Jun 24, 2011

स्लट वॉक अर्थात बेशर्मी मोर्चा का पहला प्रदर्शन जुलाई में


भारत में महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर का तमगा हासिल कर चुकी दिल्ली में 25जून को आयोजित होने वाला स्लट वाक अर्थात बेशर्मी मोर्चा का पहला प्रदर्शन अब जुलाई के पहले सप्ताह में होने की संभावना है...

विभा सचदेव

लड़कियों के छोटे कपड़े मर्दों को उत्तेजित करते हैं और वह लड़कियां ऐसे कपड़े पहनकर खुद ही बलात्कार और छेड़छाड़ को आमंत्रित करती हैं,जैसे तर्क आमतौर पर सार्वजनिक स्थलों पर सुनने को मिल जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब बलात्कार के खिलाफ कार्यवाही करने वाली संस्थाएं भी इसी तरह का तर्क देती हैं। लेकिन अब इस एकतरफा मर्दाना समझ पर लगाम की तैयारी शुरू हो गयी। इस मर्दाना सोच को चुनौती देने के लिए अगले महीने दिल्ली विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की छात्रा उमंग सबरवाल के नेतृत्व में भारत में पहला बेशर्मी मोर्चा का प्रदर्शन दिल्ली के कनॉट प्लेस इलाके में होने वाला है। गौरतलब है कि स्लट शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर मर्द उन औरतों के लिए करते हैं, जिन्हें वह बदचलन मानते हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा अर्पणा शर्मा कहती हैं,‘आखिरकार इस असुरक्षित शहर में हमारी आजादी के लिए कुछ तो होने जा रहा है। मैंने तो 25 जून को दिल्ली के कनॉट प्लेस में आयोजित होने वाले बेशर्मी मार्चा में शामिल होने के लिए आलमारी से सबसे छोटे कपड़े विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिये निकाले थे, मगर वह टल गया है।’ क्यों टला होगा, के सवाल पर अर्पणा कहती हैं, ‘जहां तक मुझे पता है नैतिकता के चौधरियों, जिसमें सरकार भी शामिल है, उसी का दवाब है।’

जनवरी2011में कनाडा के एक पुलिस अधिकारी द्वारा लड़कियों को यौन उत्पीड़न से बचने के लिए ‘कुलटा की तरह कपड़े’ न पहनने के सुझाव से इस विरोध की शुरुआत इस वर्ष टोरंटों शहर से हुई। पुलिस अधिकारी के सुझाव के विरोध में कनाड़ा की सड़के ‘हमें नहीं बलात्कारी को सजा दो’, ‘हम चाहे जो पहने, हमारी न का मतलब न है’ नारों से गूंज उठी। उसके बाद लंदन में ी लगग 5000 महिलाओं ने कम कपड़े पहनकर सड़क पर उतर कर ‘स्लट वॉक’का आगाज किया गया। केवल कनाडा और लंदन नहीं दुनिया के सी बड़े शहरों में ‘स्लट वॉक’ की आग देखने को मिली रही है और अब भारत की बारी है। इस मार्च में शामिल लड़कियां और महिलाएं वह कपड़े पहनती हैं, जिन्हें समाज नैतिकता के आधार पर पहनने की इजाजत नहीं देता और पहनने वालों को बदचलन कहने से गुरेज नहीं करता।

अगर एक आम व्यक्ति इस स्लट वॉक के बारे में सुनेगा तो उसकी धारणा कुछ अलग ही होगी। लेकिन वह यह अनुमान कभी  नहीं लगा पायेगा कि यह महिलाओं द्वारा छेड़ा गया एक सामाजिक आंदोलन है। भ्रष्टाचार   से लड़ने के लिए छेड़ा गया ‘फाइट अगेंस्ट करप्शन’, भूमि  अधिग्रहण को रोकने के लिए चला भूमि अधिग्रहण प्रतिरोध आंदोलन’तो सुना है लेकिन बेशर्मो को सबक सिखाने के लिए खुद ही बेशर्म मोर्चा बना देना पहली बार देखा गया है।

देह का व्यापार करने वाली महिलाओं के लिए प्रयोग किया जाने वाला यह अपमानजनक शब्द ‘स्लट’ का प्रयोग इन संघर्ष में शामिल महिलाओं द्वारा उन पुरुषों के मुंह पर तमाचा मारने के लिए किया गया जो   कभी किसी  लड़की को स्लट कहने में नहीं हिचकिचाते। भारत में इस विरोध प्रदर्शन का नाम बदलकर ‘बेशर्मी मोर्चो’ कर दिया गया है, क्योंकि यहां पर बहुत से पुरुष ऐसे मौजूद है जो इस शब्द का मतलब तक नहीं जानते, लेकिन उनके शब्दकोष में और ऐसे कई अपमानजनक शब्द मौजूद है जो किसी भी महिला को अपमानित करने के लिए काफी हैं।

महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक माने गये देशों की सूची में देश की राजधानी दिल्ली को चौथा स्थान प्राप्त है और भारत के असुरक्षित शहरों में पहला. यह वही शहर है जहां बलात्कार की घटनाओं के बाद लोगों को कहते सुना जाता है कि ‘ताली एक हाथ से नहीं बजती,उस लड़की ने भी  कुछ न कुछ जरूर किया होगा’। प्रदेश की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का ऐसी घटनाएं कैसे रूकें पर राय है कि ‘लड़कियों को रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए।’ सवाल है की क्या यह उपाय स्त्रियों को दोयम नागरिक बनाये रखने की ही साजिश नहीं है.

उसके बाद बारी आती है कार्ट की। कोर्ट में लड़की के चरित्र को लेकर बहस होती है और अगर किसी कारणों से एक पक्ष लड़की के चरित्र के साथ बदचलन शब्द लगाने में कामयाब हो जाता है तो पूरे केस का रुख ही बदल जाता है और पुरुष द्वारा किया गया अपराध, अपराध नहीं रह जाता। इसका मतलब यह है कि अगर लड़की का चरित्र साफ नहीं है तो कोई भी  उसके साथ कुछ ी कर सकता है। भारतीय मानसिकता के मुताबिक तो अगर लड़की छोटे कपड़े पहनकर घर से निकलती है तो उसका चरित्र ठीक होता।
दिल्ली की सड़कों का हाल तो कुछ इस तरह है कि अगर कोई लड़की छोटे कपड़े पहनकर निकलती है तो आस-पास चल रहे लोग उसको ऊपर से नीचे तक देखते हैं और झट से उनके मुंह से एक ही वाक्य निकलता है, ‘फिर कहेंगी हमारा रेप हो गया।’ ऐसे में शुक्र मनाना चाहिए कि आखिर किसी ने तो इसकी शुरूआत की और सड़ांध मार रही मानसिकता पर सवाल उठाया है। लेकिन इस विरोध आंदोलन की सफलता को लेकर एक सवाल अभी भी जेहन में है कि क्या भा रत में भी इस आंदोलन को उसी तरह समर्थन मिल पायेगा, जिस तरह विदेश में मिला है।

भारत की संस्कृति,मानसिकता और रहन-सहन सब कुछ बिलकुल अलग है। देश की सड़कों पर जब लड़कियां अर्धनग्न रूप में विरोध करते हुए उतरेगी तो यहां के लोगों का क्या रवैया होगा। क्योंकि यहां के मर्दो के इस ‘बेशर्मी मोर्चा’को लेकर अपमानजनक तर्क को अभी से आने शुरू हो गये हैं, और मर्द कहने लगे हैं कि ‘वी आर रेडी टू सी स्लटस ऑन दा रोड’।


पुणे स्थित इंटरनेशनल स्कूल ऑफ़ ब्रोडकास्टिंग एंड जर्नलिज्म से इसी वर्ष पत्रकारिता कर लेखन की शुरुआत.  सामाजिक विषयों और फ़िल्मी लेखन में रूची.


फोर्ड फाउंडेशन का सीआइए गठजोड़ और भारत के जनांदोलनों में घुसपैठ


'वर्ल्ड सोशल फोरम की राजनीति और अर्थशास्त्र, भूमंडलीकरण के खिलाफ संघर्ष के लिए सबक' नाम से www.globalresearch.ca पर उपलब्ध लम्बे पर्चे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अनुदित कर यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है. सामाजिक- राजनीतिक और सांस्कृतिक आंदोलनों से जुड़े लोगों के लिए यह एक जरुरी मसविदा है जो बताने के लिए काफी है कि स्वयंसेवी संगठनों ( NGOs) के जरिये किये जा रहे सामाजिक बदलावों के संघर्षों का असल राजनीतिक अर्थशास्त्र क्या है, फोर्ड फाउन्डेशन जैसे दानदाताओं के पीछे असल साम्राज्यवादी मंशा क्या है. यह पर्चा  2003   मुंबई में आयोजित वर्ल्ड सोशल फोरम के समय प्रकाश में आया था...
अनुवाद - राजेश चन्द्र
 
