसके तहत विनायक सेन को देशद्रोही कहा गया वह खुद ही एक जनविरोधी कानून है। जो सिर्फ और सिर्फ प्रतिरोध की आवाजों को खामोश करने वाला कानून है। विनायक सेन लगातार सलवा जुडुम से लेकर तमाम जनविरोधी प्रशासनिक हस्तक्षेप के खिलाफ आवाज ही नहीं उठाते थे बल्कि वहां की आम जनता के स्वास्थ्य शिक्षा से जुड़े सवालों पर भी लड़ते थे। हम यहां इस बात को भी कहना चाहेंगे कि जिस तरह न्यायालय ने डा0 सेन को आजीवन करावास दिया, ठीक इसी तरह भारतीय न्यायालय की इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ बेंच ने तीस सितंबर 2010को कानून और संविधान को ताक पर रखकर आस्था और मिथकों के आधार पर अयोध्या फैसला दिया।


न्यायपालिका के चरित्र को इस बात से भी समझना चाहिए कि देश की राजधानी दिल्ली में हुए ‘बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड’पर न्यायालय ने पुलिस का मनोबल गिरने की दुहाई देते हुए इस फर्जी मुठभेड़ कांड की जांच की मांग को खारिज कर दिया था। भंवरी देवी से लेकर ऐसे तमाम फैसले बताते हैं कि हमारी न्यायपालिका का रुख दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिला विरोधी रहा है।

ऐसे में हम इस बात को कहना चाहेंगे कि जो न्यायालय जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों की अवमानना कर रहे हैं और अब अदालतों की अवमानना करने का पूरा अधिकार  जनता को है। क्योंकि विनायक सेन जनता के लिए,जनता द्वारा स्थापित लोकतंत्र के सच्चे सिपाही हैं। हम मांग करते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार विनायक सेन के खिलाफ लगाए गए जनविरोधी राजनीति से प्रेरित आरोंपों व जनविरोधी छत्तीसगढ़ लोक सुरक्षा कानून को तत्काल रद्द करे और विनायक सेन को रिहा करे।



अदालतें कर रही हैं न्याय का शिकार

न्याय के इस खेल में साक्ष्य एक फुटबाल की तरह है जिससे गोल भी हो सकता है और फाउल भी। न्याय के नए खेल में अब तो साक्ष्य की जरूरत ही खत्म होती दिख रही है...

अंजनी कुमार  

यह संयोग था कि मैं उस दिन पीयूडीआर की शनिवार बैठक में उपस्थित था। हरीश रायपुर में विनायक सेन पर चल रहे मुकदमे के बारे में बता रहे थे। सरकारी वकील विनायक सेन को माओवादी और  उनका समर्थक सिद्ध करने के लिए यह तर्क पेश कर रहा था कि उनके घर से मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कैपीटल’ तथा माओ की किताबें मिलीं हैं। इन पुस्तकों में पूंजीवाद को ध्वस्त करने की खतरनाक बातें लिखी गई हैं।

सरकारी वकील ने इस केस के कुछ और भी ब्यौरे  दिए। उस समय मेरे मन में यह उधेड़बुन चलती रही कि जज ने सरकारी वकील के इतने लचर तर्कों को तरजीह देकर क्यों सुना होगा। मन में ये सवाल यह जानते हुए भी उठा कि न्याय की उम्मीद करना एक जुए के खेल जैसा है, जिसमें विनायक सेन के मामले में हम हार गए। दरअसल, न्याय के इस खेल में हम थे भी कहां! न्याय तो जज को करना था।

कुछ-कुछ ऐसा ही हर जगह चल रहा है। हम अपने पक्ष में साक्ष्य और गुनहगार न होने की दावेदारी पेश कर रहे हैं, जबकि जज की चाहत ही कुछ और बन रही है। मसलन, इसी से कुछ मिलता-जुलता एक और मुकदमा उत्तराखंड में चल रहा है। वहां जब सरकारी वकील ने देहरादून जेल में बंद प्रशान्त राही के खिलाफ यह दलील दी कि उनके पास से लैपटाप मिला है,तब जज ने पूछा कि उसमें क्या-क्या बातें हैं,इसका लिखित ब्यौरा दो। जब वकील ने लैपटाप की बातों को मौखिक और लिखित रूप से पेश कर पाने में अक्षमता दिखाई तब जज ने कोर्ट में ही सरकारी वकील पर विरोधियों से मिल जाने, पैसा खाकर साक्ष्यों को खत्म करने जैसे तमाम आरोप जड़ दिए।

प्रशांत राही मामले में जज के रवैए के कारण मुझे अभी से न्याय की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है। ऐसे हजारों मामले हो सकते हैं,जहां पहले से ही न्याय की उम्मीद नहीं रहती और देश में ऐसे सैकड़ों मामले हैं जहां आमजन भी पहले से जानता है कि न्याय क्या होने वाला है। न्याय के इस खेल में साक्ष्य एक फुटबाल की तरह है जिससे गोल भी हो सकता है और फाउल भी। न्याय के नए खेल में अब तो साक्ष्य की जरूरत ही खत्म होती दिख रही है। मसलन,बाबरी मस्जिद का मामला। जहां न्याय में लिखा जाता है कि राम के पैदा होने का साक्ष्य पेश करना जरूरी नहीं है क्योंकि वह है...।

बाबरी मस्जिद मामले में केस जमीन पर मालिकाना दावेदारी का है,जबकि न्याय जमीन के विभाजन के रूप में मिलता है। अफजल गुरू मामले में तो सारा मामला ही ‘लोगों की इच्छा’ पर तय कर दिया गया। वह भी आजीवन सजा नहीं, बल्कि सजाए मौत। साक्ष्य की पेशी जज की चेतना में ब्रिटिशकाल के 1870, 1872 या 1876 इत्यादि से कोई रूपाकार ग्रहण करेगी या फिर आधुनिक काल की आस्था और इच्छा से इसे तय करना सचमुच कठिन होने लगा है। यह बात लिखते हुए मुझे बरबस राजस्थान में एक दलित महिला के बलात्कार तथा तमिलनाडु में एक दलित बस्ती को जलाने व लोगों को मार डालने से संबधित केस और न्याय की बातें ध्यान में आ रही हैं।

