Feb 28, 2011

वित्त मंत्री साहब वर्ल्ड बैंक इससे अधिक क्या चाहता था !



वित्त मंत्री को राजकोषीय घाटे की चिंता सबसे ज्यादा थी.निश्चय ही,इससे विश्व बैंक-मुद्रा कोष   और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को सबसे ज्यादा खुशी होगी...



आनंद प्रधान

मौका गंवाना कोई यू.पी.ए सरकार से सीखे.इस बार का सालाना बजट एक बेहतरीन मौका था जब मनमोहन सिंह सरकार अपनी प्राथमिकताओं के बारे में देश को साफ सन्देश दे सकती थी.यह मौका था जब वह आम आदमी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का सबूत देते हुए अर्थव्यवस्था के हित में कुछ साहसिक फैसले कर सकती थी.

लेकिन इसके बजाय यह बजट पिछली बार की तरह ही वित्तीय कठमुल्लावाद से प्रेरित है.नतीजा यह कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने पिछले साल की तरह ही एक रूटीन बजट पेश किया है जिसमें दिखावे के लिए कृषि-किसान, सामाजिक क्षेत्र और आम आदमी की बात करते हुए भी सबसे अधिक जोर राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर दिया गया है.

आश्चर्य नहीं कि अगले बजट में वित्त मंत्री ने राजकोषीय घाटे का अनुमान जी.डी.पी का 4.6 प्रतिशत रहने का अनुमान पेश किया है.इसके लिए उन्होंने सरकारी खर्चों में न सिर्फ मामूली बढोत्तरी की है बल्कि कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बजट प्रावधानों में कटौती कर दी है.उदाहरण के लिए, ग्रामीण विकास पर केन्द्रीय योजना में चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में लगभग 150 करोड़ रूपये की कटौती करते हुए 55288 करोड़ रूपये खर्च करने का प्रावधान किया है.

इसी तरह, कृषि क्षेत्र की केन्द्रीय योजना में भी चालू वर्ष की तुलना में अगले वर्ष के बजट में बहुत मामूली लगभग 382 करोड़ रूपये की वृद्धि के साथ 14744 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. यह चालू वर्ष की तुलना में सिर्फ 2.6 प्रतिशत की वृद्धि है.अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि वास्तव में नकारात्मक है.

हैरानी की बात यह है कि यह उस सरकार का बजट है जो पिछले कई वर्षों कृषि क्षेत्र में दूसरी हरित क्रांति की बातें कर रही है. लेकिन अगर यह कृषि क्षेत्र को ‘नई डील’ है तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इस डील से क्या निकलनेवाला है? इसी तरह, यू.पी.ए सरकार समावेशी विकास के बहुत दावे करती रहती है. लेकिन समावेशी विकास के लिए सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करना बहुत जरूरी है.

इस बजट में भी वित्त मंत्री ने बहुत उत्साह के साथ बताया कि सामाजिक क्षेत्र पर 1,60.887 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है. लेकिन सच यह है कि यह जी.डी.पी का सिर्फ 2.1 प्रतिशत है. कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक क्षेत्र पर जी.डी.पी का सिर्फ 2फीसदी खर्च करके किस तरह का समावेशी विकास होगा.

साफ है कि वित्त मंत्री को राजकोषीय घाटे की चिंता सबसे ज्यादा थी.निश्चय ही,इससे विश्व बैंक-मुद्रा कोष और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को सबसे ज्यादा खुशी होगी.उनकी तरफ से यू.पी.ए सरकार पर सबसे अधिक दबाव भी यही था कि सरकार राजकोषीय घाटे को काबू में करने पर सबसे अधिक जोर दे.

यह एक तरह का वित्तीय कठमुल्लावाद है जो मानता है कि अर्थव्यवस्था में सरकार की भूमिका सीमित होनी चाहिए. इसके लिए वह सरकारी खर्चों में कटौती पर जोर देता है. उसका मानना है कि अगर सरकार का राजकोषीय घाटा अधिक होगा तो वह बाजार से कर्ज उगाहने उतारेगी और प्रतिस्पर्द्धा में निजी क्षेत्र को बाहर कर देगी. इससे ब्याज दरों पर भी दबाव बढ़ेगा.

