Jun 2, 2011

जनपक्षधर मीडिया को संगठित करने का दौर

वर्तमान दौर में सूचना क्रान्ति से ऐसा हौव्वा खड़ा किया जा रहा है, मानो राष्ट्र की सारी सीमाएं बौनी हो गयी हैं, लेकिन यथार्थ में दुनिया पहले से ज्यादा विभाजित और असमान हुई है...

अयोध्या प्रसाद ‘भारती’

उत्तराखंड के रूद्रपुर में पत्रकारिता दिवस की पूर्व संध्या 29 मई के मौके शहर के नगर पालिका सभागार में साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच ‘उजास’ और ‘पीपुल्स फ्रैंड’ द्वारा ‘समय, समाज और मीडिया’ विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। देश में लागू नई आर्थिक नीतियों के बाद मीडिया के चरित्र में आए बदलावों पर उत्तराखण्ड के रुद्रपुर में  आयोजित इस गोष्ठी में विद्वान और मीडिया विशेषज्ञों ने वर्तमान मीडिया के चाल, चरित्र और चेहरे पर गंभीर विचार-विमर्श किया और पत्रकारिता के मूल तत्वों को बचाने के लिए न्यायपसंद लोगों की एकजुटता को जरूरी बताया।

अपने अध्यक्षी वक्तव्य में वरिष्ठ पत्रकार व मानवाधिकार समिति के राष्ट्रीय अध्यक्ष पी.सी.तिवारी ने कहा कि आज मीडिया ने समाज को जकड़ रखा है, उसके मुक्ति के जद्दोजहद में आमजन की मीडिया को संगठित होना है। उन्होंने कहा कि वर्तमान दौर में सूचना क्रान्ति से ऐसा हौव्वा खड़ा किया जा रहा है, मानो राष्ट्र की सारी सीमाएं बौनी हो गयी हैं, लेकिन यथार्थ में दुनिया पहले से ज्यादा विभाजित और असमान हुई है। उन्होंने कहा कि दैत्याकार उद्योग का रूप ले चुकी मीडिया आमजन की दुख-तकलीफों से दूर हो चुकी है, ऐसे में वैकल्पिक मीडिया के गठन की जरूरत और ज्यादा बढ़ गयी है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व आचार्य और ‘बहुवचन’ पत्रिका के पूर्व संपादक प्रो0 राजेंद्र कुमार ने कहा कि पत्रकारिता को उस बैरोमीटर की भांति होना चाहिए जो न केवल आज के दबावों के बारे में बताए बल्कि आने वाले खतरों के प्रति भी चेताए। उन्होंने अध्यापकों से अपील की कि उन्हें कम से कम दो-दो जुझारू और संवेदनशील, न्यायपसंद छात्र तैयार करने की जिम्मेदारी उठानी होगी, ताकि सत्ता और बाजार के बरअक्श एक न्यायपूर्ण ताकत का निर्माण किया जा सके। वैकल्पिक मीडिया पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वैकल्पिक मीडिया खड़ा करने की बात बार-बार होती है, लेकिन उसके लिए हमारे पास संसाधन नहीं हैं। पहले संसाधनों के बारे में सोचा जाए। यदि संवेदनशील और न्यायपसंद लोग एक-एक रुपया भी लगा दें तो संसाधन जुटाए जा सकते हैं।

गोष्ठी को संबोधित करते हुए ‘जनपक्ष आजकल’ के संपादक चारू चन्द तिवारी ने कहा कि मुख्यधारा की मीडिया में आम जनता की परेशानियां हाशिए पर हैं, खबरों की शक्ल में विज्ञापन परोसे जा रहे हैं। पत्रकार आज अपने नियोक्ताओं, राजनीतिकों, पूंजीपतियों और सत्ता के तमाम दबावांे के बीच काम करने को मजबूर हैं। इसलिए तमाम जरूरी स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दे खबरों से नदारद हैं।

कवि-कथाकार डॉ.शम्भू दत्त पांडे ‘शैलेय’ की राय में समाज में मीडिया की भूमिका हर दौर में रही है। संचार क्रांति के इस दौर में मीडिया एक बड़ी ताकत के रूप में उभर कर सामने आया है। संचार माध्यमों की उपयोगिता और अपरिहार्यता बढ़ती जा रही है। इसके साथ ही बाजारवाद के इस दौर में पूरा समाज और पत्रकारिता जगत नई चुनौतियों-संकटों से दो-चार हो रहा है। ऐसे में सभी संवेदनशील और न्यायपसंद लोगों को संगठित होकर बाजारवाद के खिलाफ एक ताकत खड़ी करनी होगी। समाजशास्त्र के प्रवक्ता डॉ.सुभाष वर्मा ने कहा कि ‘हुकूक पे जब से अड़ गये हैं, निगाहे हाकिम पे चढ़ गये हैं, दिमाग के दायरे बढ़े हैं, दिलों के रिश्ते सिकुड़ गये हैं।

