May 11, 2011

संविधान निर्माण ही प्राथमिक


समाजवादी प्रतिस्पर्धा  क्रांति के अंदर दूसरी क्रांति है-विचारधारा के स्तर पर बहुत बड़ी क्रांति है,मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का एक महत्वपूर्ण विकास है। इसको हम ऐसा मजबूत वैचारिक आधार मानते हैं जिसके कारण हमारी पार्टी भ्रष्टाचार और अधःपतन का शिकार नहीं हो पाएगी...

आनंद स्वरूप वर्मा

अंजनी कुमार की टिप्पणी ‘संसदीय दलदल में धंसती नेपाली क्रांति’की अधिकांश बातों से मेरी सहमति है और जिस खतरे की ओर उन्होंने इशारा किया है उन खतरों को समझते हुए ही मैंने अपनी पहली टिप्पणी की थी। उसमें जब मैंने कामरेड प्रचंड के लिए ‘क्रांतिकारी लफ्फाजी’ शब्द का इस्तेमाल किया था तो इसलिए नहीं कि वे विद्रोह की बात कर रहे हैं और मैं विद्रोह की अवधारणा से असहमत हूं,मेरी आपत्ति यह थी कि कामरेड किरण के विपरीत वे कोई स्टैंड नहीं ले रहे हैं- सार्वजनिक तौर पर शांति प्रक्रिया को पूरा करने और संविधान बनाने के काम को प्राथमिकता देने की बात कहते हैं और कार्यकर्ताओं की आंतरिक बैठकों में (जो सार्वजनिक होती रहीहैं)विद्रोह की बात करते हैं। उन्हें अपना स्टैंड स्पष्ट करना चाहिए- मेरा यही कहना था। कामरेड किरण का स्टैंड स्पष्ट है, जिसे मैंने मौजूदा स्थिति में ‘यूटोपिया’ कहा और जिसके लिए लोगों ने मेरी आलोचना की।

अपनी टिप्पणी में मैं वही लिखूंगा जो मैं सोचता हूं। मैं अभी भी मानता हूं कि पार्टी को संविधान निर्माण पर ही जोर देना चाहिए। संविधान निर्माण कोई क्रांतिकारी कार्यक्रम नहीं है यह जानते हुए भी मैं इस पर जोर देने की बात इसलिए कह रहा हूं कि 2006 में जो व्यापक शांति समझौता हुआ था उसमें यह प्रमुख कार्यों में से एक था। अब इसे पूरा करने में वही पार्टियां बाधा डाल रही हैं जिन्होंने शांति समझौते पर हस्ताक्षर किये थे इसलिए उनको ‘एक्सपोज’ करने के लिए जरूरी है कि पार्टी संविधान निर्माण पर जोर दे। जाहिर है कि उनके एक्सपोज किये जाने से जो वातावरण बनेगा वह विद्रोह के लिए जबर्दस्त जमीन तैयार करेगा। कामरेड किरण मानते हैं कि संविधान बनाने की कवायद से दूर होकर हम केवल विद्रोह की तैयारी करें। मैं अभी भी इससे सहमत नहीं हूं।

अंजनी कुमार की टिप्पणी के छठे पैराग्राफ में जो बातें लिखी गयी हैं उन पर मुझे कुछ कहना है। अंजनी जी, आपको ऐसा कैसे लगा कि मैंने ''1990 में स्वीकृत ‘संवैधानिक लोकतंत्र की प्रणाली’ को माओवादियों के ‘बहुदलीय प्रणाली’ तथा ‘प्रतियोगिता’ की अवधारणा से उलझा’ दिया है।'' मेरी पुस्तक के पृष्ठ तीन से आपने जो अंश उद्घृत किया है उसी में अगले पृष्ठ पर प्रचंड के हवाले से लिखा है 'हमने प्रस्तावित किया है कि जनतांत्रिक विधिक प्रणाली के अंतर्गत और सामंतवाद तथा साम्राज्यवाद विरोधी राजनीतिक शक्तियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा को संस्थागत रूप दिया जाय। हमारी राय में इस तरह की बहुदलीय प्रतिस्पर्द्धा संसदीय प्रणाली के मुकाबले हजार गुना ज्यादा जनतांत्रिक  होगी।’ यह पुस्तक मार्च 2005 में प्रकाशित हुई थी और उन लोगों का जवाब थी जो माओवादियों को तानाशाह और एकदलीय प्रणाली के पोषक होने का आरोप लगाते थे।

