Apr 5, 2011

जब-जब देखा,लोहा देखा


कवि केदारनाथ अग्रवाल की सौवीं जन्मतिथि पर

‘मैंने उसको जब-जब देखा, लोहा देखा। लोहे जैसा तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा। मैंने उसको गोली जैसा चलते देखा’- हिन्दी कविता के इतिहास में ये अमर पंक्तियाँ देने वाले कवि केदारनाथ अग्रवाल की सौवीं जन्मतिथि पर प्रगतिशील लेखक संघ की इंदौर इकाई ने 1 अप्रैल 2011 को उनकी कविताओं का पाठ और परिचर्चा का आयोजन किया। इसके पूर्व केदारनाथ की कविताओं पर गोविंदनगर खारचा और मजदूर भवन, परदेशीपुरा में भी छोटी-छोटी गोष्ठियाँ आयोजित हुईं।



कवि केदारनाथ अग्रवाल  

केदारनाथ जनकवि थे। वे कबीर की तरह सरल शब्दों में गूढ़ बातों को कह जाते थे। जीवन में संघर्ष की प्रेरणा देते थे। उनकी कविताएँ आम मेहनतकश की जिंदगी की तरह सीधी और शोषकों के लिए तीखी धार वाली होती थीं। बाँदा जैसी छोटी जगह पर ही जीवन भर रहने के बावजूद उनकी दृष्टि विश्व भर पर रहती थी।

वे जितने अच्छे से दुनिया के सर्वहारा वर्ग को पहचानते थे, उतनी ही साफ पहचान उन्हें दुनिया भर के शोषकों की भी थी। एक कविता ‘अमरीका से’में कहते हैं ‘भारत की सूनी हाटों में छा जाओगे, धोखे के धंधे में कूड़ा दे जाओगे, दीनों के हाथों का सोना ले जाओगे। जल्दी-जल्दी दिल्ली को न्यूयार्क करोगे,शासन की डोरी खींचोगे वार करोगे, भोली जनता का पूरा संहार करोगे।” परिचर्चा में कहा गया कि केदारनाथ जी ने आजादी के पहले से ही साम्राज्यवाद की चाल को पहचान लिया था।

परिचर्चा में एस.के.दुबे, अशोक दुबे, अलीम खान, हरेन्द्र चौहान, मोहन ठाकुर, सचिन प्रजापत, शारदा बहन ने भाग लिया। इस अवसर पर कृष्णकांत निलोसे, विनीत तिवारी, अभय नेमा, विनोद बंडावाला ने केदारजी की चुनिंदा रचनाओं का पाठ किया। केदारजी की कविताएँ - आग लगे इस रामराज में, जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ, हे मेरी तुम, वीरांगना, हमारी जिंदगी के दिन, कुछ नहीं कर पा रहे तुम, दुःख ने मुझको, आओ बैठो इसी रेत पर आदि कविताओं का पाठ किया गया।



निशाने पर लेखक

स्वर्गीय कमला प्रसाद को बिना उनकी स्वीकृति के अचेतावस्था में डीजीपी विश्वरंजन द्वारा प्रमोद वर्मा स्मृति पुरस्कार देने की घोषणा करना  असहमति के साथ कायरता है...

नवीन पाठक

छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन की अपने इरादों में अटल रहने के लिए तारीफ करनी होगी। उन्होंने लेखकों और विशेषकर वामपंथी लेखकों को निशाने पर रखा हुआ है। कहा नहीं जा सकता कौन कब उनका शिकार हो जाए। गनीमत है कि यह निशाना बंदूक का नहीं है। फिलहाल विश्वरंजन का नवीनतम शिकार दिवंगत कमला प्रसाद हुए हैं।

विश्वरंजन ने इस वर्ष का 21हजार का प्रमोद वर्मा पुरस्कार,जो महानिदेशक के एक जेबी संगठन द्वारा दिया जाता है,ऐसे समय में कमला प्रसाद के नाम घोषित किया जब वह अचेतावस्था में थे। साफ है कि इसमें कमला जी की कोई सहमति नहीं ली गई थी। इसके अलावा इस पुरस्कार की घोषणा जुलाई में होनी चाहिए थी,जैसा कि अब तक होता रहा है। वैसे भी दो वर्ष पूर्व आयोजित हुए पहले प्रमोद वर्मा पुरस्कार आयोजन के बाद कोई भी वामपंथी हिंदी लेखक इस संस्था के आयोजनों में भाग नहीं ले रहा है।