कवि-कथाकार कस्तूरीलाल तागरा ने मीडिया में आई विकृतियों पर चिंता व्यक्त करते हुए बताया कि हम सभी को आपस की बातचीत से कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए कि धंधे की जरूरतें भी पूरी हो जाएं और पत्रकारिता सभी के साथ यथासंभव न्याय कर सके। गोष्ठी को गांधीवादी चिंतक दिनेश कुमार, उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के उपाध्यक्ष और ‘प्रेरणा अंशु’ के संपादक प्रताप सिंह, अध्यापक विजय सिंह, राजीव अग्रवाल, संजय रावत, रूपेश कुमार सिंह, हरप्रसाद पुष्पक, शिवजी धीर, मदन भारती, अजितपाल आदि ने संबोधित किया। पत्रकार मिथलेश मिश्रा ने गोष्ठी के विषय पर रचित ताजा कविता प्रस्तुत की।

गोष्ठी का संचालन नौजवान भारत सभा के मुकुल ने किया। अपने हस्तक्षेप में उन्होंने कहा कि जनपक्षधर शक्तियों के लिए वर्तमान समय की इस चुनौती को समझना और साझे प्रयास से वैकल्पिक तैयारी की दिशा में बढ़ना ही समाज की मांग है। इस अवसर पर वरिष्ठ अधिवक्ता सुभाश छाबड़ा, अयोध्या प्रसाद ‘भारती’, खेमकरण सोमन, नरेश कुमार, प्रकाश भट्ट, प्रो. प्यारेलाल, विजय तिवारी,, गुरबाज सिंह, अविनाश गुप्ता समेत मीडिया, लेखन, अध्यापन, श्रमिक आंदोलन, विधि आदि विविध क्षेत्रों के लोग भी मौजूद थे।


(लेखक रूद्रपुर से निकलने वाले साप्ताहिक अखबार  पीपुल्स फ्रैंड के संपादक हैं।) 



पाखण्ड है मायावती की किसान पंचायत


जनज्वार. उत्तर प्रदेश सरकार की  आज लखनऊ में बुलायी  गयी किसानों की पंचायत बुनियादी रूप से किसानों को बुरबक बनाने  के लिए थी. हालाँकि 7 मई को ग्रेटर नोएडा के भट्टा और परसौल  गाँव  के किसान आन्दोलन से परेशानी  में फंसी सरकार नए जमीन अधिग्रहण कानून के नाम पर जो  नया झुनझुना किसानों को थमाने  में  लगी है, उसकी मियाद भी लम्बी नहीं दिखती. 

जन संघर्ष मोर्चा के राष्ट्रीय संयोजक अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि प्रदेश  में कारपोरेट घरानों के मुनाफे के लिए किए जा रहे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आंदोलनरत किसानों की हत्या करने के बाद आज सरकार द्वारा बुलायी गयी किसान पंचायत महज किसानों को गुमराह करने के लिए है। उन्होनें कहा कि आज किसान पंचायत आयोजित कर 70 फीसदी और 30 फीसदी की कवायद कांग्रेस द्वारा लाए जा रहे भूमि अधिग्रहण सम्बंधी बिल के पाखण्ड के सामानांतर  मायावती का पाखण्ड है। जबकि कांग्रेस और मायावती दोनों की ही नीयत किसानों की जमीन छीनना है।

 संसद अगले मानसून सत्र में नए कानून के लिए बसपा की ओर  से  संघर्ष की बात करते हुए मायावती ने अधिग्रहण में प्रभावित हो रहे परिवार के एक सदस्य को नौकरी और प्रति एकड़ के हिसाब से 33 वर्ष तक 23 हजार रूपये देने की भी बात कही है. मायावती  की यह अधिग्रहण नीति  हरियाणा में चल रही मौजूदा अधिग्रहण नीति की बारीक फेरबदल के साथ नक़ल है, जिसे मानसून सत्र में आदर्श राज्य के तौर पर केंद्र सरकार की पेश करने की तैयारी में  है. हालाँकि  हरियाणा में ही इस अधिग्रहण नीति का लगातार विरोध हो रहा है और लोग इसे सरकार की नयी ठगी का तरीका मान रहे हैं.