फिर जुलाई 2006 में मैंने कामरेड प्रचंड का इंटरव्यू लिया जो विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ और उसमें भी एक सवाल के जवाब में इसी मुद्दे पर उन्होंने कहा कि  ''...हमने ‘21वीं शताब्दी में समाजवाद का विकास’ शीर्षक से एक प्रस्ताव पारित किया। उस प्रस्ताव को हम अपने विचारों के विकास की दिशा में महत्वपूर्ण मील का पत्थर मानते हैं। उसमें हमने विचार किया है कि सर्वहारा अधिनायकत्व के अंदर भी और जनता के जनवादी अधिनायकत्व के अंदर भी एक संवैधानिक ढांचे के अंतर्गत बहुदलीय स्पर्धा को संगठित किया जाना चाहिए। अगर यह स्पर्धा नहीं रहेगी तो समूचा समाज ज्यादा से ज्यादा यांत्रिक होता जाएगा, आधिभौतिक होता जाएगा। समाज का एक वस्तुपरक नियम है। जनता को हम अधिक समय तक जबरन दबाव डालकर किसी एक दिशा में नहीं ले जा सकते। इसकी परिणति एक शक्तिशाली विद्रोह में होती है। रूस में ऐसा ही हुआ। चीन में भी ऐसा ही हुआ। अगर हम उस से सबक लिए बिना उसी को दुहराते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि मार्क्सवाद को हम विज्ञान के रूप में नहीं बल्कि एक जड़सूत्र (डॉग्मा) के रूप में लेते हैं। हम कठमुल्लावादी नहीं हैं। सच्चा मार्क्सवादी कभी भी कठमुल्लावादी नहीं हो सकता... चीन में क्रांति के बाद माओ के समय में आठ पार्टियों का अस्तित्व तो था जो सामंतवाद और साम्राज्यवाद का समर्थन नहीं करती थीं लेकिन माओ ने उन्हें बने रहने की जो अनुमति दी थी उसका मकसद कम्युनिस्ट पार्टी के साथ सहयोग करना था। हमने इस सहयोग को स्पर्द्धा का रूप दिया है। हमारा मानना है कि एक जीवंत समाज बनाये रखने के लिए, समाज में निरंतर जीवन का संचार होते रहने के लिए सर्वहारा पार्टी को भी स्पर्धा संगठित करने के काम को हाथ में लेना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि हम पूंजीवादी जनतंत्र (बुर्जुआ डेमोक्रेसी) की दिशा में जा रहे हैं। नहीं, हमने उस दस्तावेज में साफ तौर पर लिखा है कि यह सर्वहारा अधिनायकत्व के अंतर्गत स्पर्द्धा संगठित करने की बात है। लोग इस भ्रम में पड़ सकते हैं कि यह भी संसदीय या बुर्जुआ जनतंत्र की दिशा में बढ़ना है पर ऐसा कतई नहीं है। हम सर्वहारा के नेतृत्व में स्पर्द्धा संगठित करने की बात कह रहे हैं। वे लोग तो बुर्जुआ के नेतृत्व में स्पर्द्धा संगठित करते हैं, इसलिए दोनों अलग-अलग बातें हैं। लेनिन ने अक्टूबर क्रांति के तुरंत बाद कहा था कि समाजवादी स्पर्द्धा को संगठित करो। उन्होंने आर्थिक नीति की बात की थी और विचारधारा के क्षेत्रमें भी समाजवादी स्पर्द्धा को संगठित करने की बात की थी। हमारा मानना है कि अगर लेनिन पांच साल और जिंदा रहते तो निश्चित तौर पर वह राजनीतिक स्पर्द्धा संगठित करने की दिशा की ओर और आगे जाते...हमें लगता है कि यह क्रांति के अंदर दूसरी क्रांति है-विचारधारा के स्तर पर बहुत बड़ी क्रांति है, मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद का एक महत्वपूर्ण विकास है। इसको हम ऐसा मजबूत वैचारिक आधार मानते हैं जिसके कारण हमारी पार्टी भ्रष्टाचार और अधःपतन का शिकार नहीं हो पाएगी। आलोचना करने वाले को हम आगे रखेंगे। अपनी कमजोरी दिखाने वाले को आगे रखेंगे तो हम पतन से बचेंगे। अगर हम गलती करेंगे तो जनता की, सर्वहारा की दूसरी पार्टी हमें खत्म करने के लिए आ जाएगी...''

लगभग 1500 शब्दों के लेख में यह उम्मीद करना बेमानी है कि मैं पार्टी की दुरावस्था का विस्तार से विश्लेषण करूंगा। मेरे लेख का शीर्षक ‘क्या माओवादी क्रांति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी है?’अपने आप में सारी बातें कह देता है कि पार्टी अधःपतन की ओर बढ़ रही है। अब इसके लिए कौन जिम्मेदार है यह विस्तृत विश्लेषण का विषय है। आप और नीलकंठ केसी या अन्य बहुत सारे लोग कुछ भी कहें, मैं अभी भी एनेकपा (माओवादी) को क्रांतिकारी पार्टी मानता हूं और इसके शीर्ष नेतृत्व यानी का. प्रचंड, का. किरण और का. बाबूराम को क्रांतिकारी मानता हूं। इनके बीच विचारों का टकराव जारी है लेकिन इस टकराव से ही कोई रास्ता भी निकलेगा। इसलिए मैं अभी भी नेपाली क्रांति के प्रति आशावान हूं। उपरोक्त लेख के माध्यम से मैंने महज अपनी चिंता जाहिर की थी, इसे खारिज नहीं किया था जैसा करने में आप सभी लोग जुट गये हैं।