दोनों ही मामलों में जज इस बात पर जोर देता है कि सवर्ण कैसे दलित स्त्री को छू सकता है, जबकि वह अछूत है। एक अछूत की बस्ती में सवर्ण कदम क्यों रखेगा?महाराष्ट्र के खैरलांजी की घटना को जज ने दलित उत्पीड़न की घटना मानने से ही इन्कार कर दिया और मुंबई हाईकोर्ट ने तो मजदूरों के हड़ताल और बोनस के मसले पर अपने न्याय में संवैधानिक देय अधिकारों को भी समय के साथ संशोधित करने पर जोर देते हुए उनकी मांग को ही खारिज कर दिया।

विनायक सेन मामले में जज के न्याय का आधार है गवाह अनिल सिंह,जो कि पीयूष गुहा से जब्त किए गये पत्रों के समय के हालात से जुड़े साक्ष्य का प्रत्यक्षदर्शी है। अनिल सिंह कपड़े का व्यापारी है,जिसने बताया कि पीयूष गुहा को 6 मई 2007 को पुलिस ने स्टेशन रोड से पकड़ा और उसके पास के बैग से तीन पत्र मिले। यह व्यक्ति ही एकमात्र स्वतंत्र गवाह है जिसके बयान पर न्याय की तकरीर निर्णय में बदल गई।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में जांच अधिकारी बीबीएस राजपूत ने अपने एफीडेविट में बताया है कि पीयूष गुहा होटल महिन्द्रा से पकड़े गए। सरकारी वकील ने होटल के मैनेजर और रिसेप्शनिस्ट को इस साक्ष्य के रूप में जज के सामने पेश किया कि विनायक सेन ने तीनों पत्र पीयूष गुहा को उसी होटल में दिए थे। हालांकि कोर्ट में दोनों ने इस बात को अस्वीकार किया। यहां इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि ये पत्र दो साल पुराने हैं,जबकि उसकी लिखावट ताजा थी और पत्र कहीं से भी फोल्ड नहीं थे।

आरोप है कि है यह पत्र माओवादी नेता नारायण सान्याल ने जेल से लिखा और इसे विनायक सेन ने पीयूष गुहा तक पहुंचाया। नारायण सान्याल और विनायक सेन की जेल में मुलाकात के दौरान हमेशा जेल अधिकारी मौजूद रहे। प्रत्येक पत्र को कड़ी जांच के बाद ही जारी किया गया। कोर्ट में भी आधे दर्जन जेल अधिकारी पेश हुए और उनके बयानों का निहितार्थ षडयंत्र रचने और पत्र पार कराने के आरोप का अस्वीकार किया जाना था।

नारायण सान्याल व विनायक सेन के बीच गहरा संबंध साबित करने के लिए नारायण सान्याल के मकानमालिक को पेश किया गया। मकानमालिक ने अदालत को बताया कि विनायक सेन के कहने पर ही उसने सान्याल को मकान दिया और जनवरी 2006तक सबकुछ ठीक-ठाक चलता रहा। इस मुकदमे में नारायण सान्याल को माओवादी सिद्ध करने के लिए सरकारी वकील ने कुछ दलीलें पेश की हैं। पहला,नारायण सान्याल ने अपने पत्र में संबोधन के तौर पर ‘कामरेड विनायक सेन’ लिखा है। सरकारी वकील के अनुसार ‘कामरेड उसी को कहते हैं जो माओवादी है।’


दूसरा,माओवादियों  ने एक पुलिस अधिकारी को बंधक बनाकर यह मांग रखी कि माओवादी क्षेत्र से सीआरपीएफ को हटाया जाये। यही मांग पीयूसीएल भी कर रहा है। इससे यह दिखता है कि पीयूसीएल माओवादियों का हितैषी संगटन या सहयोगी मोर्चा है।’ तीसरा,विनायक सेन के घर से पीपूल्स मार्च व माओ की संग्रहित रचनाएं मिलीं। चौथा, कोर्ट में सरकारी वकील ने बहुत से पत्र व्यवहार को प्रस्तुत करते हुए बताया कि इनके आईएसआई से खतरनाक संबंध हैं। इस आईएसआई का खुलासा यह है : इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट। यह संस्था दलित, आदिवासी, स्त्री, बच्चों, अल्पसंख्यकों के विभिन्न पहलुओं पर शोध व उनके विकास के लिए विभिन्न तरह से सक्रिय रहती है।

इन सारी दलीलों पर जज की दलील काफी भारी साबित हुई और जो अपनी संरचना की वजह से निर्णायक भी साबित हुई और विनायक सेन अपराधी करार दिये गये। विनायक सेन को इस केस में घसीटने के पीछे मूल कारण उनका 'सलवा जूडूम' के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर विरोध का माहौल बनाने व छत्तीसगढ़ में निर्णायक प्रतिरोध के लिए लोगों को खड़ा करना था।

सलवा जूडूम के तहत 700गांवों को उजाड़ दिया गया। लगभग एक लाख लोगों को शरणार्थी बना दिया गया। हजारों लोगों को जेल में ठूंसा गया। अकेले जगदलपुर जेल में ही लगभग ढ़ाई हजार लोग नक्सली होने के आरोप में जेल में बंद हैं। हत्या, बलात्कार, आगजनी  का नंगा नाच जिस तरह सलवा जूडूम के नाम पर शुरू हुआ, उससे तो आज खुद सरकार ही मुकर जाने के लिए बेताब दिख रही है और अब आपरेशन ग्रीन हंट को आगे बढ़ाया जा रहा है।