लेकिन यह नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी है जिसकी असलियत हालिया वैश्विक मंदी के दौरान खुलकर सामने आ चुकी है. इसके बावजूद भारत में अर्थव्यवस्था के मैनेजर अभी भी इस सैद्धांतिकी से चिपके हुए हैं. कहते हैं कि आदतें बहुत मुश्किल से छूटती हैं. नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकारों पर भी यह बात लागू होती है.

दोहराने की जरूरत नहीं है कि राजकोषीय घाटे को काबू में करने के आब्शेसन के कारण वित्त मंत्री ने राजनीतिक और आर्थिक रूप से अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा देने और प्राथमिकताओं में बदलाव का एक बड़ा मौका गंवा दिया है. अगर वह चाहते तो अर्थव्यवस्था की मौजूदा बेहतर स्थिति का लाभ उठाकर अधिक से अधिक संसाधन जुटाते और उसे कृषि और सामाजिक क्षेत्र पर खर्च करके एक नई शुरुआत कर सकते थे.

असल में,मुद्दा यह है कि अर्थव्यवस्था की तेज विकास दर का फायदा आम आदमी को नहीं मिल रहा है. तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था से रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आ रहा है.

किसी भी विकासशील अर्थव्यवस्था में राजकोषीय घाटा आम बात है. राजकोषीय घाटा अपने आप में कोई बुराई नहीं है.अगर सरकार संसाधनों को सही जगह पर और सही तरीके से खर्च करे तो राजकोषीय घाटा अर्थव्यवस्था को ज्यादा गति देता है और लोगों को उसका लाभ भी पहुंचा पाता है. ऐसा नहीं है कि वित्त मंत्री यह नहीं जानते हैं. उन्हें राजकोषीय घाटे के लाभों का पता है.

लेकिन उनकी मुश्किल यह है कि उन्हें बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करना है क्योंकि अर्थव्यवस्था की ड्राइविंग सीट उनके हाथों में चली गई है.पिछले दो दशकों में हर वित्त मंत्री की यह एक आर्थिक मजबूरी बन गई है. जाहिर है कि प्रणब मुखर्जी भी इसके अपवाद नहीं हैं.


'राष्ट्रीय सहारा'  से  साभार  

धमाकों की नए सिरे से जांच हो



संजरपुर/ आज़मगढ़. आज़मगढ़ के निर्दोष मुस्लिम नौजवान ही नहीं सरकारी मशीनरी  के निशाने पर छत्तीसगढ़ के ग़रीब आदिवासी भी हैं। वहां पर 650गांवों जलाकर आदिवासियों को बेघर कर दिया गया। सैकड़ों की संख्या में लोग लापता हैं। मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थाएं कहां हैं?नए हिन्दुस्तान की लड़ाई छत्तीसगढ़ के आदिवासियों और संजरपूर के निर्दोष नौजवानों को मिलकर लड़नी है।”ये बातें वरिष्ठ मानवाधिकार नेता हिमांशु कुमार ने संजरपूर में आयोजित विशाल राष्ट्रीय मानवाधिकार जनसम्मेलन में कही।

दिल्ली से आई मानवाधिकार नेता शबनम हाशमी ने जांच एजेंसियों की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि मालेगांव, समझौता एक्सप्रेस, मक्का मस्जिद में विस्फोट करने वाले असीमानंद और सुनील जोशी का योगी आदित्यनाथ के साथ गहरा संबंध उजागर हुआ है,बावजूद इसके आजतक योगी को गिरफ्तार करना तो दूर पूछताछ तक भी नहीं की गई।


संजरपुर में मानवाधिकार : संबोधित करती शबनम हाशमी
पीयूसीएल के राष्ट्रीय सचिव चितरंजन सिंह ने कहा कि देश में हुए तमाम धमाकों की नए सिरे से जांच की जाए। उन्होंने संघ परिवार और उसकी फासिस्ट विचारधारा की न्यायपालिका तक में घुसपैठ पर चिंता जताते हुए न्यायपालिका में धर्मनिरपेक्ष मुल्यों की पुनर्बहाली की मांग की। लखनउ के वरिष्ठ वकील मो.शोएब ने भाजपा के बजाए कांग्रेस, सपा और बसपा को ज़्यादा खतरनाक बताते हुए कहा कि ये पार्टियां भाजपा की दूसरे नंबर की टीम हैं,जो सेकुलर चेहरे के साथ संघ परिवार के एजेन्डे को बढ़ा रही हैं।

