Aug 11, 2011

राजा बैठे हैं सिंहासन पर !


 कवि गोपाल सिंह नेपाली की जन्मशती पर आज विशेष  

हिंदी में कई ऐसे ओजस्वी कवि हैं जिनकी कालजयी रचनाओं के बावजूद कालांतर में उन्हें भूला दिया गया। गोपाल सिंह नेपाली भी उन्हीं में से एक हैं, जिनकी आज ११ अगस्त को जन्मशती है.
महज 23वर्ष की आयु में अपनी प्रखर काव्य रचना से लोहा मनवाने वाले नेपाली ने जब काशी नगर प्रचारिणी सभा की ओर से आयोजित द्विवेदी अभिनंदन समारोह में कविता पाठ किया तो रातों रात उनका नाम चर्चित हो गया।

गोपाल सिंह नेपाली राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, नागार्जुन और महादेवी वर्मा जैसे बड़े  हिंदी साहित्यकारों  और कवियों के समकालीन थे। आजादी के आंदोलन को लेकर उन्होंने कई रचनाएं कीं। नेपाली का जन्म 11 अगस्त 1911 को पश्चिम चंपारण जिले के बेतिया में कालीबाग दरबार में हुआ था। वह अपनी रचनाओं के कारण गीतों के राजकुमार के रूप में लोकप्रिय हुए। कवि की भतीजी और साहित्यकार सविता सिंह नेपाली ने बताया कि उनकी  उपेक्षा का आलम यह है कि डैनी बोयेल निर्देशित आठ आस्कर पुरस्कारों की झड़ी लगाने वाली 2009की फिल्म स्लमडाग मिलेनियर के गीत ‘दर्शन दो घनश्याम नाथ मेरे...’ नेपाली की रचना थी, लेकिन श्रेय किसी और को गया। 

सविता ने बताया कि कुछ समकालीन कवियों की तरह सत्ता पक्ष का गुणगान नहीं करने के कारण यथार्थवादी कवि के लिए उस समय का साहित्यिक माहौल अनुकूल नहीं रहा।

सविता ने बताया कि गोपाल सिंह आत्मसम्मान के लिए जीते थे और उन्हें पद की लोलुपता नहीं थी। वह किसी के कृपापात्र नहीं बनना चाहते थे जो भी लिखा देश के लिए लिखा। अपनी कलम की स्वाधीनता तथा आत्मसम्मान पर कवि ने लिखा है,जिससे पता चलता है कि तुच्छ लाभ के लिए उन्होंने कभी समझौता नहीं किया।

उन्होंने लिखा-

राजा बैठे हैं सिंहासन पर

ताजों पर है आसीन कलम

मेरा धन है स्वाधीन कलम

तुझसा लहरों में बह लेता

तो मैं भी सत्ता गह लेता

ईमान बेचता चलता तो

मैं भी महलों में रह लेता

नेपाली की रग-रग में देश प्रेम और बिहार की जनता के प्रति समर्पण भरा था। वह बिहारवासियों की तकलीफ को शब्दों में पिरो देते थे। वर्ष 1934 में बिहार में आये भीषण भूकंप की भयावहता को अपनी कलम के माध्यम से नेपाली ने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-

सुन हिली धरा डोली दुनिया,

भवसागर में डगमग बिहार

वैशाली, मिथिला, जब उजड़ी

तब उजड़ गया लगभग बिहार

है यह व्यर्थ प्रश्न यह कौन मरा

जब बालू ही से कुआं भरा

गिर पड़े भवन, उलटी नगरी

फट गयी हमारी वसुंधरा

नेपाली ने 1932में आजादी के जोशो जुनून में हिंदी में प्रभात तथा अंग्रेजी में मुरली नामक हस्तलिखित पत्रिकाएं चलाई। उनकी प्रमुख कृतियां उमंग (1933), पंछी (1934), रागिनी (1935), पंचमी (1942), नवीन (1944), नीलिमा (1945) हैं।

गोपाल सिंह समसामयिक माहौल पर बहुत पकड़ रखते थे। दिसंबर 1931में लंदन में गांधी जी के गोलमेज सम्मेलन वार्ता पर उन्होंने लिखा।

उजलों के काले दिल पर

तूने सच्चा नक्शा खींचा

उजड़ा लंकासायर अपने

गीले आंसू से सींचा

गोपाल सिंह नेपाली प्रेम, प्रकृति, व्रिदोह, राग, आग, भक्ति और सौंदर्य के प्रखर गीतकार रहे हैं। साहित्य के तथाकथित ठेकेदारों ने उन्हें फिल्म गीतकार कहकर साहित्य के मंदिर से बाहर रखने की कोशिश की। इसका एक खामियाजा यह हुआ कि सर्वसुलभ कवि की कृतियां अब व्यापक पैमाने पर सुलभ नहीं हैं।

भागलपुर स्टेशन पर 17 अप्रैल 1963 में गोपालसिंह नेपाली का असामयिक निधन हो गया। सविता बताती हैं कि उन्हें जहर देकर मारा गया था क्योंकि पूरा शरीर नीला पड़ गया था। कवि का पोस्टमार्टम तक नहीं होने दिया गया जबकि परिजनों ने पुरजोर मांग की थी।

कवि के शब्दों में

तलवार उठा लो तो बदल जाए नजारा, 40 करोड़ों को हिमालय ने पुकारा।’’

सेना के जवानों का हौंसला बढाने के लिए उन्होंने लिखा।

आज चलो मर्दानों भारत की लाज रखो

लद्दाखी वीरों के मस्तक पर ताज रखो।

उन्होंने कहा कि बिहार की धरती के लाल की सौवीं जयंती सरकार को मनानी चाहिए थी,लेकिन महकमे को याद भी नहीं कि 100 वर्ष पहले कोई लेखनी का वीर यहां अवतरित हुआ था।

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