May 28, 2011

आत्मसमपर्ण की कीमत पर बना संविधान किसका होगा ?

आज 28 मई को नेपाल की संविधान सभा का दूसरा कार्यकाल समाप्त हो रहा है. संविधान सभा का गठन 2008 में हुआ था, जिसमें नेपाल की माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है. सभा ने अपनी पहली बैठक में नेपाल को गणराज्य घोषित किया था. सभा का उद्देश्य नेपाल गणराज्य का संविधान लिखना था और माओवादी पार्टी के साथ हुए  समझौते के तहत शांतिप्रक्रिया को पूरा करना था. लेकिन ऐसा अब तक नहीं हो सका है. पिछली बार ऐसी ही परिस्थितियों में इस विश्वास के साथ संविधान सभा के कार्यकाल को बढाया गया था कि वहां की पार्टियाँ आपसी सहमती से एक वर्ष के अन्दर संविधान लिख लेंगी, मगर  ऐसा नहीं हो सका. इसका मुख्य कारण अन्य पार्टियों  का माओवादी पार्टी पर भरोसा न करना रहा. हालाँकि इस पार्टी ने वह सब किया जिसका भरोसा इसने दिलाया था. फिर भी माओवादियों पर  राष्ट्रीय और अन्तराष्ट्रीय स्तर पर दवाब बनाया गया. इस दवाब ने पार्टी के भीतर विवाद को पैदा किया और पार्टी ‘दबाव में झुकने वाले’ और ‘न झुकने वाले’ दो गुटों में बंट  गई. पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड साल भर दो ध्रुवों के बीच झूलते रहे. प्रस्तुत लेख पार्टी के भीतर चली इस बहस से रूबरू करता है और माओवादी पार्टी की आगामी कार्यदिशाको समझने का  प्रयास करता है. जनज्वार में हमारी कोशिश रही है  कि  हम दोनों पक्षों को प्रस्तुत करने का प्रयास करें  ताकि हमारे पाठक अपने पड़ोसी  देश के राजनीतिक हालत से परिचित होकर अपना नजरिया बना सकें... मॉडरेटर  

बहुमत भले ही प्रचण्ड के साथ हो पर वे नहीं चाहते कि खुले रुप से आत्मसमर्पण का सन्देश पार्टी और पीएलए में जाये । उससे उनकी ही लाइन के समर्थक भी पार्टी और पीएलए के लोगों के भड्कने का खतरा है....

लक्ष्मण पन्त

कम्युनिस्ट  पार्टियों के भीतर रणनीति को लेकर कोई मतभेद नहीं होते, पर रणकौशल या टैक्टिस को लेकर कई बार गहरे मतभेद होते हैं । रणकौशल के भीतर भी तात्कालिक कार्य योजना को लेकर बहस तीखा होता है । माओवादी  विचारधारा को मानने वाली सभी पार्टियाँ निर्विवाद रुप से जनवाद को अपना न्युनतम कार्यक्रम और समाजवाद को अधिकतम कार्यक्रम मानती हैं और उसे हासिल करने के लिए सशस्त्रसंघर्ष, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व और निरन्तर क्रान्ति के तीन सिद्धान्तों को स्वीकार करती है। सशस्त्र संघर्ष की तैयारी और शुरुआत पार्टी के रणकौशल और उस पर आधारित तात्कालिक कार्य योजना का प्रमुख हिस्सा हो या फिर आत्मगत तयारी के लिए एक स्तर तक संसदीय दायरे मे सुधारवादी आन्दोलन को प्रधान कार्यभार बनाया जाये और स्थिति अनुकुल होने पर लोकयुद्ध छेडा जाये  – इस बात पर भी माओवाद मानने वाली पार्टियों मे मतभेद रहे हैं ।

