Jan 24, 2016

तुम किसके पक्ष में हो प्यारे

अजय प्रकाश 
तुम दलितों के पक्ष में नहीं हो कि वह आरक्षण चाहते हैं,
तुम मुसलमानों का पक्ष नहीं लेते कि वह देश हड़पना चाहते हैं,
तुम पिछड़ों को नहीं चाहते कि वह क्रीमी लेयर का मजा ले रहे हैं,
तुम आदिवासियों को नहीं चाहते कि वह असभ्य हैं,
तुम औरतों को नहीं चाहते कि वह तुम्हारे लिए इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती हैं,
तुम बच्चों को भी नहीं चाहते कि वह आबादी बढ़ा रहे हैं
अलबत्ता तुम मनुष्यता को भी नहीं चाहते कि उसे तुमने अवसरवादी घोषित कर रखा है !
तुम चाहते क्या हो प्यारे,
तुम किसके पक्ष में हो,
कौन है तुम्हारी घोषित चाहत !
आज तुम खुद ही बताओ
पूरा खुलकर
हो सके तो मुनादी कराओ
पर बताओ जरूर
हम भी देखें !
तुम्हारी कैसी कायनात है
जिसमेें मनुष्य नहीं
सिर्फ सवर्ण रहते हैं...

आवाज सुनाने के लिए छात्र ने की आत्महत्या

हैदराबाद विश्वविद्यालय का छात्र और उसके साथी जबतक आंदोलन में थे, देश में उनकी कोई चर्चा नहीं थी। उनके समर्थन में आंदोलनों का कोई सिलसिला होता नहीं दिख रहा था और न ही सोशल मीडिया पर खबर ट्रेंड कर रही थी। आज भी उनमें से जो चार बचे हुए हैं, उनकी कोई चर्चा नहीं है, सिवाय की उन्हें विश्विद्यालय ने बर्खास्तगी निरस्त कर वापस ले लिया है.

क्या अब छात्रों को भी अपनी समस्याओं पर सरकार, समाज और मीडिया का ध्यान दिलाने के लिए आत्महत्या का रास्ता चुनना होगा। 


किसान पहले से ही इस रास्ते पर हैं। मैं आंध्र, विदर्भ और बुंदेलखंड के किसानों के बीच जितनी दफा भी रिपोर्टिंग करने गया हर बार पाया कि आत्महत्या करने वाले किसानों का बहुतायत इसे उपाय के तौर पर लेता है। उन्हें यह रास्ता 'हारे का हरिनाम' जैसा लगता है। 

निराश किसान कभी कर्जमाफी, कभी बैंक की धमकी—बेइज्जती से बचने तो कभी इसलिए आत्महत्या कर लेते हैं कि परिवार को कुछ अनुकंपा राशि मिल जाएगी और दुख थोड़ा कम होे जाएगा। 

आखिर हम देश को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। हमें पूरी ताकत लगाकर इसे रोकना होगा। एक सभ्य समाज के लिए यह सांस लेने जितनी जरूरी शर्त होनी चाहिए। हम कैसे देश हैं, जहां सिर्फ अपनी बात सुनाने के लिए जान देनी पड़ रही है। यह कैसा लोकतंत्र है जहां देश मजबूत और जनता कमजोर हो रही है।

Jul 17, 2012

सोनिया के गुड्डा हैं मनमोहन


जनज्वार. पहले टाइम मैगजीन ने और अब इंग्लैड के एक प्रमुख अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की काबिलियत पर सवाल उठाया है। पिछले दिनों टाइम मैगजीन ने भारत में अर्थशास्त्री के तौर पर प्रचारित हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘अंडरअचीवर’ यानी असफल कहा था, जिस पर देश और दुनिया के स्तर पर काफी प्रतिक्रिया हुई थी। 