मुंबई से आए मानवाधिकार नेता फिरोज़ मिठीबोलवाला ने भारत सरकार के अमेरिका और इजराईल के साथ बढ़ते नापाक रिश्ते को भारत में बढ़ती आतंकी घटनाओं और निर्दोष मुस्लिम नौजवानों की गिरफ्तारी की वजह बताया। वहीं अयोध्या से आए महंत युगल किशोर शरण शास्त्री ने कचहरियों पर हुए कथित हमलों पर सवाल उठाते हुए कहा कि फैजाबाद कचहरी में हुआ विस्फोट भाजपा नेता विश्वनाथ सिंह और महेश पाण्डे की चौकियों पर हुए थे और वो दोनों हादसे के वक़्त गायब थे। उन्होंने कचहरी विस्फोटों में सुनवाही कर रहे न्यायाधिशों के साम्प्रदायिक रवैये का भी ज़िक्र किया।

आर.टी.आई.कार्यकर्ता अफ़रोज़ आलम साहिल जिन्होंने बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ में मारे गए युवकों के पोस्टमार्टम रिपोर्ट को निकलवाया था,ने सूचना के अधिकार कानून पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसमें भी साम्प्रदायिक कारणों से रिपोर्टों को लटकाया जाता है। कार्यक्रम की अध्यक्षता हरमन्दिर पाण्डे ने किया। संचालन पीयूसीएल प्रदेश उपमंत्री मसीहुद्दीन संजरी ने किया।

कार्यक्रम में 12सूत्रीय प्रस्ताव भी पारित किया गया। कार्यक्रम में तारिक़ शफ़िक़,महासागर गौतम,बलवंत यादव, अब्दुल्लाह, आफताब अहमद, सालीम दाउदी, जितेन्द्र हरि पाण्डेय, सुनील, गुलाम अम्बिया, फहीम अहमद प्रधान, वसीउद्दीन, रवि शेखर, विजय प्रताप, शाहनवाज आलम, राजीव यादव, गुंजन, बबली, अंशुमाला आदि मौजूद रहे। इस सम्मेलन में शमीम अख्तर संजरी की पुस्तक ‘लहू-लहू’ और तीन पुस्तकों सहित डॉक्यूमेंट्री फिल्म भगवा युद्ध का विमोचन किया गया।








काली कमाई के सरगनाओं में अहमद पटेल और देशमुख भी



विदेशों में काला धन जमा करने वालों में बड़े उद्योगपति ही नहीं,कई शीर्ष नेता भी हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता अहमद पटेल उन नेताओं में शामिल हैं...



विदेशों में जमा काले धन को स्वदेश वापस लाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ रामलीला मैदान में आयोजित रैली में पूर्व आयकर आयुक्त विश्वबंधु गुप्ता ने कहा कि   ‘गृह मंत्री पी.चिदंबरम विदेशी बैंक में ‘दाऊद’ कंपनी के करीबी हसन अली द्वारा एक लाख करोड़ रुपए जमा कराने के मुद्दे पर कार्रवाई करने वाले थे। लेकिन वे इसलिए चुप हो गए क्योंकि उनकी पार्टी के दो लोगों के नाम काला धन जमा करने वालों की सूची में उजागर हो गए।’


भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी अभियान के मुखिया बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार की  पांच वजहें बतायीं.  पहला  90फीसदी बड़े नोट छापे जा रहे हैं, दूसरा  एक लाख से ज्यादा लोग अवैध खनन कर रहे हैं, तीसरा  विकास योजनाओं के धन में बड़े पैमाने पर हो रही है चोरी, चौथा  संवैधानिक पदों पर बैठे लोग रिश्वतखोरी को बढ़ावा दे रहे हैं और टैक्स की चोरी के लिए लोग विदेशों में धन जमा कर रहे हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती के जन्मदिवस और शहीद चंद्रशेखर आजाद के बलिदान दिवस के अवसर पर योग गुरू स्वामी रामदेव के भारत स्वाभिमान ट्रस्ट द्वारा यह रैली आयोजित की गई थी। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाएंगे रामदेव रैली में बाबा रामदेव ने घोषणा की कि वह लोगों को योग सिखाने के अलावा देश से भ्रष्टाचार को खत्म करने का भी अभियान चलाएंगे। उन्होंने कहा कि नेताओं को भ्रष्टाचार से मुक्त करने के लिए अनुलोम-विलोम जैसे योग सिखाना
होगा।