नेपाल में 1996 में जनयुद्ध आरम्भ होने से पहले इन सारे सवालों पर तीखी बहस हुई  । पार्टी का एक तबका मानता था कि सशस्त्र संघर्ष को स्वीकारना , लेकिन उसे पार्टी के व्यावहारिक काम का प्रधान हिस्सा न बनाना छद्म संशोधनवाद है ।  इसलिए पार्टी को आरम्भ से ही जनयुद्ध की तैयारी में लगना चाहिए और गावों को अपने काम का आधार बनाना चाहिए । दूसरा हिस्से का मानना था कि नेपाल में दिर्घकालीन जनयुद्ध के जरिये नहीं बल्कि आम सशस्त्र विद्रोह के जरिये क्रान्ति होगी ।  उसके हिसाब से पार्टी को अपने काम का आधार गाँव नही बल्कि शहर को बनाना चाहिए  और संविधान के दायरे में रहकर एक स्तर तक जन आन्दोलनों को आगे बढाना चाहिए । यह दूसरी लाइन पार्टी में अल्पमत में थी । पार्टी का बहुसंख्यक हिस्सा जनयुद्ध के पक्ष में था । इसके बाद 1996 से औपचारिक रुप से जनयुद्ध का आरम्भ हुआ ।

जनयुद्ध का मकसद केवल राजतन्त्र का खात्मा ही नहीं था । उसका उद्देश्य जनवादी क्रान्ति सम्पन्न कर समाजवाद की ओर प्रस्थान था । संविधान सभा और राजतन्त्र के खात्मे के बाद गणतन्त्र की स्थापना का नारा पार्टी का रणकौशलात्मक नारा था जिसके जरिये जनवादी क्रान्ति को सम्पन्न  किया जाना था । यह नारा  २००५ की पार्टी की केन्द्रीय कमेटी की  चुनवाङ मीटिंग ने पास किया था । इसका उद्देश्य था :  शहरिया मध्यवर्ग को आकर्षित करना, क्रान्तिके घेरे का  विस्तार करना और निरंकुश राजशाही का अन्त कर जनवादी क्रान्ति के लिए मार्ग प्रशस्त करना । इस तात्कालिक राजनैतिक कार्ययोजना को अमल मे लाने के लिए पार्टी ने युद्ध विराम घोषित किया । शान्ति वार्ता में पार्टी आगे बढी । आगे चलकर जनमुक्ति सेना को शिविरों मे रखा गया ।

तब पार्टी के भीतर यह बहस कड़ी हुई   कि फौजी हिसाब से रणनीतिक प्रत्याक्रमण को  सफल कर देश के बाकी बचे भूभाग पर कैसे क्रान्तिकारी काबिज होंगे । ध्यान रहे कि पार्टी ने 2008 में ही जनयुद्ध ‘रणनैतिक प्रत्याक्रमण’ याने अपने अन्तिम चरण मे प्रवेश होने की घोषणा की थी ।  ‘पीठ पर सवार होकर सर पर वार करने’  की सैन्य योजना में  प्रवेश करने की बात की थी । इस तरह संविधान सभा और गणतन्त्र पार्टी का तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम था  और ‘जनयुद्धमें शहरिया जनविद्रोह का समायोजन कर रणनैतिक प्रत्याक्रमण को सफल करना’ पार्टी का फौजी कार्यक्रम था  । नेतृत्व की ओर से उस समय होनेवाले प्रशिक्षणों मे लगातार इसी बात पर जोर दिया जाता रहा । पार्टी  शान्ति प्रक्रिया को जनयुद्ध की ही निरन्तरता में देखती थी ।

इस बीच अप्रैल 2008 में संविधान सभा हासिल हुई ।  उसी साल राजतन्त्र का खात्मा हुआ । तब से पार्टी के भीतर संविधान सभा को साधन के बजाये साध्य समझने और लोकतान्त्रिक गणतन्त्र को जनवादी गणतन्त्र के रुप मे पेश करने की प्रवृत्ति उभरने लगी ।  यह प्रवृत्ति ढाईसाल पहले सम्पन्न पार्टी की खरीपाटी प्लेनम मे क. प्रचण्ड की ओर से  लाइन के रुप में पेश हुई । क. किरण ने खरीपाटी प्लेनम मे दूसरा दस्तावेज पेश किया जिसमें जनविद्रोह के जरिये जनवादी गणतन्त्र  हासिल करने पर जोर दिया गया । खरीपाटी ने चुनवांग की कार्यदिशा बदल दी और जनविद्रोह के जरिये जनता का संघीय गणतन्त्र हासिल करना पार्टी का आधिकारिक लाइन बन गया ।  