 
फोर्ड फाउनडेशन-विदेशी फंडिंग के परिप्रेक्ष्य में एक अध्ययन

"कभी न कभी कोई फोर्ड फाउनडेशन द्वारा भारत में किए जा रहे कार्यों का ब्योरा ज़रूर अमरीकी जनता के सामने रखेगा। देश में फोर्ड फाउनडेशन का कुछ लाख डॉलर में आने वाला कुल खर्च इस कहानी का दसवां हिस्सा भी शायद ही बयान कर सके"- चेस्टर बाउलन (भारत में पूर्व अमरीकी राजदूत)।

फोर्ड फाउनडेशन द्वारा विश्व सामाजिक मंच को दिए जा रहे अकूत धन के प्रवाह ने इस संस्थान की पृष्ठभूमि और इसकी वैश्विक गतिविधियों को जगजाहिर कर दिया है। यह न सिर्फ़ इसके बल्कि इस जैसी दूसरी संस्थाओं के अध्ययन की दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण है। फोर्ड फाउनडेशन (एफएफ) की स्थापना 1936 में फोर्ड के विशाल साम्राज्य के हित में टैक्स बचाने की जुगत के तौर पर हुई थी, लेकिन इसकी गतिविधियाँ स्थानीय तौर पर मिशिगन के स्टेट को समर्पित थीं। 1950 में जब अमरीकी सरकार ने इसका ध्यान "कम्युनिस्ट धमकियों" से मुठभेड़ पर केंद्रित किया, फोर्ड  फाउनडेशन  एक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फाउनडेशन में तब्दील हो गया।

फोर्ड फाउनडेशन और अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी  सीआईए का गठजोड़

सच तो यह है कि अमरीका की केन्द्रीय गुप्तचर संस्था (सीआइए) लम्बे समय से अनेकानेक लोकोपकारी फाउनडेशनों (खासकर फोर्ड फाउनडेशन) के माध्यम से कार्य करती आ रही थी। जेम्स पेत्रास के शब्दों में फोर्ड और सीआईए का अंतर्सम्बंध "अमरीका के साम्राज्यवादी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद को मजबूती देने और वामपंथी राजनीतिक एवं सांस्कृतिक प्रभावों की जड़ें खोदने के लिये एक सोची-समझी और सजग संयुक्त पहलकदमी थी। " फ्रांसिस स्टोनर इस दौर पर अपने एक अध्ययन में कहते हैं - इस समय फोर्ड फाउनडेशन ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक दुष्प्रचार के क्षेत्र में सरकार का ही एक विस्तार हो। फाउनडेशन के पास इसका पूरा ब्योरा है कि उसने यूरोप में मार्शल प्लान और सीआईए अधिकारियों के विशिष्ट अभियानों में कितनी प्रतिबद्धता और अंतरंगता के साथ कार्य किया है। "

रिचर्ड बिशेल ,जो 1952 -54 के दरम्यान फाउनडेशन के प्रमुख रहे, तत्कालीन सीआईए प्रमुख एलन ड्यूल्स के साथ खुले तौर पर मिलते-जुलते रहे थे। उन्होंने फोर्ड फाउनडेशन को सीआईए की विशेष मदद के लिये प्रेरित किया। ड्यूल्स के बाद जॉन मैकक्लॉय फोर्ड के प्रमुख बने। इससे पहले का उनका कैरिअर वार (War) के सहायक सचिव, विश्व बैंक के अध्यक्ष, अधिकृत जर्मनी के उच्चायुक्त, रौकफेलर के चेज मैनहट्टन बैंक के अध्यक्ष और सात बड़ी तेल कंपनियों के वाल स्ट्रीट अटोर्नी के तौर पर काफी विख्यात रहा था। मैकक्लॉय ने सीआईए और फोर्ड की साझेदारी को तीखा किया - फाउनडेशन के अंतर्गत एक प्रशासनिक इकाई गठित की जो खास तौर से सीआईए के साथ तालमेल बिठा सके और उन्होंने निजी तौर पर भी एक परामर्शदात्री समिति का नेतृत्व किया ताकि फोर्ड फाउनडेशन फंड के लिए एक आवरण और वाहक के तौर पर अपनी भूमिका का निर्वहन कर सके। 1966 में मैक जॉर्ज बंडी , जो उस वक्त अमरीकी राष्ट्रपति के राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में विशेष सहायक थे, फोर्ड फाउनडेशन के प्रमुख बने।