एक बात और कहनी है। मैं यह मानकर चलता हूं कि इन टिप्पणियों को जो लोग पढ़ रहे हैं और इस पर जो अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं वे कम्युनिस्ट विचारों के हैं। इसीलिए पेरिस कम्यून के प्रसंग पर जब आपने यह सवाल उछाला कि ‘क्या पेरिस कम्यून इतिहास का नकारात्मक पक्ष है?’ तो मुझे हैरानी हुई। आपको पेरिस कम्यून का मेरे द्वारा उल्लेख किया जाना बहुत ‘नायाब’ लगा। आपकी जानकारी के लिए मैं यह बता दूं कि पेरिस कम्यून के उल्लेख का अर्थ यह हुआ कि कोई क्रांति संपन्न तो हुई, लेकिन उसे टिका पाना संभव नहीं हुआ। अगर इस रूप में आप इसे देख सकते तो ‘पेरिस कम्यून’ के मेरे उल्लेख को ‘दुर्भाग्यपूर्ण’ नहीं मानते।

आपकी यह  चिंता स्वाभाविक है कि नेपाल की क्रांति संसदवाद के दलदल में फंस कर खत्म न हो जाय। आपकी इस चिंता को मैं भी उतनी ही शिद्दत से महसूस करता हूं।




जनपक्षधर पत्रकारिता के महत्वपूर्ण स्तंभ और मासिक पत्रिका 'समकालीन तीसरी दुनिया' के संपादक.

नेपाल के राजनीतिक हालात और नेपाली माओवादी पार्टी की भूमिका को लेकर आयोजित इस बहस में अबतक आपने पढ़ा -



दहेज़ की ‘प्रोवोक एडवरटाइजिंग’


दहेज लोलुप बनाने वाले ‘प्रोवोक डवरटाइजिंग’ की ओर  किसी सामाजिक संगठन का ध्यान ही नहीं जाता, जबकि उपभोक्तावादी संस्कृति के इस चालाक कारनामें से समाज में बुरा असर हो रहा है...

डॉ आशीष वशिष्ठ

दिलदार दूल्हे की दमदार गाड़ी। शुभ विवाह आफॅर। विवाह के शुभ अवसर पर अपनों को दें एक अनमोल उपहार। हम तुम आफॅर। लगन सीजन सेल। गुण ऐसे जो हर कुंडली से मेल खाएं..........शुघड़ियों को यादगार बनाएं और जीवन का एक नया नया सफ़र शुरू करें.............शुभ लगन आफॅर - जैसे विज्ञापन हम सभी रोज बाजारों-मॉलों से गुजरते हुए देखते हैं और प्रभावित होते हैं। मगर क्या आप जानते हैं, यह क्या है? यह है ‘प्रोवोक मार्केटिंग’ का तरीका है, जिसके चंगुल में उपभोक्ता को उकसा, भड़का और लालच देकर बाजार में खरीदारी के लिए मानसिक तौर पर फंसाया जाता है।
‘प्रोवोक एडवरटाइजिंग’ का जो नया ट्रेंड हमारे देश  में चल रहा है वो पूरे समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। एक तरफ तो सरकार ने दहेज विरोधी अधिनियम बनाए हैं, वहीं दूसरी ओर इस तरह के विज्ञापन बिना किसी रोक-टोक के प्रसारित व प्रकाशित  हो रहे हैं। देखा जाए तो ये उत्पादक खुले आम सीना खोलकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं व पूरी सोसायटी में एक मैसेज जा रहा है कि फलां गाड़ी के बिना लड़की विदा कैसे होगी। फलां कंपनी की घड़ी या कपड़ा पहने बिना भला कोई दूल्हा दुल्हन कैसे बन पाएगा। फलां टीवी, फ्रीज या फलां उत्पाद देकर ही बेटी के हाथ पीले करो वरना शादी ब्याह अधूरा है और जीवन रंगहीन व रसहीन है।