पार्टी ने लोकतान्त्रिक गणतन्त्र को बुर्जुवा और प्रतिक्रियावादी गणतन्त्र घोषित किया । क. किरण की इस लाइन पर, से ही सही  प्रचण्ड और बाबुराम सहमत दीखे ।  बीते ढाई साल में पार्टीके भीतर का अन्तरविरोध इस बात पर केन्द्रित था कि क्रान्तिकारी कार्यदिशा तय होने के बावजुद उसका व्यवहार में अमल क्यों नहीं हो पा रहा है  । पार्टी के मुख्यनेता में हावी  सार संग्रहवादी चिन्तन का ही परिणाम था कि एक तरफ तो विद्रोह, क्रान्ति और वर्ग संघर्ष  की बात होने लगी  वहीं दूसरी ओर  व्यवहार में सुधार और वर्ग समन्वय पर जोर दिया जाने लगा.  यानी पार्टी के मुख्य नेतृत्व की कथनी कुछ और करनी कुछ होती रही  । नेतृत्व के शब्द और कर्म में कोई तालमेल नहीं दिखा ।

खरीपाटी प्लेनम के ठीक दो साल बाद  नवम्बर २०१० में पार्टी का छठवा प्लेनम पालूंडटार में   हुआ। इस प्लेनम में किरण, प्रचण्ड और बाबुराम ने अलग अलग दस्तावेज पेश किये ।  बाबुराम के दस्तावेज में  शान्ति और संविधान पर जोर दिया गया था । कहा गया कि आज की ‘राष्ट्रिय और अन्तर्राष्ट्रिय वर्ग और राजनीतिक सन्तुलन’  की स्थिति में जनविद्रोह की बात करना आत्मघाती होगा । किरण ने जनयुद्ध और  जनविद्रोह के समायोजन के जरिये ‘चार तैयारी’  और ‘चार आधार’  निर्माण और नये ढंग की पार्टी निर्माण  करते हुए आगे बढने की बात रखी  । किरण की धारणा थी कि जनयुद्ध की नींव पर और गांवो को आधार बनाकर ही शहरी आम विद्रोह सम्पन्न हो सकता है। उन्होने माओवादी पार्टी और  राजनीतिक दलों  और सरकार के साथ हुए विस्तृतशान्ति समझौते  में ‘जनयुद्ध के अन्त होने’ की घोषणा, ‘स्थानीय सत्ता के विघटन’ की घोषणा को भी गलत बताते हुए चुनवाङ की लाइन की समीक्षा की मांग  उठाई । उल्लेखनीय है कि चुनवाङ मीटिंग के दौरान किरण भारतीय जेल में थे । 

प्रस्तुत दस्तावेज में उन्होंने  राष्ट्रियता के पक्ष में संघर्ष का विकास करने और विद्रोह की तैयारी के लिए शान्ति और संविधान का फ्रण्ट भी उपयोग करने पर जोर दिया ।  किरण ने कहा कि देश में विद्यमान राजनीतिक संकट को क्रान्तिकारी संकट की ओर ले जाने के लिए सचेत प्रयास जरुरी है ।  बाबुराम  का मानना था कि ‘शान्ति और संविधान’  को सफल बनाकर नेपाल मे ‘मौलिक तरीके’ से शान्तिपुर्ण ढंग से क्रान्ति होने की सम्भावना है । प्रचण्ड ने शान्ति,  संविधान और विद्रोह दोनों कार्यभारों को अपने दस्तावेजमें  गोलमोल भाषा में पेश किया ।  अर्थात् दस्तावेज में उनकी कोई अपनी सुस्पष्ट लाइन नहीं थी ।   प्लेनम के आखिर आखिर में बोलते हुए  प्रचण्ड ने कहा था कि बाबुराम की कार्यदिशा पार्टी को सुधारवाद की ओर ले जायेगी ।  उनका यह भी कहना था कि किरण और उनके विचार एक दूसरे से मिलते है । इस तरह पालुङटार प्लेनम ने जनविद्रोह की लाइन पर मोहर लगा दी । बाबुराम अल्पमत में  आ गए ।

