Apr 14, 2010

घरवाली नहीं, घरवालियों की जीत

अजय प्रकाश

हरियाणा के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है जब एक अदालती फैसले ने जातीय पंचायतों की चूलें हिला दी हैं। फैसला करोड़ा गांव की बनवाला खाप पंचायत मामले में आया है जो हरियाणा की उन 47 पंचायतों में से एक है जो गोत्र, गांव और बिरादरी की शुद्धता को बरकरार रखना लोकतंत्र में पहली और अंतिम जिम्मेदारी मानती हैं। इन पंचायतों की चाहतों और फरमानों से अलग जिस किसी ने भी जिंदगी की दीगर राह चुनी, उनकी चौधरियों ने परिवार पर जोर डालकर या तो हत्या करा दी, परिवार समेत बेदखल कर किया या फिर उन्हें ताजिंदगी भटकने को मजबूर कर दिया। लेकिन यह पहली बार हुआ है जब पंचायत में शरीक रहे हत्यारों को फांसी और उम्रकैद की सजा हुई है। महत्वपूर्ण यह भी है कि सजा दिलाने वाला कोई चौधरी नहीं, एक चौधरी की  घरवाली है.


यह मामला कैथल जिले के करोड़ा गांव का है जहां मनोज और बबली का घर था और पंचायत ने उनकी शादी के बाद हत्या कर दी थी। गांव के खाप समर्थक जाट जो शादियों में गोत्र की शुद्धता के मामले में सीना तानकर ‘खाप कहे सो अंतिम सै’, कहा करते थे वे 30 मार्च को हुए अदालती फैसले के बाद यह कहने में ही भलाई समझ रहे हैं कि जिसने जैसा किया है, वैसा भुगतेगा। 64 सुनवाईयों और 41 गवाहों के बयानों के मद्देनजर दोषियों में पांच को फांसी की सजा हुई है जिनमें बबली के भाई सुरेश, चाचा राजिंदर, मामा बारूराम, मामा के दो बेटे गुरुदेव और सतीश शामिल हैं। वहीं कांग्रेस नेता गंगाराज जो कि खाप के प्रमुख और दबंग सदस्य थे, को उम्रकैद और अपहरण करने वाली गाड़ी के चालक संदीप को सात साल की सजा मुकर्रर हुई है। चंडीगढ़ उच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकील राजीव गोदारा कहते हैं कि ‘इस ऐतिहासिक फैसले पर समाज की चुप्पी ने साबित कर दिया कि हरियाणवी लोग भी आधुनिक मूल्यों को स्वीकारने को तैयार है। जो लोग भी खापों की ताकत को बढ़ाचढ़ाकर आंकते थे, उनकी आंखें खुलेंगी।’

इस मामले में खास बात यह है कि हत्यारों को चुनौती देने का साहस किसी और ने नहीं, बल्कि मनोज की विधवा मां चंद्रपति ने किया। बबली के परिवार वालों पर हत्या का मुकदमा दर्ज होने के बाद कई दफा पंचायत वाले चंद्रपति के दरवाजे चढ़कर आये कि पैसे लेकर समझौता कर लो। मगर बेटे-बहू को गंवा चुकी मां अड़ी रही कि हमारा हर समझौता दोषियों की सजा मुकर्रर किये जाने के साथ ही पूरा होता है। विधवा मां के इस साहसिक बयान पर समाज ऐंठा तो बहुत, लेकिन कानूनी डर से अगली हत्या का दुस्साहस न कर सका। मनोज के भागने के दिन से ही सामाजिक बहिष्कार झेल रहे उसके परिवार वालों पर गांव ने और कड़ाई कर दी ताकि वे हिम्मत हारकर मुकदमा वापस ले लें। चंद्रपति हत्या के अगले दिन 16 जून से घोषित सामाजिक बहिष्कार के दिनों को याद करते हुए बताती हैं कि ‘हमारे बच्चों की हत्या के बाद गांव का दूकानदार समान नहीं देता था, टेंपो वाले नहीं बैठाते थे, माचिस के लिए भी यहां से दूर बाजार जाना पड़ता था। जब भैंस के लिए चारा तक नहीं मिला तो हमने उसे भूसा खिलाकर जिंदा रखा।’ हरियाणा में चंद्रपति अकेली नहीं हैं जिन्होंने समाज का ऐसा रवैया भुगता। पंचायती इच्छा के विरूद्ध जाने पर यह रिवाज यहां बड़ी आम है।


