Jun 23, 2017

डीएसपी को मार डाला युवाओं की उन्मादी भीड़ ने


डीएसपी की हत्या के आद आखिरी यात्रा में हजारों वह कश्मीरी नहीं गए जो आतंकियों के जनाजों में जाते हैं। मुख्यमंत्री तक नहीं गयीं। स्थानीय पत्रकारों ने किनारा कसा। केवल वर्दी पहने चंद अधिकारी शामिल हुए...
जनज्वार, दिल्ली। श्रीनगर के नोहट्टा इलाके में 22 जून की रात उन्मादी भीड़ ने जिस अनजान की शख्स को मार—मार के मौत के घाट उतार दिया था, उसकी पहचान एक पुलिस अधिकारी के रूप में हुई है। पुलिस अधिकारी डीएसपी मोहम्मद अयूब पंडित को उन्मादी भीड़ द्वारा उस वक्त मार डाला गया जब वह नोहट्टा इलाके में जामिया मस्जिद के पास ड्यूटी पर तैनात थे।
वारदात के वक्त जामिया मस्जिद में शब-ए-क़दर की प्रार्थना चल रही थी और उस समय मस्जिद में कश्मीर के अलगाववादी नेता मीरवाइज फारूक जामिया मस्जिद में मौजूद थे। मस्जिद वारदात से मात्र 3 सौ मीटर की दूरी पर है।
कश्मीर रीडर में छपी खबर में प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से कहा गया है कि युवाओं के समूह ने नोहट्टा में जामिया मस्जिद के बाहर ड्यूटी पर तैनात डीआईएसपी अयूब पंडित को पकड़ा और उन्हें पीटने लगा। हाथापाई के दौरान डीवाईएसपी ने अपने बचाव में गोलियां चलाई, जिसमें तीन युवा घायल हो गए। डीवाईएसपी के गोली चलाए जाने से वहशी युवाओं की भीड़ और बौखला गयी, उनकी पिस्तौल छीन ली और उन्होंने पुलिस अधिकारी को मार—मार के मौत के घाट उतार दिया।
पुलिस अधिकारी अयूब पंडित की गोली से घायल हुए युवाओं की पहचान दानिश मीर, मुदासिर अहमद और सजाद अहमद भट्ट के रूप में हुई है, जिन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया है।
कश्मीर मामलों के जानकार और खुद कश्मीरी आतंकवाद के भुक्तभोगी रहे पत्रकार और लेखक राहुल पंडिता कहते हैं, 'आखिर क्या मिला मोहम्मद अयूब पंडित को। उन्मादी भीड़ ने मार डाला उस अधिकारी को जो भारत के संविधान और उसके झंडे की रखवाली कर रहा था।'
वह आगे पूछते हैं, 'उसकी आखिरी यात्रा में हजारों वह कश्मीरी नहीं गए तो आतंकियों के जनाजों में जाते हैं। मुख्यमंत्री तक नहीं गयीं। स्थानीय पत्रकारों ने किनारा कसा। केवल वर्दी पहने चंद अधिकारी शामिल हुए।'
यह सवाल बड़ा है क्योंकि भारतीय आर्मी के मुखिया जनरल रावत लगातार सैन्य तरीकों से कश्मीर समस्या के समाधान की ओर ताकत से बढ़ रहे हैं। ऐसे में सवाल यह है कि आम नौजवानों में आतंकियों के लिए बढ़ते प्रेम को कैसे खत्म किया जाएगा?
क्या गोलियों में इतनी ताकत है कि समझ और बुद्धि से वहशी होती किशोरों—युवाओं की भीड़ को नियतंत्रित किया जा सके ???

छात्र संघ के सवाल पर शिक्षा मंत्री का यू—टर्न

धन सिंह रावत ने जब देखा कि उनका बयान छात्रों के गले नहीं उतरा तो वह अपने बयान से पलटी मार गये.....
जनज्वार, देहरादून। 'उत्तराखंड के विश्वविद्यालयों में छात्र संघ चुनाव कराये जाने की पद्धति को बदला जायेगा और यहां भाषण प्रतियोगिता के जरिये छात्र संघ नेताओं का चुनाव होगा।'

