Jun 17, 2011

प्रचंड पर रॉ से सम्बन्ध का संदेह


जनमुक्ति सेना के कमांडरों के बैठक में अधिकांश ने प्रचंड के फैसले को आत्मसमर्पण कहा और पार्टी के उपाध्यक्ष किरण ने १८ सूत्रीय विरोध पत्र प्रस्तुत किया,जिसमें भारतीय गुप्तचर संस्थान (RAW) से प्रचंड के सम्बन्ध बनाने का भी उल्लेख है...

विष्णु शर्मा  

नेपाल की माओवादी पार्टी के अंदर विवाद लगातार तेज होता जा रहा है. अब  वहां  की माओवादी पार्टी एक संयुक्त इकाई कम और तीन गुटों का नीतिगत (टेक्टिकल) गठबंधन अधिक दिखाई पड़ती है. प्रचंड के लाइन के खिलाफ कभी बाबुराम और कभी किरण ‘नोट ऑफ डीसेंट’ लिखते हैं. इसीलिए  पार्टी ने निर्णय लिया है कि तीनों धड़े अपने अपने समर्थकों की मीटिंग कर सकते है, उन्हें अपने विचार से अवगत करा सकते है. अब स्थति यह है कि गुटों की बैठक पार्टी की बैठक से अधिक महत्वपूर्ण हो गई है. कई बार तो इन बैठकों के कारण पार्टी की महत्वपूर्ण बैठक भी रद्द हो जा रही हैं.

लाइन के इस संघर्ष में बाबुराम और किरण के गुट लगातार मजबूत हो रहे है और प्रचंड का प्रभाव कमजोर होता जा रहा है. अपनी साख को बचाने के लिए प्रचंड को पार्टी के अंदर ऐसे बहुत से समझौते करने पड़ रहे हैं,  जिनकी पहले कल्पना तक नहीं की जा सकती थी. कभी बाबुराम को भारत समर्थक कहने वाले घोर प्रचंड समर्थक भी आज बाबुराम को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखने से नहीं झिझक  रहे है.

एनेकपा के अध्यक्ष प्रचंड और उपाध्यक्ष किरण : सिर्फ असहमति
अभी हाल में प्रचंड के करीबी माने जाने वाले बर्ष मान पुन ने कहा है कि प्रचंड प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते और माओवादी की ओर से बाबुराम भट्टराई को प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है. इस टिपण्णी  का सीधा मतलब पार्टी के भीतर लगातार मजबूत हो रहे उपाध्यक्ष किरण के खिलाफ (प्रचंड और बाबुराम ) का ‘संयुक्त’ मोर्चा बनाना है. नेपाल की राजनीती में प्रचंड एक क्रांतिकारी  नेता से कंफ्लिक्ट मैनेजर  के स्तर में आ गए है. प्रचंड के लिए प्रधान मंत्री बनने से अधिक जरूरी माओवादी पार्टी का अध्यक्ष बने रहना है और इसलिए बाबुराम को अपने पक्ष में रखना आवश्यक है.

फिर भी पार्टी को बचा पाना मुश्किल होता जा रहा  है. किरण ने जिस तरह से खुद की लाइन को प्रस्तुत किया है उसमें  समझौते की गुंजाईश नहीं दिखती. हाँ किरण की एक कमजोरी जरुर है कि प्रचंड को समझौतावादी मानने के बावजूद पार्टी के भीतर बने रहने की उनकी कार्यशैली है, जिसपर  अभी से  प्रश्न उठने लगे है.आगामी दिनों में किरण पर पार्टी से अलग होने का जबरदस्त दवाब बनेगा. यदि तब भी वह पार्टी में बने रहते है तो संभव है की दूसरी पीढ़ी के नेता अपने लिए नया रास्ता तलाशें. एक दौर में उनके साथ रहे मातृका यादव ने अभी हाल में अपने एक साक्षात्कार में उन्हें ‘गोलचक्करवादी’ बताया था. यदि किरण  कोई ठोस निर्णय नहीं लेते तो मातृका की बात की पुष्टि करते नज़र आयेंगे.