भ्रष्टाचार रोकने के पांच उपाय


कठोर कानून बनाया जाए व बड़े नोटों को वापस लिया जाए।
यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन अगेंस्ट करप्शन संधि (2006 से लंबित) का अनुमोदन हो।मॉरिशस रूट को बंद किया जाए।
काला धन जमा करने वाले विदेशी बैंकों पर प्रतिबंध लगे।
फॉरेन एकाउंट पॉलिसी की तुरंत घोषणा की जाए।


रैली में समाज सुधारक अन्ना हजारे, वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी, राजनेतासुब्रमण्यम स्वामी, चिंतक गोविंदाचार्य, पूर्व आईपीएस किरन बेदी, आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल, ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना मकसूद हसन कासमी,स्वामी अग्निवेश जैसी हस्तियां उपस्थित थीं। वक्ताओं ने भ्रष्टाचार और कालेधन की समस्या के पांच कारण और इन्हें दूर करने के पांच सुझाव भी बताए।

रैली के बाद एक ज्ञापन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील को सौंपा गया। इसमें भ्रष्टाचार से मुकाबले के लिए कठोर कानून बनाने की मांग की गई। ट्रस्ट के एक सदस्य के मुताबिक ज्ञापन में 30 लाख लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं।




मध्य-पूर्व एशियाई देशों में मचा कोहराम तथा भारत



लीबिया के गृहमंत्री ने गद्दाफी का साथ छोड़ दिया है। सेना का एक बड़ा भाग गद्दाफी के विरुद्ध हो चुका है। शासकीय असहयोग,व्यापक जनविद्रोह तथा सत्ता से चिपके रहने की गद्दाफी की जि़द ने लीबिया में गृहयुद्ध छिडऩे जैसे हालात पैदा कर दिए हैं...


तनवीर जाफरी

मध्य-पूर्व एशिया के कई प्रमुख देश इस समय शासन व्यवस्था के परिर्वतन के लिए चल रहे जनआंदोलन के दौर से गुज़र रहे हैं। जागरूक हो चुकी आम जनता तानाशाहों, बादशाहों तथा सत्ता पर जबरन क़ाबिज़ हुक्मरानों को अब सिंहासन खाली करने की सलाह दे रही है। मिस्र और टयूनिशिया के हुक्मरानों ने जान बचाने की कीमत पर आखिरकार गद्दी छोड़ ही दी। दूसरी तरफ  लीबिया के विचित्र प्रवृति के तानाशाह कर्नल मोअ मार गद्दाफी ने अपनी अंतिम सांस तक सत्ता से चिपके रहने का संकल्प लिया है।

इस जनविरोधी आकांक्षा को अमल में लाने के लिए यदि लीबिया को बरबादी के मुहाने तक भी ले जाना पड़ा तो शायद उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। यही वजह है कि हुक्मरानी के आखिरी क्षण गिन रहे गद्दाफी ने अपने समर्थकों से यह अपील की है कि वे ''विद्रोहियों को कुचल डालें,काकरोच की तरह उन्हें मसल डालें,उनपर हमले किए जाएं तथा उनकी पहचान कर उन्हें घरों से बाहर निकाल उनका दमन किया जाए।''

 कल्पना कीजिए कि जिस तानाशाह के सिंहासन के नीचे की ज़मीन खिसक रही हो और ऐसे संकटकालीन समय में वह इस प्रकार के आक्रामक तेवर दिखा सकता है तो समझा जा सकता है कि सत्ता पर अपनी मज़बूत पकड़ रखते हुए गद्दाफी जैसा शासक अपने विरोधियों तथा आलोचकों का क्या हश्र करता रहा होगा। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे तानाशाह शासक चंद दिनों पहले हुआ इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन का हश्र इतनी जल्दी भूल जाते हैं।