ऑपरेशन ग्रीन हंट छत्तीसगढ़ के साथ छह राज्यों में और फैला दिया गया है। इसका अर्थशास्त्र है कॉर्पोरेटाइजेशन। कारपोरेट की खुली लूट। टाटा व एस्सार ने सलवा जूडूम को चलाने में खुलकर हिस्सेदारी की। अब पूरा कारपोरेट सेक्टर व उसका संगठन,उसकी सरकार व न्यायपालिका खुलकर भागीदारी में उतर रही हैं। यह बिडम्बना नहीं बल्कि क्रूर सच्चाई है कि कारपोरेट सेक्टर की आपसी लड़ाई में वेदांता का एक पंख कतरकर राहुल गांधी को नियामगिरी व आदिवासियों का ‘सिपाही’ घोषित कर दिया जाता है, आदिवासी महिलाओं के साथ मार्च पास्ट कराया जाता है। वहीं आदिवासी समुदाय के मूलभूत जीवन के अधिकार के पक्ष में मांग उठाने वाले एक डाक्टर को,जो उनके बीच जीवन गुजारते हुए गरीबों और बीमारों की सेवा करता है उसे ‘देशद्रोही’ घोषित कर दिया जाता है।

ऐसा लगता है अब समय आ चुका है कि न्याय के नए पाठ के साथ शब्द का अर्थ-विमर्श भी बदल दिया जाय। यहीं से यह स्वीकार किया जाय कि इस कारपोरेट राज में देश की 90करोड़ आबादी देशद्रोही है...न्याय के चौखट पर जाकर मुहर लगवाने का इंतजार क्यों करना है ....जिस गति से देशद्रोह के मुकदमे बढ़ रहे हैं उससे कल हम या आप कोई भी हो सकता है देशद्रोह का अभियुक्त ...सजा ए आजीवन ... या सजा ए मौत ...



लोगों के हिस्सा हैं विनायक सेन

अंजनी कुमार


सब कुछ वैसे ही था
जैसा दिसंबर महीने के अंतिम हफ्तों में होता है
बर्फीली हवा, कोहरे का धुंध, थोड़ी सी धूप...


आज की सुबह भी ऐसी ही थी,
बाहर पार्क में योगासन के कई झुंड
प्राणायाम और सूर्यासन में मगन थे,
कुछ हंसी योग में होड़ लगा हंस रहे थे...


सबकुछ वैसे ही था
जैसा रोज ही रहता है मुहल्ला, शहर, देश...
जैसे रोज ही रहता है बालकनी  में अखबार
सुबह सुबह की चाय
और उसके बाद नाश्ता व टिफिन में बंद लंच।।


सब कुछ वैसे ही था
सब कुछ वैसे ही चल रहा था
लोग भुगत रहे थे कीमतें
लोग पढ़ रहे थे भ्रष्टाचार की खबरें
लोग चिंतित थे, अचंभित थे, और कद्रदान थे नीरा राडिया के
लोग बेखबर थे बनानादेश के जुमलों से
यहां सबकुछ चलता है- लोग यही जानते थे
और दिनचर्या में व्यस्त थे, अभ्यस्त थे।।


सब कुछ वैसे ही था
प्रधानमंत्री का भाषण, विपक्ष का बयान, तीसरे मोर्चे का चिंतन
सबकुछ वैसे ही चल रहा था, बढ़ रहा था-
मुद्रास्फीत की दर, जेल, मुकद्मा, सजा...
करोड़ों अनाम बेनाम लोगों का जीवन ऐसे ही चल रहा था
ऐसे ही लोगों के हिस्सा हैं विनायक सेन
आजीवन सजायाफ्ता...


और मैं हूँ  कि भागा जा रहा था बड़े नाम के पीछे,
देश के एक नागरिक के पीछे
देश के संप्रभु-लोकतंत्र के पीछे....यह जानते हुए भी
कि यह देश ऐसे ही चल रहा है
सबकुछ वैसे ही चल रहा है....।।



  • लेखक राजनितिक-सामाजिक कार्यकर्त्ता और स्वतंत्र पत्रकार  हैं.उनसे anjani.dost@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है.

Dec 25, 2010

विनायक सेन को समर्पित


आज हम भारी मन से आप सभी से मुखातिब हैं.जैसा कि मौजूदा सत्ता-समीकरण से अन्देशा था छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने डाक्टर विनायक सेन और दो अन्य लोगों को देश-द्रोह के आरोप में उमर क़ैद की सज़ा सुनायी है.

 

ज़ाहिर है कि मौजूदा सत्ताधारी -उनका रंग चाहे जो भी हो,भगवे से ले कर हरा और सफ़ेद -विनायक सेन को सलाख़ों के पीछे ही रखना चाहते हैं.इसलिए उन पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें क़ैद में रखे रहने की साज़िश की जा रही है.असलियत यह है कि डाक्टर विनायक सेन छत्तीसगढ़ में अत्यन्त लोकप्रिय हैं.उन्होंने न केवल वहां आदिवासियों और आम जनता को ऐसे समय चिकित्सा उपलब्ध करायी है जब सरकारी तन्त्र नाकारा साबित हुआ है,बल्कि आदिवासियों की हत्या करने वाले सरकार समर्थित गिरोह सल्वा जुडुम का कड़ा विरोध भी किया है.

ध्यान रहे कि जहां विनायक सेन जैसी मेधा और गुणों वाले डाक्टर समृद्धि की सीढ़ियों का सन्धान करते हैं वहां विनायक सेन ने स्वेच्छा से तकलीफ़ों वाला मार्ग चुना है.लेकिन सच्चे देशभक्तों को अक्सर देशद्रोही क़रार देकर सज़ाएं दी जाती रही हैं. इसलिए आज  हम तुर्की के महान कवि नाज़िम हिकमत की वह मशहूर कविता पेश कर रहे हैं जो उन्होंने तुर्की की तानाशाही द्वारा क़ैद किये जाने की दसवीं सालगिरह पर लिखी थी. यह कविता विनायक  को समर्पित करते हैं - नीलाभ  



जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया

नाज़िम हिकमत

जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
पृथ्वी सूरज के गिर्द दस चक्कर काट चुकी है

अगर तुम पृथ्वी से पूछो, वह कहेगी -
‘यह ज़रा-सा वक़्त भी कोई चीज़ है भला!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘मेरी ज़िन्दगी के दस साल साफ़!’

