सरकार पर दवाब बनाया जाता है तो प्रधानमंत्री महोदय को जनता की मांग गैर-संवैधानिक नज़र आने लगती है और जनता का प्रयास समानांतर सरकार चला ने की उद्दंडता...
पीयूष पन्त
हमारे प्रधानमंत्री महोदय को सवालिया संस्कृति नहीं भाती. तभी तो जब भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी यूपीए सरकार के मंत्रियों के भ्रष्ट आचरण को लेकर मीडिया में सवाल उठाये जाते हैं या फिर नागरिक समाज द्वारा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए जनता के सरोकारों को समाहित करने वाले जन लोकपाल वि धेयक को संसद द्वारा शीघ्र पास कराने की खातिर सरकार पर दवाब बनाया जाता है तो प्रधानमंत्री महोदय को जनता की मांग गैर-संवैधानिक नज़र आने लगती है और जनता का प्रयास समानांतर सरकार चला ने की उद्दंडता .
जब सरकार शासन चला पाने में असमर्थ दिखाई दे रही हो तो मीडिया और जनता द्वारा उसकी खिंचाई करना और सरकार पर सुसाशन का दबाव डालना पूरी तरह से लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का हिस्सा होता है. अब प्रधानमंत्रीजी की समझ का क्या किया जाये कि उन्हें लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएँ पुलिसिया राज का आगाज़ करती दिखाई देती हैं. जबकि सच तो यह है की उनकी अपनी सरकार की यूआईडी कार्ड बनाना, जनता से धरना-प्रदर्शन स्थलों को लगाधृतराष्ट्र तो वाकई अंधे थे, लेकिन हमारे प्रधान मंत्री जान-बूझ कर अंधे होने का नाटक क्यों कर रहे हैं, या फिर देशी-विदेशी कर्पोरेटेस ने उन्हें ऐसा चश्मा पहना दिया है जिसके चलते उन्हें कोर्पोरेट हितों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं देता है. जन कवि बाबा नागार्जुन की निम्न पंक्तियाँ आज रह-रह कर याद आती हैं...
खड़ी हो गयी चांपकर कंकालों की हूक
नभ में विपुल विराट-सी शासन की बन्दूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक
जिसमें कानी हो गयी शासन की बन्दूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक
धन्य- धन्य वह, धन्य वह, शासन की बन्दूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक
जहां तहां दगने लगी शासन की बन्दूक
जली ठूंठ पर बैठ कर गयी कोकिला कूक
बाल न बांका कर सकी शासन की बन्दूक
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