Aug 3, 2011

स्कूलों में भूत भगाते तांत्रिक


विशेष खबर
छात्राओं के चीखने-चिल्लाने और हाथ-पैर पटकने पर जब उनके अभिवावकों ने उन्हें संभालना चाहा तो वे छात्राएं बेकाबू होने लगीं। इस दौरान नौवी-दसवीं की छात्राओं ने नाचना भी शुरू कर दिया और ओझा -सोखा ने इलाज...

सलीम मलिक

उत्तराखण्ड के सरकारी स्कूलों में इन दिनों विद्यार्थियों  में अजीबोगरीब हरकतों की चर्चा जोरों पर है। यह विद्यार्थी स्कूल में अचानक अपने हाथ-पैर पटकते हुये चीखना-चिल्लाना आरम्भ कर रहे है। इस हरकत को ग्रामीण जादू-टोने से जोड़ते हुये प्रभावित विद्यार्थियों पर देवता आने की बात कर रहे हैं। प्रशासन भी इसके हटकर किसी उपचार में कोई मदद नहीं कर पा रहा है जिसके चलते ज्ञान के यह मन्दिर अंधविश्वास की पाठशाला बनने को अभिशप्त हो गये हैं।

समुद्र तल से 1373 मीटर की ऊंचाई पर स्थित नैनीताल जिले के कोटाबाग ब्लॉक में अति दुर्गम क्षेत्र डोला में स्थित राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में छात्रायें बीते एक सप्ताह से विद्यालय परिसर में ही अचानक बेहोश हो जाने, चीखने-चिल्लाने, बदहवासी में हाथ-पैर पटकने जैसी हरकतें कर रही थी। इन हरकतों को छात्रों के अभिवावकों ने दैवीय प्रकोप मानकर इसका उपचार जागर में तलाशते हुये स्कूल में ही जागर का आयोजन किया।

विद्यालय के प्रधानाचार्य उमेश कुमार यादव ने जागर लगाने की बात सुनकर ग्रामीणों को विद्यालय में जागर न लगाने की सलाह दी थी। जिसके बाद सहमति बनी कि जागर लगाने वाले जागरिये की तैनाती तो की जायेगी, लेकिन जब तक कोई छात्रा हरकत नहीं करेगी, तब तक जागरिये कोई हस्तक्षेप नही करेंगे, लेकिन विद्यालय में छुट्टी होने के बाद स्कूल में जागर का आयोजन किया जायेगा।

छुट्टी के समय तक किसी छात्रा में इस प्रकार के कोई लक्षण नहीं पाये गये तो जागरिये ने विद्यालय में छुट्टी के तुरन्त बाद सभी विद्यार्थियों को स्कूल के बरामदे में बैठाकर मंत्रोच्चारण करते हुये उन पर मंत्र फूंके गये चावल फेंकने आरम्भ कर दिये। इसी के साथ डंगरिये ने गौमूत्र का छिड़काव करना आरम्भ कर दिया। देखते ही देखते अचानक छात्राओं ने चीखना-चिल्लाना आरम्भ कर दिया। इस दौरान पांच छात्राओं ने इस प्रकार की हरकतें कीं।

छात्राओं के चीखने-चिल्लाने और हाथ-पैर पटकने पर जब उनके अभिवावकों ने उन्हें संभालना चाहा तो वे छात्राएं बेकाबू होने लगीं। इस दौरान नौवी-दसवीं की छात्रायें खष्टी, नीरु, तुलसी, गंगाशाही, उमा, सोनम रावत आदि ने नाचना भी आरम्भ कर दिया। घटना के दौरान प्रधानाचार्य सहित विद्यालय का पूरा स्टाफ, अभिवावक जनप्रतिनिधि और चिकित्सक मौजूद थे। बाद में सभी प्रभावित छात्राओं को बामुश्किल एक-एक करके पकड़ते हुये स्कूल परिसर से बाहर लाया गया, जहां वे जमीन पर ही बेहोश होकर गिर पड़ी। 

देर तक प्रभावित छात्राओं को डंगरिये ने भभूति लगायी, जिसके बाद उनके परिजन उन्हें कंधों पर लादकर घर ले गये। इस मामले में प्रधानाचार्य का कहना है कि प्रभावित सभी छात्राओं में मानसिक रोगियों वाले लक्षण लगते हैं, इसलिये प्रभावितों के अभिवावकों को फिलहाल उनका उपचार घर पर ही कराने की सलाह दी गयी है, जिससे विद्यालय का पठन-पाठन प्रभावित न हो।

उपचार के बाद भी ऐसी छात्राओं को समूह में नहीं, एक-एक करके विद्यालय में बुलाया जायेगा। मौके पर मौजूद आयुर्वेदिक चिकित्सालय के चिकित्साधीकारी डॉ. विवेक कुमार ने बताया कि प्रभावित सभी छात्राएं मास हिस्टीरिया की शिकार हो रही हैं। मनोवैज्ञानिक उपचार पद्धति से उनका उपचार संभव है।

यहां बताते चलें कि विद्यालय में छात्राओं का अचानक चीखते हुए बेहोश हो जाना, हाथ-पैर पटकना, बदहवास होकर झूमना, एक छात्रा की हालत को देखकर दूसरी छात्रा को भी इसी प्रकार से असामान्य हो जाना मास हिस्टीरिया के मामूली लक्षण हैं। उत्तराखण्ड के चप्पे-चप्पे पर देवताओं के तथाकथित वास और संस्कृति में आडंबरों की भरमार के चलते बच्चों के दिल और दिमाग पर बचपन से ही देवताओं का भूत अपना कब्जा कर लेता है। दुर्गम स्थानों पर पहाड़ सी जिन्दगी जी रहे यहां के वाशिन्दे आधुनिकता से इतने कटे हैं कि वह चाहकर भी इससे बाहर नहीं निकल पाते। मूलभूत सुविधाओं के अभाव में वह अपने कष्टों का उपचार अध्यात्म की शरण में ही तलाशने को अभिशप्त होते हैं।

उत्तराखण्ड में जनजीवन तो कठिन है ही, लेकिन महिलाओं पर इसकी दोहरी मार पड़ती है। स्कूलों तक में लड़कियों के लिये शौचालय की कोई सुविधा नहीं है। उनके स्कूल तक पहुंचने के लिये सड़क मुहैया हो जाये, स्कूल के ऊपर ठीक-ठाक छत नसीब हो जाये, यही उनके लिये लक्जरी आइटम से कम नहीं है। इसके अलावा लड़की होने के कुछ अन्य दबाव होते हैं जिनके चलते इन लड़कियों की चेतना मे यह दबाव देवता को लाते हैं।

वैसे यह बात प्रशासन जानता है, लेकिन वह समस्या के छुटकारे के लिये भौतिक और चिकित्सकीय प्रयास नहीं करता। इसी कारण ज्ञान देने वाली पाठशाला अंधविश्वास की पाठशाला में बदल गयी। विशेषज्ञों का भी इस मामले में कहना है कि इस प्रकार की प्रभावित छात्राओं में सभी एक ही आयुवर्ग की हैं। किशोरवय से युवा अवस्था में कदम रखने वाली किशोरियां बेहद नाजुक और भावनाओं के दौर से गुजर रही होती हैं। इसी आयु में स्त्रीसुलभ कारणों के चलते उनमें हारमोन्स भी बदलते हैं। उनके व्यवहार में भी बदलाव आता है।

एक ही आयु वर्ग की होने के चलते आपस की साथियों के साथ भावनात्मक रिश्ता होने के कारण एक छात्रा के प्रभावित होने पर दूसरी छात्रा को भी अपनी भावनाओं पर काबू पाना असंभव हो जाता है, जिससे ऐसी छात्राओं के समूह में बढ़ोतरी हो जाती है। हालांकि इन सभी बातों से विद्यालय प्रशासन सहित चिकित्सक भी सहमत हैं, लेकिन ग्रामीणों में अपने संस्कार इस कदर भरे हैं कि इनसे स्वाभाविक तौर पर उपचार की बात करना खतरे को निमंत्रण देना सरीखा है।


इस क्षेत्र के जनप्रतिनिधि भी इस मामले में ग्रामीणों के सुर में सुर मिला रहे हैं। गौरतलब है कि ऐसी घटना घटने के दो दिन बाद विद्यालय आये चिकित्सकों के दल ने भी अपनी जांच में छात्राओं में मास हिस्टीरिया के लक्षण बताते हुये उनके मनोवैज्ञानिक उपचार की आवश्यकता बताई थी। लेकिन ग्रामीणों के इस समस्या को भूत-प्रेत बाधा से जोड़ देने के कारण विद्यालय प्रशासन प्रभावितों का उपचार कराने मे कतरा गया और अभिवावकों ने समस्या का उपचार जागर के रुप में न केवल देखा, बल्कि किया भी।

कोटाबाग ब्लाक में छात्राओं के अचानक बेहोश हो जाने, चीखें मारकर हाथ पांव पटकने, बदहवासी में झूमने की अनेक घटनायें पूर्व में राजकीय इंटर कालेज बजुनियां हल्दू और राजकीय इंटर कालेज पाटकोट मे घट चुकी हैं । वहां भी इस समस्या से दो-चार होने वालों में इसी उम्र की हाईस्कूल और इण्टर की छात्राएं ही शामिल थी। रामनगर के क्यारी स्कूल में भी एक लड़की इसके प्रभाव में आई। इन सभी घटनाओं में भी भभूत आदि का सहारा लेकर प्रभावितों को उपचार दिया गया था।

वैसे इन मामलों को कवर करने पर मुझे एक ग्रामीण ने यह जरूर कहा कि ‘भाई जी, छोड़ो इस भूत के बारे में लिखना, कभी हमारी इस सड़क के बारे में भी लिख दो तो आपकी मेहरबानी रहेगी।’ सीधे-साधे पहाड़ी आदमी की बेचारगी समझने के लिये शायद इससे ज्यादा की आवश्यकता न हो।


वरिष्ठ पत्रकार और राष्ट्रीय सहारा अखबार में कार्यरत.

आरक्षण’ के विरोध में उतरे आरक्षित

‘गंगाजल, शूल और राजनीति जैसी चर्चित फिल्में बनाने वाले प्रकाश झा ने   'आरक्षण' पर फिल्म बनाकर  मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया  है...

आशीष वशिष्ठ

प्रकाश  झा निर्देशित  फिल्म आरक्षण रिलीज होने से पहले ही विवादों में घिर गई है। केंद्रीय अनसूचित जाति आयोग और राजनीतिक दलों ने फिल्म का विरोध कर रहे हैं। सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों को आशंका  है कि फिल्म में आरक्षण को लेकर जो कुछ भी कहा गया है, उससे  देश में अशांति और भेदभाव का माहौल बन सकता है।

आरक्षण फिल्म में दीपिका और अमिताभ बच्चन

केंद्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पुनिया ने फिल्म निर्देशक प्रकाश  झा को फिल्म रिलिज करने से पूर्व आयोग के समक्ष फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग के लिए कहा है।

प्रकाश झा तमाम आरोपों,आशंकाओं,आलोचनाओं और सवालों के बीच फिल्म के प्रचार-प्रसार और पब्लिसिटी में व्यस्त हैं। अमिताभ बच्चन की प्रमुख भूमिका वाली फिल्म‘आरक्षण’के जारी विरोध को डॉ.बाबासाहेब आंबेडकर के पोते एवं पूर्व सांसद प्रकाश आंबेडकर ने पब्लिसिटी स्टंट बताया है।

महाराष्ट्र के लोक निर्माण मंत्री छगन भुजबल ने झा को अपनी फिल्म प्रदर्शित करने से पहले कम से कम कुछ बड़े नेताओं को दिखाने की मांग की है। आगामी 12अगस्त को फिल्म देशभर के सिनेमाघरों में दस्तक देगी। गौरतलब है कि आरक्षण का मुद्दा आजादी के समय से ही देश  के लिए गंभीर और संवेदनशील मुद्दा रहा है।

आरक्षण को लेकर एक तरह से पूरा देश आरक्षण और गैर-आरक्षित वर्ग के बीच बंटा हुआ है। संविधान प्रदत्त व्यवस्था के तहत देश के बड़ा तबका सरकारी नौकरियों, प्रमोशन और शिक्षण  संस्थाओं में आरक्षण का लाभ पाता है। ऐसे में जिस वर्ग आरक्षण के दायरे से बाहर है वो अंदर ही अंदर आरक्षण का लाभ पा रही जातियों और वर्ग से मनभेद और मतभेद रखता है।

अभी हाल ही में गुर्जर और जाट संप्रदाय ने आरक्षण कोटा पाने के लिए पाने के लिए उग्र प्रदर्शन   किया,जिससे सरकार और आम आदमी को भारी असुविधा और परेशानी का सामना करना पड़ा था। 1991में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने आरक्षण के लिए मंडल आयोग की सिफारिशों  का बंडल खोल कर जो नादानी की थी उसका हश्र सारे देश को याद है।

आरक्षण के विरोध में देश भर में आत्मदाह की बाढ़ आ गयी थी। वीपी सिंह की नालायकी ने देश को हिंसा,आगजनी और अनिष्चय की ओर धकेल दिया था। असल में देश के अंदरूनी सामाजिक ढांचे, व्यवस्था,परंपराओं और संविधान की रीति-नीतियों में जमीन आसमान का अंतर है।

संविधान निर्माण के समय देष के वंचितों,पिछड़ों और अनुसूचित जाति-जनजातियों के उत्थान के लिए एक निष्चित अवधि तक आरक्षण की सुविध और व्यवस्था का प्रावधान था। लेकिन आजादी के 64 सालों के बाद भी आरक्षण व्यवस्था बदस्तूर जारी है, और सरकारी नीतियों के चलते आंषिक परिवर्तन और विकास के अलावा कोई खास फर्क आरक्षण का लाभ उठा रहे वर्ग में दिखाई नहीं देता है।
प्रकाश झा सामयिक और सामाजिक  फिल्में बनाने के लिए जाने जाते हैं। गंगाजल,शूल,राजनीति जैसी चर्चित फिल्में बनाने वाले प्रकाश झा  अहम और बेहद नाजुक मसले 'आरक्षण' पर फिल्म बनाकर मानो मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है।हालांकि सेंसर बोर्ड की एक्सपर्ट कमेटी फिल्म को क्लियरेंस दे चुकी है.  

असल में राजनीतिक दलों को इस बात का भी खतरा है कि फिल्म देखकर अगर देष की जनता को आरक्षण का सच और पर्दे के पीछे की राजनीति का पता चल गया तो उनके विरूद्व जनमत तैयार हो सकता है। असल में आरक्षण ने देष की दिशा और दशा बदलने में बड़ी भूमिका निभायी है, लेकिन पिछले कई दशकों से राजनीतिक दल आरक्षण के बल पर वोट बैंक की गंदी और ओछी राजनीति कर रहे हैं वो देश को दो धड़ों में बांट रहा है।

ज्वंलत और सामाजिक मुद्दों पर फिल्म बनाना जितना आसान लगता है, यह काम उतना ही कठिन होता है। सच यह है कि बॉलीवुड में ऐसे गिने चुने ही फिल्मकार हैं,जो सामयिक मुद्दों को सेल्युलाइड पर उतारने की सामर्थ्य रखते हैं। प्रकाश झा ने आरक्षण जैसे मुद्दे पर फिल्म बनाकर बड़ी हिम्मत का काम किया है। सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने से पहले ही विवादों में घिर गई झा निर्देशित फिल्म में अमिताभ बच्चन, सैफ अली खान, दीपिका पादुकोण और मनोज वाजपेयी ने निभायी हैं।



लिंग परिवर्तन का पितृसत्तात्मक बाज़ार


आगरा में पांच लड़कियां सेक्स परिवर्तन कराके लड़का बनी हैं। दिल्ली में दो लड़कियों ने ऐसा किया है. यह महज इत्तफाक नहीं है कि भारत में लिंग परिवर्तन कराने वालों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है...