यह अजीबोगरीब बयान है उत्तराखंड के उच्च शिक्षा राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) डॉ. धन सिंह रावत का। उनके इस बयान का यहां पुरजोर तरीके से विरोध हुआ, जिसके बाद वह अपने बयान से पलट गये और अपनी ही कही बात का खंडन करने लगे।
एक दैनिक में छपी खबर के अनुसार मंत्री धन सिंह ने कहा, 'सरकार ने निर्णय लिया है कि महाविद्यालय में छात्र संघ चुनाव में निर्वाचन के स्थान पर उम्मीदवार के छात्र-छात्राओं के सम्मुख 15 मिनट का भाषण होगा। भाषण के आधार पर ही छात्र संघ के पदाधिकारियों का चुनाव होगा।’
यह खबर जैसे ही सामने आयी राज्य में हर तरफ मंत्री रावत के इस बयान का पुरजोर विरोध होने लगा। हल्द्वानी में एनएसयूआई नेता हर्षित जोशी के नेतृत्व में डॉ. रावत का पुतला फूंका गया। हर्षित ने कहा कि उच्च शिक्षा मंत्री अपनी तानाशाही थोप रहे हैं।
जब मंत्री रावत ने देखा कि उनका बयान उनके गले की फांस बनता जा रहा है, तो उन्होंने सोशल मीडिया पर अपने बयान का खंडन किया। हालांकि जानकारों का कहना है कि मंत्री ने जब देखा कि उनका बयान छात्रों के गले नहीं उतरा है तो वह अपने बयान से पलटी मार गये हैं।
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सवा सौ करोड़ की आबादी में सिर्फ 40 लाख लोगों की पहुंच महंगे सिनेमा हालों तक

याद नहीं पड़ता कि पिछली ऐसी कौन—सी फिल्म थी, जिसने बिना भारी भरकम मार्केटिंग के बस अपनी कहानी के दम पर दर्शकों को सिनेमा की खिड़की की तरफ खींचा हो। महीनों उस फिल्म की गली—मोहल्लों, स्कूल—कॉलेजों में चर्चा रही हो.....
तैश पोठवारी

पिछले एक दशक में सिनेमा उद्योग में बहुत भारी अंतर आया है। एक तरफ सस्ते परम्परागत सिनेमाहाल जहां देश की आम मेहनतकश जनता फ़िल्में देखने जाती थी, टूटकर माल या ब्रांडेड मल्टीप्लेक्स सिनेमा हाल में बदल गया, वहीँ दूसरी तरफ आम आदमी व उसका जीवन सिनेमा की कहानी से पूरी तरह गायब हो गया और हर फिल्म की कहानी धनाढ्य युवा वर्ग की अराजक जीवनशैली के इर्द गिर्द घूमने लगी।
फिल्म का कथानक मैनेजमेंट और मार्केटिंग विशेषज्ञ तय करते हैं कि कैसे एक निश्चित वर्ग को टारगेट करके बस 2—4 दिन के लिए सिनेमा तक खींच लिया जाएं। कुछ एक अपवाद को छोड़कर याद नहीं पड़ता कि पिछली ऐसी कौन—सी फिल्म थी, जिसने बिना भारी भरकम मार्केटिंग के बस अपनी कहानी के दम पर दर्शकों को सिनेमा की खिड़की की तरफ खींचा हो। महीनों उस फिल्म की गली—मोहल्लों, स्कूल—कॉलेजों में चर्चा रही हो।
हो भी कैसे सिनेमा के बाजार के लिए देश की 80 फीसदी जनता जो 250 रुपए का टिकट नहीं खरीद सकती, न बाजार उसे अपना ग्राहक मानता है और न ही उसके लिए सिनेमा बनाता है। आजकल फिल्म के सुपरहिट होने का मतलब उसकी आम जनता में लोकप्रियता नहीं, बल्कि मल्टीप्लेक्स में हुआ कलेक्शन है।
अगर किसी फिल्म का टिकट 250 रुपए है और 125 करोड़ की आबादी वाले देश में सिर्फ 40 लाख लोग ही सिनेमा में किसी फिल्म को देखते हैं, तो उसका कलेक्शन 100 करोड़ हो जाता है। उस पर कई फिल्म निर्माता फिल्मों के टिकट इससे कहीं ज्यादा दुगने, तिगुने दामों पर भी रखने लगे हैं।
देश के उच्च मध्यम वर्ग को सिनेमा तक खींचने के लिए भारी भरकम मार्केटिंग की जाती है। मीडिया खरीदा जाता है। उसके नायक—नायिकाएं टीवी के तमाम लोकप्रिय कार्यक्रमों में जा पहुंचते हैं।
औपनिवेशिक संस्कृति के खुमार में डूबे तमाम युवा रिपोर्टर बिना फिल्म देखे फिल्म की रिलीज से पहले एक ऐसा कृत्रिम माहौल तैयार करते हैं कि दर्शक सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि चलो फिल्म को देख लिया जाए और दूसरे दिन ही पेड मीडिया जो सिनेमा के लिए एक सेल्समैन बन चुका है उसके कलेक्शन के रिकॉर्ड के साथ फिल्म के सुपरहिट होने की घोषणा कर देता है।
देश की बहुसंख्यक जनता को बाजार ने देखते ही देखते सिनेमा से बाहर कर दिया और भांड मीडिया इसकी आलोचना करने की बजाए उसका भोंपू बना हुआ है। फिल्मों का सिनेमाघरों में बस 2—4 दिन चलना और उस पर सिर्फ 2—4 लोगों का इसके निर्माण और वितरण पर अधिकार क्या यह दर्शकों का संकट है या सिनेमा का। न तो यह सिनेमा का संकट है, न ही दर्शकों का, असल में यह पूंजीवाद का संकट है। जहां फ़िल्में और हीरो हीरोइनें एक सीमित वर्ग के लिए खाली पड़े मल्टीप्लेक्स में बाजार में अन्य चीजों की तरह जबरदस्ती बिकने वाले प्रोडक्ट हैं।
भूमंडलीकरण के बाद हर देश में पूंजी का सकेंद्रीयकरण हुआ है और इस पूंजी ने सिनेमा के साथ हर छोटे बड़े व्यवसाय पर अपने ब्रांड के साथ एकाधिकार कर लिया है, जिसमें बड़े निवेश के साथ बने मल्टीप्लेक्स को मुनाफे में रखने के लिए बस एलीट सिनेमा बन रहा है, वहीँ फिल्म का अराजक, बाजारू खाओ—पियो ऐश करो का कथानक दिन—ब—दिन संकट में जा रहे कृत्रिम बाजार के लिए खरीदारी का माहौल तैयार कर रहा है।