जिस रोज़ मुझे कैद किया गया
एक छोटी-सी पेंसिल थी मेरे पास
जिसे मैंने हफ़्ते भर में घिस डाला।
अगर तुम पेंसिल से पूछो, वह कह कहेगी -
‘मेरी पूरी ज़िन्दगी!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘लो भला, एक हफ़्ता ही तो चली!’

जब मैं पहले-पहल इस गड्ढे में आया -
हत्या के जुर्म में सज़ा काटता हुआ उस्मान
साढ़े सात बरस बाद छूट गया।
बाहर कुछ अर्सा मौज-मस्ती में गुज़ार
फिर तस्करी में धर लिया गया
और छै महीने बाद रिहा भी हो गया।
कल किसी ने सुना - उसकी शादी हो गयी है
आते वसन्त में वह बाप बनने वाला है ।

अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं वे बच्चे
जो उस दिन कोख में आये
जिस दिन मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
ठीक उसी दिन जनमे
अपनी लम्बी छरहरी टाँगों पर काँपते बछेड़े अब तक
चौड़े कूल्हे हिलाती आलसी घोड़ियों में
तबदील हो चुके होंगे।
लेकिन ज़ैतून की युवा शाख़ें
अब भी कमसिन हैं
अब भी बढ़ रही हैं।

वे मुझे बताते हैं
नयी-नयी इमारतें और चौक बन गये हैं
मेरे शहर में जब से मैं यहाँ आया
और उस छोटे-से घर मेरा परिवार
अब ऐसी गली में रहता है,
जिसे मैं जानता नहीं,
किसी दूसरे घर में
जिसे मैं देख नहीं सकता।

अछूती कपास की तरह सफ़ेद थी रोटी
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
फिर उस पर राशन लग गया
यहाँ, इन कोठरियों में
काली रोटी के मुट्ठी भर चूर के लिए
लोगों ने एक-दूसरे की हत्याएँ कीं।
अब हालात कुछ बेहतर हैं
लेकिन जो रोटी हमें मिलती है,
उसमें कोई स्वाद नहीं।

जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
दूसरा विश्वयुद्ध नहीं शुरू हुआ था,
दचाऊ के यातना शिविरों में
गैस-भट्ठियाँ नहीं बनी थीं,
हीरोशिमा में अणु-विस्फोट नहीं हुआ था।

आह, समय कैसे बहता चला गया है
क़त्ल किये गये बच्चे के रक्त की तरह।

वह सब अब बीती हुई बात है।
लेकिन अमरीकी डालर
अभी से तीसरे विश्वयुद्ध की बात कर रहा है।

तिस पर भी, दिन उस दिन से ज़्यादा उजले हैं
जबसे मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
उस दिन से अब तक मेरे लोगों ने ख़ुद को
कुहनियों के बल आधा उठा लिया है
पृथ्वी दस बार सूरज के गिर्द
चक्कर काट चुकी है...

लेकिन मैं दोहराता हूँ
उसी उत्कट अभिलाषा के साथ
जो मैंने लिखा था अपने लोगों के लिए
दस बरस पहले आज ही के दिन :

‘तुम असंख्य हो
धरती में चींटियों की तरह
सागर में मछलियों की तरह
आकाश में चिड़ियों की तरह
कायर हो या साहसी, साक्षर हो या निरक्षर,
लेकिन चूँकि सारे कर्मों को
तुम्हीं बनाते या बरबाद करते हो,
इसलिए सिर्फ़ तुम्हारी गाथाएँ
गीतों में गायी जायेंगी।’

बाक़ी सब कुछ
जैसे मेरी दस वर्षों की यातना
फ़ालतू की बात है।

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कवि परिचय - नाज़िम हिकमत (1902-63) की कविता तुर्की ही नहीं, दुनिया की सारी शोषित मानवता के दुख-सुख, कशमकश और संघर्ष को जुबां देती है.सभी सच्चे कवियों की तरह नाज़िम ने अपने देश की सतायी गयी जनता के हक़ में आवाज़ बुलन्द की थी और उन लोगों की गाथाओं को अपनी कविता में अंकित किया था जो उन्हीं के शब्दों में "धरती में चींटियों की तरह, सागर में मछलियों की तरह और आकाश में चिड़ियों की तरह" असंख्य हैं, जो वास्तव में सारे कर्मों के निर्माता हैं।

फैसला खून की रफ़्तार बढ़ा गया 'माइलॉर्ड'


देश में पूरी तरह से जीर्ण शीर्ण हो चुकी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को पुनर्स्थापित करने में लगे विनायक सेन ने कभी नक्सली हिंसा का समर्थन  नहीं किया, पर वो राज्य समर्थित हिंसा के भी हमेशा खिलाफ रहे,चाहे वो सलवा जुडूम हो या फिर छतीसगढ़ के जंगलों में चलाया जा रहा अघोषित युद्ध...

आवेश तिवारी

 
घोटालों,भ्रष्ठाचार,आतंक और राजनैतिक वितंडावाद से जूझ रहे इस देश में अदालतों का चेहरा भी बदल गया है. ये अदालतें अब आम आदमी की अदालत नहीं रही गयी हैं.  न्याय की देवी की आँखों में बन्दे काले पट्टे ने समूची न्यायिक प्रणाली को काला कर दिया है.जज राजा है,वकील दरबारी और हम आप वो फरियादी हैं जिन्हें फैसलों के लिए आसमान की ओर  देखने की आदत पड़ चुकी है.