अब इंग्लैंड के अखबार ‘द इंडिपेंडेंट’ ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया का ‘गुड्डा’ बताकर भारतीय प्रधानमंत्री की काबिलियत पर दोहरा दाग लगा दिया है। हालांकि अखबार में खबर छपने के बाद दुनिया भर में हो रही चर्चाओं से घबड़ाए अखबार ने अपने वेबसाइट संस्करण से गुड्डा यानी ‘पूडल’ शब्द हटाकर ‘पपेट’ यानी कठपुतलि किया, लेकिन अब वेबसाइट पर ‘अंडरअचीवर’ के तौर पर भारतीय प्रधानमंत्री को रेखांकित किया गया है। 

लेकिन अखबार में छपे लेख को नहीं बदला गया है। ‘मनमोहन सिंह ः सेवियर आॅर सोनियाज पुडल’ यानी ‘मुक्तिदाता या सोनिया के गुड्डा’ लेख में कहा गया है, ‘मनमोहन सिंह की बड़ी मुश्किल यह है कि उनके पास कोई वास्तविक राजनीतिक ताकत नहीं है और उनकी प्रधानमंत्री के तौर पर मौजूदगी सोनिया के कारण बनी हुई है।’ अखबार ने प्रधानमंत्री के मंत्रीमंडल में उनके कमजोर व्यक्तित्व की ओर इशारा करते कहा है, ‘कभी वह अपने कैबिनेट को भी नियंत्रित नहीं कर पाते।’ 

गौरतलब है कि मुख्यधारा की भारतीय मीडिया अपने प्रधानमंत्री के लिए इस तरह की शब्दावलियों के इस्तेमाल से बचती रही है। फैसले न लेने की अक्षमता को लेकर कई मौकों पर  मीडिया ने प्रधानमंत्री की नरम शब्दों में आलोचना रखी है, जबकि उनके ढुलमुल रवैयों से उनके मंत्रीमंडल में दागी मंत्रियों की बहुतायत बनी हुई है। हाल ही में टीम अन्ना ने उनके मंत्रीमंडल को अबतक का सबसे भ्रष्ट मंत्रिमंडल करार दिया है, जिसमें आधे से अधिक मंत्री किसी न किसी भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में हैं। 

देश की प्रमुख विपक्षी दलों से जुड़े कुछ नेताओं ने प्रधानमंत्री के लिए कड़े शब्दों जैसे अक्षम, मुंह ताकने वाला आदि शब्दावलियों का इस्तेमाल किया है। भारत में लोग देश के प्रधानमंत्री को मोम की गुडि़या, रोबोट या सोनिया का स्टांप भी कहते रहे हैं। 

पूरी खबर पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें - 

Aug 12, 2011

बच्चा चुराने वाले आठ सौ गैंग सक्रिय

देश के पैमाने पर औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है।  देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टूकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है...

संजय स्वदेश

अपने बच्चे को चहकते देख हर मां-बाप का मन गदगद हो जाता है। जरा सोचिये, जब यही मासूम दुनिया समझने की होश संभालने से पहले ही लापता हो जाए। क्या बीतती होगी ऐसे लोगों पर। जिस जिगर के टुकड़े को हर मुसीबत से बचाने के लिए लोग दु:खों का पहाड़ झेल लेते हैं, वह एक दिन अचानक गुम होकर नर्क की दुनिया में चला जाता है।

देश लंबा-चौड़ा है। आबादी बड़ी है। संभव हो आपके आसपास कोई ऐसा नहीं मिले, जिसके बच्चे होश दुनिया समझने से पहले गायब हो चुके हो। पर आपको जानकार यह आश्चर्य होगा, लेकिन एक हकीकत यह है कि आज देशभर में करीब आठ सौ गैंग सक्रिय होकर छोटे-छोटे बच्चों को गायब करने के धंधे में लगे हैं। यह रिकार्ड सीबीआई का है। मां-बाप का जिगर का जो टुकड़ा दु:खों की हर छांव से बचता रहता है, वह इस गैंग में चंगुल में आने के बाद एक ऐसी दुनिया में गुम हो जाता है, जहां से न बाप का लाड़ रहता है और मां के ममता का आंचल।

