Jun 14, 2011

सुलगती हुई ज़मीन


सरकार के सामने जब क्योतो प्रोटोकॉल के नियमों के कारण अड़चन पैदा हुई तो उसने जन सुनवाई का रास्ता अख्तियार किया, ताकि सहदेव विहार में जिंदल ग्रुप के कचरा बिजली उत्पादन केंद्र को लगवाने का रास्ता साफ हो सके...

अजय प्रकाश

जमीन अधिग्रहण के खिलाफ देश में व्यापक होते विरोध को देखते हुए अब सरकार संसद के अगले मानसून सत्र में सन् 1894 से चले आ रहे अंग्रेजों के जमाने के भूमि अधिग्रहण विधेयक को नया प्रारूप देने जा रही है। नये प्रारूप को लेकर सोनिया गांधी के अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद (एनएसी) की ओर से कई सुझाव केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख को लगातार पहुंच रहे हैं, जिससे उन्हें लोक कल्याणकारी भूमि अधिग्रहण कानून बनाने में सहूलियत हो। इन सुझावों में जमीन मालिकों को नीलामी दर से छह गुना कीमत दिये जाने, ग्राम सभा को निर्णायक अधिकार देने और 75 फीसद प्रभावितों की सहमति के बाद ही अधिग्रहण की अनुमति जैसे मुद्दों को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

भूमि अधिग्रहण मामलों में एनएसी कार्यसमूह के संयोजक हर्ष मंदर के शब्दों में कहें तो "सरकार ने अधिग्रहण में अगर उपर्युक्त तीनों प्रावधान शामिल कर लिये तो इस कानून में एक गुणात्मक परिवर्तन होगा।' सरकार और उसके सहयोगी अधिग्रहण कानून को किस रूप में लागू करेंगे, यह तो आने वाले सत्र में पता चलेगा, लेकिन पहले से मौजूद कानूनों में जनता की भागीदारी कितनी हो पा रही है, उसे देखने पर कुछ और ही कहानी सामने आती है।


 
ताजा मामला झारखंड के सिंहभूमि जिले का है, जहां 26 मई को जादूगोड़ा इलाके में भाटिन यूरेनियम माइंस के बीस साल पूरे होने पर एक्सटेंसन के लिए एक जन सुनवाई हुई। यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (यूसीआइएल) के अधिकारियों ने क्षेत्र में माइक से प्रचार किया कि सुनवाई स्थानीय फुटबाल मैदान में होगी, लेकिन जन सुनवाई कॉरपोरशन कर्मचारियों के कॉलोनी में हुई।


सुनवाई के दौरान ग्रामीणों, मीडिया और जनांदोलनों से जुड़े लोगों ने जाने का प्रयास किया तो सुरक्षा बलों और निजी गार्डों ने उन्हें रोक दिया। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से जन सुनवाई पूरी हो गयी। साथ ही 29 वर्ष और कंपनी के लीज को बढ़ाने का फैसला बगैर प्रभावितों की सहमति के ले लिया गया।

गौरतलब है कि यह एकतरफा फैसला एजेंसी क्षेत्र में लिया गया जो पहले से ही पेसा ऐक्ट के तहत आता है, जहां ग्राम सभा और लोगों की सहमति से ही अधिग्रहण या कंपनी चलाने का अंतिम निर्णय होता है। झारखंड आर्गेनाइजेशन अगेंस्ट यूरेनियम के संयोजक जगत मांडी कहते हैं, "यह बर्ताव तब किया गया जब इस क्षेत्र में नयी कंपनी नहीं बनानी थी बल्कि एक्सटेंशन लेना था। अधिग्रहण और विस्थापन तो पहले ही हो चुका था।'

यह अंधेरगर्दी सिर्फ आदिवासी इलाकों में ही नहीं है, बल्कि इसकी चपेट में दिल्ली जैसे शहर भी हैं। दिल्ली में कचरे से बिजली पैदा करने पर तुली सरकार के सामने जब क्योतो प्रोटोकॉल के नियमों के कारण अड़चन पैदा हुई तो उसने जनसुनवाई का रास्ता अख्तियार किया ताकि सहदेव विहार में जिंदल ग्रुप के कचरा बिजली उत्पादन केंद्र को लगवाने का रास्ता साफ हो सके।