बहरहाल,गद्दाफी के इस आक्रामक आह्वान का लीबिया की जनता पर थोड़ा बहुत असर तो ज़रूर पड़ रहा है। वह गद्दाफी समर्थक सेना और पुलिस द्वारा बरती जा रही हिंसा का शिकार भी हो रही है। चूंकि अब गद्दाफी के ज़ुल्मो-सितम ने अपनी सभी हदें पार कर दी हैं लिहाज़ा धीरे-धीरे वह सभी लोग उसका साथ छोड़कर विद्रोहियों के पक्ष में खड़े हो रहे हैं जिनके समक्ष गद्दाफी बेनकाब हो चुके हैं।

लीबिया के गृहमंत्री ने गद्दाफी का साथ छोड़ दिया है। कई मंत्री साथ छोडऩे वाले हैं। सेना का एक बड़ा भाग गद्दाफी के विरुद्ध हो चुका है। आधा दर्जन से अधिक लीबियाई राजदूतों व तमाम राजनयिकों ने भी उसका साथ छोड़ दिया है। शासकीय असहयोग,व्यापक जनविद्रोह तथा सत्ता से चिपके रहने की गद्दाफी की जि़द ने लीबिया में गृहयुद्ध छिडऩे जैसे हालात पैदा कर दिए हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि यदि गद्दाफी आसानी से गद्दी नहीं छोड़ते तथा गद्दी से चिपके रहने की अपनी जि़द पर अड़े रहते हैं तो देश में भारी नरसंहार भी हो सकता है। अमेरिका सहित कई पश्चिमी देशों की नज़रें लीबिया में हो रही उथल-पुथल पर लगी हुई हैं। मध्य-पूर्व एशियाई देशों में चल रही व्यवस्था परिवर्तन की इस बयार के चलते कच्चे तेल की कीमतों में भी भारी इज़ाफा होने की संभावना है।

व्यवस्था परिवर्तन किए जाने के पक्ष में फैला यह जनाक्रोश मुस्लिम बाहुल्य देशों तक ही सीमित है। विद्रोह की इस लहर को अलग-अलग नज़रिए से देखा जा रहा है। कहीं अल्पसंख्यक सुन्नी समुदाय के तानाशाह के विरुद्ध बहुसंख्यक शिया समुदाय विद्रोह पर आमादा हो गया है तो कहीं अमेरिकी पिट्ठू शासक के विरुद्ध जनता का गुस्सा फूट पड़ा है। कई देशों के लोग अपने निरंकुश, निष्क्रिय,भ्रष्ट तथा विकास की अनदेखी करने वाले तानाशाह से रुष्ट हैं तो कहीं राजशाही को ठेंगा दिखाकर जनता-जनार्दन प्रजातंत्र लागू करना चाह रही है।

 मध्य-पूर्व एशियाई देशों के जनता की अलग-अलग प्रकार की समस्याएं हैं। कई सदियों से यह धारणा बनी हुई थी या इस्लाम विरोधी ताकतों ने इस बात को आम धारणा का रूप दे डाला था कि इस्लाम धर्म के मानने वाले बादशाहत या तानाशाही को ही पसंद करते हैं। इस प्रकार का दुष्प्रचार करने वालों को भी मध्य-पूर्व एशियाई देशों में फैली इस ताज़ातरीन जनक्रांति की लहर ने माकूल जवाब दे दिया है। इस क्रांति ने साबित कर दिया है कि मुस्लिम समाज का मिज़ाज न केवल लोकतांत्रिक है, बल्कि अहिंसक भी है।

 इस भारी जनाक्रोश के बीच भारत जैसे विशाल देश के तमाम राजनीतिक विश्लेषक इस विषय पर चिंतन-मंथन करने लगे हैं कि क्या यहाँ भी उसी प्रकार के हालात पैदा हो सकते हैं? ये कयास लगाए जाने का कारण केवल यही है कि देश के आमजन आज़ादी के 64 वर्षों बाद भी भयंकर गरीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार, घपलों व घोटालों के शिकार हैं।

माओवाद तथा नक्सलवाद जैसी समस्या बहुत तेज़ी से भारत में अपनी जड़ें गहरी करती जा रही है। इसका कारण भी बढ़ती गरीबी, भूख, बेरोज़गारी तथा शासन व्यवस्था का इन ज़मीनी हकीकतों की तरफ से मुंह मोड़े रखना है। देश की आम जनता भारतीय शासन व्यवस्था की उदासीनता तथा निष्क्रियता के चलते त्राहि-त्राहि कर रही है।