यह फाउनडेशन और सीआईए के बीच एक व्यस्त और सघन साझेदारी थी। "सीआईए के बहुसंख्य "दस्तों" ने फोर्ड फाउनडेशन से भारी अनुदान प्राप्त किया। बड़ी संख्या में सीआईए प्रायोजित तथाकथित " स्वतन्त्र " सांस्कृतिक संगठनों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों ने सीआईए /फोर्ड फाउनडेशन से अनुदान प्राप्त किया। फोर्ड फाउनडेशन द्वारा दिए गए सबसे बड़े दानों में एक वह था जो सीआईए प्रायोजित सांस्कृतिक आज़ादी (स्वायत्तता ) कांग्रेस को 1960 में दिया गया था - सात मिलियन यानि सत्तर लाख डॉलर। सीआईए से जुड़कर काम करने वाले बहुतेरे लोगों को फोर्ड फाउनडेशन में पक्की नौकरी मिलती रही और यह घनिष्ठ साझेदारी परवान चढ़ती रही।"

बिशेल के अनुसार फोर्ड फाउनडेशन का मकसद "केवल इतना भर नहीं था कि वह वामपंथी बुद्धिजीवियों को वैचारिक समर में हरा दे, बल्कि यह भी था कि प्रलोभन देकर उन्हें उनकी जगह से उखाड़  दे ।"  1950 के सांस्कृतिक स्वायत्तता कांग्रेस (सीसीएफ) को सीआईए ने फोर्ड फाउनडेशन की कीप से फण्ड दिया। सीसीएफ की सबसे प्रसिद्ध गतिविधियों में से एक थी वैचारिक पत्रिका "एनकाउन्टर "। बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी जैसे बिकने को तैयार बैठे थे। सीआईए और फाउनडेशन ने विशिष्ट कलात्मक परम्पराओं, जो अमूर्त अभिव्यक्तियों पर आधारित थीं, को प्रोत्साहित करना शुरू किया - ताकि वह उस कला को जो सामाजिक सरोकारों को वाणी देती है, को कड़ी चुनौती दे सके।

अमरीकी फाउनडेशनों में सीआईए की अत्यन्त व्यापक घुसपैठ थी। अमरीकी सीनेट द्वारा 1976 में गठित एक कमिटी ने यह रहस्योद्घाटन किया कि 1973-76 के दरम्यान दस हज़ार डॉलर से अधिक के 700 अनुदान जो 164 फाउनडेशनों के माध्यम से बांटे गए थे, उनमे से 108 आंशिक तौर पर अथवा शत प्रतिशत सीआईए  पोषित थे। पेत्रास के अनुसार, "फोर्ड फाउनडेशन के शीर्ष पदाधिकारियों और अमरीकी सरकार के बीच का सम्बन्ध सुस्पष्ट है और यह जारी है। हाल के दिनों के कुछ फंडेड प्रोजेक्ट का एक अध्ययन भी साफ बताता है कि फोर्ड फाउनडेशन ने किसी भी ऐसे बड़े प्रोजेक्ट को फण्ड नहीं किया है जो अमरीकी नीतियों की खिलाफत करता हो।"
फोर्ड फाउनडेशन कबूल करता है (अपने नयी दिल्ली ऑफिस की वेबसाइट पर) कि सन् 2000 की शुरुआत में इसने 7.5 विलियन डॉलर ग्रांट के रूप में दिया है और 1999 में इस क्षेत्र में कुल मिलाकर 13 विलियन डॉलर दान में दिया है। वह यह भी दावा करता है कि "सरकारों अथवा अन्य श्रोतों से फण्ड प्राप्त नहीं करता," पर वास्तव में, जैसा कि हमने देखा है, यह एक उल्टी बात है।

फोर्ड फाउनडेशन और  भारत

फोर्ड फाउनडेशन की नई दिल्ली ऑफिस के वेब पेज के अनुसार -"भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आमंत्रण पर फाउनडेशन ने 1952 में भारत में एक ऑफिस की स्थापना की।" वास्तव में चेस्टर बाउल्स जो 1951 में भारत में अमरीका के राजदूत थे, ने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। अमरीकी विदेश नीति की स्थापना में लगे बाउल्स को गहरा धक्का तब लगा जब 'चीन हाथ से निकल गया' (राष्ट्रीय स्तर पर वहां 1949 में कम्युनिस्ट सत्ता में आ गए थे)। इसी तरह वे इस बात से भी दुखी थे कि तेलंगाना में कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुए हथियारबंद आन्दोलन को कुचलने में भरतीय सेना नाकाम रही थी (1946-51) " जब तक कि कम्युनिस्टों ने स्वयं ही हिंसा का रास्ता बदल नहीं लिया। " भारतीय किसानों की अपेक्षा थी कि अंग्रेजी राज की समाप्ति के बाद उनकी इस दीर्घकालीन मांग को पूरा किया जाएगा कि जमीन जोतने वाले को मिलनी चाहिए। और यह दबाव तेलंगाना आन्दोलन की समाप्ति के बाद भी आज भारत में हर कहीं महसूस किया जा सकता है।

