May 11, 2011

दहेज़ की ‘प्रोवोक एडवरटाइजिंग’


दहेज लोलुप बनाने वाले ‘प्रोवोक डवरटाइजिंग’ की ओर  किसी सामाजिक संगठन का ध्यान ही नहीं जाता, जबकि उपभोक्तावादी संस्कृति के इस चालाक कारनामें से समाज में बुरा असर हो रहा है...

डॉ आशीष वशिष्ठ

दिलदार दूल्हे की दमदार गाड़ी। शुभ विवाह आफॅर। विवाह के शुभ अवसर पर अपनों को दें एक अनमोल उपहार। हम तुम आफॅर। लगन सीजन सेल। गुण ऐसे जो हर कुंडली से मेल खाएं..........शुघड़ियों को यादगार बनाएं और जीवन का एक नया नया सफ़र शुरू करें.............शुभ लगन आफॅर - जैसे विज्ञापन हम सभी रोज बाजारों-मॉलों से गुजरते हुए देखते हैं और प्रभावित होते हैं। मगर क्या आप जानते हैं, यह क्या है? यह है ‘प्रोवोक मार्केटिंग’ का तरीका है, जिसके चंगुल में उपभोक्ता को उकसा, भड़का और लालच देकर बाजार में खरीदारी के लिए मानसिक तौर पर फंसाया जाता है।
‘प्रोवोक एडवरटाइजिंग’ का जो नया ट्रेंड हमारे देश  में चल रहा है वो पूरे समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। एक तरफ तो सरकार ने दहेज विरोधी अधिनियम बनाए हैं, वहीं दूसरी ओर इस तरह के विज्ञापन बिना किसी रोक-टोक के प्रसारित व प्रकाशित  हो रहे हैं। देखा जाए तो ये उत्पादक खुले आम सीना खोलकर कानून की धज्जियां उड़ा रहे हैं व पूरी सोसायटी में एक मैसेज जा रहा है कि फलां गाड़ी के बिना लड़की विदा कैसे होगी। फलां कंपनी की घड़ी या कपड़ा पहने बिना भला कोई दूल्हा दुल्हन कैसे बन पाएगा। फलां टीवी, फ्रीज या फलां उत्पाद देकर ही बेटी के हाथ पीले करो वरना शादी ब्याह अधूरा है और जीवन रंगहीन व रसहीन है।

आज साधारण से साधारण शादी पर दो से पांच लाख का खर्च आता है। समाज की देखा-देखी व झूठी शान रखने के लिए माता-पिता व अभिभावक कर्ज लेकर अपनी बेटी के हाथ पीले करते हैं। लंबी-चौड़ी लिस्टें बजट बढ़ाती है। वहीं ससुराल पक्ष का मुंह सुरसा के समान बढ़ता ही चला जाता है। जाहिर तौर पर जीवन के भौतिक सुख सुविधाएं जुटाने के लिए दहेज एक माध्यम बन गया है। बढ़ते दहेज के कारण लड़कियों का विवाह एक समस्या बन गई है। शादी के दौरान तथा बाद में भी लड़कियों तथा उनके माता-पिता को अपमान सहना पड़ता है। इससे लड़कियों के मन में यह बात घर कर जाती है कि वे परिवार के लिए बोझ हैं तथा माता-पिता के लिए समस्या बन गई है। इसकी चरम परिणति कभी-कभी लड़कियों द्वारा आत्महत्याओं में होती है।

बाजार की नये उत्पादों से परिचित कराने का माध्यम विज्ञापन ही होता है, लेकिन मौजूदा समय में विज्ञापन अपने उद्देष्य से भटकते जा रहे हैं। ऐसे विज्ञापन प्रकाषित व प्रसारित किये जा रहे हैं जिनका समाज पर बुरा असर हो रहा है। विज्ञापन एजेंसिया मानव मनोविज्ञान को भली भाति जानती हैं व उसकी दुखती नस को दबाकर अपना माल बेचती हैं। उन्हें इसकी तनिक भी परवाह नहीं है कि किसी गरीब लड़की की षादी हो या न हो। चाहे दो-चार नयी-नवेली दुलहनें आग लगाकर मर जाएं या मार दी जाएं। उन्हें तो बस माल बेचना है वो चाहे कैसे भी बिके। उत्पादक को तो अपने माल की बिक्री बढ़ानी है इसके लिये वो रोज नये हथकंडे खोजते व ढूंढते रहते हैं।