रेल यात्राओं के भयंकर अनुभवों से अभिभूत एक रेल यात्री


पहले कोहरे में ट्रेनें लेट होती थीं, लेकिन अब ट्रेनें आमतौर पर लेट होने लगी हैं, मानो उनके ड्राईवर रास्तों में गाड़ियों को रोक देशद्रोह और देशप्रेम की खालिस बहसों में उलझ जाते हों...
तारकेश कुमार ओझा
अक्सर न्यूज चैनलों के पर्दे पर दिखाई देता है कि अपनी रेल यात्रियों के लिए रेलवे खास डिजाइन के कोच बनवा रही है, जिसमें फलां-फलां सुविधाएं होंगी। यह भी बताया जाता है कि जल्द ही ये कोच यात्रियों के सेवा में जुट जाएंगे। लेकिन हकीकत में तो ऐसे अत्याधुनिक कोचों से कभी सामना हुआ नहीं, अलबत्ता आम भारतीय की तरह रेल यात्रा का संयोग बन जाने पर साबका उसी रेलवे और ट्रेन से होता है जिसे चार दशक से देखता आ रहा हूं।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान बुलेट ट्रेन की बड़ी चर्चा थी। हालांकि मेरी दिलचस्पी कभी इस ट्रेन के प्रति नहीं रही। लेकिन मोदी सरकार में जब रेल मंत्री का दायित्व काफी सुलझे हुए माने जाने वाले सुरेश प्रभु को मिला तो विश्वास हो गया कि बुलेट ट्रेन मिले न मिले, लेकिन हम भारतीयों को अब ठीक—ठाक रेलवे तो जल्द मिल जाएगी, जिसके सहारे इंसानों की तरह यात्रा करते हुए अपने गंतव्य तक पहुंचना संभव हो सकेगा।
मगर पिछली कुछ रेल यात्राओं के अनुभवों के आधार पर इतना कह सकता हूं कि चंद महीनों में रेलवे की हालत बद से बदतर हुई है। उद्घोषणा के बावजूद ट्रेन का प्लेटफार्म पर न पहुंचना। पहुंच गई तो देर तक न खुलना। किसी छोटे से स्टेशन पर ट्रेन को खड़ी कर धड़ाधड़ मालगाड़ी या राजधानी और दूसरी एक्सप्रेस ट्रेनें पास कराना आदि समस्याएं पिछले कुछ महीनों में विकराल रुप धारण कर चुकी हैं। कहीं पूरी की पूरी खाली दौड़ती ट्रेन तो कहीं ट्रेन में चढ़ने के लिए मारामारी। यह तो काफी पुरानी बीमारी है रेलवे की। जो अब भी कायम है।
इसमें नयी बात यह है कि पहले ट्रेनें आमतौर पर जाड़ों यानी कुहासे के दिनों में लेट होती थीं पर जबसे सुरेश प्रभु मंत्री बने हैं तबसे चमकती धूप में ट्रेनों का 4 से 5 घंटा लेट होना आम बात हो गयी है। लेट होती ट्रेनों को देख ऐसा लगता है मानो उनके ड्राईवर रास्तों में गाड़ियों को रोक देशद्रोह और देशप्रेम की खालिस बहसों में उलझ जाते हों, क्योंकि देश तो आजकल इसी में उलझा हुआ है।