बिनायक सेन को उम्र कैद की सजा हिंदुस्तान की न्याय प्रक्रिया का वो काला पन्ना है जो ये बताता है कि अब भी देश में न्याय का चरित्र अंग्रेजियत भरा है जो अन्याय,असमानता और राज्य उत्प्रेरित जनविरोधी और मानवताविरोधी परिस्थितियों के साए में लोकतंत्र को जिन्दा रखने की दलीलें दे रहा है. सिर्फ बिनायक सेन ही क्यूँ देश के उन लाखों आदिवासियों को भी इस न्याय प्रक्रिया से सिर्फ निराशा हाँथ लगी हैं जिन्होंने अपने जंगल अपनी जमीन के लिए इन अदालतों में अपनी दुहाई लगाई. खुलेआम देश को गरियाने वाले देश- विदेश घूम घूम कर हिंदुस्तान के खिलाफ विषवमन करते हैं,और संवेदनशील एवं न्याय आधारित व्यवस्था का समर्थन करने वालों को सलाखों में ठूंस दिया जाता है.

बिनायक सेन की सजा के आधार बनने वाले जो सबूत छत्तीसगढ़ पुलिस ने प्रस्तुत किये,वो अपने आप में कम हास्यास्पद नहीं है.पुलिस द्वारा मदन लाल बनर्जी का लिखा एक पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमे बिनायक सेन को कामरेड बिनायक सेन कह कर संबोधित किया गया है.एक और पत्र है जिसका शीर्षक है कि "कैसे अमेरिकी साम्राज्यवाद के विरोध में फ्रंट बनाये",इनके अलवा कुछ लेख कुछ पत्र जिन पर बकायदे जेल प्रशासन की मुहर है सबूत के तौर पर प्रस्तुत की गयी.


भगत सिंह और सुभाष चद्र बोस जिंदाबाद के नारे लिखे कुछ पर्चे भी इनमे शामिल हैं.अदालत ने अपने फैसले में सजा का आधार जिन चीजों को माना है वो देश  के किसी भी पत्रकार समाजसेवी के झोले की चीजें हो सकती हैं. बिनायक सेन चिकित्सक हैं अन्यथा  पुलिस एक कट्टा ,कारतूस या फिर एके -४७ दिखाकर और कुछ एक हत्याओं में वांछित दिखाकर उन्हें फांसी पर चढवा देती.देश में माओवाद के नाम पर जिनती भी गिरफ्तारियां या हत्याएं हो रही हैं चाहे वो सीमा आजाद की गिरफ्तारी हो या हेमचंद की हत्या सबमे छल ,कपट और सत्ता की साजिशें मौजूद थी.

साजिशों के बदौलत सत्ता हासिल करने और फिर साजिश करके उस सत्ता को कायम रखने का ये शगल अब नंगा हो चुका है.माओवादियों के द्वारा की जाने वाली हत्याएं जितनी निंदनीय हैं उनसे ज्यादा निंदनीय फर्जी मुठभेड़ें और बेकसूरों की गिरफ्तारियां हैं क्यूंकि इनमे साजिशें और घात भी शामिल हैं.बिनायक सेन एक चिकित्सक हैं वो भी बच्चों के चिकित्सक ,देश में पूरी तरह से जीर्ण शीर्ण हो चुकी बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं को पुनर्स्थापित करने को लेकर उनके जो उन्होंने कभी नक्सली हिंसा का सर्थन नहीं किया पर हाँ,वो राज्य समर्थित हिंसा के भी हमेशा खिलाफ रहे ,चाहे वो सलवा जुडूम हो या फिर छतीसगढ़ के जंगलों में चलाया जा रहा अघोषित युद्ध.

बिनायक खुद कहते हैं "माओवादियों और राज्य ने खुद को अलग अलग कोनों पर खड़ा कर दिया है,बीच में वो लाखों जनता हैं जिसकी जिंदगी दोजख बन चुकी है.ऐसे में एक चिक्तिसक होने के नाते मुझे गुस्सा आता है जब इन दो चक्कियों के बीच फंसा कोई बच्चा कुपोषित होता है या किसी माँ का बेटा उसके गर्भ में ही दम तोड़ देता है ,क्या ऐसे में जरुरी नहीं है कि हिंसा चाहे इधर की हो या उधर की रोक दी जाए,और एक सुन्दर और सबकी दुनिया ,सबका गाँव सबका समाज बनाया जाए".

कम से कम एक मुद्दा ऐसा है जिस पर देश के सभी राजनैतिक दल एकमत हैं वो है नक्सली उन्मूलन के नाम पर वन,वनवासियों और आम आदमी के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध.भाजपा और कांग्रेस जो अब किसी राजनैतिक दल से ज्यादा कार्पोरेट फर्म नजर आती हैं,निस्संदेह इसकी आड़ में बड़े औद्योगिक घरानों के लिए लाबिंग कर रही हैं. वहीँ वामपंथी दलों के लिए उनके हाशिये पर चले जाने का एक दशक पुराना खतरा अब नहीं तब उनके अंतिम संस्कार का रूप लेता नजर आ रहा है.  ये पार्टियाँ भूल जा रही है कि देश में बड़े पैमाने पर एक गृह युद्ध की शुरुआत हो चुकी है, भले ही वो वैचारिक स्तर पर क्यूँ न लड़ा जा रहा हो.


विश्वविद्यालों की कक्षाओं से लेकर ,कपडा लत्ता बेचकर चलाये जाने वाले अख़बारों,पत्रिकाओं और इंटरनेट पर ही नहीं निपढ निरीह आदिवासी गरीब,शोषित जनता के जागते सोते देखे जाने वाले सपनों में भी ये युद्ध लड़ा जा रहा है.हम बार बार गिरते हैं और फिर उठ खड़े होते हैं. हाँ ,ये सच है, विनायक सेन जैसों के साथ लोकतंत्र की अदालतों का इस किस्म का गैर लोकतान्त्रिक फैसला रगों में दौड़ते खून की रफ़्तार को बढ़ा देता हैं,ये युद्ध आजादी के पहले भी जारी थी और आज भी है



 
पत्रकार  आवेश तिवारी  network6.com  वेबसाइट  के  संचालक हैं ,उनसे  awesh29@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है।
 
 
 
 
 

Dec 24, 2010

लोग बीमार हैं,चलो डाक्टर को छुड़ा लायें !