प्रचंड पर लगे आरोप  '18 विचलन ' के   दस्तावेज जनज्वार के पास हैं , प्रस्तुत है उनमें से कुछेक 
  • राजनीतिक स्तर पर प्रचंड  दक्षिणपंथी सुधारवाद और राष्ट्रीय आत्मसमर्पणवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं  
  • प्रचंड भारतीय गुप्तचर संस्थान (RAW) के सीधे संपर्क में हैं
  • प्रचंड धन, ताकत और अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए नैतिक और अनैतिक क्रियाकलाप कर सकने की प्रवत्ति रखते हैं
  • अन्य संसदीय पार्टियों के साथ समझौता कर ऐसा संविधान बनाने की मंजूरी दे दी है जो रूप और सार में घोर प्रतिक्रियावादी है
  • प्रचंड ने जानबूझ कर पार्टी में आर्थिक हिसाब को कभी होने नहीं दिया और अपने निजी हितों के लिए संसाधनों का इस्तेमाल किया हैं
  • प्रचंड के भीतर फासिस्ट प्रवृत्ति  का विकास हुआ है

हालाँकि किरण के समर्थक पूर्व माओवादी नेता मातृका की बात से सहमत नहीं है. उनका मानना है कि जल्दबाजी में पार्टी से अलग होना गलत होगा.पार्टी में रहकर प्रचंड की लाइन को सरेआम  करना सही नीति है. और जहाँ तक पार्टीका सवाल है वह किसी एक की बपौती नहीं है. समर्थकों के  तर्कों से स्पष्ट है कि किरण के पास भी अभी क्रांति की कोई ठोस योजना नहीं है और इसलिए पार्टी में रहकर प्रचंड-बाबुराम की लाइन का विरोध करना उन्हें ठीक लगता है. लेकिन उनके करीबी कुछ नेता मानते है कि जितना लंबा समय वे पार्टी में रहेंगे उतना ही प्रचंड मजबूत होंगे.

जबकि मौजूदा समय में प्रचंड की  अपनी कोई लाइन नहीं है, बल्कि वे कभी बाबुराम और कभी किरण के समर्थन में खुद को खड़ा करते है.पार्टी का बहुसंख्यक हिस्सा उन्हें अपने नेता के रूप में नहीं देखता. हाल में जनमुक्ति सेना के कमांडरों की बैठक में अधिकांश ने प्रचंड के फैसले को आत्मसमर्पण  कह कर आलोचना की थी. साथ ही  किरण ने अपने समर्थकों के बीच ‘प्रचंड के 18 विचलन’ नाम से एक दस्तावेज़ बांटा  है. इस दस्तावेज़ के दुसरे बिन्दु में लिखा है कि ‘राजनीतिक स्तर पर दहाल दक्षिणपंथी सुधारवाद और राष्ट्रीय आत्मसमर्पणवाद का प्रतिनिधित्व करते है’. इसी दस्तावेज़ में  कहा गया है कि प्रचंड भारतीय गुप्तचर संस्थान  (RAW) के  सीधे संपर्क में है,  जिसका साफ़ मतलब है कि  प्रचंड और RAW के बीच  संबंध  हैं.

पार्टी संगठन के स्तर पर इस दस्तावेज़ के 18वे बिंदु में कहा गया है कि ‘प्रचंड धन, ताकत और अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के लिए नैतिक और अनैतिक क्रियाकलाप कर सकने की प्रवत्ति रखते है. और इसी के चलते उन्होंने अन्य संसदीय पार्टियों  के साथ समझौता  कर ऐसा संविधान बनाने  की मंजूरी दे दी है जो रूप और सार में घोर प्रतिक्रियावादी है.’ आगे दस्तावेज़ कहता है कि प्रचंड  ने जानबूझ कर पार्टी मेंआर्थिक हिसाब को कभी होने नहीं दिया और अपने निजी हितों के लिए संसाधनों का इस्तेमाल किया है. दस्तावेज़ में एक जगह कहा गया है कि प्रचंड के भीतर फासिस्ट प्रवत्ति का विकास हुआ है.