चिदंबरम और  विश्वरंजन  : सर जी अब किधर विकास कराऊँ

 वामपंथी लेखक संगठनों को पहले समारोह में भाग लेने के लिए जबर्दस्त आलोचना का शिकार होना पड़ा था। कुछ संगठनों ने तो इस आयोजन में भाग लेने के लिए अपने सदस्यों के खिलाफ अनु-शासनात्मक कार्रवाही भी की। गत वर्ष हंस की गोष्ठी में विश्वरंजन के बुलाए जाने को लेकर भी जबर्दस्त विवाद हुआ था और अंतत: विरोध को भांप कर वह नहीं आए थे। इस विरोध का मूल कारण विश्वरंजन का छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक होने के नाते वहां किए जा रहे मानवाधिकार हनन के मामलों से रहा है।

विश्वरंजन इस दमन को माओवाद के उन्मूलन के नाम पर सही ठहराते रहे हैं। केंद्रीय सुरक्षा बल के महानिदेशक विजय रमन ने तो उन पर सीधा ही आरोप लगाया था कि वह आपरेशन ग्रीन हंट के लिए जिम्मेदार हैं। सलवा जुडुम और कोया के कमांडो, जो कि आदिवासियों से ही बनाए गए उप पुलिस बल हैं, उन्हीं की देखरेख में तैयार किए गए हैं।

पर इस बीच कमला प्रसाद के बेटे परितोष पांडेय ने अपने पिता की मृत्यु के बाद जो वक्तव्य जारी किया वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। परितोष के अनुसार,‘मेरे पिता जिन मूल्यों की लड़ाई लड़ रहे थे और उनकी जो प्रतिबद्धता थी,उसकी रोशनी में हमें यह पुरस्कार स्वीकार्य नहीं होगा। जिस व्यक्ति के नेतृत्व में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान चल रहा है, उसका संबंध सलवा जुडुम में सरकारी तंत्र के तहत मानवाधिकारों के हनन से है। इसके अलावा मेरे पिता क्योंकि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय महामंत्री पद पर थे, इसलिए यह फैसला भी मैं और मेरा परिवार प्रगतिशील लेखक संघ के नेतृत्व पर छोड़ते हैं।’

जहां तक प्रगतिशील लेखक संघ का सवाल है उसके पदाधिकारी पहले से ही इस पुरस्कार की घोषणा का विरोध कर रहे थे और लगातार कह रहे थे कि वे इस पुरस्कार को स्वीकार करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं हैं।

जलाये गए घरों को देखती जाँच टीम                फोटो-चन्द्रिका

असल में जो बात परितोष पांडेय ने अपने वक्तव्य में कही है उसकी पुष्टि लगभग उसी के समानांतर घट रही घटनाओं से होती है। कमला प्रसाद की तबियत गंभीर हो जाने पर 21मार्च को उन्हें दिल्ली लाया गया था और उसी के साथ दंतेवाड़ा में दस दिन पूर्व हुई बर्बर घटनाओं का भयावह सत्य सामने आने लगा था। विडंबना यह है कि दिल्ली के अखबारों में ये रिपोर्टें ऐन उसी दिन प्रकाशित होनी शुरू हुईं,जिस दिन कमला प्रसाद को प्रमोद वर्मा स्मृति आलोचना सम्मान देने की रायपुर में घोषणा हुई।

ग्यारह  मार्च को एसपीओ और सुरक्षा बालों के जवानों ने  दंतेवाड़ा जिले के चिंतलनार पुलिस कैंप के 15 किलोमीटर के दायरे में कोबरा व अन्य पुलिस बलों के 350जवानों के साथ मिल कर तीन गांवों के करीब  तीन सौ घरों को फूंक दिया था. उनके साल भर के लिए जमा अनाज को जलाया और कई औरतों के साथ बलात्कार किया। ये इन बलों के चरित्र को, जिन्हें विश्वरंजन का पूरा समर्थन प्राप्त है, एक बार फिर से स्पष्ट कर देता है।

ऐसे में सवाल  यह है कि आखिर विश्वरंजन लेखकों,विशेषकर वामपंथी लेखकों को क्यों पोटना चाहते हैं? इसलिए कि अपने मानवाधिकार हनन के कारनामों पर पर्दा डाल, लेखक समाज में प्रतिष्ठा पा सकें? और माओवाद के नाम पर चल रहे दमन में वामपंथी लेखकों व संगठनों का राज्य सरकार के लिए समर्थन जुटा सकें?  इस समय उनका विरोध करनेवालों में सबसे मुखर युवा वामपंथी लेखक ही हैं। उन्हीं के दबाव में वामपंथी लेखक संगठनों को विश्वरंजन का साथ छोडऩा पड़ा है।


(जनपक्षधर मासिक पत्रिका समयांतर से साभार और संपादित )