विनायक सेन की पहली गिरफ्तारी पर  बगरुमनाला स्वास्थ्य   केंद्र पर मिली   शांति  बाई ने रोते हुए कहा था 'डॉक्टर साहब की गिरफ्तारी के बाद न जाने कितने सौ मरीज लौटकर चले गये। मेरा दिल कहता है अगर हम लोग डॉक्टर को नहीं बचा सके तो अपने बच्चों को भी नहीं बचा पायेंगे।'

अजय प्रकाश

डॉक्टर विनायक सेन, शिशुरोग विशेषज्ञ अब  छत्तीसगढ़ में अपने अस्पताल बगरूमवाला में नहीं रायपुर केंद्रीय कारागार में मिलते हैं। जहां मरीज नहीं,बल्कि डॉक्टर सेन को जेल से मुक्त कराने में प्रयासरत वकील,बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्त्ता  और दो बेटियां एवं पत्नी इलिना  सेन पहुंचती हैं.

छत्तीसगढ़ सरकार की निगाह में विनायक सेन देशद्रोही हैं और अब कोर्ट ने भी कह दिया है.यह सजा उन्हें  इसलिए दी गयी है कि उन्होंने डॉक्टरी के साथ-साथ एक जागरूक नागरिक के बतौर सामाजिक कार्यकर्त्ता  की भी भूमिका निभायी है। विनायक सेन को राजद्रोह,छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा कानून 2005 और गैरकानूनी गतिविधि (निवारक) कानून जैसी संगीन धाराओं के तहत गिरफ्तार किया गया है और अब अदालत ने भी आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर कर दी है.
 

बगरुमनाला स्वास्थ्य केंद्र पर डॉ  विनायक

डॉक्टर विनायक पीयूसीएल के छत्तीसगढ़ इकाई के महासचिव और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष से नक्सलियों के मास्टरमाइंड  उस समय हो गये जब रायपुर रेलवे स्टेशन से गिरफ्तार पीयूष गुहा ने यह बताया कि उनसे जब्त तीनों चिट्ठियां (दो अंग्रेजी, एक बंग्ला) नक्सली कमाण्डर को सुपुर्द  करने के लिये थीं. मगर उसमें यह तथ्य नहीं है कि चिट्ठियां विनायक सेन से प्राप्त हुयीं। दूसरी बात जिसे कई बार कोर्ट में  पीयूष गुहा ने कहा भी है कि उसे एक मई को गिरफ्तार किया गया,जबकि एफआईआऱ छह मई को दर्ज  हुयी।

मतलब साफ है कि पुलिस ने पीयूष गुहा  को छह दिन अवैध हिरासत में रखा। पुलिस को पीयूष गुहा के बयान के अलावा और कोई भी पुख्ता सुबूत विनायक सेन के खिलाफ नहीं मिल सका। विनायक सेन कि गिरफ्तारी का आधार पुलिस ने बुजुर्ग  नक्सली नेता नारायण सन्याल से तैंतीस बार मिलने  तथा उन चिट्ठियों को ही बनाया जो नारायण ने जेल में मुलाकात के दौरान विनायक को सौंपी थी। हालांकि विनायक सेन के घर से प्राप्त हुईं इन सभी चिट्ठियों पर जेल प्रशासन  की मुहर थी और जेलर ने पत्र को अग्रसारित किया था।

पहली बार गिरफ्तारी के समय विनायक सेन के पदार्फाश  की कुछ उम्मीद पुलिस को उनके घर से जब्त सीडी से बंधी थी, लेकिन वह भी मददगार साबित न हो सकी। यही नहीं, सनसनीखेज सुबूत का दावा तब किया गया जब सेन के कम्प्यूटर को पुलिस उठा लायी। इसके अलावा नक्सली सहयोगी होने के प्रमाण के तौर पर उनके घर से जो सामग्री और स्टेशनरी जो जब्त की गयी थी, उस आधार पर देश के लाखों बुद्धिजीवियों और करोंड़ों नागरिकों को सरकार गिरफ्तार कर सकती है।

विनायक सेन की गिरफ्तारी को जायज ठहराने में लगा पुलिस बल सुबूतों को जुटाने के मामलों में मूर्खताओं की हदें पार कर गया था। पीपुल्स मार्च (अब प्रतिबंधित) पत्रिका की  एक प्रति, एक अन्य वामपंथी पत्रिका, अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ अंग्रेजी में लिखा गया हस्तलिखित पर्चा, साम्यवादी नेता लेनिन की पत्नी क्रुप्स्काया  द्वारा लिखित पुस्तक 'लेनिन',रायपुर जेन में सजायाफ्ता माओवादी मदनलाल का पत्र जिसमें उसने जेल को अराजकताओं-अनियमितताओं को उजागर किया तथा कल्पना कन्नावीरम का इपीडब्ल्यू (इकॉनोमिकल एण्ड पोलिटिकल वीकली) में छपे लेखों  को भी पुलिस ने जब्त किया था। जाहिर है इन सबूतों कि बिना पर कोई सजा नहीं बनती, मगर सत्र न्यायाधीश पी. बी. वर्मा ने विनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. इससे आहत हो विनायक सेन की पत्नी इलिना सेन ने शुक्रवार 24 दिसम्बर 2010 को हुए फैसले को लोकतंत्र का काला दिन  कहा है.
 