किसी के अंग को निकाल कर दूसरे में प्रत्यारोपित कर दिया जात है, तो किसी को देह के धंधे में झोंक दिया जाता है। कुछ मजदूरी की भेंट चढ़ जाते हैं।  जब देश में करीब 800 गिरोह सक्रिय है कि तो जाहिर है बड़ी संख्या में बच्चे भी गायब होते होंगे। जरा गायब बच्चों का आंकड़ा देखिये। देश के पैमाने पर औसतन हर घंटे में एक बच्चा गायब होता है। मतलब देशभर में चौबीस घंटे में कुल 24 लोगों के जिगर के टूकड़ों को छिन कर जिंदगी के अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। तेज रफ्तार जिंदगी में जब संवेदना से सरोकार दूर होते जा रहे हों,  तक यह पढ़ते हुए शायद ही किसी को आश्चर्य हो कि देश की जो राजधानी अपनी सौवीं वर्षगांठ मना रही हैं, वहीं रोज सात बच्चे लापता हो जाते हैं। भयावह स्थिति यह है कि इनमें से आधे से कम ही बच्चों का पता लग पाता है।

खबरों कहती हैं कि लापता होने वाले बच्चों का इस्तेमाल अंग प्रतिरोपण व्यापार, देह व्यापार और बाल मजदूरी के लिए होता है। उच्चतम न्यायालय ने लापता बच्चों का पता लगाने के लिए विशेष दल का गठन करने की बात कही थी, लेकिन इस बारे में हमारी असंवेदनशील सरकार ने अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाये। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 44,000 बच्चे हर साल लापता हो जाते हैं और उनमें से करीब 11,000 का ही पता लग पाता है।

लापता होने वाले अधिकतर बच्चे गरीब परिवार के होते है । ऐसे परिवार के लोग जब थाने में रिपोर्ट लिखवाने जाते हैं तो पहले उन्हें टरकाया जाता है। यदि रिपोर्ट लिख भी ली जाए तो उन्हें ढूंढ़ने में पुलिस भी लापरवाही बरतती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस घृणित अपराध को रोकने के लिए कई सुझाव दिये। पर सुझाव तो सुझाव होते हैं, आदेश नहीं। जब उच्चतम न्यायालय के आदेश पर अभी तक ठोस कदम नहीं उठे तक भला सरकार इतनी असानी से ऐसे सुझावों को क्यों माननें लगे।

कुछ वर्ष पहले स्लम डॉग मिलेनियर आई थी, तब इस तरह गायब बच्चों की एक दर्दनाक हकीकत से रूपहले परदे पर दिखी। देश में ढेरों-चर्चाएं हुई। मगर कहीं से कोई संवदेना की ऐसी मजबूत आंधी नहीं चली जो एक आंदोलन बन कर सरकार को कटघरे में खड़ी करती।

आपको मजेदार बात बताये, हर दिन हर घंटे गायब होने वाले बच्चों का यह आंकड़ा 11 अगस्त को संसद में शून्य काल के दौरान भाजपा और कांग्रेस के संवेदनशील सदस्यों ने शुन्यकाल में उठाया गया। सदस्य ने सवाल पूछा। सरकार ने जवाब दिया कि वह इसको लेकर गंभीर है। सरकार के जवाब में कहीं नहीं लगा कि मामूसों की तबाह होती जिंदगी में उसका दिल पसीजता भी है। चर्चा दूसरे विषय पर चल पड़ी। न उम्मीद की किरण दिखी न ऐसे मासूमों की रक्षा के लिए सरकार की दृढ़ता। भाजपा के मनसुखभाई वासवा और एस एस रामासुब्बू ऐसे गंभीर सवाल को उठाने के लिए बधाई के पात्र है।

Aug 11, 2011

पुस्तिका बाँट फारिग हुए

एक आयोजन कर दलित मुद्दे पर स्टैंड लिया और सार्वजनिक पुस्तक वितरण किया. अब उस पर सवाल उठ रहे हैं तो उनका जवाब क्यों नहीं दे रहे? मुद्दा सार्वजनिक है तो उसका जवाब सार्वजनिक रूप से देना चाहिए...