पूंजीपतियों द्वारा जमीन सीधे लेने की घोषणा करने वाली मायावती सरकार को प्रदेश  की जनता को बताना चाहिए कि उनकी सरकार ने अब तक जेपी समूह को जमीन क्यों दी और इलाहाबाद के कचरी में वहां के डीएम द्वारा किए गए समझौते को भी आज तक लागू क्यों नहीं किया जा रहा है। वैसे में  किसान नेताओं को सरकार के इस जाल में फंसने से बचना चाहिए और  1894 का भूमि अधिग्रहण कानून रद्द होना चाहिए. उससे पहले  प्रदेश  में किसानों से एक भी इंच जमीन लेने पर रोक लगनी चाहिए। इसी सवाल पर जन संघर्ष मोर्चा ने विगत 13 मई को दिल्ली में प्रदर्षन कर गिरफ्तारी दी और प्रधानमंत्री को पत्र भी भेजा है और कल 3 मई को आयोजित रैली में 1894 के भूमि अधिग्रहण के काले कानून में संशोधन  नहीं इसे पूरे तौर पर रद्द करने और नयी राष्ट्रीय भूमि उपयोग नीति बनाने का सवाल प्रमुखता से उठेगा।
       
भूमि अधिग्रहण कानून के सवाल पर मायावती की संसद मार्च की बात वैसे ही पाखंड है जैसे उनकी महंगाई कम करने की मांग, जबकि वह टैक्स में कटौती करके इसे खुद ही कम कर सकती है. वैसे में मायावती तथा कांग्रेस के खेल को बेनकाब करना सबसे महत्वपर्ण हो गया है.



सरकार को अंगूठा मत देना अन्ना ?


पहले तो राजनेताओं और भ्रष्टाचारियों ने लोकपाल बिल की मसौदा कमिटी बनाने में अड़चन डाली और अब कोशिश यह कर रहे हैं कि  ऐसा बिल बने कि जनता के शोषकों पर कोई असर न पड़े...

घनश्याम वत्स

महाभारत में प्रसंग आता है कि एकलव्य धनुर्विद्या सीखने के लिए गुरु द्रोणाचार्य के पास गया  तो गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या सिखाने से मना कर दिया. जब एकलव्य ने गुरु द्रोणाचार्य कि मूर्ति के सम्मुख स्वयं के अभ्यास से धनुर्विद्या में प्रवीणता हासिल कर ली तो गुरु द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिना के बदले एकलव्य का अंगूठा मांग लिया,ताकि भविष्य में एकलव्य कभी भी राजकुमार अर्जुन को चुनौती न दे सके और राजकुमार अर्जुन विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बन सके. भोला  एकलव्य इस चाल को न समझा और उसने अपना अंगूठा तुरंत काट कर गुरु द्रोणाचार्य को भेंट कर दिया .

भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है. बस एकलव्य, अर्जुन और द्रोणाचार्य बदल गए हैं. भारत की आम जनता एकलव्य हो गयी है, तो भ्रष्टाचारी लोग राजकुमार अर्जुन बन बैठे हैं  जिनकी रक्षा गुरु  द्रोणाचार्य की भूमिका में भ्रष्ट राजनेता कर रहे हैं. वे जनता का पक्ष रख रहे प्रतिनिधियों से लोकपाल बिल में बड़ी मछलियों को बचाने के कुछ छेद चाहते हैं. वे चाहते हैं कि बिल की  मूल आत्मा  को काटकर अलग करने की बात पर अन्ना की टीम राजी हो जाये. पहले तो राजनेताओं और भ्रष्टाचारियों ने लोकपाल बिल की मसौदा कमिटी बनाने में अड़चन डाली और अब कोशिश यह कर रहे हैं की ऐसा बिल बने कि जनता के शोषकों पर कोई असर न पड़े.आखिर सरकार को लोकपाल के दायरे में प्रधानमंत्री और सांसदों को लाने में  हर्ज क्या है ?  