प्रचण्ड के जनविद्रोह की लाइन स्वीकारने के बावजुद यह सवाल ज्यों का त्यों बना रहा कि  क्या उन्होंने  इस  लाइन को गम्भीरता से आत्मसात किया है ? दो साल पहले खरीपाटी प्लेनम में भी उन्होंने ‘जनपक्षीय लोकतान्त्रिक गणतन्त्र’ का अपना पोजिशन बदलकर ‘जनता का संघीय गणतन्त्र’ का  किरण का पोजिशन लिया था और सशस्त्र जनविद्रोह के जरिये उसे हासिल करने पर वे सहमत हुए थे, पर उस कार्य योजना के अमल में वे उदासीन दिखे । पालुङटार के बाद भी प्रचण्ड का दोहरे मानक लगातार प्रकट हुए  । एक ओर  तोवे पार्टी के एक हिस्से के साथ  ‘विद्रोह को किसी भी कीमत पर सफल बनाने’की  बात करते रहे और दूसरे हिस्से के साथ  ‘शान्ति औरसंविधान को हर हाल में पूरा करने’  की  बात करते रहे ।  इसीबीच वे १६ मार्च को अचानक सिंगापुर के लिए रवाना हुए ।

अप्रैल में  प्रचण्डने आनन फानन में पार्टी की पोलित  ब्यूरो की बैठक बुलाई । उन्होंने  बैठक में  अपना एक डाकुमेंट पेश किया ।  दस्तावेज में उन्होंने ‘सेना समायोजन कर शान्तिप्रक्रिया को पुरा करने’  और ‘कांग्रेस और एमाले से मिल कर संविधान का एकीकृत प्रारुप जारी करने’ पर जोर दिया  । उनका यह कहना था कि ऐसा न करने पर संविधान सभा भंग होगी, सेना या राष्ट्रपति अपने हाथ में शासन ले लेंगे , प्रतिविद्रोह होगा और क्रान्ति की उपलब्धियाँ समाप्त हो जायेंगी । इसके कारण में  उन्होंने लिखा कि २८ मई तक देश में विद्यमान राजनीतिक संकट का क्रान्तिकारी संकट मे बदलने के कोई आसार नहीं है, पार्टी के भीतर विभाजन है इन हालातों मे प्रचण्ड का कहना है कि विद्रोह सम्पन्न नही हो सकता। इसलिए सेना समायोजन करने और  मिलकर संविधान लिखनेके आलावा  कोई विकल्प नहींहै  । यानी  क्रान्ति की उपलब्धियों की रक्षा के  नाम पर क्रान्ति की सबसे बडी उपलब्धि – जनमुक्ति  सेना और हथियार– का प्रतिक्रियावादियो के हाथों सौंप देना! यह  क. प्रचण्ड का गजब का मार्क्सवाद है जो आत्मसमर्पण को  रक्षा मान बैठते हैं । प्रचण्ड के प्रस्ताव के पक्ष में लगभग 95 केंद्रीय समिति सदस्यों ने अपना समर्थन दिया ।

किरण ने मीटिंग में अपना अलग दस्तावेज पेश किया । किरण ने कहा कि प्रचण्ड का प्रस्ताव पार्टी को दक्षिणपन्थी संशोधनवाद और राष्ट्रीय  आत्मसमर्पणवाद की ओर ले जायेगा । किरण को 50 के करीब केंद्रीय समिति सदस्यों का समर्थन मिला । कहने की जरुरत नहीं कि प्रचण्ड के इस प्रस्ताव की भारत की सत्ता के गलियारों मे काफी वाहवाही हुई । नेपाली कांग्रेस और एमाले के कुछेक नेताओं ने तो यहाँ तक  कह डाला  कि  ‘प्रचण्डका कदम एक साहसिक कदम है अगर वे इस पर कार्यान्वयन करते है तो उनको सरकार का जिम्मा देने में कोई हिचक नहीं होना चाहिए ।’

अपना प्रस्ताव पारित होने के तुरन्त बाद प्रचण्ड ने पत्रकारों से कहा कि उन्होने बहुत बडा जोखिम मोल कर यह प्रस्ताव लाया है । काठमाडौं में  अमेरिकी राजदुत स्काट डेलीसी ने क. बाबुराम भट्टाराई   से पार्टी की केंद्रीय समिति बैठक खत्म होने के तुरन्त बाद  २९ अप्रेल को  भेंट की । उन्होंने बताया कि अमेरिका माओवादियों को आतंकवादियों की सुची से हटाने पर विचार कर रहा है । प्रत्युत्तर में  भट्टाराई ने कहा कि उनकी पार्टी अन्य राजनीतिक दलों से सहमति कायम कर आगे बढेगी। बाबुराम – डेलिसी भेंट के बारे में  यह बात भी चर्चा में रही  कि डेलिसी ने बाबुराम को प्रचण्ड को अपनी लाइन मे सहमत करवाने मे सफल होने के लिए धन्यवाद दिया ।

प्रचण्ड का  प्रस्ताव केन्द्रीय समिति में बहुमत से पारित हुआ । उसके कुछ दिनों बाद सीसी की स्थायी कमेटी की बैठक ने १६: ५ के भारी अन्तर से जनमुक्ति सेना को नेपाली सेना के मातहत समायोजन करनेका निर्णय ले लिया । वैसे पार्टी की नीति सेना समायोजन के बारे मे यह रही है कि जन सेना   और नेपाली सेना को मिलाकर राष्ट्रीय सेना का निर्माण किया जायेगा ।  सेना समायोजन और संविधान लिखने का काम एक साथ सम्पन्न किया जायेगा । पार्टी की नीति रही है कि पीएलए का आत्मसमर्पण नही होने दिया जायेगा  बल्कि विद्रोह और क्रान्तिको सम्पन्न करने के लिए  उसका एक मुख्य साधन के रुप मे विकास किया जायेगा। सेना का समायोजन तब तक नहीं  होगा जब तक उसका नेतृत्व पीएलए के पास नहीं होगा । अब कांग्रेस और एमाले का जोर इस बात पर है कि पीएलए के हथियार तुरन्त आज  28 मई तक नेपाली सेना को सौंप दें  ।

संविधानसभा का एक वर्ष के लिए बढाया गया कार्यकाल आज यानी  28 मई को समाप्त हो रहा है । अन्तरिम संविधान में  दो तिहाई के समर्थन से ही संविधानसभा की अवधि बढाई जा सकती है । एमाले के नेतृत्व में बनी वर्तमान माओवादी सम्मिलित  सरकार के पास दो तिहाई का आंकडा नहीं  है ।नेपाली कांग्रेस सहित अन्य १७ पार्टियाँ सरकार के विपक्ष में है । नेपाली कांग्रेस और अन्य दलों ने संविधान सभा का कार्यकाल बढाने के लिए    पीएलए के हथियारों को 28 मई कल तक सरकार को सौंपने की मांग  माओवादियों  के सामने रखी है । वैसे तो पार्टी स्थायी समिति के बहुमत ने पीएलए को नेपाली सेना के नेतृत्व में सौपने का निर्णय ले ही लिया है । किरण सहित अन्य पाँच स्थायी समिति मेम्बर्स ने उसमे अपनी असहमित दर्जकी है ।

बहुमत भले ही प्रचण्ड के साथ हो पर वे नहीं चाहते कि खुले रुप से आत्मसमर्पण का सन्देश पार्टी और पीएलए में  जाये । उससे उनकी ही लाइन के समर्थक भी पार्टी और पीएलए के लोगों के भड्कने का खतरा है । आज से पाँच साल पहले विस्तृत शान्ति समझौते   में जनयुद्धके अन्त और स्थानीय सत्ता के विघटन करने के समझौते   में प्रचण्ड बाबुराम ने हस्ताक्षर किए थे । पर आज के हालातों मे वे मनमर्जी के समझौते करने के पोजिशन में नहीं हैं ।  नीचलेस्तर पर पार्टी और सेना में क्रान्तिकारियों का बहुमत है । पार्टी के भीतर क्रान्तिकारियों के सामने पार्टी को बचाने या क्रान्ति को बचाने दो विकल्प  ही बचे हैं । जाहिर है कि आखिर में क्रान्तिकारी हिस्सा क्रान्ति को ही बचाने का फैसला लेगा ।




नेपाली जनाधिकार सुरक्षा समिति (भारत)  के पूर्व अध्यक्ष.