Nov 17, 2010

पुरस्कारों का प्रताप और लेखक-संगठनों की सांस्कृतिक प्रासंगिकता

भाग- २

प्रत्येक लेखक को आवश्यक लगता है कि वह पुरस्कार से सम्मानित हो। ‘सम्मानित’शब्द का प्रयोग उन सभी वर्णनों में मिलेगा जो लेखक की निजी योग्यताओं और उपलब्धियों के बारे में किताब के फ्लैप पर छपते हैं। मन होता है कि ‘सम्मानित’को ‘अपमानित’ के अर्थ में पढ़ा जाए।

आनंद प्रकाश

जिस तरह सरकारी-अर्धसरकारी संस्थान साहित्यिक दुनिया को प्रभावित या अनुशासित करने लगे हैं,उसे देखकर किसी भी रचनाकार का चिंतित होना स्वाभाविक है। स्वयं लेखक भी अपना निजी प्रभाव इस्तेमाल करके संस्थाएं चलाते हैं,और बाध्य होकर वह सब करते हैं जो उनकी रुचि के अनुकूल नहीं है। जाने-अनजाने,व्यवस्था का यह दबाव अब अनेक लेखक झेलते हैं,जबकि सार्थक लेखन विद्यमान शासकीय अधिकार-तंत्र की तीखी आलोचना करता है। इस तरह लेखक होने का अर्थ अपने वक्त के अधिकार-तंत्र का आलोचक होना है। हिंदी के माहौल पर सोचें तो पाएंगे कि यह लेखकीय रवैया पिछले वर्षों में पूरी तरह खतम हो गया है।

आज प्रौढ़ हो चले और नये लेखक सुविधा के नियम से परिचालित हैं। लगता है जैसे चीजों से समझौता करना लेखकों का स्वभाव बन गया है। सामाजिक मुद्दों पर लेखक या तो चुप्पी साध लेते हैं,या काम-चलाऊ और निर्जीव-सा विरोध करते हैं। उनकी रचनाओं में भी मात्र भलमनसाहत, राष्ट्रप्रेम, सामाजिक सद्भाव, अपने काम से काम रखना, आदि का तर्क प्रतिबिंबित होता है, मानों वो सब आम मेहनतकश जनता को मुहैया करा दिया गया है जो उनकी मूल जरूरत है।

वे चाहते हैं पुरस्कार :  आप पूछते हैं सरोकार 
 रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल मेंसामाजिक गैर-बराबरी,अशिक्षा,नारी-शोषण,बेकारी, दलितों  का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं। यह लेखकों की समझ का हिस्सा ही नहीं है कि गैर-बराबरी और सामाजिक अन्याय को ढंकने हेतु शासक वर्ग ने सद्भाव और सामंजस्य का सिद्धांत गढ़ा है। आज का सफल लेखक यह देखकर संतुष्ट है कि स्वयं उसके लिए पुरस्कार,प्रशासनिक स्वीकार्यता और छिटपुट सुविधाएं उपलब्ध हैं।
आज वही लेखक प्रभावी एवं स्वीकार्य है जो सरकारी-गैरसरकारी नौकरी पा गया है और संसाधनों पर कब्जा जमाने में सफल हुआ है। इसी लेखक की किताब-पर-किताब छपती है,रचनाएं चर्चित होती हैं,सामयिक टिप्पणियां और वक्तव्य प्रसारित होते हैं और उनकी मदद से साहित्यिक दुनिया में दबदबा बढ़ता है। गोष्ठियां तभी सफल होती हैं जब उन पर इस लेखक की मुहर लगी हो। यह लेखक अकेला या व्यक्ति नहीं है,बल्कि टाइप है और इस तरह अपने जैसों के बड़े समूह का हिस्सा है। वह प्रतिष्ठित तंत्र में शामिल है और उसे चलाता है।

इस प्रसंग में साहित्यिक पुरस्कारों पर स्वतंत्र टिप्पणी जरूरी है। प्रत्येक लेखक को आवश्यक लगता है कि वह पुरस्कार से सम्मानित हो। ‘सम्मानित’शब्द का प्रयोग उन सभी वर्णनों में मिलेगा जो लेखक की निजी योग्यताओं और उपलब्धियों के बारे में किताब के फ्लैप पर छपते हैं। मन होता है कि ‘सम्मानित’को ‘अपमानित’के अर्थ में पढ़ा जाए। मुझे पुरस्कार वितरण समारोहों में सदा अरुचि रही है। वहां जितनी दया का भाव लेखकों के लिए दिखता है,उससे कम उन लोगों के लिए नजर नहीं आता जो पुरस्कार देते हैं। मैं दो-तीन बार ही ऐसे समारोहों में शामिल हुआ हूं।