पिछले साल अगस्त में जबलपुर यात्रा का संयोग बना था। इस दौरान काफी जिल्लतें झेलनी पड़ीं। लौटते ही अपनी आपबीती रेल मंत्री से लेकर तमाम अधिकारियों को लिख भेजी। इसका कोई असर हुआ या नहीं, कहना मुश्किल है। क्योंकि किसी ने भी कार्रवाई तो दूर प्राप्ति स्वीकृति की सूचना तक नहीं दी। इस साल मार्च में होली के दौरान उत्तर प्रदेश जाने का अवसर मिला। संयोग से इसी दौरान प्रदेश में चुनावी बुखार चरम पर था। वाराणसी से इलाहाबाद जाने के लिए ट्रेन को करीब पांच घंटे इंतजार करना पड़ा।
वाराणसी से ही खुलने वाली कामायिनी एक्सप्रेस इस सीमित दूरी की यात्रा में करीब घंटेभर विलंबित हो गई। वापसी में भी कुछ ऐसा ही अनुभव हुआ। प्लेटफार्मों पर किसी ट्रेन की बार-बार उद्घोषणा हो रही थी, तो कुछ ट्रेनों के मामलों में उद्घोषणा कक्ष की अजीब खामोशी थी। वापसी बीकानेर-कोलकाता साप्ताहिक सुपर फास्ट एक्सप्रेस से करनी थी, जो करीब पांच घंटे विलंब से प्लेटफार्म पर पहुंची।
इस बीच स्टेशन के प्लेटफार्म पर एक खाकी वर्दी जवान को नशे की हालत में उपद्रव करते देखा। जीआरपी के व्हाट्सअप पर इस आशय का संदेश दिया। लेकिन आज तक कोई जवाब नहीं मिला। मध्य रात्रि ट्रेन इलाहाबाद से रवाना तो हो गई, लेकिन इसे मुगलसराय पहुंचने में करीब पांच घंटे लग गए। बहरहाल ट्रेन हावड़ा पहुंचा तो खड़गपुर की अगली यात्रा के लिए फिर टिकट लेने काउंटर पहुंचा। यहां मौजूद एक बुकिंग क्लर्क ने सीधे-साधे बिहारी युवक को दिए गए रेल टिकट के एवज में 60 रुपए अधिक झटक लिए। युवक के काफी मिन्नत करने के बाद क्लर्क ने पैसे लौटाए।
वापसी के बाद अपने ही क्षेत्र में फिर छोटी यात्रा करने की नौबत आई। लेकिन पता चला कि दो घंटे की दूरी तय करने वाली ट्रेन इससे भी ज्यादा समय विलंब से चल रही है। न ट्रेन के आने का समय न चलने का। यात्री बताने लगे कि ट्रेन रवानगी स्टेशन से ही लेट छूटी है।
यह सब देख लगा कि क्या रेलवे में अब भी जवाबदेही नाम की कोई चीज है। क्योंकि यह सब तो चार दशक से देखता आ रहा हूं, फिर रेलवे में आखिर क्या बदला है। अंत में यही सोच कर संतोष कर लेना पड़ा कि इस देश में यदि सबसे सस्ता कुछ है तो वह आम नागरिकों का समय।
कुछ साल पहले केंद्रीय रेल मंत्री सुरेश प्रभु चुनाव प्रचार के सिलसिले में मेरे शहर आए थे। अपने संभाषण में उन्होंने रेलवे की हालत पर गंभीर चिंता व्यक्त की। हाल की यात्राओं के अनुभव के मद्देनजर इतना कहा जा सकता है कि रेलवे की हालत वाकई चिंताजनक है।
(तारकेश कुमार ओझा पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
रेलवे भारत की सबसे बड़ी यात्री नेटवर्क है। आपके पास भी कोई अनुभव हो तो editorjanjwar@gmail पर मेल करें।