इस विवाद के बीच 15 जून 2011को होने वाली स्थाई समिति की बैठक ‘तैयारी की कमी’ का कारण बता कर रद्द कर दी गई.कयास लगाया जा रहा है कि प्रचंड ने ऐसा आलोचना के डर से किया. उन्हें इस बात का आभास हो गया है कि पार्टी के साथ अब जनसेना में भी उनकी लाइन के विरोध में स्वर तेज होते जा रहे हैं. आगे वे अपने बचाव में क्या तर्क देंगे यह देखना जरूरी होगा.आज तक उन्होंने खुद को क्रांति के अगुवा के बतौर और बाबुराम को संशोधनवादी और किरणको अतिवामपंथी के रूप में लोगों  के सामने प्रस्तुत किया है.

क्रांति की लाइन को न छोड़ने के चलते ही अब तक लोग उन्हें एक समझदार नेता मानते आये है. एक ऐसा नेता जो कभी दक्षिणपंथी और कभी वामपंथी लाइन लेते हुए भी क्रांति को हमेशा केंद्र में रखता है. यदि अबकी बार उनके तर्क बहुसंख्यक कार्यकर्ताओं  को क्रांति की भावना के खिलाफ  नज़रआते है तो उनकी प्रासंगिकता  पर भी सवाल उठ सकता है.




जुलाई में आपके बीच होगी 'हैलो बस्तर'



जनज्वार.युवा और जनपक्षधर पत्रकार राहुल पंडिता की 'हेल्लो बस्तर: दी अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ इंडियाज़ माओईस्ट  मूवमेंट' माओवादी आन्दोलन के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालने वाली महत्वपूर्ण किताब है. इस आन्दोलन के नेतृव से सीधे संपर्क कर राहुल जानने का प्रयास करते हैं  कि कैसे क्रांति में विश्वास रखने वाले चंद लोग 1980 में मध्य भारत के बस्तर क्षेत्र में प्रवेश करते हैं  और  एक शक्तिशाली आन्दोलन खड़ा करते हैं, जिसे आज भारत सरकार आतंरिक सुरक्षा का  सबसे बड़ा खतरा मानती  है.

यह किताब उन कारणों को तलाशती है जिसकी वजह से आज यह आन्दोलन भारत के 10 राज्यों में गरीब और हाशिए पर खड़े लोगों  की ओर से भारतीय सुरक्षा तंत्र पर  प्राणघाती हमले कर रहा है. यह लाल क्षेत्र में रहने वाले माओवादी छापामारों और आदिवासी जनता के जीवन पर अभूतपूर्व ढंग से प्रकाश भी डालती है.

जमीनी स्तर पर रिपोर्ट और माओवादी पार्टी के महासचिव गणपति और पोलित ब्यूरो सदस्य  कोबाद गाँधी सहित अनेक माओवादी नेताओं से लंबी बातचीत पर आधारित यह पुस्तक, प्रत्यक्ष अनुभव और साहस  का उल्लेखनीय उदाहरण है.

इस पुस्तक का दो शब्द (afterword) दिल्ली के तिहार जेल में बंद माओवादी नेता कोबाद गाँधी ने लिखा है. यह किताब आप पाठकों के लिए जुलाई के प्रथम सप्ताह से  दुकानों पर  उपलब्ध होगी.

पैंतीस साल से बंद है मुस्लिम हत्याकांड की चाबी

खास खबर 
पैंतीस  साल पहले मुजफ्फरनगर गोली कांड उर्फ मुस्लिम नसबंदी कांड के लिए गठित आयोग की जांच इसलिए सार्वजनिक नहीं हो सकी क्योंकि वह दस्तावेज जिस बक्से में बंद हैं, उसकी चाबी खो गयी है...