गायत्री आर्य

जून 2010 में भुवनेश्वर की एक महिला वकील ने लिंग परिवर्तन कराया। उम्र के तीसरे दशक में जी रही इस महिला वकील का कहना है कि उस पर परिवार का शादी के लिए बहुत दबाव था और वह समाज द्वारा लड़कियों पर थोपी जाने वाली पारिवारिक जिंदगी नहीं जीना चाहती। लड़का बन कर वह खुश है क्योंकि अब कोई उसे शादी के लिए तंग नहीं करेगा।

उसका मानना है कि औरत के रुप में तकलीफें झेलते जाने से ज्यादा बेहतर है पुरूष बनकर जीना। विज्ञान और आधुनिकता मिलकर भी स्त्रियों के लिए जीने लायक माहौल नहीं बना पाए। अब स्त्रियों ने स्वयं ही विज्ञान को सीढ़ी बनाकर मनचाही जिंदगी का विकल्प ढूंढ़   लिया है,लेकिन काश वह  लड़की बने रहकर ही मनचाहा जीवन जी सकती!


हाल ही में इंदौर की इंडियन अकेडमी ऑफ पीडियट्रिक्स ने खुलासा किया है कि इंदौर में प्रतिवर्ष सैकड़ों ऐसे आपरेशन किये जाते हैं जिनमें एक से पांच साल तक की बच्चियों के जननांगों को पुरुष जननांगों मं बदला जाता है। निश्चित तौर पर वैज्ञानिकों ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि लिंग परिवर्तन विश्व के किसी कोने में लिंगभेदी तत्वों द्वारा अपने गलत इरादों की पूर्ति का जरिया बन के रह जाएगा।

पहली बार १९३० में जर्मन डॉक्टर ने लिंग परिवर्तन का आपरेशन किया था एक पुरुष को स्त्री में बदलकर,लेकिन वह सफल नहीं हुआ था। लिंग परिवर्तन का पहला सफल ऑपरेशन 1950 में डैनिश डॉक्टर द्वारा किया गया। इसमें भी पुरुष को एक स्त्री में बदला गया। आजकल थाइलैंड और यू.एस. में इस तरह के लिंग परिवर्तन के ऑपरेशन काफी संख्या में हो रहे हैं। लिंग परिवर्तन की पहली शर्त व्यक्ति की स्वेच्छा है, दूसरी शर्त व्यक्ति का युवा होना है। कम से कम 18 वर्ष का होना जिसमें कि सामाजिक स्थितियों को समझने का समार्थ्य हो।

भारत व विदेशों में होने वाले लिंग परिवर्तन में मूलतः फर्क यह है कि वहां व्यक्ति स्वेच्छा से यह निर्णय लेता है,जबकि भारत में लिंग परिवर्तन के पीछे समाज में लड़के की चाहत का वर्चस्व और स्त्री जीवन की भयानक चुनौतियां हैं। भारत में यह खोज पितृसत्तात्मक मूल्यों की पोषक बनती नजर आ रही है। लड़कियां स्वयं ही स्त्री जीवन से तौबा करके पुरूष बनकर बिंदास जीवन जीने का विकल्प चुन रही हैं। वहीँ  मां-बाप बेटे की अंतहीन चाहत के चलते अपनी बच्चियों के लड़का बनवाने के ऑपरेशन करा रहे हैं।

हाल ही में आगरा में पांच लड़कियां सेक्स परिवर्तन कराके लड़का बनी हैं। दिल्ली में दो लड़कियों द्वारा लिंग परिवर्तन के द्वारा लड़का बनने की खबर है। यह महज इत्तफाक नहीं है कि भारत में लिंग परिवर्तन कराने वालों में लड़कियों की संख्या ज्यादा है । निःसंदेह लड़कियों के प्रति बढ़ रही हिंसा, हमले, अमानवीयता, असंवेदनशीलता, अश्लीलता और सिर्फ भोग्या के रुप में देखने वाली मानसिकता और लिंगभेदी संस्कार, परंपरा व मान्यताएं भी कहीं न कहीं लिंग परिवर्तन में अपनी अहम भूमिका निभाती हैं। भुवनेशवर की महिला वकील द्वारा पुरूष बनने के कारणों की सहज-सच्ची स्वीकारोक्ति इस तथ्य पर प्रकाश डालती है।

लिंग परिवर्तन द्वारा लड़का बना व्यक्ति पिता नहीं बन सकता। उसी प्रकार लिंग परिवर्तन द्वारा लड़के से बनी लड़की भी मां नहीं बन सकती क्योंकि उसमें गर्भाशय नहीं बनाया जा सकता। इस तथ्य को जानने के बाद भी मां-बाप द्वारा अपने पांच साल की उम्र तक की बच्चियों को लड़का बनाने का बेहद अमानवीय काम जारी है। कहा तो जा रहा है कि जिन लड़कियों का लिंग परिवर्तन किया जा रहा है वे मूलतः इंटरसेक्स हैं।

समझदार मां-बाप लिंग परिवर्तन की बुनियादी शर्त ‘व्यक्ति की स्वेच्छा‘ का खुला उल्लंघन कर रहे हैं। बेटे की अंधी चाह में वे इस तथ्य को भी नकार रहे हैं कि सर्जरी के बाद उनका जीवन बदतर भी हो सकता है। ऐसे लोग जानबूझकर समाज की ‘बेटा ही सबकुछ‘जैसी लिंगभेदी और घटिया मानसिकता को  बढावा देने के दोषी हैं।

बच्चियों को बचपन में ही लड़का बनाकर उनके मां-बाप खुश हैं। बच्चियां तो खैर अभी बहुत छोटी हैं ये समझने के लिए कि उनके साथ क्या हो रहा है। पितृसत्ता खुश है कि सभी क्षेत्रों में लड़कियों द्वारा अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज करते जाने के बाद भी माता-पिताओं की रुह सिर्फ लड़कों के लिए ही प्यासी है । पितृसत्ता खुश है कि तमाम पढ़ाई-लिखाई, शोध, विज्ञान, तकनीक और आधुनिकता मिलकर भी पुरूष लिंग के वर्चस्व को चुनौती नहीं दे पा रहे। समानता-समानता चिल्लाने वाले अल्पसंख्यकों को सोचना होगा,कि विज्ञान और तकनीक की मदद से सुपर पावर बनती जा रही पितृसत्ता को कैसे काबू में किया जाए?

विज्ञान और आधुनिकता के चरम दौर में भी दुनिया का कोई भी विकिसत या विकासशील देश अपने समाज के लिंगभेद से मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता! ये कैसी आधुनिकता है जो औरत-आदमी को बराबरी का दर्जा दिलाने में हांफ रही है?पितृसत्ता ने कितने सहज तरीके से विज्ञान को अपने हित में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। लड़कियों द्वारा स्त्री जीवन से तंग आकर लिंग परिवर्तन कराना और मां-बाप द्वारा पुत्र मोह की चाहत में लिंग परिवर्तन कराना ये दोनों ही उदाहरण हमारी नैतिकता,मानवीयता और लोकतंत्र के लिए खुली चुनौती है। देखना यह है कि हम कब तक इन चुनौतियों से मुंह   चुरा के रहते हैं?


 
स्वतंत्र पत्रकार व जेएनयू में शोधार्थी

 



अधूरी उम्र का पूरा जीवन

फिल्मी दुनिया को चमक देने वाले कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिनको पुरस्कार तो बहुत सारे मिले, लेकिन वह पुरस्कार इनकी 'उम्र' न बढ़ा सके...

विभा सचदेवा

संता -बंता का अदाकारों को मिलने वाले पुरस्कार को लेकर एक चुटकला काफी सुना गया था। उस चुटकुले में संता-बंता से कहता है कि आखिर यह फिल्मी सितारे अवॉर्ड लेकर इतना खुश क्यों होते हैं, तो उस पर बंता कहता है कि इन अवॉर्ड से इन सितारों की 'उम' बढ़ जाती है।
लेकिन अगर हम ग्लैमरस वर्ल्ड के कुछ सितारों के जीवन पर नजर डाले तो यह चुटकुला कतई सच नहीं लगता। फिल्मी दुनिया को चमक देने वाले कुछ कलाकार ऐसे भी हैं जिनको पुरस्कार तो बहुत सारे मिले, लेकिन वह पुरस्कार इनकी 'उम्र' न बढ़ा सके।

इसी का एक उदाहरण है हाल ही में ब्रिटिश गायिका एैमी वाइनहाउस की मौत। उनका सिर्फ 27 वर्ष का आयु में दुनिया छोड़ देना हतप्रभ कर देने वाली खबर थी, जिस पर सहसा यकीन नहीं होता।


ऐमी वाइनहाउस ब्रिटिश की जानी-मानी गायिका थी। वे फिल्मी दुनिया के प्रतिष्ठित कई ग्रैमी अवॉर्ड भी जीत चुकी थी। उनकी मौत ऐसे समय में हुई है, जब वह सफलता की ऊंचाइयों को छू रही थी। इसी तरह बालीवुड में भी कई सितारे हैं जो छोटी आयु में ही चल बसे, लेकिन आज भी वह अपने किरदार और प्रतिभा के लिए याद किये जाते हैं।
दिव्या भारती : ऐसी ही एक कलाकार हैं दिव्या भारती। वे 25 फरवरी, 1974 को मुंबई में पैदा हुईं थीं। इस कलाकार की मौत उस समय हुई जब वह शौहरत की बुलंदियों को छू रही थी और इनके चाहने वालों की संख्या बहुत ज्यादा थी। दिव्या भारती ने बॉलीवुड में अपने कैरियर की शुरुआत 'विश्वात्मा' फिल्म से की। इस फिल्म में अपने किरदार के लिए उन्हें बहुत सराहना मिली।

उसके बाद शोला और शबनम, रंग, दीवानगी, दिल का क्या कसूर,दिल ही तो है आदि फिल्मों ने इस अदाकारा को बालीवुड में एक अलग पहचान दिलवायी और यह लाखों-करोड़ों दर्शकों के दिलों की धड़कन बन गयी। लेकिन 5 अप्रैल 1993 को अपने अपार्टमैंट से गिरने के कारण हुई इनकी मौत ने इन करोड़ों प्रशंसकों को सकते में डाल दिया। और उनकी आने वाली फिल्म का इंतजार कर रहे इन प्रशंसकों का इंतजार यहीं खत्म हो गया।

गुरु दत्त : आज भी जब वक्त ने किया क्या हसी सितम, तुम रहे न तुम हम रहे न हमसुनते हैं तो एक संजीदा अदाकार गुरुदत्त का चेहरा सामने आता है। गुरुदत्त ने फिल्म 'प्यासा' और 'कागज के फूल' में जिस तरह का किरदार निभाया था उससे उनकी जिंदगी की परेशानी साफ दिखती थी। इन फिल्मों को इनकी जिंदगी पर आधारित फिल्मों के रूप में भी देखा जाता था।

गुरुदत्त की रहस्यमय मौत से यह बात साबित भी हो गयी थी। 39 साल की छोटी उम्र में शराब में नींद की गोलिया मिलाकर खाने के कारण हुई इनकी मौत के पीछे का कारण आज तक किसी को पता नहीं चल पाया है। लेकिन इनकी मौत का एक कारण इनकी नाखुश शादीशुदा जिन्दगी और शादी के बाद भी वहीदा रहमान के साथ प्यार को माना जाता है। इस कलाकार की बतौर निर्देशक और अभिनेता बनायी गयी फिल्में बालीवुड के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फिल्मों के रूप में आज भी दर्ज है। इनकी कुछ यादगार फिल्मों में 'कागज के फूल', 'चौदहवीं का चांद', 'साहिब बीवी और गुलाम' आदि शामिल हैं।

स्मिता पाटिल : दो नैशनल अवॉर्ड, फिल्मफेयर अवॉर्ड और पदमश्री भी इस कलाकार की उम्र नहीं बढ़ा पाए। 17 अक्तूबर 1955 को पैदा हुई इस कलाकार का जीवन केवल 31 साल में ही खत्म हो गया। बॉलीवुड में अपने अभिनय का लोहा मनवा चुकी समिता पाटिल पैरलर सिनेमा का जाना-माना नाम थी। जहां एक तरफ अपने अभिनय की वजह से इन्हें काफी सराहना मिली, वहीं दूसरी तरफ राज बब्बर के साथ अपने रिशते के लिए इन्हें काफी आलोचना का सामना भी करना पड़ा।
इसी रिश्ते की वजह से राज बब्बर ने अपनी पहली बीवी को छोड़कर इनसे शादी की। इनकी अच्छी फिल्मों में भूमिका, चक्कर, बाजार, मंडी, अर्थ और आज की आवाज शामिल हैँ। सराहनाओं और आलोचनाओं के उस दौर में 13 दिसंबर, 1986 को समिता पाटिल की प्रतीक बब्बर को जन्म देने के दो हफ्ते बाद ही मौत हो गयी। लेकिन आज भी जब पैरलर सिनेमा की बात होती है, समिता पाटील का नाम जरूर लिया जाता है।

मीना कुमारी : 1 अगस्त, 1932 को मुंबई में मध्यवर्ग परिवार में पैदा हुई एक लड़की ने कभीी सोचा भीी न होगा कि एक दिन वह बॉलीवुड की 'ट्रैजडी क्वीन' के नाम से जानी जायेगी। बालीवुड की 'ट्रैजडी क्वीन' मीना कुमारी एक अच्छी अदाकारा के साथ-साथ बेहतरीन कवियत्री भी थी। वह हर गम और खुशी को वह अपनी कविता के माध्यम से बयाँ करती थी।
अपने तलाक के समय भी उन्होंने अपने गम को बयाँ करने के लिए एक कविता लिखी थी - तलाक तो दे रहे हो नजर-ए-कहर के साथ, जवानी भी मेरी लौटा दो मेहर के साथ।एक अच्छी कवियत्री के साथ-साथ अभिनय के मामले में भी उस समय की प्रतिष्ठित अभिनेत्रियों में से मीना कुमारी एक थी। चाहे 'छोटी बहू' फिल्म में उनके निभाए गए किरदार की बात करें या फिर 'परीणिता'की, हर किरदार को इन्होंने बखूबी निभाया था।

मीना कुमारी की यादगार फिल्मों में साहिब बीवी और गुलाम, शारदा, दिल अपना प्रीत परायी, शरारत और कोहिनूर समेत कई फ़िल्में शामिल हैं। इस अभिनेत्री ने अपने प्रशंसकों का साथ तब छोड़ा, जब वह पांच महीने बाद आने वाले इनके जन्मदिन की तैयरियों में लगे थे। इनकी मौत उस समय हुई, जब उनकी फिल्म 'पाकीजा' सिनेमा हॉल में दर्शकों की अपार सराहना बटोर रही थी।

मधुबाला : हिंदी सिनेमा की सबसे प्रतिभावान अभिनेत्री मधुबाला के जीवन का अंत केवल 36 साल की उम्र में ही हो गया था। 9 साल की उम्र में बाल कालाकार के रूप में इनकी पहली फिल्म 'बसंत' बहुत बड़ी बॉक्स आफिस हिट रही । उसके बाद 14 साल की उम्र में इस अभिनेत्री को 'नील कमल' फिल्म के लिए राजकपूर के अपोजिट कास्ट किया गया।

नीलकमल के बाद तो इस अभिनेत्री की फिल्मों की कतार लग गयी। इनकी फिल्मों में ज्वाला, शराबी, हॉफ टिकट, ब्वायफ्रेंड , महल, जाली नोट, बरसात की रात आदि शामिल हैं। इनके सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए याद की जाने वाली फिल्म 'मुगल-ए-आजम' ने इस अभिनेत्री को बॉलीवुड में अनारकली के रूप में एक अलग पहचान दिलवायी।

'मुगल-ए-आजम' से जहां एक तरफ बॉलीवुड को अनारकली मिली, वहीं दूसरी तरफ इस फिल्म के समय ही यह बात सामने आई कि मधुबाला अब और काम करने की स्थिति में नहीं हैं। उसके बाद काफी जगह पर इनका इलाज हुआ और लगातार 9 साल तक जिंदगी से संघर्ष करने बाद 1969 में मधुबाला ने आखिरी सांस भरी।

फिल्मी दुनिया के यह कलाकार तो सालों पहले चले गए, लेकिन आज भी इनको बेहतरीन अभिनय के लिए याद किया जाता है। इसलिए ही कहा जाता है कि इंसान मर जाते है, लेकिन उनकी प्रतिभा की नहीं मरती।