देश के कई हिस्सों में कर्जदार किसानों द्वारा आत्महत्या किए जाने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। गरीब आज भी भूख के चलते दम तोड़ देता है। देश में सर्वोच्च समझी जाने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी  की कहीं भ्रष्टाचारियों द्वारा गोली मारकर तो कहीं जिन्दा   जलाकर हत्या की जा रही है तो कहीं माओवादियों द्वारा उनका अपहरण किए जाने के समाचार प्राप्त हो रहे हैं। भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर विपक्षी दल संसद की कार्रवाई को बाधित करते हैं। मंहगाई इस समय अपने चरम पर है। राजनेता जनता के मध्य अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं।

भारत में चारों ओर ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि आम लोगों का वर्तमान राजनैतिक दलों, राजनेताओं तथा  राजनीतिक व्यवस्था से विश्वास ही उठ रहा  है। आम आदमी को यह कहते सुना जा सकता है कि इस देश में कानून और न्याय का डंडा केवल गरीबों पर ही चलता है,जबकि संपन्न लोग इन सबसे ऊपर या इनसे निपटने में सक्षम नज़र आते हैं।  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह स्वयं इस आशय की स्वीकारोक्ति कर भी चुके हैं।

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम भी यह महसूस कर चुके हैं कि भारतीय जनमानस के चेहरों पर मुस्कुराहट नहीं, बल्कि मायूसी के भाव नज़र आते हैं। ऐसे में यदि कुछ विश्लेषक इस बात की चिंता ज़ाहिर करें कि कहीं मध्य-पूर्व एशियाई देशों अर्थात् मिस्र, टयूनिशिया, लीबिया, यमन जैसे हालात कहीं यहाँ भी पैदा न हो जाएँ तो इसमें बिलकुल भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। नि:संदेह यहाँ की जनता के भीतर भी व्यवस्था को लेकर तथा अपने और अपने परिवार के भविष्य को लेकर उतना ही गुस्सा व चिंता व्याप्त है जितनी कि कई मध्य-पूर्व एशियाई देशों में देखी जा रही है। बावजूद इसके कि हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा एवं सफल लोकतांत्रिक देश माना जाता है।

भला हो हमारे संविधान निर्माताओं का जिन्होंने देश की राजनैतिक प्रणाली तथा भारतीय संविधान के साथ राजनैतिक व्यवस्था के समन्वय का ऐसा ताना-बाना रचा है जिसके परिणामस्वरूप राजनैतिक तौर पर पूरे देश की जनता एक-दो नहीं बल्कि सैकड़ों राजनैतिक दलों,विचारधाराओं, वर्गों, क्षेत्रों आदि में विभाजित हो गई है। भारतीय सेना के गठन का ढांचा भी कुछ ऐसा ही पेंचीदा  है कि हमारे शासक सेना के अनुशासन और इसके वर्गीकरण का पूरा लाभ उठाते हुए सेना की ओर से पूरी तरह बेफ़िक्र रहकर अपना राजपाट चला सकते हैं।

दूसरी तरफ लोकतंत्र की ज़मीनी हकीकतों पर पर्दा डालते हुए हमारे शासक दुनिया को बार-बार यह बता कर अपनी पीठ स्वयं भी थपथपाते रहते हैं कि हमारा देश दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे आदर्श लोकतंत्र है। इन शासकों तथा वर्तमान शासन व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों को इस वास्तविकता की अनदेखी हरगिज़ नहीं करनी चाहिए कि मनुष्य सबकुछ एक सीमा तक सहन कर सकता है। भय, भूख, गरीबी तथा अपने बच्चों के भविष्य के प्रति अनिश्चितता का वातावरण जागरुक समाज अधिक दिनों तक सहन नहीं कर सकता।

यदि भारत के विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का भ्रम दुनिया में बनाए रखना है तो आम लोगों की आम ज़रूरतों तथा उनकी आम परेशानियों से यथाशीघ्र रूबरू होना तथा उनका समाधान करना ही होगा। अन्यथा परिवर्तन की यह बयार कब किस देश की व्यवस्था की चूलें हिला बैठे,कुछ नहीं कहा जा सकता।




लेखक हरियाणा साहित्य अकादमी के भूतपूर्व सदस्य और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मसलों के प्रखर टिप्पणीकार हैं.उनसे tanveerjafri1@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.