गोरखालैण्ड की मांग को नेपाल में स​मर्थन

गोरखा भारतीय सेना में आए दिन शहीद होकर भारत की सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं। ऐसे में गोरखाओं के खिलाफ प्रायोजित कुप्रचार बंद होना चाहिए...
जनज्वार, दिल्ली। दार्जिलिंग में पृथक गोरखालैण्ड की मांग को लेकर गोरखा जन मुक्ति मोर्चा के अनिश्चितकालीन बंद का आज 11वां दिन है। क्षेत्र में आम जनजीवन अस्त-व्यस्त है। सरकार ने इंटरनेट सेवाओं को स्थगित कर दिया है। दवा दुकानों को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की दुकानें, होटल और रेस्त्रां भी बंद हैं। अब तक इस आंदोलन में मरने वालों की संख्या तीन पहुंच चुकी है।

गोरखालैण्ड आंदोलन की आंच अब नेपाल में भी महसूस होने लगी है। नेपाल के विभिन्न दलों और संगठनों ने गोरखा लोगों के आंदोलन को समर्थन की घोषणा की है। साथ ही भारत में प्रवासी नेपालियों के बीच काम करने वाले संगठनों भी गोरखाओं के आंदोलन पर अपना समर्थन जता रहे हैं।
प्रवासी नेपाली जन समाज भारत के अध्यक्ष आजाद सेन थापा ने एक विज्ञप्ति जारी कर राज्य सरकार द्वारा आंदोलनकारियों के दमक की निंदा की है। गोरखा जनता पर जबरन बंगाली भाषा थोपे जाने का विरोध करते हुए थापा ने कहा है कि दार्जिलिंग में रहने वाले नेपाली भाषी लोग भारतीय नागरिक हैं और अपनी भाषायी पहचान और संस्कृति की रक्षा के लिए अलग राष्ट्र की मांग कर रहे है जो संविधान सम्मत है।
प्रवासी नेपालियों के एक दूसरे संगठन नेपाली एकता समाज भारत ने भी गोरखालैण्ड आंदोलन के प्रति अपने समर्थन की घोषणा की है। एकता समाज के अध्यक्ष आनंद थापा ने कहा है कि भाषा का अधिकारा नैसर्गिक है और दूसरी राष्ट्रीयताओं पर बलपूर्वक बहुसंख्यक समुदाय की भाषा और संस्कृति को थोपना लोकतंत्र की मान्यताओं के विपरीत बात है। आनंद थापा ने माग की है कि पश्चिम बंगाल को तुरत भाषा संबंधी अपने फैसले को वापस लेकर आंदोलनरत पक्ष के साथ वार्ता करनी चाहिए।
साथ ही आनंद थापा ने गोरखा जनता को आतंकवादी या उपद्रवी कह कर बदनाम करने को भी निंदनीय बताया और कहा गोरखा जनता ने पिछले 200 सालों से अपनी जान देकर इस देश की सीमाओं की रक्षा की है। आज भी दर्जिंलिंग, धर्मशाला, असम और अन्य स्थानों में रहने वाले गोरखा भारतीय सेना में आए दिन शहीद होकर भारत की सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं। ऐसे में गोरखाओं के खिलाफ प्रायोजित कुप्रचार बंद होना चाहिए।
उधर नेपाल में मोहन वैद्य किरण के नेतृत्व वाली नेपाल की कम्युनिष्ट पार्टी (क्रान्तिकारी माओवादी) ने गोरखालैण्ड आंदोलन का समर्थन किया है। काठमाण्डू से जारी एक विज्ञप्ति ने पार्टी के अध्यक्ष मोहन वैद्य किरण ने गोरखा आंदोलनकारियों पर पुलिस दमन की घोर निंदा की है। पार्टी ने पश्चिम बंगाल सरकार और केन्द्र सरकार से नेपाली भाषी भारतीय जनता की मांगों को संबोधित करने की अपील की है। साथ ही पार्टी ने आंदोलन के दौरान मरने वालों को शहीद घोषणा करने की भी मांग राज्य सरकार से की है।
इस बीच पुलिस ने हत्या और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप में गोरखा जन मुक्ति मोर्चा अध्यक्ष बिमल गुरूंग के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की है। मोर्चा के तीन समर्थकों की मौत को लेकर ये आरोप लगाये गये हैं। गोरखा मुक्ति मोर्चा ने दावा किया है कि मोर्चा समर्थक पुलिस गोलीबारी में ही मारे गये थे, लेकिन राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने इस बात से इंकार किया है।
दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में अनिश्चितकालीन बंद के कारण वहां के मशहूर चाय उद्योग के साथ चाय बागान मालिकों को भारी नुकसान हो रहा है। बंद के कारण दो लाख से ज्यादा बागानकर्मियों की जीविका पर बुरा असर पड़ा है।