May 21, 2011

सरकार का पत्थर देख, सरल चल बसे

                     
राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी। जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई। सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची दो कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था...
                                                   
वरुण शैलेश

भूमि अधिग्रहण का संकट केवल भट्ठा-पारसौल तक सीमित नहीं है, जहाँ उग्र आन्दोलन के बाद जमीन अधिग्रहण राष्ट्रीय स्तर की सुर्खियाँ बन पाया है । आज देश में ऐसे कई अधिग्रहण क्षेत्र हैं जहाँ बिल्ली की चाल की तरह  किसानों की भूमि कब्जे में की  जा रही है, लेकिन वह खबर नहीं बन पा रहे हैं।  भूमि अधिग्रहण से जुड़ी त्रासदी की एक कहानी उत्तर प्रदेश और बिहार को जोड़ने वाले  हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के सहारे लिखी जा रही है। हथुआ से भटनी तक रेल पटरी बिछाने को लेकर 112.49 एकड़ जमीन के अधिग्रहण का नोटिस किसानों को मिल चुका है, लेकिन किसान अपनी जमीन देने को तैयार नहीं हैं।

किसानों की चिंता : कहाँ  बोयेंगे, क्या खायेंगे
भूमि अधिग्रहण के खिलाफ पूर्वांचल के किसान लामबंद होकर भटनी में  पिछले तीन महीने से क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। हथुआ-भटनी प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए अधिग्रहित की जाने वाली जमीन की चपेट में 14  गांव आ रहे हैं। जमीन अधिग्रहण की घोषणा होने के बाद इलाके में घटित कुछेक घटनाएं किसानों के सामने पैदा हुए संकट का आभास कराती हैं। घटना इस साल 22 फरवरी की है, जब भूमि अधिग्रहण के विरोध में क्रमिक अनशन पर बैठे देवरिया जिले में बनकटा गांव के राम बरन चौहान की हार्टअटैक से मौत हो गई। पचपन  वर्षीय राम बरन के पास महज 11 कट्ठा जमीन थी, जिसमें से नौ कट्ठा जमीन रेल पटरी के लिए ले ली गई।

सब्जी की खेती कर गुजारा करने वाले राम बरन के सामने बाकी बची 2 कट्ठा जमीन पर गुजारा करना संभव नहीं रह गया था। जमीन जाने की पीड़ा और भविष्य की आशंका ने इस कदर घेरा कि उनकी जिंदगी पर  बन आयी। वैसे राम बरन की मौत इलाके में उजागर हुई पहली घटना नहीं है। प्रस्तावित रेलमार्ग के लिए वर्ष 2006  में जमीन की पैमाइश के दौरान अपनी जमीन पर पत्थर गाड़ते देख रायबरी चौरिया गांव के सरल खेत में ही गिर पड़े। सरल भी जमीन छिनने के सदमे का शिकार हुए और दिल का दौरा मौत का कारण बना।

दिल के दौरे से दो किसानों की मौत यह बताने के लिए काफी है कि किसी किसान के लिए जमीन का मामला महज आर्थिक नहीं है। किसान का जमीन से भावनात्मक नाता भी होता है। एक किसान अपने खेतों के कई नाम रखकर पुकारता है। कहें तो जमीन के साथ रिश्तों की तमाम कड़ियां जोड़ता है। ऐसे में जमीन छिनने का मतलब चट्टान के दरकने की तरह होता है,जिससे किसान का पूरा जीवन अनिश्चितता की खाई में चला जाता है। जमीन से मानवीय संवेदनाएं इस कदर जुड़ी हुई हैं कि जमीन बेचने वालों को समाज सम्मान की निगाह से नहीं देखता है। जमीन का होना हैसियत तय करता है। यहां तक कि शादी-ब्याह  का निर्णायक पहलू बनता है, लेकिन विकास की आयातित व्याख्या में किसानों व आदिवासियों की इस मार्मिकता की कोई जगह नहीं है।

जमीन अधिग्रहण के समय छोटे किसान व भूमिहीन किसानों का संकट सबसे ज्यादा बढ़ जाता है, जिन्हें मिला मुआवजा किसी धोखे से कम नहीं होता है। वैसे भी  भारतीय कृषि  परंपरा में किसान के लिए जमीन महज जीविका ही नहींबल्कि सोचने-समझने की ताकत होती है। यानी एक किसान खेती के काम के लिए ही कुशल होता है, लेकिन जब उसकी जमीन छिनती है तो उसकी परंपरागत  कुशलता भी खारिज होती है। जिसके चलते राम बरन और सरल  जैसे तमाम किसान अकुशलता वाला पेशा करने शहर जाने या दूसरा रोजगार अपनाने के लिए मजबूर होते हैं।

विकास के मौजूदा मॉडल जनभावनाओं का ख्याल रख पाने में नाकाम हैं। यही वजह है कि सरकारों के विकास के दावे महज आर्थिक विकास दर तक केंद्रित होकर रह गये हैं। जनजीवन की गुणवत्ता में सुधार के दावे विज्ञापननुमा हैंजिसकी सच्चाई भूख से होने वाली मौतें बयान करती हैं। कुल मिलाकर लागू आर्थिक नीतियों में भारतीय जनता की भलाई न के बराबर है। लिहाजा न केवल भूमि अधिग्रहण कानून में संसोधन की मांग होनी चाहिएबल्कि इसके साथ-साथ शोषणकारी व्यवस्था को पोषित करने वाली आर्थिक नीतियों की समीक्षा की भी मांग होनी चाहिए। ताकि जनता व उसकी भावनाओं को बेदम होने से रोका जा सके।


बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और भारतीय जनसंचार संस्थान से शिक्षा-दीक्षा. अब जनपक्षधर पत्रकारिता में रमने की तैयारी.