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी कर्मचारियों के लिए दहेज के संबंध में दिशा-निर्देष जारी किये हैं और उधर ये विज्ञापन सर्वोच्च न्यायालय के दिषा निर्देषों को मुंह चिढ़ा रहे हैं। राष्ट्रªीय महिला आयोग एवं नेषनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों अनुसार प्रतिवर्ष महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों की संख्या में इजाफा हो रहा है जिसमें सबसे अधिक मामले दहेज से जुड़े होते हैं। नेषनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार दहेज विवाद के कारण वर्ष 2006 में 2276 सुहागिनों ने आत्महत्या की हैं। अर्थात प्रतिदिन 6 लड़किया ससुराल वालों के तानों व प्रताडना से तंग आकर आत्महत्या करती है। नेशनल कमीशन फार वूमेन द्वारा जारी दहेज हत्या के आंकड़े भी भयावह तस्वीर पेष करते हैं। वर्ष 2004 से 2006 तक दहेज हत्या के 7026, 6787, 7618 मामले दर्ज किये गये हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2007 में 8093, वर्ष 2008 में 8172 और वर्ष 2009 में कुल 8383 दहेज हत्या के मामले रिकार्ड हुए हैं।

दहेज निरोधक कानून के प्रभावशाली क्रियान्वयन के अभाव में दहेज की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है। 1961 में दहेज प्रथा उन्मूलन के लिए कानून बनाया गया, 1975  व 1976 में संषोधन कर इसे और कठोर बनाया गया। 1985 में ‘द डयोरी प्रोबिशन’ (मैन्टनेंस ऑफ लिस्ट प्रेसन्ट्स टू ब्राइड एंड ब्राइडग्रूम रूल्स) भी बनाया गया। लेकिन इसके बावजूद दहेज का दानव यहां-वहां स्वच्छंद घूम रहा है बदलती परिस्थितियों के अनुसार दहेज की परिभाषा को भी पुर्नभाषित करने की आवष्यकता है। तमाम अधिनियमों के बाद भी 27 मिनट में एक दहेज हत्या का प्रयास होता है और हर चार घंटे में एक दहेज हत्या हो जाती है।

आश्चर्य  की बात तो यह है कि अभी तक किसी भी सामाजिक संगठन का ध्यान उपभोक्तावादी संस्कृति के इस चालाक कारनामें की तरफ ध्यान नहीं गया है सरकारी तंत्र का तो कहना ही क्या। इस संबंध में सामाजिक संगठनों व कार्यकर्ताओं केा अलख जगानी पड़ेगी व उपभोक्तावादी संस्कृति के इस कुत्सित व घृणित प्रयास को विज्ञापित होने से पूर्व ही कुचलना होगा। वहीं सरकार को भी इस संबंध में कड़े दिशा-निर्देष जारी करने चाहिए ताकि कोई भी उत्पादनकर्ता अपना माल बेचने के लिए इस तरह के ‘प्रोवोकिंग विज्ञापन’ जारी न कर पाएं, क्योंकि यहां सवाल केवल माल बेचने का नहीं बल्कि लाखों-करोड़ों जिंदगियों से जुड़ा है। सरकार व विभिन्न एंजेसियों को इस संबंध में तत्पर प्रभावी कार्रवाई करके भारत की बेटियों को दहेज के दावानल से बचाना चाहिए।
                                                                  
                         

     स्वतंत्र पत्रकार और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक- सामाजिक मसलों के लेखक .



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