पॉल हॉफमैन को जो फोर्ड फाउनडेशन के तत्कालीन अध्यक्ष थे, बाउल्स ने लिखा-"स्थितियां चीन में बदल रही हैं पर यहाँ भारतीय परिस्थितियां स्थिर हैं.....अगर आने वाले चार-पाँच वर्षों में वैषम्य बढ़ता है, या फ़िर अगर चीनी भारतीय सीमाओं को धमकाए बगैर अपना उदारवादी और तर्कसंगत रवैया बनाये रखते हैं .... भारत में कम्युनिस्म का बड़ा भारी विकास हो सकता है। नेहरू की मृत्यु अथवा उनके रिटायरमेंट के पश्चात् यदि एक अराजक स्थिति बनती है तो सम्भव है यहाँ एक ताक़तवर कम्युनिस्ट देश का जन्म हो।" हॉफमैन ने अपने विचार व्यक्त करते हुए एक मज़बूत भारतीय राज्य की जरूरत पर बल दिया -"एक मज़बूत केन्द्र सरकार का गठन होगा, उग्र कम्युनिस्टों को नियंत्रित किया जाएगा....प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को जनता तथा दूसरे स्वतंत्र (बीमार) देशों से तालमेल, सहानुभूति और मदद की अत्यन्त आवश्यकता है। "

नई दिल्ली ऑफिस फौरन स्थापित किया गया, और फोर्ड फाउनडेशन ने कहा- "यह अमरीका से बाहर फाउनडेशन का पहला कार्यक्रम है और नई दिल्ली ऑफिस इसकी क्षेत्रीय कार्रवाइयों का काफ़ी बड़ा हिस्सा पूरा करेगा। इसका प्रभाव क्षेत्र नेपाल और श्रीलंका तक व्याप्त है।

"फोर्ड फाउनडेशन की गतिविधियों का क्षेत्र तय कर दिया गया ( अमरीकी स्टेट डिपार्टमेंट द्वारा) है "- जॉर्ज रोजेन लिखते हैं ,- " हमारा अनुभव है कि एक विदेशी (अमरीकी) सरकारी एजेंसी का ...................में काम करना अत्यन्त संवेदनशील मसला है .......दक्षिण एशिया बड़ी तेजी से फाउनडेशन की गतिविधियों के लिए एक संभावित क्षेत्र के रूप में सामने आया है.........भारत और पाकिस्तान दोनों ही चीन की ज़द में हैं और कम्युनिज्म द्वारा निशाने पर लिए हुए प्रतीत होते हैं। इसलिए वे अमरीकी नीतियों के सन्दर्भ में अत्यन्त महत्वपूर्ण बन गए हैं..... ।"

फोर्ड फाउनडेशन ने भारतीय नीतियों पर आधिपत्य जमा लिया है। रोजेन कहते हैं कि "1950 से लेकर 1960 के बीच विदेशी विशेषज्ञों ने भारतीयों के मुकाबले  उच्च अधिकार हासिल कर लिए हैं ", और फोर्ड फाउनडेशन तथा (फोर्ड फाउनडेशन/सीआइए फंडेड) एमआईटी सेंटर फॉर इंटरनेशनल स्टडीज "योजना आयोग के आधिकारिक सलाहकार" की तरह कार्य कर रहे हैं। बाउल्स लिखते हैं कि " डगलस एन्समिन्जर के नेतृत्व में, भारत में फोर्ड के कर्मचारी योजना आयोग के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं जो पंचवर्षीय योजनाओं का संचालन करता है। जहाँ भी दरार दिखती है, वे उसे भरते हैं, चाहे वह खेती का, स्वास्थ्य शिक्षा का अथवा प्रशासनिक मामला हो। वे ग्रामीण स्तर के कार्यकर्ता प्रशिक्षण विद्यालयों में साथ जाते हैं, संचालन करते हैं और वित्तीय मदद देते हैं।"