आज साधारण से साधारण शादी पर दो से पांच लाख का खर्च आता है। समाज की देखा-देखी व झूठी शान रखने के लिए माता-पिता व अभिभावक कर्ज लेकर अपनी बेटी के हाथ पीले करते हैं। लंबी-चौड़ी लिस्टें बजट बढ़ाती है। वहीं ससुराल पक्ष का मुंह सुरसा के समान बढ़ता ही चला जाता है। जाहिर तौर पर जीवन के भौतिक सुख सुविधाएं जुटाने के लिए दहेज एक माध्यम बन गया है। बढ़ते दहेज के कारण लड़कियों का विवाह एक समस्या बन गई है। शादी के दौरान तथा बाद में भी लड़कियों तथा उनके माता-पिता को अपमान सहना पड़ता है। इससे लड़कियों के मन में यह बात घर कर जाती है कि वे परिवार के लिए बोझ हैं तथा माता-पिता के लिए समस्या बन गई है। इसकी चरम परिणति कभी-कभी लड़कियों द्वारा आत्महत्याओं में होती है।

बाजार की नये उत्पादों से परिचित कराने का माध्यम विज्ञापन ही होता है, लेकिन मौजूदा समय में विज्ञापन अपने उद्देष्य से भटकते जा रहे हैं। ऐसे विज्ञापन प्रकाषित व प्रसारित किये जा रहे हैं जिनका समाज पर बुरा असर हो रहा है। विज्ञापन एजेंसिया मानव मनोविज्ञान को भली भाति जानती हैं व उसकी दुखती नस को दबाकर अपना माल बेचती हैं। उन्हें इसकी तनिक भी परवाह नहीं है कि किसी गरीब लड़की की षादी हो या न हो। चाहे दो-चार नयी-नवेली दुलहनें आग लगाकर मर जाएं या मार दी जाएं। उन्हें तो बस माल बेचना है वो चाहे कैसे भी बिके। उत्पादक को तो अपने माल की बिक्री बढ़ानी है इसके लिये वो रोज नये हथकंडे खोजते व ढूंढते रहते हैं।

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों के लिए दहेज के संबंध में दिशा-निर्देष जारी किये हैं और उधर ये विज्ञापन सर्वोच्च न्यायालय के दिषा निर्देषों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। राष्ट्रªीय महिला आयोग एवं नेषनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों अनुसार प्रतिवर्ष महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिसमें सबसे अधिक मामले दहेज से जुड़े होते हैं। नेषनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार दहेज विवाद के कारण वर्ष 2006 में 2276 सुहागिनों ने आत्महत्या की हैं। अर्थात प्रतिदिन 6 लड़किया ससुराल वालों के तानों व प्रताडना से तंग आकर आत्महत्या करती है। नेशनल कमीशन फार वूमेन द्वारा जारी दहेज हत्या के आंकड़े भी भयावह तस्वीर पेष करते हैं। वर्ष 2004 से 2006 तक दहेज हत्या के 7026, 6787, 7618 मामले दर्ज किये गये हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में 8093, वर्ष 2008 में 8172 और वर्ष 2009 में कुल 8383 दहेज हत्या के मामले रिकार्ड हुए हैं।

दहेज निरोधक कानून के प्रभावशाली क्रियान्वयन के अभाव में दहेज की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। 1961 में दहेज प्रथा उन्मूलन के लिए कानून बनाया गया, 1975  व 1976 में संषोधन कर इसे और कठोर बनाया गया। 1985 में ‘द डयोरी प्रोबिशन’ (मैन्टनेंस ऑफ लिस्ट प्रेसन्ट्स टू ब्राइड एंड ब्राइडग्रूम रूल्स) भी बनाया गया। लेकिन इसके बावजूद दहेज का दानव यहां-वहां स्वच्छंद घूम रहा है बदलती परिस्थितियों के अनुसार दहेज की परिभाषा को भी पुर्नभाषित करने की आवष्यकता है। तमाम अधिनियमों के बाद भी 27 मिनट में एक दहेज हत्या का प्रयास होता है और हर चार घंटे में एक दहेज हत्या हो जाती है।

आश्चर्य  की बात तो यह है कि अभी तक किसी भी सामाजिक संगठन का ध्यान उपभोक्तावादी संस्कृति के इस चालाक कारनामें की तरफ ध्यान नहीं गया है सरकारी तंत्र का तो कहना ही क्या। इस संबंध में सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं केा अलख जगानी पड़ेगी व उपभोक्तावादी संस्कृति के इस कुत्सित व घृणित प्रयास को विज्ञापित होने से पूर्व ही कुचलना होगा। वहीं सरकार को भी इस संबंध में कड़े दिशा-निर्देष जारी करने चाहिए ताकि कोई भी उत्पादनकर्ता अपना माल बेचने के लिए इस तरह के ‘प्रोवोकिंग विज्ञापन’ जारी न कर पाएं, क्योंकि यहां सवाल केवल माल बेचने का नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों जिंदगियों से जुड़ा है। सरकार व विभिन्न एंजेसियों को इस संबंध में तत्पर प्रभावी कार्रवाई करके भारत की बेटियों को दहेज के दावानल से बचाना चाहिए।
                                                                  
                         

     स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक .