Sep 30, 2016

साला मुझे नहीं बनना तेरी बीवी

मेघना पेठे
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साला मुझे नहीं बनना तेरी बीवी
तुम्हारी बीवी होने से तुम क्या चाहोगे
कपड़े उतारो, पंखा डलो, हो जा मेरी चीयर लीडर?
हट हट, झट से निकल पतली गली से फटाफट
चीयर लीडर बनें तेरे दोस्त, मैं क्यों बनूँ?
मै ही मारूंगी एक नहीं चार चौके, छ: सिक्सर..
तब तुझे स्टेडियम में एंट्री भी न मिलेगी
साल्ला मैं न बनूँगी तेरी घरवाली..

क्या बोला मैं तेरी सीढ़ी..
तेरे लिए जमीं पर पाँव गड़ाए खड़ी रहूंगी?
और तू क्या अकेले ऊपर चढ़ेगा..
तू आसमान से इद्रधनुष भर लेगा झोली में.
और मैं क्या नदी किनारे चमगादड़ गिनती बैठूं?
न बाबा ये अपुन को नहीं जमेगा बोल दिया..

क्या बोला, मैं तेरा रास्ता तकेगी?
मुन्ना भाई की मुन्नी?
छोड़ यार, आँखे खोल अपनी..
इस आसमान में सूरज कई, है पता?
माँ कसम, इस छोटी-सी जिन्दगानी में
तेरी बेरंग दुनिया मे सड़ती रहूंगी?
अरे, मैं खुद चांदनी बनके चमकेगी.
तेरी बिन्दनी, साल्ला नहीं बनूँगी.

क्या बोला..
तू खाना खायेगा और मै पंखा डलूंगी?
तू सोयेगा और मै तेरे सर की चम्पी करूँ?
क्या, क्या बोला..
तू हल चलाएगा और मैं रोटी सेकूँ?
तू लड़ाई लड़ेगा और मैं बर्तन चमकाऊँ?
तू टप टप घोड़े पर चढ़ के आएगा
मै सुन्दर रंगोली सजाऊँ
ताकि घोड़े के पाँवो तले उसे बेचिराख करे तू.
ये सब तेरे मुनाफे का धंधा
तुझे क्या लगा मैं मन ही मन में धुंधलाऊँ?
जा रे..
मुझे नहीं बनना तेरी बीवी फिवी..

मैंने देखे है न तेरे दादा दादी,
मेरे फूफा फुफ्फी, मासी मावसा,
काका काकी, मामा मामी..
दीदी जीजाजी,
परिवार का लुभावना रूप जिनका जिम्मा है
वो मैं पापा, तेरे और मेरे
जाने दे साले,
सबको चाहिए अपना एक गधा
मार खाने को
ये फँसने फँसाने का अफ़साना
भाग दौड़, छुपाछुपी का खेल-खेल खेलना
उस से अपुन अच्छा 'अपना काम' काम ही अच्छा.
मुझे नहीं बनना तेरी बीवी.

क्या बोलता रे..
बच्चे बहस करने से थोड़े होते हैं..
कभी तो माँ बनोगी न..
अरे, उसके लिए तेरी औलाद क्यों बढ़ाऊँ?
तेरे ही जैसी..
एक बता दे.. तेरे बाप की कसम..
किसी कुम्हार की या चमार की क्यों नहीं?
किसी भंगी-बामन की क्यों नहीं
पटेल-मोमिन की
पारसी-ख्रीस्ती की भी चलेगी न
जैन-बोरिकी क्यों नहीं

हाँ रे
बनूँगी क्यों नहीं माँ
गर मेरे बच्चों को अच्छा बाप मिलेगा
जरूर बनूँगी माँ
पर तय मैं करुँगी कौन भला कौन बुरा..
और सुन ले
माँ कसम
चाहे दुनिया भर की माँ बन जाऊँ
तेरी बीवी नहीं बनने का मेरे को.

अनुवाद : मीना त्रिवेदी। इस कविता को साहित्यकार  जन विजय ने फेसबुक पर शेयर किया है।

सही जानकारी का हक केवल अंग्रेजी वालों को ?

अक्सर हिंदी के पत्रकारों और पाठकों को अंग्रेजी के मुकाबले अपने दोयम होने का एहसास सालता रहता है। आज उनके लिए इस गुत्थी को समझने का सुनहरा मौका है। 

करना सिर्फ इतना है कि एक बार वे अपने हिंदी के अखबार देखें, फिर अंग्रेजी के। बात फिर भी न समझ में आए तो उदाहरण के तौर पर दैनिक हिंदुस्तान और हिंदुस्तान टाइम्स अगल—बगल रख के देख लें।

ये दोनों एक ही मालिक के अखबार हैं। पर भाषा, अभिव्यक्ति, पेशगी और तरीके का फर्क देखिएगा। मेरा भरोसा है आपको आज आत्मज्ञान हो के रहेगा और इतनी बात जरूर समझ में आ जाएगी कि अंग्रेजी में मालिक—संपादक खबरें परोसते हैं और हिंदी में हिस्टीरिया, सनकपन। 

तो आप बताइए हिंदी की गरीब, मेहनतकश और बेकारी की मार झेल रही जनता को अखबार का मालिक और संपादक सनकपन क्यों परोसता है, उसको दंगाई क्यों बनाना चाहता है और वह क्यों नहीं चाहता कि जैसी बातें वह अंग्रेजी के लोगों का परोस रहा है वह हिंदी वालों को भी दे। क्या वह सही और संतुलित बातें सिर्फ अंग्रेजी वालों के लिए सुरक्षित रखना चाहता है?

अगर हां तो क्यों? इसका जवाब भी आपको ही ढुंढना है। इस बारे में मैं बस इतना कह सकता हूं कि अंग्रेजी सिर्फ भाषा के रूप में हिंदी की मालिक नहीं है, बल्कि हम जिन दफ्तरों में काम करते है और जो उनके अधिकारी—मालिक हैं, उनकी भी भाषा अंग्रेजी है। यानी मालिक वो हैं जिनकी भाषा अंग्रेजी है, मालिक वो हैं जिनकी जानकारी सही और संतुलित है।

इसलिए दोस्तों हमारी भाषा कमजोर नहीं है और हम इस वजह से दोयम नहीं हैं, बल्कि हमें अपनी भाषा को सही और संतुलित जानकारी देने वाली भाषा बनानी है। हमें तथ्यहीन, पर्वूग्रहित और मनगढ़ंत खबरों की हिंदी पत्रकारिता से बाहर निकलने की तैयारी करनी है, हिंदी से नहीं। यही जिद हमें बराबरी का सम्मान दिलाएगी, अंग्रेजी वालों के राज का अंत करेगी।