एक अवसर पर किसी मित्र लेखक को दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी द्वारा पुरस्कार मिलना था। लगभग पचीस वर्ष पूर्व का वह दृश्य अब तक मेरी स्मृति में अंकित है। संभवतः विभिन्न श्रेणियों में बारह-पंद्रह पुरस्कार रहे होंगे, और संबंधित लेखकों को स्टेज के सामने खड़े होकर अपनी बारी की प्रतीक्षा करनी थी। एक-एक कर लेखकों ने पूरी नम्रता से झुकते हुए दिल्ली के प्रसिद्ध कांग्रेस नेता जगप्रवेश चंद्र के हाथों से पुरस्कार ग्रहण किया।

सभापति पति पद से बोलते हुए श्रीमान चंद्र ने कहा —“लोग चाहते हैं कि हम पुरस्कार की राशि बढ़ा कर पंद्रह हजार रुपये कर दें। बोलिए कर दें?या फिर क्या कहते हैं,इक्कीस हजार कर दें?”श्री चंद्र मुस्कुराते हुए विशेषकर लेखकों को मुखातिब हुए और व्याकरण बदल कर बोले —“कर दूं?”मेरे निकट विष्णु प्रभाकर बैठे थे। अचानक उनका लेखकीय खून खौल उठा। वह खड़े हुए और चिल्ला कर बोले —“साले,तेरे बाप का पैसा है क्या?हमारा ही तो पैसा है। कर दूं!”संयोगवश उसी समय करतल ध्वनि से चंद्र की घोषणा का स्वागत हुआ, और विष्णु जी की आवाज शोर में डूब गई।

सुनता रहा हूं कि राशि के हिसाब से पुरस्कारों की मूल्यवत्ता निर्धारित होती है। पुरस्कार पाने के लिए तैयारी भी की जाती है। कुछ सांस्थानिक अधिकार-प्राप्त लेखक एक दूसरे का खयाल रखते हुए संस्कृति के व्यावहारिक नियमों का पालन भी करते हैं। संबंधित बहस के दौरान तर्कों की कतर-ब्योंत का आलम यह होता है कि कभी जीवनी को साहित्य-रचना माना जाता है,कभी नहीं। इसी तरह हिंदी के कुछ लेखकों को दूसरी भाषा के लेखक की हैसियत से पुरस्कार मिलता है।

कभी अमुक लेखक को पुरस्कार इसलिए मिलता है कि वह बीमार है,अथवा किसी अन्य तरह पैसे के लिए जरूरतमंद है। फिर कुछ लेखकों ने अपनी माली हैसियत के नजरिये से यह भी चाहा है कि पांच-सात लाख तक का पुरस्कार कम है,राशि को एक करोड़ किया जा सकता है। इधर नया विचार आया है कि निजी कंपनियों को सरकारी संस्थानों में प्रवेश देकर राशि में इजाफा किया जाना अपेक्षित है। पूछा जा सकता है कि साहित्यिक सम्मान की बात कर रहे हैं या किसी विज्ञापन-अभियान की?

लेखक संगठनों का मसला ज्यादा पेचीदा है। वहां जनसमर्थक और शासकीय नजरियों के बीच टकराव यद्यपि प्रमुख है,लेकिन कभी-कभी टकराव की तीव्रता कम हो जाती है और रचना-संसार के सामने गंभीर विकृतियां उभरने की चुनौती आ खड़ी होती है। चिंता का विषय यह है कि हिंदी के लेखक-संगठन धीरे-धीरे अपनी भूमिका में क्षीण होने लगे हैं और इस प्रक्रिया में समकालीन लेखन के व्यापक हितों से कट रहे हैं।

अपनी प्रगति का विमर्श
यहां मुख्य रूप से वामपंथी लेखक संगठनों का व्यवहार संदर्भ के केंद्र में है। हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन)भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।

यह वही संगठन है जिसके उद्घाटन के वक्त प्रेमचंद का प्रसिद्ध भाषण ‘साहित्य का उद्देश्य’समूचे हिंदी लेखन की आवाज बनकर गूंजा था। वहां प्रेमचंद ने साहित्य को समाज की संघर्ष-प्रक्रिया में आगे चलने वाली मशाल की संज्ञा दी थी। अब प्रलेस निष्क्रियता की कगार पर है और उसका वजूद ऐसे लोगों के हाथों में है जो अपनी सांस्कृतिक प्रासंगिकता कमोबेश खो चुके हैं। प्रलेस के व्यवहार और शासकीय-सांस्थानिक दुनिया से जुड़े अन्य नीति-निर्धारकों की वैचारिक गतिविधि में तात्विक अंतर नहीं है। प्रलेस का समन्वय-केंद्रित नजरिया अब किसी भी तरह अन्याय पर आधारित परिवेश में हस्तक्षेप नहीं करता,बल्कि इसके विपरीत वहां निजी हितों का ही प्रसार या विकास दिखता है।