विनायक सेन : देश के लिए देशद्रोही


बहरहाल, पहली गिरफ्तारी१६ मई २००७ के समय विनायक सेन के खिलाफ ढीले पड़ते सुबूतों के मद्देनजर पुलिस ने कुछ नये तथ्य भी कोर्ट  को बताये थे, जिसमें राजनादगांव और दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षकों ने नक्सलियों से ऐसा साहित्य बरामद किया  जिसमें विनायक सेन  की चर्चा थी. यानी कल   को माओवादियों के साहित्य या राजनीतिक   पुस्तकों में किसी साहित्यकार,इतिहासकार या सामाजिक  आन्दोलनों से जुड़े लोगों की चर्चा हो तो वे आतंकवाद निरोधक कानूनों के तहत गिरफ्तार किये जा सकते हैं।

विनायक देश के पहले ऐसे नागरिक हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा चलाये जा रहे दमनकारी अभियान सलवा जुडूम का विरोध किया था। इतना ही नहीं राष्ट्रीय स्तर पर फैक्ट फाइडिंग टीम गठित कर दुनियाभर को इत्तला किया कि यह नक्सलवादियों के खिलाफ आदिवासियों  का स्वतः स्फूर्त  आंदोलन नहीं बल्कि टाटा, एस्सार, टेक्सास आदि  के लिये जल, जंगल, जमीनों को खाली कराना है, जिसपर कि माओवादियों के कारण साम्राज्यवादियों का कब्जा नहीं हो सका है।


माओवादी हथियारबंद हो जनता को गोलबंद किये हुये हैं इसलिये सरकार के लिये संभव ही नहीं है कि उनके आधार इलाकों मे कत्लेआम मचाये बिना कब्जा कर ले। खासकर, तब जब जनता भी अपने संसाधनो को देने से पहले अंतिम दम तक लड़ने के लिये तैयार है। दमनकारी हुजूम यानी 'सलवा जुडूम'की नंगी सच्चाई के सामने आने से राज्य सरकार तिलमिला गयी। जिसके ठीक बाद बस्तर क्षेत्र के तत्कालीन डीजीपी सवर्गीय  राठौर ने कहा था कि 'मैं विनायक सेन और पीयूसीएल  दोनों को देख लूंगा।''

यहां तक कि इलिना (विनायक सेन की पत्नी) पर भी पुलिस ने आरोप लगाया कि उन्होंने अनिता श्रीवास्तव नामक फरार नक्सली महिला की मदद की। यह सब चल ही रहा था कि इसी बीच विनायक सेन पर छत्तीसगढ़ के विलासपुर इलाके में काम कर रहे धर्मसेना  नाम के एक हिन्दू संगठन ने  धर्मान्तरण  का आरोप मढ़ना शुरू कर दिया। धर्मसेना के इस कुत्सा प्रचार का वहां  के दर्जनों गांवों के हजारों नागरिकों ने विरोध किया।

छत्तीसगढ़ के मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी के अनुभवों और अपनी वर्गीय  दृष्टि की ऊर्जा को झोंककर जो संस्थाएं  विनायक सेन ने खड़ी की, वह उदाहरणीय हैं। कहना गलत न होगा कि विनायक सेन नेता नहीं हैं, मगर जनता के आदमी हैं। वह इसलिए कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 150किलोमीटर दूर धमतरी जिले के बगरुमनाला और कुछ अन्य गांवों में विनायक आदिवासियों की सेवा में निस्वर्ट भाव से लगे रहे.

डॉ. सेन देश के दूसरे नम्बर के बड़े आयुविर्ज्ञान संस्थान सीएमसी वेल्लुर से एमडी, डीसीएच हैं। चिकित्सा के क्षेत्र में दिये जाने वाले विश्व स्तर के पुरस्कार पॉल हैरिसन पुरस्कार और जोनाथन मैन अवार्ड  से वे नवाजे जा चुके हैं। वर्ष 1992से धमतरी जिले के बागरूमवाला गांव में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र संचालित करने वाले विनायक सेन ने सामान्तर सामुदायिक शिक्षा केन्द्रों की स्थापना की। डॉक्टर को यह साहस और अनुभव छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक स्वर्गीय शंकर गुहा नियोगी से मिला। गौरतलब है कि डॉक्टर सेन इस क्षेत्र में १९७८ से कम कर रहे हैं.

सवाल उठता है कि क्या यह सब करते हुये विनायक सेन अपने डॉक्टरी कर्तव्य को भी बखूबी निभा पाये। बगरुमनाला के स्वस्थ्य  केंद्र की  पिछले बारह वर्षों से देखरेख कर रहीं शांतिबाई ने कहती हैं कि 'डॉक्टर साहब को चौदह साल से जानती हूं। उन्होंने हमलोगों के लिए अपनी जिंदगी लगा दी.हम अकेली नहीं हूं जो डॉक्टर साहब के बारे में ऐसा मानती हूं। यहां से तीन दिन पैदल चलकर जिन गांव-घरों में आप पहुंच सकते हैं उनसे पूछिये डॉक्टर साहब कैसा आदमी है,बगरूमनाला के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कैसा इलाज होता है.'

विनायक सेन की पहली गिरफ़्तारी के बाद हुई मुलाकात में शांतिबाई ने रोते हुए कहा था 'डॉक्टर साहब की गिरफ्तारी के बाद न जाने कितने सौ मरीज लौटकर चले गये। मेरा दिल कहता है अगर हम लोग डॉक्टर को नहीं बचा सके तो अपने बच्चों को भी नहीं बचा पायेंगे।'


देश के लिए देशद्रोही


माओवादी नेता नारायण सान्याल से मुलाकातों को लेकर वह हमेशा कहते रहे हैं कि मैं इसे गुनाह नहीं मानता। एक डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मेरा फर्ज है कि मैं कानून की सहायता चाहने वालों और अस्वस्थ्य लोगों से मिलूं...