जनता ने भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर जब सरकार से भ्रष्टाचारियों पर लगाम कसने के विषय में कानून बनाने अनुरोध किया तो आजादी के बाद से ही  सरकार कोई न कोई बहाना बना कर उसे टालती रही.  जब जनता ने बिना सरकार की सहायता के "जन लोकपाल बिल" तैयार कर लिया और उसे लागू कराने के लिए अन्ना हजारे के उपवास के माध्यम से सरकार पर चौतरफा दबाव बनाया तो सरकार को जनता की बात माननी पड़ी और एक "लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी" का गठन किया गया. लेकिन  कुछ लोग "लोकपाल बिल ड्राफ्टिंग कमेटी" के जन प्रतिनिधियों को लगातार किसी न किसी प्रकार से निशाना बना रहे है और उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करके भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई की धार को कुंद करने में लगे हुए है,ताकि भ्रष्टाचारी लोगों का बोलबाला कायम रह सके.

हमें इस सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा कि भ्रष्टाचारी, कमेटी में शामिल जन प्रतिनिधियों पर हमला करते हुए उन्हें बदनाम करने में लगे रहेंगे. दूसरा  हमें यह  स्वीकार करना पड़ेगा कि इस भ्रष्ट समाज में शत प्रतिशत भ्रष्टाचार मुक्त व्यक्ति को ढूँढना लगभग असंभव है. यदि कमेटी के किसी प्रतिनिधि ने कोई भ्रष्टाचार किया है भी तो कानून अपना काम करेगा. यदि आप सचमुच भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई के पक्षधर है तो आप उस भ्रष्टाचारी को   सजा दिलाने का काम करें  न कि सिर्फ बयानबाज़ी करके भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही लड़ाई को कमज़ोर करने का.

"लोकपाल बिल"  किसी धर्म, जाति और लिंग से जुडा हुआ मुद्दा भी नहीं है इसलिए धर्म, जाति और लिंग के सवाल उठाकर कुछ राजनेता केवल मात्र अपने क्षुद्र राजनितिक स्वार्थों कि पूर्ति करते हुए केवल इसके व्यवहारिक होने में ही अडंगा डालने का काम कर रहे है. आम जनता को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि जब इतनी बड़ी और समझदार संविधान सभा द्वारा बनाए गए संविधान में कुछ परिवर्तनों की गुंजाइश रह सकती है तो यदि धर्म,जाति और लिंग के कारण "लोकपाल बिल" में किसी कारण कोई कमी रह जायेगी तो उसमे भी आवश्यकतानुसार परिवर्तन किये जा सकते है. इसलिए हमारा सारा ध्यान केवल एक व्यवहारिक और ठोस  "लोकपाल बिल"  पर होना चाहिए  न कि कहीं और.

दूसरी ओर यदि जनता की और से कमिटी में शामिल जनप्रतिनिधि अपने उद्देश्य से किंचित मात्र भी विचलित होते हैं  तो इतिहास और ये जनता जिसने इस आन्दोलन के लिए अप्रत्याशित समर्थन दिया है वह इस कमेटी के सदस्यों को कभी माफ़ नहीं करेगी. साथ ही  यह भविष्य में होने वाले जनांदोलनो के लिए भी घातक होगा.

ऐसे में  जनप्रतिनिधियों का  एकमात्र कर्तव्य बन जाता है कि वे अपने ऊपर लगने वाले हर आरोप का समुचित और सटीक उत्तर दें  और व्यर्थ कि बातों में न उलझकर अपनी एकाग्रता को बनाए रखे.  उन्हें  चाहिए कि  वे किसी भी प्रकार के दबाव में आए बिना निष्पक्ष रूप से अपना काम करें  और एक ठोस एवं कारगर लोकपाल विधेयक का निर्माण करें. जाहिर है  इसके निर्माण के दौरान उन्हें उन गंभीर विषयों और आलोचनाओ एवं टिप्पणियों के विषय में भी विचार करना चाहिए जो समय समय पर कुछ विद्वान् लोगो द्वारा इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहीम को और मज़बूत करने के विषय में कि जाती रही है.

जनप्रतिनिधियों को विशेष रूप से सजग और सतर्क रहना होगा और बिना किसी ब्लैक मेलिंग का  शिकार हुए ऐसा प्रभावशाली और व्यवहारिक "लोकपाल बिल"बनाना होगा कि अब कोई भ्रष्टाचारी द्रोणाचार्य से  अंगूठा मांगने की हिम्मत न कर सके.तभी सच्चे अर्थों में देश,जनता और सत्य की विजय होगी.


पेशे से डॉक्टर और सामाजिक-राजनितिक विषयों पर लिखने में दिलचस्पी.