टॉक्सिक वाच संस्था के गोपाल कृष्ण कहते हैं, "कचरा से बिजली पैदा करने के दिल्ली में हो चुके असफल प्रयोगों के बावजूद सरकार नहीं मानी तो उसने केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड को इस काम में लगाया, जिसने सिर्फ दो कर्मचारियों के हस्ताक्षर वाली जनसुनवाई करके संयंत्र लगाने की मंजूरी दे दी। सरकार की इस धूर्तता की जानकारी हमें सूचना अधिकार कानून की मदद से मिली।'

देश के दो हिस्सों के ये दो उदाहरण यह बताने के लिए काफी हैं कि पहले से बने कानूनों पर अमल की क्या स्थिति है। हालांकि एनएपीएम से जुड़े भूमि अधिग्रहण प्रतिरोध आंदोलन के संयोजक रूपेश वर्मा को अधिग्रहण कानून में हो रहे बदलावों में किसानों के लिए कुछ राहत दिखती है। उनके मुताबिक, "जो अधिकार अबतक जिलाधिकारी के हाथ में बंद थे, वे ग्रामसभा को मिलेंगे तो जमीनों की अबाध लूट की रफ्तार थमेगी।'

एनएपीएम से जुड़ी मेधा पाटकर भी अधिग्रहण कानून में होने जा रहे बदलावों को सकारात्मक रूप में देखती हैं। एनएसी की अरुणा राय के अनुसार, "सरकार अगर सार्वजनिक क्षेत्र के लिए जमीन लेगी तो व्यापक विचार विमर्श होगा और निजी अधिग्रहण के लिए 75 फीसद प्रभावितों की लिखित मंजूरी अनिवार्य होगी।'

सरकार अपनी जरूरतों के लिए किस तरह जमीन अधिग्रहण कर रही है, इसका एक उदाहरण न्यूक्लीयर पॉवर कॉरपोरशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एनसीपीआइएल) की ओर से हरियाणा के फतेहाबाद जिले के कुम्हारिया न्यूक्लियर पॉवर प्रोजेक्ट के खातिर अधिगृहित की जा रही जमीन का मामला है। फतेहाबाद कलेक्ट्रट पर पिछले एक वर्ष से किसान संघर्ष समिति जमीन होने वाले कब्जे के विरोध में धरना दे रही है। अबतक धरना स्थल पर आने वाले दो किसानों की मौत भी हो चुकी है।

समिति के अध्यक्ष हंसराज सिवाच कहते हैं, "हम लोग हस्ताक्षर करके कितनी बार प्लांट के लिए जमीन नहीं देने की बात कह चुके हैं। जापान में आई सूनामी के बाद परमाणु संयंत्रों से रिसाव की घटना के बाद तो बिल्कुल भी नहीं। फिर भी सरकार जिद पर कायम है।' हरियाणा की इस छवि के उलट फिक्की ने भूमि अधिग्रहण को लेकर हरियाणा को मॉडल के रूप में पेश किया है।

फिक्की के नवनियुक्त महासचिव ने भूमि अधिग्रहण के बारे में राय है कि "हम प्राकृतिक संसाधनों की ऑनलाइन नीलामी और अधिग्रहण के हरियाणा मॉडल अपनाने के पक्ष में हैं।' महासचिव के मुताबिक, हरियाणा में परियोजनाओं के लिए कंपनियां सीधे किसानों से 70 फीसद जमीन खरीदती हैं और सरकार मात्र 25 प्रतिशत जमीन पर कब्जा कर परियोजना के लिए कंपनी को हस्तांरित करती है। इसके अलावा हरियाणा के उन जिलों में जो एनसीआर जोन में आते हैं वहां 33 साल तक प्रति एकड़ 15 हजार रुपये के हिसाब से जमीन मालिक को देने और प्रभावित परिवारों को नौकरी देने का प्रावधान है।

इस बारे में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री विलासराव देशमुख का कहना है कि "नये अधिग्रहण कानून में निजी मालिकान और सरकार की जमीन मालिक से सीधी खरीद का औसत 70 20 का रखें या 80 20, का अभी इस पर सहमति बननी बाकी है।' फिक्की महासचिव के दावे के बरक्स किसानों के पक्ष को देखें तो दोनों मेल नहीं खाते। हरियाणा के अंबाला जिले में बन रहे "मॉडर्न इंडस्ट्रियल टाउनशिप' के लिए अधिग्रहीत की जा रही 280 एकड़ जमीन को लेकर मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा का दावा है कि इसकी मंजूरी एक लाख किसानों ने हस्ताक्षर के जरिये दी है, लेकिन किसान संघर्ष समिति बाखालसा ने इसे फर्जीवाड़ा करार दिया है।