डा. संजीव 

जनसंख्या वृद्धि कम करने के लिए हमारे देश में नसबंदी का आयोजन आम है,लेकिन 35  साल पहले जैसा नसबंदी कैंप उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के खालापार  में लगा था,उसको याद कर आज भी लोकतंत्र शर्मशार होता है। साथ में हकीकत भी सरेआम होती है कि अल्पसंख्यकों के मामले में न्याय महज एक संयोग और मजाक से अधिक कुछ नहीं है। गौरतलब है कि अल्पसंख्यक हित का ढोल बजाने वाली पार्टी कांग्रेस की आपातकालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बड़े पुत्र संजय गांधी के इशारे पर 16 अक्टूबर 1976 को खालापार में 35 मुसलमानों को पुलिस वालों ने मार डाला था, जब वे बड़जोरी से किये जो रहे नसबंदी की मुखालफत कर रहे थे।

मुजफ्फरनगर गोली कांड उर्फ मुस्लिम नसबंदी कांड के इतने वर्षों बाद पीड़ितों की आंखों का पानी सूख गया है, पर इंसाफ की उम्मीद आज भी उनकी आंखों में टिमटिमा रही है। 16 अक्टूबर 1976 से अबतक पैंतीस साल का अरसा बीत गया,लेकिन अब तक न तो किसी नेता ने और न किसी सरकार ने उनकी सुध ली है। यह बात अलग है कि सरकार ने गोलीकांड के बाद जांच आयोग का गठन किया और आयोग ने जांच पड़ताल भी की, लेकिन आयोग के कागजात तीस सालों से एक अलमारी में बंद पड़े हैं और राजनीतिक दलों के लिए भी अब यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं है। पीड़ितों की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि इस कांड के गुनाहगारों को कानून के कटघरे में आज तक खड़ा नहीं किया जा सका है। उल्लेखनीय है कि   मुजफ्फरनगर कलेक्ट्रेट परिसर में जांच आयोग की रिपोर्ट जिस बक्से में बंद है, उसकी चाबी तीस साल पहले खो गयी थी।

1977 के लोकसभा चुनाव में मतदाताओं ने इमरजेंसी के मुद्दे के साथ नसबंदी कांड पर भी कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया था। ‘नसबंदी कांड’तब प्रमुख चुनावी मुद्दा बन गया था। मुसलमानों ने कांग्रेस के खिलाफ वोट देकर जनता पार्टी को जिताया था। लेकिन इस मामले का दूसरा पहलू यह है कि गोलीकांड के पीड़ित परिवारों को आज तक न्याय तो दूर,मुआवजा और रोजगार तक नहीं मिला। मामले की जांच कर रहे आयोग के कागजात 30 साल से एक अलमारी में बंद पड़े हैं। इस गोलीकांड में 35 लोग मारे गये थे लेकिन आज तक इस मामले के दोषियों का पता ही नहीं चल पाया है।

हालत यह है कि जांच आयोग बैठने के बाद भी न तो किसी को मुआवजा मिला और न ही किसी को रोजगार। पीड़ितों के परिजनों का कहना है कि उनके साथ उस समय बड़ा मजाक हुआ जब प्रदेश की मुलायम सिंह यादव सरकार में इमरजेंसी के पीड़ितों को लोकतंत्र सेनानी का दर्जा देकर उन्हें सम्मानित किया और आर्थिक सहायता देने की घोषणा की। इस मामले में समाजसेवी और इस घटना के गवाह मनेश गुप्ता,मुफ्ती जुल्फिकार का कहना है कि यह घटना प्रशासनिक भूल का नतीजा था। कुछ दिन बाद यहां संजय गांधी का दौरा था। उनके परिवार नियोजन के एजेंडे में नसबंदी के केसों की संख्या बढ़ाने के लिए ही पुलिस जोर जबरदस्ती का सहारा ले रही थी। पुलिस लोगों को पकड़कर नसबंदी के लिए मजबूर कर रही थी। समय के साथ लोग इस नसबंदी कांड को भूलते गये लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि इन मुद्दों पर राजनीतिक रने वाले नेता चुनावों में सफल होकर सांसद, विधायक बनने के बाद पीड़ितों के जख्मों पर आज तक मरहम लगाने में आखिर कामयाब नहीं हो पाये।