जनज्वार टीमसामाजिक कार्यकर्ता डॉक्टर विनायक सेन को छत्तीसगढ़ की एक कोर्ट ने देशद्रोह का अपराधी बताते हुए शुक्रवार को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। विनायक सेन के साथ सीपीआइ(माओवादी)के बुजूर्ग नेता नारायण सान्याल और पीयूष गुहा को भी उम्रकैद की सजा हुई है। इन सभी पर आइपीसी की धारा 124ए,124बी और छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज है।

विनायक सेन को यह सजा जेल में बंद माओवादी नेता नारायण सान्याल की चिट्ठयां जेल से बाहर ले जाने, चिट्ठियां भूमिगत माओवादियों तक पहुंचाने और इन चिट्ठियों के जरिये माओवादी आधार क्षेत्रों का विस्तार किये जाने के अपराध में दी गयी है। नारायन सान्याल माओवादी पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं और उनकी उम्र करीब 80 वर्ष है।
विनायक सेन : हार की जीत                          फोटो -शैलेन्द्र

मुकदमें की सुनवाई करते हुए जिला और सत्र न्यायधीश बीपी वर्मा ने इन सभी को षड़यंत्र और देशद्रोह का अभियुक्त माना है। अदालत ने नारायण सान्याल और पीयूष गुहा को माओवादी होने के नाते आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की है। विनायक सेन अदालत में नारायण सान्याल और पीयूष गुहा के साथ ही उपस्थित हुए थे।

डॉक्टर विनायक सेन गिरफ्तारी 14 मई 2007 को बिलासपुर में हुई थी। जेल में दो वर्ष की सजा काटने के बाद 58 वर्षीय विनायक सेन को सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद मई 2009 में स्वास्थ्य कारणों से छोड़ दिया गया था जिन्हें फिर एक बार छत्तीसगढ़ पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

विनायक सेन सरकार के आरोपों अब सजा मुकर्रर होने की प्रक्रिया को मनगढंत और मानवाधिकार के खिलाफ साजिश मानते हैं। पेशे से डॉक्टर विनायक सेन छत्तीसगढ़ में उस समय चर्चा में आये थे जब उन्होंने माओवादियों से निपटने के बहाने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को सलवा जुडूम अभियान के बहाने तबाह-बर्बाद किया जा रहा था।

विनायक देश के पहले शख्सियत थे जिन्होंने सलवा-जुडूम के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक अभियान चलाया था। उसी अभियान का असर रहा कि उसे सर्वोच्च न्यायालय ने छत्तीसगढ़ सरकार को बंद करने का आदेश दिया था। विनायक सेन का कहना है कि ‘यह सजा सरकार के अत्याचारों के खिलाफ मुखर होने का प्रतिफल है।’माओवादी नेता नारायण सान्याल से मुलाकातों को लेकर वह हमेशा कहते रहे हैं कि ‘मैं इसे गुनाह नहीं मानता। एक डॉक्टर और मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते मेरा फर्ज है कि मैं कानून की सहायता चाहने वालों और अस्वस्थ्य लोगों से मिलूं। नारायण सान्याल से हुई मेरी मुलाकातें भी इन्हीं संदर्भों में हुई थीं।’

 
विनायक सेन के साथ नारायण सान्याल

जहां तक चिट्ठयों को जेल से बाहर ले जाने का सवाल है तो इस बारे में विनायक सेन कहते रहे हैं कि ‘मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल का पदाधिकारी होने के नाते मैं यह क्यों नहीं कर सकता था?जेल से नारायण सान्याल के लिखे जो भी पत्र मैं ले गया हूं उन सब पर जेल प्रशासन की मूहर है।’

प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षक इलीना सेन ने इसे लोकतंत्र का काला दिन कहा। इलीना सेन विनायक सेन की पत्नी हैं और गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में डीन हैं। उन्होंने पति की गिरफ्तारी पर कहा कि ‘देश में गुंडे खुलेआम घूमते हैं और आदिवासियों और गरीबों के बीच जीवन गुजार देने वाले विनायक सेन को देशद्रोही करार दिया जाता है।’इलीना ने कहा कि जिला और सत्र न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील करेंगी।

विनायक सेन की स्वास्थ्य के क्षेत्र में की गयी सेवाओं की दुनिया भर में बेहद कद्र है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य और मानवाधिकार क्षेत्र में काम के लिए उन्हें जोनाथन मैन सम्मान और पॉल हैरिसन पुरस्कार से नवाजा गया है। छत्तीसगढ़ के श्रमिक नेता शंकर   गुहानी योगी के साथ सामाजिक कामों की शुरूआत करने वाले विनायक सेन दल्ली राजहरा स्थित अस्पताल के प्रमुख डाक्टरों में रहे हैं और वे बाद में मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बने. गौरतलब है कि जब वे गिरफ्तार किये गए तो वह उपाध्यक्ष थे.  

छत्तीसगढ़  सरकार की निगाह में देशद्रोही और माओवादियों के शुभचिन्तक करार दिए गए विनायक सेन जब जेल से बाहर थे तब राज्य सरकार की सलाहकार समिति के सदस्य थे.सलाहकार रहने के दौरान उन्होंने छत्तीसगढ़ में गरीबों की बेहतर स्वस्थ सेवा के लिए जो सुझाव दिए थे बाद में उसी आधार पर सरकार ने वहां बहुचर्चित और सफल स्वस्थ सेवा 'मितानिन ' शुरू किया था. 

विनायक सेन डॉक्टरों की उस परंपरा से आते हैं जो सिर्फ दवा देना ही अपना कर्तव्य नहीं मानते बल्कि सामाजिक-आर्थिक हालात बदलने पर भी जोर देते हैं। यही वजह रही कि छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुडूम के बहाने आदिवासियों के खिलाफ कॉरपोरेट और सरकारी साजिश शुरू हुई तो उन्होंने मुकम्मिल विरोध को सर्वाधिक बुलंदी के साथ राष्ट्रीय स्तर पर उठाया, जिसका खामियाजा उन्हें आज भूगतना पड़ रहा है।