अधिग्रहण को लेकर दूसरा विवाद सोनीपत राजीव गांधी एजुकेशन सिटी को लेकर है। 2006 में अधिग्रहीत की गयी इस इलाके की भूमि के बारे में सरपंच ओम सिंह कहते हैं, "सरकार को हमने पूरी जमीन देने का वायदा कभी नहीं किया था, इसलिए एक भी किसान ने अधिग्रहण के बदले आज तक मुआवजा नहीं लिया है।' जमीन अधिग्रहण के विशाल क्षेत्रों में खनन के वे क्षेत्र भी हैं जहां लोग लगातार अपने जल, जंगल और जमीन से उजड़ने को मजबूर हैं। उजड़ने का खौफ और पूंजीपतियों को सुविधा देने वाले अधिग्रहण कानूनों की वजह के किसान-आदिवासी विद्रोह कर रहे हैं और माओवादी प्रभाव क्षेत्रों को मजबूती दे रहे हैं। इसके बावजूद सरकार अधिग्रहण नीतियों को बदलने को तैयार नहीं दिखती है।

हाल ही में योजना आयोग के अध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया ने खनन क्षेत्रों की रॉयल्टी बढ़ाये जाने के सवाल पर कहा है कि "खनन का धंधा बड़े निवेश और जोखिम का है। खनन कंपनियों के मुनाफे में स्थानीय लोगों की भागीदारी से विदेशी निवेशक बिदक जायेंगे और निवेश के भविष्य पर भी खतरा उत्पन्न हो जायेगा।' खनन के लिए विशेष जोन के रूप में ख्यात छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नया अतिक्रमण भारतीय सेना अपना ट्रेनिंग कैंप खोलकर करने जा रही है। एजेंसी एरिया का यह क्षेत्र, जो कि पेसा कानून के तहत आता है, अब तक हुए इस अधिग्रहण की जरूरतों से बेमेल है। सेना ट्रेनिंग स्कूल के लिए सरकार अबूझमाड़ में 4 हजार वर्ग मीटर जमीन का अधिग्रहण करने जा रही है हालांकि इसके लिये स्थानीय आदिवासियों से कोई सहमति नहीं ली गयी।

अबूझमाड़ क्षेत्र में सेना के कैंप बनाये जाने का कारण यह है कि माओवादी इलाका है, जहां सरकारी तंत्र काम नहीं करता। माओवादियों से निपटने के इस नये तरीके पर इस क्षेत्र के जानकार और पूर्व कमीश्नर बीडी शर्मा दो स्तरों पर चिंता जाहिर करते हैं। पहली बात यह कि "जो आदिवासी भाषा ही नहीं समझेंगे, उनके जमीन का अधिग्रहण सरकार कैसे करेगी? दूसरी बात यह कि अंडमान के उदाहरण को देखें तो अंग्रेजों के समय की अठारह जनजातियों में से वे ज्यादातर जनतातियां खत्म हो गयीं जो बाहरियों के संपर्क में आयीं।'

गांधीवादी कार्यकर्ता हिमांशु कुमार कहते हैं, "अगर सेना अबूझमाड़ के क्षेत्र में अधिग्रहण कानूनों को ताक पर रखकर प्रशिक्षण केंद्र बनाने में सफल हो भी जाती है तो यह एक ऐसा आत्मघाती कदम होगा जिसमें सुरक्षा बलों और आदिवासियों की पीढ़ियां एक दूसरे का खून बहाती रहेंगी।'

मानसून सत्र में पेश होने जा रहे अधिग्रहण कानून के विचार से किसी को ऐतराज नहीं होगा क्योंकि अंग्रेजी शासन काल से चले आ रहे अधिग्रहण कानून में लोकतंत्र की मूल भावना के मुताबिक बदलाव जरूरी है। लेकिन सवाल यह है कि किसानों- आदिवासियों के प्रतिनिधियों के भागीदारी के बगैर जो प्रस्ताव तैयार हुआ है उससे कोई ऐसा जमीन अधिग्रहण कानून कैसे बना सकता है, जिसके के बाद इन तबकों में रोष न हो।



द पब्लिक एजेंडा से साभार.



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