चंद्रपति का परिवार आज भी अघोषित बहिष्कार भुगत रहा है। पिछले तीन वर्षों से किसी पड़ोसी का उनके यहां आना-जाना नहीं है। दस घरों की पट्टीदारी से लेकर रिश्तेदारों तक ने कभी उनके घर झांकने की जहमत नहीं उठायी। इतना ही नहीं, बेटे की हत्या के बाद मातम में डूबे इस परिवार से मेलजोल करने वालों पर पंचायत ने 25 हजार जुर्माना करने का भी फरमान सुना दिया। चंद्रपति से यह पूछने पर कि इस माहौल में आपको डर नहीं लगता, वे कहती हैं, ‘अब मैं क्यों डरूं, डरने के दिन तो हत्यारों  और उनके हिमायतियों के आये हैं। जब मेरे साथ कोई नहीं था, तब मैंने हार नहीं मानी, आज मेरे साथ मीडिया और अदालत दोनों खड़े हैं।’ यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि औरत को घरवाली और गोबरवाली से अधिक की औकात न देने वाले उस जाट समाज को चंद्रपति ने संविधान और कानून का रास्ता दिखाया है, जो अपने क्रूर अमानवीय फैसलों का महिमामंडन करता है और उसे परंपरा का हिस्सा मानता है।

एक ही गांव, गोत्र और जाति के होने के नाते तीन साल पहले स्थानीय थाने की मिलीभगत से बबली के परिवार वालों ने उसे और उसके पति मनोज को बस से खींचकर गांव के खेत में हुई पंचायत के बाद 15 जून की रात को मार डाला था। इसी तारीख को यह जोड़ा कैथल अदालत में बयान दर्ज कराने आया था। बयान की जरूरत इसलिए पड़ी कि लड़की पक्ष वालों ने राजौन थाने में लड़के के घर वालों पर अपहरण का मुकदमा दर्ज करा दिया था। चंद्रपति रोते हुए कहती हैं, ‘मनोज-बबली की शादी से पहले मैं बबली की मां से मिली कि इन दोनों की खुशी इसी में है तो शादी कर देते हैं। लेकिन उसने मुझे अपने घर से दुत्कार कर भगा दिया था कि ‘अब फैसला तो पंचायत ही करेगी।’ उधर जिंदगी साथ गुजारने की अंतिम इच्छा लिए मनोज-बबली भागकर चंडीगढ़ के एक मंदिर में 7 अप्रैल को शादी कर चुके थे। शादी की खबर फैलते ही पंचायती चैधरियों के बढ़ते दबाव के खौफ में उन्होंने सुरक्षा के लिए अदालत में अर्जी लगायी जिस पर कोर्ट ने नवविवाहित युगल और मनोज के परिवार वालों को सुरक्षा देने का आदेश दिया था।

भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) की जनवादी महिला समिति की हरियाणा इकाई की सचिव जगमति सांगवान और नौजवान सभा की मदद से हत्यारों को सजा दिलाने में चंद्रपति अंततः सफल रही, लेकिन इसके लिए अदालतों और थानों के इतने चक्कर लगाने पड़े कि उसे हर बात तारीख और दिन के साथ याद है। उसे याद है कि पचीस हजार आबादी वाले इस गांव में सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में जब उन्हें मार डाला गया तो किसी एक का भी दिल नहीं पसीजा। किसी ने यह बताने की हिम्मत नहीं की थी कि वे मार डाले गये। मनोज-बबली के मरने की जानकारी एक नहीं, पूरे पंद्रह रोज बाद 30 जून को मिली जब हिसार जिले के नारनौंद नहर में दो लाश मिलने की खबर चंद्रपति तक पहुंची। लेकिन जब तक चंद्रपति, बेटी सीमा और बहन के बेटे नरेंद्र के साथ थाने पहुंची, पुलिस वाले लावारिश लाशें बताकर जला चुके थे और शिनाख्त के लिए उन्हें थाने में बहू के गहने और बेटे का शर्ट दिया गया।

हत्यारों के सजायाफ्ता होने के बाद से हरियाणा ही नहीं, देश भर से बर्बर खापों के समर्थक लगातार इस फिराक में लगे हुए हैं कि कैसे अपराधियों की कानूनी-सामाजिक मदद की जाये। इसके लिए राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर के  खाप प्रतिनिधि लगातार हरियाणा के अलग-अलग जिलों में हो रही खाप महापंचायतों  में लगातार पहुँच रहे हैं. लेकिन ऐसा पहली बार है कि प्रतिनिधि जुटाये नहीं जुट रहे हैं।

मनोज के परिवार के वकील लाल बहादुर कहते हैं ‘पंचायत फैसला चाहे जो ले, मगर जो काम पुलिस, जनप्रतिनिधि नहीं कर पाये वह अदालत ने करके चौधरियों को बता दिया कि उन्हें लोकतंत्र में वैयक्तिक स्वतंत्रता की इज्जत करना सीखना पड़ेगा।’ दूसरी तरफ देखें तो पंचायत चौधरियों के इशारों पर हो रही हत्याओं में अभी कोई कमी आयी है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन अदालत के फैसले से उम्मीद जरूर बंधती हैं जब करोड़ा गांव के खाप समर्थक बुजुर्ग हेर सिंह हमारे पीछे-पीछे दौड़कर सिर्फ यह बताने आते हैं कि ‘मेरा नाम न छापना, मैं उस पंचायत में नहीं था।’


द पब्लिक एजेंडा  में प्रकाशित रिपोर्ट का सम्पादित अंश