Mar 18, 2011

ले चलो जनता के बीच कविता


दिल्ली  में कविता पाठ   की इस श्रृंखला  में मजदूरों से लेकर बुद्धिजीवी तक शामिल हो रहे हैं और इसका आयोजन भी सीधे लोगों के बीच जाकर हो रहा है...


जनज्वार. नव सर्वहारा सांस्कृतिक  मंच के बैनर तले नागार्जुन-केदार-शमशेर जन्मशती पर कविता यात्रा की शुरूआत यहां दिल्ली से छह फरवरी को हुई। फिलहाल दिल्ली में ही यह कार्यक्रमों के जरिये अपनी निरंतरता बनाये रखेगी फिर दिल्ली से कलकत्ता की ओर यह प्रस्थान करेगी।

इस यात्रा की शुरूआत करते हुए कवियों ने डेढ़-दो सौ श्रमिकों से भरे हुए जमरूदपुर गुरूद्वारा कम्युनिटी हॉल में कविताएं पढ़ी। कविगण थे -शिवमंगल सिद्धांतकर,रंजीत वर्मा, मिथिलेश श्रीवास्तव, कुमार मुकुल और रामजी यादव। इस मौके पर पत्रकार एवं आलोचक अनिल सिन्हा भी उपस्थित थे जिन्होंने आम जीवन में कविता के महत्व को रेखांकित करते हुए संक्षिप्त  सा लेकिन सारगर्भित व्याख्यान दिया। मंच का संचालन कर रहे थे कामरेड नरेंन्द्र। इस कविता यात्रा का उद्देश्य कविता में लोगों की भागीदारी को बढ़ाना है ताकि कविता में व्याप्त गुरूबाजी और गुटबाजी खत्म हो सके साथ ही जिनके लिए कविता लिखी जा रही है उस तक वह पहुंच सके। 



गोष्ठी  की शुरूआत करते हुए कवि रंजीत वर्मा ने कहा कि कविता के भूमंडलीकरण के खिलाफ यह यात्रा है। उन्होंने कहा कि वास्तविक कवि वे होते हैं जो स्थानीय कथ्यों, पात्रों, संबंधों, घटनाओं, स्मृतियों,आकांक्षाओं,सपनों को इस तरह बुनने की कोशिश करते हैं कि वह सबके सपने,सबकी आकांक्षाएं,सबकी स्मृतियां और सभी को अपने जीवन की घटनाएं लगने लगती हैं क्योंकि वैसे कवि के सामने दुनिया के तमाम पीड़ित समुदाय अभिव्यक्ति के लिए आकार ले रहे होते हैं। यहीं विश्व दृष्टि का निर्माण होता है और दुनिया का समस्त वंचित तबका साहित्य में अपना अक्श देखता है और साथ ही ताकत भी पाता है। उसके बाद 13फरवरी को मोरी गेट पर और फिर 21फरवरी को संसद मार्ग पर कविता पाठ का आयोजन हुआ जिनमें नीलाभ,मंगलेश डबराल और मदन कश्यप ने भी अपनी कविताओं का पाठ किया।

इसके बरक्स कुछ कवि ऐसे होते हैं जो वास्तव में कवि नहीं होते हैं बल्कि वे शब्दों के महज शिल्पकार भर होते हैं। ये अपनी कमी खूब समझते हैं और इसे पाटने के लिए वे भूमंडलीकरण का सहारा लेते हैं। इसके तहत किया यह जाता है कि कई भाषाओं, कई देशों के रचनाकारों को एक मंच पर बुलाया जाता है और करोड़ों खर्च कर माहौल को उत्सवी बनाया जाता है और उसे वैश्विक बनाने की कोशिश की जाती है। वहां पहला उसूल यह होता है कि न किसी को कोई चुनौती दी जाए और न किसी की चुनौती स्वीकार करने की कोशिश की जाए।

जयपुर साहित्य उत्सव सहित साहित्य के जितने भी उत्सव दुनिया भर में आयोजित किये जा रहे हैं चाहे वह गाले का हो या और कहीं का उसका मकसद है मेहनतकश जनता को साहित्य से हमेशा के लिए बाहर कर देना। यूं ही वहां ‘तेरा क्या होगा कालिया’जैसी पंक्तियों के लेखकों या ‘कजरारे कजरारे ’जैसे गीत लिखने वाले गीतकारों को साहित्यकार के रूप में स्थापित करने की कोशिश नहीं की जाती। वैसे इसके पीछे आयोजकों का तर्क यह होता है कि जनता उन्हें ही सुनना चाहती है और वही उन्हें हाथों हाथ लेती है। विश्व-दृष्टि का यहां नितांत अभाव होता है और इस कमी की पूर्ति वैश्विकता के जरिये करने की कोशिश की जाती है।