लिखे को सुधार कर पढ़ें.                                                               

जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच इस प्रसंग में अनेक अपेक्षाएं जगाते हैं और नये रचनाकारों के लिए प्रेरणा का विषय बनकर उभरे हैं। दोनों की ही शुरूआत अस्सी के दशक में हुई और दोनों ने ही पूरी शिद्दत से लेखन के हितों की रक्षा को अपना लक्ष्य घोषित किया। लेकिन क्या वे घोषणाओं से आगे बढ़ पाए,और यदि बढ़ पाए तो कितना?यह सवाल उनके सामने तो है ही,ज्यादा गंभीर रूप में समकालीन रचनाकार के सामने है।

सत्तर के दशक का हिंदी लेखन इस अर्थ में पूर्व तथा बाद के दशकों से भिन्न था कि उसमें वामपंथी विचार के लिए उत्पन्न जिज्ञासा अधिक प्रामाणिक यद्यपि भावना-आधारित थी। यह जिज्ञासा अतीत को सवालिया नजरिये से देखती थी और भविष्य को उम्मीद से ताकती थी। इस जिज्ञासा ने तत्कालीन परिभाषाओं और समाधानों को नाकाफी पाया था,चाहे वे संसद को लेकर हों,संसदेतर संघर्ष के बारे में हों,या इन दोनों के बीच संभावित तालमेल की बात करते हों। इस जिज्ञासा के सामने तीनों ही रास्ते अमूर्त थे,यद्यपि यह स्पष्ट हो गया था कि तत्कालीन संकट की वैचारिक चुनौती को हल करना उपयोगी होगा।

अस्सी के दशक का शुरूआती काल जनवादी लेखक संघ की स्थापना के कारण एकबारगी महत्वपूर्ण हो चला था,शायद इसलिए कि इस काल की पृष्ठभूमि में 1977के चुनावों की अद्भुत घटना प्रेरणा-स्रोत का काम करती थी। जलेस के शुरूआती दौर में उस वक्त के अनेकानेक रचनाकार वामपंथ की ओर आकर्षित हुए थे – लेकिन तभी इसकी विरोधी प्रक्रिया भी शुरू हुई थी कि वामपंथ को अपनाना मध्यवर्गीय सफलता और आत्म-स्थापन का आसान रास्ता नजर आने लगा था।

 
कहाँ खोजें सरोकार
उधर जिन  लेखकों-रचनाकारों ने जलेस की बागडोर संभाली थी,उनमें से कई पुराने यांत्रिक ढंग से सोचते थे और कुछ नए ऐसे थे जो दल-विशेष की प्रभुता को जलेस की वैचारिकता पर आरोपित करना चाहते थे। परिणामतः जल्द ही जलेस को सीमित सोच द्वारा बंदी बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। तीन-चार साल में ही इन कठिनाइयों से उबरने के लिए वाम पंथ द्वारा वैकल्पिक मार्ग की परिकल्पना जन संस्कृति मंच के अधीन रूपायित हुई। अब स्थिति यह है कि जलेस बिखराव की दिशा में तेजी से बढ़ रहा है,और जसम में एकाधिकारी नेतृत्व की कामना प्रबल हो रही है। इसके घातक परिणाम देखे जा सकते हैं।

यह हिंदी साहित्य के भीतर वैचारिक नेतृत्वहीनता का काल है,और नए-पुराने लेखक धीरे-धीरे शासकीय संस्कृति की रणनीतिक मुहिम का शिकार हो रहे हैं। यद्यपि उम्मीद का दामन छोड़ना उचित नहीं है, लेकिन हिंदी रचना किस तरह अपनी वास्तविक अस्मिता एवं संघर्षशील, समझौताविहीन भूमिका अर्जित कर पाएगी, यह समझ पाना मुश्किल लग रहा है।

(लेख का पहला भाग पढ़ने के लिए कर्सर नीचे ले जाएँ या देखें- वर्तमान प्रगतिशीलता का कांग्रेसी आख्यान )



दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य विभाग  में 2007 तक शिक्षक.  जार्ज लुकाच की पुस्तक 'द थियरी आफ द नावेल' का हिंदी में 'उपन्यास का सिद्धांत' शीर्षक से अनुवाद और 'हिंदी कहानी की विकास प्रक्रिया' पुस्तक प्रकाशित। सत्तर के दशक में दो पत्रिकाओं --मतांतर और युग परिबोध का संपादन। उनसे anand1040@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.