राम प्रकाश अनंत

अपनी व्यक्तिगत परेशानियों के चलते और मेरे मोबाइल पर google doc के न खुल पाने के कारण मैं क्रालोस द्वारा प्रकाशित पुस्तिका नहीं पढ़ पाया हूँ, जल्दी ही पढ़ने की कोशिश करूँगा.जनज्वार ने अच्छी बहस शुरू की है. फ़िलहाल मैं सुधीर के लेख 'प्रयोगशाला के क्रांतिवीरो को आरक्षण लगे रोड़ा' पर अपनी कुछ राय रखना चाहता हूँ.

सुधीर का कहना है कि पुस्तिका की 90%बातें सामान्य मार्क्सवादी बातें हैं जिन्हें हर बुद्धिजीवी जानता समझता है. शेष अहमक गाली गलौज जो हर हारा बुद्धिजीवी करता है'.इस पुस्तिका की क्या, मार्क्सवाद पर आज जो तमाम बातें होती हैं उन्हें बुद्धिजीवी जानते समझते हैं फिर भी हमेशा से ये बातें होती रही हैं और आगे होती रहेंगी . 90%बातें सामान्य मार्क्सवादी बातें हैं और आप मार्क्सवाद को मानते हैं तो वे सही ही होंगी.

दलितों के सवाल पर मार्क्सवाद का एक ही स्टैंड हो सकता है. ऐसा नहीं हो सकता कि सामान्य मार्क्सवादी की  बातें सही हों और विशिष्ट मार्क्सवादी की बातें गलत हों. अगर सामान्य मार्क्सवाद के अनुसार 90% बातें सही हों और आपके विशिष्ट मार्क्सवाद के अनुसार वे ग़लत हों तो उसे स्पष्ट कीजिए. या फिर आप सामान्य मार्क्सवाद की ऐसी कोई सूची दीजिए जिस पर बात करना गुनाह है और अपने विशिष्ट मार्क्सवाद को बताइए जिस पर बात होनी चाहिए.

आपने लिखा है कि अकर्मण्य मार्क्सवादी जो राजेंद्र यादव के  साहित्यिक  क़द तक पहुँचना चाहता है...इस चुनौती की स्वीकारोक्ति मात्र ही उसे हिंदी साहित्य जगत की मुख्य धारा तक पहुँचा देती. जय पराजय बाद की बात है'- अगर हंस के पुराने अंक उठाकर देखे जाएं तो पता चलता है कि राजेंद्र यादव ने तमाम लोगों के सावालों को स्वीकारोक्ति दी है, पर वे सामान्य पत्र लेखक या जैसे लेखक हैं वैसे ही लेखक बन पाए.

सुधीर ने कहा है- 'इन संगठनों के शत- प्रतिशत सक्रिय कार्यकर्ता संगठन से सजातीय जीवन साथी तलाशने का अनुरोध करते हैं.' सक्रिय कार्यकर्ताओं की ऐसी माँग कोई संगठन तभी पूरी कर सकता है जब वह एक मैरिज़ ब्यूरो चलाता हो. यह बात इसलिए वाहियात लगती है कि संगठन के जितने लोगों को मैं जानता हूँ उनमें से अधिकांश ने विजातीय शादियां की हैं.

बावजूद इसके मैं मानता हूँ कि किसी संगठन में कुछ खास तरह की जातिवादी प्रवृत्तियां मौजूद हो सकती हैं. दूसरी बात यह है कि यह कोई मामूली बात नहीं है. जब सुधीर संगठन के नेतृत्व करने वालों में खुद थे जिसकी आज वे खुलकर आलोचना कर रहे हैं, तो क्या तब उन्होने यह बात उठाई थी? अगर वह इन मसलों को अपने जिरह में लाये होते तो बेहतर होता.

कुछ समय पहले जनज्वार ने एक अन्य क्रांतिकारी संगठन के बारे में कुछ सवाल उठाए थे. सवाल उठाने वाले ज्यादातर लोग  कैडर स्तर के लोग थे और वे शीर्ष नेतृत्व पर आरोप लगा रहे थे, जो सही था. लेकिन  यहाँ वह (सुधीर) व्यक्ति संगठन पर आरोप लगा रहा है जो स्वयं शीर्ष नेतृत्व में शामिल रहा है. आरोप भी ऐसे जो प्रथम दृष्टया निकृष्ट लगते हैं.