इसके उलट कविता यात्रा का उद्देश्य कविता को लोगों के बीच एक गंभीर मसले की तरह ले जाना है न कि मनोरंजन की तरह। और इसी रूप में लोग भी इसे ले रहे हैं यह बात तीन जगहों पर कविता पाठ किये जाने के बाद सिद्ध भी होती है। यात्रा में शामिल कवियों ने भी माना कि लोगों ने इसे एक गंभीर कार्यक्रम की तरह लिया। यह बात समझने की है कि हर आदमी का जीवन गंभीर मसलों से भरा होता है जिनमें कविता भी शामिल है।

कबीर और तुलसी को गाने वाली और तमाम लोकगीतों की रचयिता इस मेहनतकश जनता के सहज विवेक पर विश्वास न करना और फिर कविता न समझने का आरोप लगाते हुए उसे कविता से बाहर रखना दरअसल उसके खिलाफ एक गहरी साजिश है जिसे सत्ता और ताकत के चाटुकार रचनाकार महीनी से अंजाम देते रहते हैं। दुख तो तब होता है जब जनपक्षधर रचनाकार भी आश्वस्त भाव से समर्थन में सिर हिलाते नजर आते हैं। यह सारा खेल शास्त्रीयता के आड़ में चलता है। कविता यात्रा को इस छद्म अवधारणा को तोड़ने के एक प्रयास के रूप में देखने की जरूरत है।

यहां पर कुछ सवाल खुद से करने की जरूरत है कि जब कविता उनकी जिंदगी से निकल कर आप तक आ सकती है तो वही कविता तैयार होकर उस तक क्यों नहीं जा सकती?आप कैसे निकाल सकते हैं उन्हें उन कविताओं की दुनिया से जो उनकी ही जिंदगी से निकल कर आयी है आप तक? या इस तरह भी सोचा जा सकता है कि क्या हम जो लिख रहे हैं वह सचमुच उनकी जिंदगी से ताल्लुक रखता है या यह हमारा सिर्फ भ्रम है?


 अगर ऐसा है तो फिर क्या फर्क है एक जनपक्षधर रचनाकार और एक कलावादी रचनाकार के बीच? या इस फर्क की अवधारणा ही गलत है?लोग समझते हैं कि उनके लिए लिखने का मतलब नारा लिखना है। क्या यह सोच सही है? क्या उनकी जिंदगी महज एक नारा भर है? क्या आपने उन्हें सिर्फ जुलूसों में या हड़ताल पर बैठे देखा है?क्या ऐसा नहीं लगता कि वह सरकार हो या कोई कार्पोरेट घराना दोनों की लुटेरी निगाहें उनकी संपदा पर ही टिकी हैं?इस वजह से उनकी सामान्य जिंदगी में जो बवंडर बवडंर उठ खड़ा हुआ है क्या उनसे टकराने वाली कविता उन्हें नहीं चाहिए?

इन्हीं चीजों को शिदत्त से महसूस करते हुए कविता यात्रा की तैयारी की जा रही है। फिलहाल यह दिल्ली के ही विभिन्न इलाकों में घूम घूम कर मजदूर इलाकों में कविता पाठ का आयोजन रखा जा रहा है। और जब तैयारी पूरी हो जाएगी तो यह कविता यात्रा दिल्ली से निकल कर कलकत्ता की ओर रवाना होगी। यानी कि देश की इस नई राजधानी से देश की पुरानी राजधानी की ओर।

दिल्ली को राजधानी बने सौ साल हो गए हैं। कलकत्ता पीछे छूट गया है। ठीक उसी तरह जैसे विकास की इस दौड़ में रोज करोड़ों लोग पीछे छूटते जा रहे हैं। उन्हें भारी संख्या में विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है, महंगाई की मार उन्हें ही सबसे ज्यादा झेलनी पड़ रही है, उनकी संस्कृति, उनका रोजगार उनसे छीना जा रहा है और उन्हें अपरिचित संसार में भटकने और बर्बाद होने को हर क्षण जबरन ठेला जा रहा है। कविता यात्रा इन्हीं पीछे छूट गए रास्तों से होकर गुजरेगी ताकि आगे के रास्ते का नक्शा तैयार किया जा सके।