शहर के खालापार का नसबंदी गोलीकांड प्रदेश  ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में रहा। 18 अक्टूबर,1976को पुलिस ने जबरन नसबंदी का विरोध कर रहे लोगों को गोलियों से भून डाला। जनता पुलिस के बीच हुए टकराव में जनता पुलिस की थ्री नोट थ्र्री गोली का मुकाबला पत्थरों से कर रही थी। इस गोलीबारी में 35लोगों की मौत हुई थी। मरने वालों में मौहम्मद सलीम (18), इलियास (14), इकबाल (12), रहमत (25), देवेन्द्र कुमार (25), जीत कुमार (26), जुल्फिकार, इंतजार, शब्बीर उर्फ बारू रियासत (25), जहीर अहमद उर्फ कालू रहमत, सईद, जमषेद (18), सत्तार (18), सुक्का खेड़ी फिरोजपुर, सिद्दीकी (18), शेर अहमद (16), नफीस (18), अब्दुल (16), मंजूर (16), मौहम्मद इब्राहिम (24), निजामुद्दीन (23), मौहम्मद हबीब (25), के अलावा 12 अन्य लोग मारे गये थे। इतने ही लोग घायल हो गये थे। इमरजेंसी के कारण इस घटना ने आग में घी का काम किया था। इमरजेंसी हटने के बाद जब 1977 में आम चुनाव हुए तो कांग्रेस के विरोध में मुस्लिम लामबंद हो गये थे।

नसबंदी कांड प्रदेश के साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर जनता पार्टी का प्रमुख चुनावी मुद्दा था। इसी कारण उसके पक्ष में लहर चली और कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सभी सीटें हार गई। रायबरेली में इंदिरा गांधी और अमेठी से संजय गांधी को भी हार का मुंह देखना पड़ा था। मुजफ्फरनगर से जनता पार्टी के टिकट पर सईद मुर्तजा इसी मुद्दे पर चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे थे। उस समय नई सरकार बनने के बाद लोगों को उम्मीद बंधी थी कि पीड़ितों को न्याय व मुआवजा व रोजगार मिलेगा। सरकार ने मामले की जांच के लिए आयोग का गठन किया था। आयोग ने मामले की जांच के बयान लिए गए लेकिन कुछ समय आगे बढ़ने के बाद ही मामला ठंडा पड़ गया।

यही कारण है कि मिश्र आयोग की जांच के फाइल-पत्रावली, कागजात और लोगों की गवाही जिले के रिकार्ड रूम की एक अलमारी में पिछले 30 साल से ताले में बंद है। इसकी चाभी भी मिश्र आयोग के सचिव अपने साथ ले गये थे। उस समय यह सीलबंद अलमारी खालापार कांड के नाम से जानी जाती थी। कागजात किस हालत में है इसकी सुध किसी न नहीं ली है। खालापार के फक्करशाह चौक में बर्फ बेचकर अपने परिवार का गुजारा करने वो मौहम्मद राशिद   ने बताया कि इस कांड में उनके पिता जमाल मारे गये थ। मोनू के भाई सत्तार भी पुलिस की गोली के शिकार हुए थे। दर्जी वाली गली के अशरफ घायल हुए थे। इन सभी पीड़ित परिवारों को आज भी इंसाफ मिलने का इंतजार है, लेकिन इंसाफ मिलेगा कब किसी को नहीं पता।