मैं क्रालोस और इंकलाबी मजदूर केंद्र  के नेताओं से भी यह पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने एक आयोजन कर दलित मुद्दे पर स्टैंड लिया और सार्वजनिक पुस्तक वितरण किया. अब उस पर सवाल उठ रहे हैं तो उनका जवाब क्यों नहीं दे रहे? मुद्दा सार्वजनिक है तो उसका जवाब सार्वजनिक रूप से देना चाहिए. अगर यह मंच उन्हें जवाब के लायक नहीं लगता तो जहाँ उचित लगे वहाँ जवाब देना चाहिए. या आपने  यह मान लिया कि  पुस्तिका बाँट दी और बात फाइनल.

मैं यह भी कहना चहता हूँ कि क्रांति के लिए वस्तुगत परिस्थितियाँ महत्वपूर्ण होती हैं परंतु संगठन के शीर्ष नेतृत्व की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. इस बात को यह कह कर टाल देना भी ठीक नहीं होगा कि परिस्थितियां स्वयं नेतृत्व पैदा कर लेती हैं. इसलिए संगठनों को आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है.

आप दहेज और कर्मकाण्ड का विरोध करते हैं तो इस बात पर भी गहरी नज़र रखें कि कार्यकर्ता सचेतन शादी विवाह के मामले में जातिवादी तो नहीं हैं. नेतृत्व से जुड़े लोगों पर तो विशेष रूप से नज़र रखी जानी चाहिए.जो भी निष्कर्ष निकालें उसके बारे में अच्छी तरह व्यवहारिक तरीके से सोच लें. मैं कोई नसीहत नहीं दे रहा हूँ एक सुझाव मात्र रख रहा हूँ.

प्रधानमंत्री धृतराष्ट्र तो नहीं



सरकार पर दवाब बनाया जाता है तो प्रधानमंत्री महोदय को जनता की मांग गैर-संवैधानिक नज़र आने लगती है और जनता का प्रयास समानांतर सरकार चलाने की उद्दंडता...

पीयूष पन्त
 

हमारे प्रधानमंत्री महोदय को सवालिया संस्कृति नहीं भाती. तभी तो जब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी यूपीए सरकार के मंत्रियों के भ्रष्ट  आचरण को लेकर मीडिया में सवाल उठाये जाते हैं या फिर नागरिक समाज द्वारा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने  के लिए जनता के सरोकारों को समाहित करने वाले जन लोकपाल विधेयक को संसद द्वारा शीघ्र पास कराने की खातिर सरकार पर दवाब बनाया जाता है तो प्रधानमंत्री महोदय को जनता की मांग गैर-संवैधानिक नज़र आने  लगती है और जनता का प्रयास समानांतर सरकार चलाने की उद्दंडता .

जब सरकार शासन चला पाने में असमर्थ दिखाई दे रही हो तो मीडिया और जनता द्वारा उसकी खिंचाई करना और सरकार पर सुसाशन का दबाव डालना पूरी तरह से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है. अब प्रधानमंत्रीजी की समझ का क्या किया जाये कि उन्हें लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएँ पुलिसिया राज का आगाज़ करती दिखाई देती हैं. जबकि सच तो यह है की उनकी अपनी सरकार की यूआईडी कार्ड बनाना, जनता से धरना-प्रदर्शन स्थलों को लगातार छीनते चले जाना, आदिवासी-किसानों द्वारा अपने जंगल-ज़मीन बचाने की खातिर आन्दोलन करने को देशद्रोह बता उन पर लाठी-गोली बरसाना और उनके मुद्दों को उठाने वाले पत्रकारों को माओवादी करार दे फर्जी मुठभेड़ में मार देना सरीखी कारगुजारियां देश को पुलिस राज में तब्दील कर चुकी हैं. 

धृतराष्ट्र तो वाकई अंधे थे, लेकिन हमारे  प्रधान मंत्री जान-बूझ कर अंधे होने का नाटक क्यों कर रहे हैं, या फिर देशी-विदेशी कर्पोरेटेस  ने उन्हें ऐसा चश्मा पहना दिया है जिसके चलते उन्हें कोर्पोरेट हितों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता है. जन कवि बाबा नागार्जुन की निम्न पंक्तियाँ आज रह-रह कर याद आती हैं...

 
                        खड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक  
                        नभ में विपुल विराट-सी शासन की बन्दूक 
                        उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
                        जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक
                        बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
                        धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बन्दूक
                        सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक 
                        जहां तहां दगने लगी शासन की बन्दूक
                        जली ठूंठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
                        बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक                                                           

राजा बैठे हैं सिंहासन पर !


 कवि गोपाल सिंह नेपाली की जन्मशती पर आज विशेष  

हिंदी में कई ऐसे ओजस्वी कवि हैं जिनकी कालजयी रचनाओं के बावजूद कालांतर में उन्हें भूला दिया गया। गोपाल सिंह नेपाली भी उन्हीं में से एक हैं, जिनकी आज ११ अगस्त को जन्मशती है.
महज 23वर्ष की आयु में अपनी प्रखर काव्य रचना से लोहा मनवाने वाले नेपाली ने जब काशी नगर प्रचारिणी सभा की ओर से आयोजित द्विवेदी अभिनंदन समारोह में कविता पाठ किया तो रातों रात उनका नाम चर्चित हो गया।

गोपाल सिंह नेपाली राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, नागार्जुन और महादेवी वर्मा जैसे बड़े  हिंदी साहित्यकारों  और कवियों के समकालीन थे। आजादी के आंदोलन को लेकर उन्होंने कई रचनाएं कीं। नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 को पश्चिम चंपारण जिले के बेतिया में कालीबाग दरबार में हुआ था। वह अपनी रचनाओं के कारण गीतों के राजकुमार के रूप में लोकप्रिय हुए। कवि की भतीजी और साहित्यकार सविता सिंह नेपाली ने बताया कि उनकी  उपेक्षा का आलम यह है कि डैनी बोयेल निर्देशित आठ आस्कर पुरस्कारों की झड़ी लगाने वाली 2009की फिल्म स्लमडाग मिलेनियर के गीत ‘दर्शन दो घनश्याम नाथ मेरे...’ नेपाली की रचना थी, लेकिन श्रेय किसी और को गया। 

सविता ने बताया कि कुछ समकालीन कवियों की तरह सत्ता पक्ष का गुणगान नहीं करने के कारण यथार्थवादी कवि के लिए उस समय का साहित्यिक माहौल अनुकूल नहीं रहा।

सविता ने बताया कि गोपाल सिंह आत्मसम्मान के लिए जीते थे और उन्हें पद की लोलुपता नहीं थी। वह किसी के कृपापात्र नहीं बनना चाहते थे जो भी लिखा देश के लिए लिखा। अपनी कलम की स्वाधीनता तथा आत्मसम्मान पर कवि ने लिखा है,जिससे पता चलता है कि तुच्छ लाभ के लिए उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

उन्होंने लिखा-

राजा बैठे हैं सिंहासन पर

ताजों पर है आसीन कलम

मेरा धन है स्वाधीन कलम

तुझसा लहरों में बह लेता

तो मैं भी सत्ता गह लेता

ईमान बेचता चलता तो

मैं भी महलों में रह लेता

नेपाली की रग-रग में देश प्रेम और बिहार की जनता के प्रति समर्पण भरा था। वह बिहारवासियों की तकलीफ को शब्दों में पिरो देते थे। वर्ष 1934 में बिहार में आये भीषण भूकंप की भयावहता को अपनी कलम के माध्यम से नेपाली ने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-

सुन हिली धरा डोली दुनिया,

भवसागर में डगमग बिहार

वैशाली, मिथिला, जब उजड़ी

तब उजड़ गया लगभग बिहार

है यह व्यर्थ प्रश्न यह कौन मरा

जब बालू ही से कुआं भरा

गिर पड़े भवन, उलटी नगरी

फट गयी हमारी वसुंधरा

नेपाली ने 1932में आजादी के जोशो जुनून में हिंदी में प्रभात तथा अंग्रेजी में मुरली नामक हस्तलिखित पत्रिकाएं चलाई। उनकी प्रमुख कृतियां उमंग (1933), पंछी (1934), रागिनी (1935), पंचमी (1942), नवीन (1944), नीलिमा (1945) हैं।

गोपाल सिंह समसामयिक माहौल पर बहुत पकड़ रखते थे। दिसंबर 1931में लंदन में गांधी जी के गोलमेज सम्मेलन वार्ता पर उन्होंने लिखा।

उजलों के काले दिल पर

तूने सच्चा नक्शा खींचा

उजड़ा लंकासायर अपने

गीले आंसू से सींचा

गोपाल सिंह नेपाली प्रेम, प्रकृति, व्रिदोह, राग, आग, भक्ति और सौंदर्य के प्रखर गीतकार रहे हैं। साहित्य के तथाकथित ठेकेदारों ने उन्हें फिल्म गीतकार कहकर साहित्य के मंदिर से बाहर रखने की कोशिश की। इसका एक खामियाजा यह हुआ कि सर्वसुलभ कवि की कृतियां अब व्यापक पैमाने पर सुलभ नहीं हैं।

भागलपुर स्टेशन पर 17 अप्रैल 1963 में गोपालसिंह नेपाली का असामयिक निधन हो गया। सविता बताती हैं कि उन्हें जहर देकर मारा गया था क्योंकि पूरा शरीर नीला पड़ गया था। कवि का पोस्टमार्टम तक नहीं होने दिया गया जबकि परिजनों ने पुरजोर मांग की थी।

कवि के शब्दों में

तलवार उठा लो तो बदल जाए नजारा, 40 करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।’’

सेना के जवानों का हौंसला बढाने के लिए उन्होंने लिखा।

आज चलो मर्दानों भारत की लाज रखो

लद्दाखी वीरों के मस्तक पर ताज रखो।

उन्होंने कहा कि बिहार की धरती के लाल की सौवीं जयंती सरकार को मनानी चाहिए थी,लेकिन महकमे को याद भी नहीं कि 100 वर्ष पहले कोई लेखनी का वीर यहां अवतरित हुआ था।

Aug 10, 2011

नए फॉर्म में जनज्वार डॉट कॉम


दोस्तो,    

आपके प्यार और लगाव ने हमें बढ़ते रहने का साहस दिया है और चुनौतियों से लड़ते रहने का जज्बा भी. उसी साहस का नतीजा है कि  जनज्वार, ब्लॉग से वेबसाइट के पड़ाव पर  अगले कुछ  दिनों में पहुँचने जा रहा है.  ब्लॉग से वेबसाइट तक पहुंचने के इस  चार साल के सफ़र में हम जनज्वार के पाठकों का तहेदिल से शुक्रिया करना चाहते हैं जिन्होंने इसे इस मुकाम तक पहुंचाया.

दोस्तो !  हम केवल अपना  फार्म बदल रहे हैं, तेवर नहीं. जनज्वार अब तक जिस तेवर के साथ आपके सामने रहा है, हम उसे न केवल बनाए रखेंगे बल्कि और धारदार बनाने की कोशिश करेंगे. नए रूप में हमारी कोशिश रहेगी  कि जनज्वार लगातार आपके बीच उन ख़बरों को भी लाता रहे, जिन्हें अखबार और टीवी चैनल ‘आउट ऑफ फैशन’ मानते है.

पत्रकारिता का हमारा उद्देश्य पाठकों को प्रभावित करना नहीं है, बल्कि उन्हें अपना फैसला लेने में सहयोग करना है. हमें पूरी उम्मीद है कि आपने हमें जो प्यार और खुलूस  बख्शा है वह बदस्तूर जारी रहेगा. इसी  उम्मीद के साथ....

सादर
जनज्वार टीम